बेकन-विचाररत्नावली/१३ शिष्टाचार और मान

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शिष्टाचार और मान १३.

तिष्ठतां[१] तपसि पुण्यमासृजन् सम्पदोऽतुगुणयन्सुखैषिणाम्।
योगिनां परिणमन्विमुक्तये केन नास्तु विनयः सतांप्रियः।

किरातार्जुनीय।

जिस रत्नको कुन्दन करनेकी आवश्यकता नहीं पडती वह जैसे अवश्यमेव बहुमूल्य होता है, वैसेही जो मनुष्य औरोंके आचार व्यवहार पर ध्यान न देकर मनमानी चाल चलता है वह विलक्षण गुणवान् होता है। तथापि साधारणतया मनुष्यको सामाजिक रीत्यनुसारही शिष्टाचारसम्मत व्यवहार करना उचित है। विचार करनेसे यह स्पष्ट हो जायगा कि, स्तुति और प्रशंसा तथा लाभ और प्राप्ति ये बहुत करके परस्पर तुल्य हैं। कहावत सत्य है कि थोड़ी थोड़ी प्राप्तिसे कालान्तरमें बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है क्योंकि अल्पलाभ बारंबार हुआ करते हैं भारीलाभ कभी कभी किसी विशेष अवसर पर होते हैं। प्रशंसाकाभी यही नियम है। छोटे मोटे कामोंमें प्रशंसा होते होते मनुष्यको अधिक मान मिलने लगता है, क्यों[ ३५ ] कि ऐसे काम नित्यही पडा करते हैं, और नित्यही लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित हुवा करती है। परन्तु विशेष सद्गुण प्रकट करनेका पर्वकाल कभी कभी आता है। अतएव शालीनता और विनयसंपन्न होने से मनुष्यकी प्रतिष्ठा प्रतिदिन बढती है। सभ्यता का व्यवहार मनुष्य की मानवृद्धि के लिये मानो स्वयंभू सर्टीफिकेट ही है। इस व्यवहारके सीखने में कोई कष्ट उठानेकी आवश्यकतानहीं पड़ती। अवहेलना न करके उसके अनुसार वर्त्ताव करनाहीं बसहै। केवल इतनाहीं देखना चाहिए कि और लोग किस प्रकारकी रीतिका अवलंबन करतेहैं; शेष सब आपही आप आजाता है। शिष्टाचार स्वभाव सिद्ध होना चाहिये जिसमें औरोंको यह न भास हो कि ऊपरी मन से ये हमारा आदर सत्कार करते हैं। ऐसा होनेसे उपचारकी सारी शोभा जाती रहतीहै। जिस प्रकार छन्दःशास्त्रमें प्रत्येक वृत्तके अक्षर गिने हुए होते हैं, वैसेही किसी किसी मनुष्यके वर्त्ताव में भी सब बातैं नियमित होतीहैं । सच है; जो मनुष्य छोटी मोटी बातोंकी ओर विशेषध्यान न देगा वह बडे बडे महत्वपूरित कायों को कैसे कर सकेगा?

दूसरोंका शिष्टाचार न करना मानो उन्हैं यह सिखाना है कि वे भी जब तुमसे मिलैं तब तुम्हारा आदरसत्कार न करैं। ऐसा होनेसे अवश्य अपना मान कम होगा। अपरिचित और आदरप्रिय जनोंका सत्कार विशेष करके करना उचित है; परन्तु अत्यधिक शिष्टाचार करने अथवा आकाश पाताल दिखानेसे जी ऊब उठता है; और यही नहीं किन्तु सत्कार करनेवाले के सद्भाव की भी शंका आती है। उस समय यह स्पष्ट होजाता है कि बोलनेवाला बनावटी लल्लोपत्तो कर रहा है। कोई कोई वाक्य ऐसे हृदयंगम हैं जिनका प्रयोग सभ्योपचार करते समय यथावसर करनेसे बहुतही अच्छा लगता है। जो समान शील और परिचित हैं वे अपनेसे अवश्यही निःशंक और शुद्ध व्यवहार करैंगे; अतः उनसे वार्त्तालाप करने में कुछ भव्यता दिखानी चाहिए। जो अपने से कम योग्यता रखनेवाले हैं वे अपना [ ३६ ] सत्कार करेंहींगे, इसलिए उनसे आत्मत्व प्रकट करते हुए सस्नेह भाषण करना अच्छा है। सभीका अत्यादर करनेसे और योग्यायोग्य का विचार न करके सभीको सभी काम करनेकी आज्ञा देनेसे मनुष्यका मान कम होजाता है। दूसरे लोगोंसे उनका अभिप्राय पूँछना उचित है; परंतु पूंछते समय ऐसा भास न होना चाहिए कि यह मनुष्य इस बातको अन्तःकरणसे बुद्धिपूर्वक नहीं, किन्तु योंहीं, पूछता है। दूसरोंके कथनका अनुमोदन करना अच्छा है, परन्तु हां में हां मिलाते समय कुछ अपनी ओरसेभी मिला देना चाहिए। उनके मतको स्वीकार करना हो तो वैसा करते समय कुछ भेद रखना चाहिये। उनकी प्रवृत्त की गई कोई बात माननी हो तो अपनी ओर से एक आध 'यदि ' ' परन्तु ' लगा देना चाहिये। तथैव उनके द्वारा निश्चित की गई कोई व्यवस्था अंगीकार करनी हो तो उसकी पुष्टिके लिये अपना हृद्गत कारण व्यक्त करना चाहिए।

शिष्टाचारका अनुसरण करनेमें मनुष्यको उसकी सीमाका अतिक्रमण करना योग्य नहीं है। अत्याधिक उपचार करनेसे जो लोग द्वेष करने लगते हैं वे अन्य सद्गुणोंकीओर किंचिन्मात्र भी ध्यान न देकर,यह कहने लगतेहैं, कि अमुक मनुष्यकी जो इतनी मानमर्यादा बढी है वह केवल मिष्टभाषण और शिष्टाचार का फल है। कामकाज के समय अत्यन्त आदरसत्कारपूर्वक वर्ताव करने अथवा आत सूक्ष्मतया समय और प्रसंग ढूंढते रहने से हानि होती है। सालोमन ने कहा है कि "जो मनुष्य इसीविचार में रहता है कि वायु किस ओर बहताहै वह खेत बोने में कभी समर्थ नहीं होता और जो मेघमंडल को देखनेही में लगा रहता है वह खेत काटने में समर्थ नहीं होता"। जो बुद्धिमान् होते हैं वे सहजही प्राप्तहुए प्रसंगों की अपेक्षा अपनी बुद्धिसे अधिक प्रसंग उत्पन्न करते हैं। मनुष्यों का वर्त्ताव उनके पहिनने के कपड़ों के समान होना चाहिए। कपड़ों के ढीले ढाले होने से जैसे हाथपैर अपना अपना काम बिना प्रयास के यथोचित कर सकते हैं; संकुचित नहीं रहते; [ ३७ ] वैसेही मनुष्य को अपना वर्त्ताव भी रखना चाहिए। सगर्व और उदंड बर्ताव न होना चाहिए किन्तु सरल और विनीत होना चाहिए।

  1. तपस्वी जनोंके लिए पुण्यका सम्पादन करनेवाला, सुखकी इच्छा रखने वालोंके लिए सम्पदाओंका देनेवाला, योगियोंके लिए मुक्तिका मार्ग दिखाने वाला ऐसा यह विनय-सौशील्य-सज्जनोंको क्यों न प्रिय हो?