बेकन-विचाररत्नावली/१८ प्रशंसा

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी
[ ४८ ]
प्रशंसा १८.

अद्यापि[१] दुर्निवारं स्तुतिकन्या वहति कौमारम्।
सद्भयो न रोचते साऽसन्तस्तस्यै न रोचन्ते॥

आर्या सप्तशती।

प्रशंसा अच्छे गुणों की छाया है; परन्तु जिन गुणों की वह छाया है उन्हीं के अनुसार उसकी योग्यता भी होती है। यदि सामान्य [तुच्छ] जनों के मुख से प्रशंसा हुई तो वह विशेष करके झूठी और निरर्थक होती है। सुशील और सद्गुण सम्पन्न मनुष्योंकी अपेक्षा अभिमानी और वृथा बड़ाई हांकने वालों की प्रशंसा बहुधा विशेष होती है। तुच्छ मनुष्य अनेक उत्तमोत्तम गुणों को समझही नहीं सकते। साधारण छोटे मोटे गुणों की वे प्रशंसा करते हैं; मध्यम प्रकार के गुणों को देखकर उन्हैं आश्रर्य होता है; परन्तु उच्च श्रेणी के जो सद्गुण हैं वे उनके ध्यान में भी नहीं आते। दम्भ और सद्गुणों के अभ्यास मात्रही से वे सन्तुष्ट रहते हैं।

सत्यतो यह है कि कीर्ति नदी के प्रवाह के समान है। जैसे नदी के प्रवाह में हलकी तथा फूली हुई वस्तु ऊपर तैरा करती हैं और जड़ तथा गरुई नीचे डूब जाती हैं; उसीप्रकार प्रशंसारूपी प्रवाह में उत्तमोत्तम गुण डूबे रहते हैं, केवल छोटे छोटे गुण ऊपर दिखलाई देतेहैं; अतः वही लोगों के मुखसे सुनाई पड़ते हैं। परन्तु यदि लोकमान्य और विचारशील मनुष्यों ने प्रशंसा की तो उसे अवश्यमेव अपनी कीर्ति समझना चाहिये। इसप्रकार की प्रशंसा सुवासिक तैल के समान सब ओर शीघ्र फैल जाती है। सुवासिक पुष्पों की उपमा न देकर सुवासिक तैल की उपमा इस लिए दी हैं, क्योंकि पुष्पों के सुवास की अपेक्षा तैल का सुवास आधिकतर स्थायी होता है [ ४९ ]स्वार्थ साधनेके लिए मनुष्य बहुधा झूठी प्रशंसा करते हैं; अतः अपनी स्तुति को सावधानीसे सुनना चाहिए। बहुतेरे दूसरों की प्रशंसा केवल उनको प्रसन्न करनेके लिए करते हैं । इस प्रकारके खुशामदी लोग यदि सामान्य श्रेणी के हुए तो उनके प्रशंसा करनेके विषय निश्चित होते हैं और उन्हीका प्रयोग वे सब कहीं करते हैं । प्रशंसा करने-वाला मनुष्य यदि धूर्त हुआ तो वह अपनी धूर्ततासे उस विषयको जान लेगा जिसमें तुम अपनेको अधिक प्रशंसनीय समझते होगे और उसीमें वह तुम्हें आकाश पाताल दिखाने लगेगा। परन्तु यदि किसी धृष्ट और निर्लज्ज प्रशंसा करनेवालेसे काम पड़ेगा तो वह, जो गुण तुममें नहीं हैं अर्थात् जिन जिन विषयोंमें तुमको अपनी न्यूनता स्वयं दिखलाई देती है, उन्हीकी वह प्रशंसा करने लगेगा।

कभी कभी सन्मानपूर्वक तथा अच्छे उद्देश्यसे भी प्रशंसा कीजाती है । इसप्रकारकी प्रशंसा राजा तथा अन्यान्य बड़े बड़े मनुष्यों की होती है । उनको प्रत्यक्ष उपदेश न देकर प्रशंसा द्वारा यह सूचित किया जाता है कि,जैसी स्तुति आपकी होती है उसीके अनुसार आपका आचरण होना चाहिए । बहुतेरे द्वेषबुद्धिसे दूसरोंको दुःख पहुँचाने के लिए उनकी स्तुति करते हैं जिसमें लोग उनसे मत्सर करने लगे। यही इसप्रकारकी स्तुतिका आशय होता है।

यथा समय, यथार्थ और उचित रीतिपर जो प्रशंसा क जाती है उससे अवश्य लाभ होता है। सालोमनने कहा है कि, जो मनुष्य प्रातः-काल उठकर अपने मित्रकी उच्चस्वरसे प्रशंसा करता है वह प्रशंसा उसके मित्रको शापके समान हो जाती है । इसका कारण यह है कि, किसीका अत्यन्त गौरव होनेसे लोग उसके प्रतिकूल बोलने लगते हैं और उसका मत्सर तथा उपहास करते हैं।

किसी किसी विशेष अवसरको छोडकर मनुष्यको अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना शोभा नहीं देता; परन्तु, हां, अपने व्यवसाय [ ५० ] तथा अपने पदकी प्रशंसा करनेमें कोई क्षति नहीं; इस मकार की प्रशंसासे सनुष्यकी मानहानि नहीं होसकती।

  1. स्तुति रूपी कन्या अभीतक अनिवार्य कौमार भावको धारण कररही है अर्थात् उसे अभीतक वरही नहीं मिला। कारण यह है कि सत्पुरुष जो हैं उन्हें वह अन्छी नहीं लगती और असत्पुरुष जो हैं वे उसे नहीं अच्छे लगते हैं।