बेकन-विचाररत्नावली/१७ कुरूपता

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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कुरूपता १७.
विद्या[१] रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।

सुभाषितरत्नभाण्डागार।

कुरूप मनुष्य ब्रह्मासे बहुधा बराबरी का बर्ताव करते हैं। जैसे ब्रह्माने उन्हें कुरूप बनाकर उनके साथ अनुचित व्यवहार कियाहै वैसे ही वे भी अपने अनुचित आचरणद्वारामानों उससे बदला लेते हैं; क्योंकि (जैसा धर्म्म ग्रन्थों में लिखा है) कुरूप मनुष्यों में प्राकृतिक प्रेम अर्थात् मनुष्यके आवश्यक मनोधर्म बहुधा कम पायेजाते हैं। शरीर और [ ४६ ] मनकी परस्पर ऐक्यता है। यदि इनमें से एक की प्रवृत्ति बुरे मार्ग की ओर होती है तो दूसरे की भी उसी ओर झुकती है। परन्तु मनुष्य में इतना शरीरसामर्थ्य है और मनोवृत्तियों के स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का इतना अधिकार है कि शिक्षा और सद्गुण रूपी सूर्य के सन्मुख स्वाभाविकवृत्तिरूपी तारे बहुधा फीके पड़जाते हैं। इसलिये यह समझने की अपेक्षा कि कुरूपता धोखा खाने का एक चिह्न है, यह समझना अच्छा है, कि वह फल निप्पत्ति का आदि कारण है।

जिस कुरूप मनुष्यमें कोई ऐसा दुर्गुण होता है जिसके कारण लोग उससे घृणा करतेहैं, उसमें एक आध स्वाभाविक बात ऐसीभी होती है जिसके द्वारा वह लोगोंके तिरस्कार का परिहार करके अपनी रक्षा करनेमें समर्थ होताहै। अतएव सारे कुरूप मनुष्य अत्यन्त धृष्ट होते हैं। प्रथमतः वे अपनी निन्दा का प्रतीकार करनेके लिए धृष्टता दिखलाते हैं; परन्तु धीरे धीरे उस प्रकार का बर्ताव उनका स्वाभाविक धर्म होजाता है। एतादृश स्वभाव कुरूप मनुष्योंमें उद्योग वृत्ति को भी जागृत कर देता है; परन्तु उनका उद्योग प्रायः दूसरों की न्यूनता को ढूंढनेही के लिए होता है; क्योंकि ऐसा करनेसे उनको दूसरों से बदला लेने का अवसर मिलता है। इसके आतरिक्त यह भी है, कि उनसे जो बढ़े चढ़े होते हैं वे यह समझ कर कि इन्हें जब चाहैंगे तभी परास्त करैंगे मत्सर करना छोड़ देते हैं। इसका यह फल होता है कि उनसे स्पर्धा करनेवाले और उनके बराबर काम करने की इच्छा रखने वाले लोग तब तक चुप रहते हैं जब तक वे उन्हें अपने से अच्छी दशा में नहीं देख लेते; क्योंकि वे यह कभी नहीं समझते कि कोई उनसे अच्छी स्थिति को पहुँच जावैगा। अतएव जो लोग चतुर हैं उनमें कुरूपता का होना उनके उत्कर्ष का कारण समझना चाहिए।

प्राचीन काल में (और किसी किसी देश में अब भी) राजा महाराजा खोजा लोगों का अधिक विश्वास करते थे; क्योंकि वे [ ४७ ] यह समझते थे कि जो मनुष्य सबसे मत्सर रखता है वह एक का आश्रय लेकर उसी की सेवा में आनन्द से रत रहता है। तथापि अच्छे न्यायाधीशों और उच्च अधिकारियों के काम के विषय में उन का विश्वास उतना न था। परन्तु, हां, अच्छे दूत और अच्छे कानाफूसी करने वालों के काम का विश्वास अवश्य था। यही दशा कुरूप मनुष्यों की भी है। तथापि यह प्रमाणसिद्ध है कि धैर्यवान होने से कुरूप मनुष्य, अन्यकृत तिरस्कार से, फिर चाहै वह तिरस्कार द्वेष बुद्धि से उत्पन्न हुआ हो अथवा गुणों के न सहन करने से उत्पन्न हुआ हो—अपना बचाव अवश्य करते हैं। अतः कुरूप मनुष्य यदि कभी कभी गुणवान् देखपड़ै तो आश्चर्य न करना चाहिये। अजीसिलास[२], सालीमनका पुत्र जंगर, ईसाप[३], पेरू का प्रेसीडेंट गास्का इत्यादि पुरुष ऐसेही थे। साक्रेटीज[४] की भी गणना औरों के साथ इसी प्रकार के पुरुषों में की जासकती है।

  1. कुरूपों का रूप विद्या और तपस्वियों का रूप क्षमा है।
  2. अजीसिलास, ग्रीस देश के स्पार्टाप्रान्त का राजा था। यह छोटे डील डौल का कुरूप और लँगडा था परन्तु बड़ा वीर और बड़ा शौर्यवान् था।
  3. ईसाप ग्रीस देश में ईसा मसीह के लगभग ६२० वर्ष पहिले हुवा है। इसने अत्यन्त मनोरञ्जक और सदुपदेशजनक छोटी छोटी कथाओं का एक ग्रन्थ नीतिपर लिखा है।
  4. साक्रेटीज ग्रीस के एथन्स नगर में एक प्रख्यात तत्त्ववेत्ता होगया है। इसकी प्रवृत्ति सदैव सत्य के खोज में रहती थी। तर्क वितर्क करने में यह उस समय अद्वितीय था। इसपर यह अपराध लगाया गया था कि यह तर्क द्वारा सत्य का असत्य और असत्य का सत्य लोगों को समझा कर उनकी बुद्धि में फेरफार उत्पन्न कर देता है। इसी को अपराध मान कर साक्रेटीज को राजाज्ञा से विष देदिया गया जिसे उसने प्रसन्नता से पान किया और अन्त समय तक सदुपदेश करता रहा।