बेकन-विचाररत्नावली/१९ आत्मश्लाघा

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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आत्मश्लाघा १९.

निजगुणगरिमा[१] सुखाकरः स्यात्
स्वयमनुवर्णयतां सतां न तावत्।
निजकरकमलेन कामिनीनां
कुचकलशाकलनेन को विनोदः?

सुभाषितरत्नाकर।

ईसापने एक कहानी लिखी है वह यह है—एकबार एक मक्खी किसी गाड़ीके पहियेके धुरे पर बैठी और कहने लगी, 'ओह! हो!देखो तो मैं कितनी धूल उड़ारहीहूँ! कोई कोई मनुष्य इसी प्रकार के बड़ाई हांकनेवाले होते हैं। किसी काममें यदि वे किंचिन्मात्र भी छूगये तो यही समझते हैं कि, जो कुछ होता है सब हमी करते हैं; फिर चाहै वह काम आपही आप क्यों न होरहा हो अथवा चाहै उसके होनेका कैसाही महान् कारण क्यों न हो! जो लोग अभिमानवश अपनेही मुखसे अपनीही बड़ाई करतेहैं वे अवश्यमेव कलहप्रियभी होते हैं; क्योंकि, दूसरोंसे अपनी तुलना करके उनकी अपेक्षा हम अधिक प्रशंसनीय हैं, यह उन्हें कहनाही पड़ता है। अपना माहात्म्य सिद्ध करनेके लिये उनको विशेष बकवादभी करना पड़ता है। गुप्तबात उनके पेटमें नहीं पचती; इसीलिये वे बहुधा धोखा खाते हैं और उनके कार्य सिद्ध नहीं होते। काम थोड़ा परन्तु आडम्बर अधिक—यह उनका सिद्धान्त होताहै।

परन्तु राजकीय व्यवहारों में आत्मश्लाघासे बहुत काम निकलता है। किसीके विषयमें यदि मनुष्योंके चित्तमें पूज्यबुद्धि उत्पन्न करना हो [ ५१ ] अथवा किसीके सद्गुण और महत्त्वकी प्रसिद्धि करनी हो तो ऐसे लोग(अर्थात् प्रशंसक) विशेष काम आते हैं।

वृथा अभिमानकी बातें करने और असत्य बोलनेसे परिणाम दुर्धर होता है। जब कोई मनुष्य, राजाओंमें मध्यस्थ होकर, किसी तीसरे राजाके साथ युद्ध करनेके लिए उन्हें उत्तेजित करता है तब वह परस्परके सैन्यकी एक दूसरेसे बेप्रमाण प्रशंसा करता है। इसी प्रकार जब कोई मनुष्य, किसी अन्य दो मनुष्योंसे, बारी बारीसे, व्यवहार की बातें कहता है तब वह प्रत्येकसे अपने विषयमें यही बहाना करता है कि अन्यकी अपेक्षा वह उससे अधिक आत्मत्व रखता है। ऐसी तथा इस प्रकारकी और बातोंसे कुछ न कुछ फलप्राप्ति होती ही है; क्यों कि, प्रशंसा होते होते प्रशंसित पुरुषका मान आवश्यही बढजाता है और मान बढजानेसे लाभभी निःसंदेह होता है।

सेनाके अधिकारी तथा सिपाही लोगोंमें बड़ाई बड़े काम आती है। जिसप्रकार लोहेपर घिसनेसे लोहा तीक्ष्ण होजाता है उसी प्रकार एकके धैर्यको देखकर दूसरोंका भी धैर्य बढता है। साहस और महत्त्वके काममें कुछ तो बडाई करनेवाले और कुछ गम्भीरस्वभावके मनुष्य होने चाहिएँ; क्यों कि, बड़ाई बूकनेवालोंके कारण काममें उत्तेजना आती है; और गम्भीर स्वभाववालोंके कारण उसकी यथोचित सिद्धि होती है। विद्वत्ताका प्रकाश शीघ्र होनेके लिए भी कुछ आडम्बर अवश्य करना पड़ता है। कीर्तिसम्पादन करनेकी इच्छा सभीको होती है। जो लोग पुस्तकें लिखकर औरोंको यह उपदेश देते हैं कि, कीर्ति तुच्छ है वे अपनी पुस्तकोंके ऊपर अपना नाम क्यों लिखते हैं? कीर्तिकी यदि उन्हें अभिलाषा नहीं तो वे अपने नामको फिर क्यों सर्वसाधा[ ५२ ] रणमें प्रसिद्ध करते हैं? साक्रेटीज़, आरिस्टाटल[२] और गेलन[३] इत्यादि पुरुष ऐसे होगए हैं जिनको आडम्बर अच्छा लगता था। प्रशंसा होनेसे मनुष्यकी कीर्ति चिरायु होती है। सद्गुणसम्पन्न मनुष्यका यश जितना स्वयं उसकेद्वारा फैलता है उतना दूसरेके द्वारा नहीं फैलता। सिसरो सेनेका और दूसरे[४]प्लीनीमें यदि थोड़ा बहुत आत्माभिमान न होता तो उस समय उनके नाम की इतनी प्रसिद्धि कभी न होती। आत्माभिमान वारनिश (एक प्रकारका रोग़न) के समान है। वारनिश की हुई वस्तु जैसे अधिक चमकती है वैसेही अधिक दिनतक रहती भी है। इसी भाँति शुद्ध अभिमानके योगसे सद्गुणोंका प्रकाश विशेष होता है और अधिक कालपर्यन्त रहता है।

जो कुछ ऊपर कह आए हैं वह उस आत्मश्लाघा अथवा उस [ ५३ ] स्वाभिमानके विषयमें न समझना चाहिए जिसका वर्णन टासिटस[५]ने म्यूसियेनसके सम्बन्धमें किया है। किसी किसीको अपने काम काजका गौरवपूर्वक वर्णन करनेकी एक ऐसी युक्ति आती है कि उसे आत्माभिमान नहीं कह सकते। इस प्रकारकी भाषणपद्धति शुष्क अभिमानसे नहीं उत्पन्न होती, किन्तु मनकी स्वाभाविक उच्चता और बोलनेवालेकी विज्ञतासे उत्पन्न होती है। इसप्रकारका सयुक्तिक और गौरवशील भाषण बुरा न लगकर किसी किसीको उलटा शोभा देताहै। अपनी भूल मानलेनेका सा भाव दिखलाना; दूसरेके कहनेको युक्तिसे अङ्गीकार करना; मर्यादशीलताका वर्ताव रखना इत्यादि बातें इस विचित्र भाषणपद्धतिके लक्षण हैं। दूसरेके मुखसे अपनी प्रशंसा करालेने की एक सर्वोत्तम युक्ति यह है कि, जो गुण अपनेमें पूर्ण रूपसे वास करते हैं वे दूसरेमें देखकर उस मनुष्यकी यथासम्भव प्रशंसा करनी चाहिए। प्लीनी ने कहा है कि, दूसरे की प्रशंसा करने में तुम मानों स्वयं अपने गुणोंकी यथार्थता व्यक्त करते हो। जिसकी तुम प्रशंसा करते हो वह प्रशंसितगुणोंमें तुमसे न्यून होगा अथवा अधिक होगा। यदि वह तुमसे न्यून है तो जितनी प्रशंसा उसकी करते हो उससे तुम्हारी अधिक होनी चाहिए; और यदि वह तुमसे अधिक है तो जो तुम उसकी प्रशंसा न करोगे तो तुम्हारी कैसे होगी?

अपने मुहँ मियांमिठू बननेवाले, बुद्धिमान् जनोंके तिरस्कारास्पद होते हैं; मूर्खोंके स्तुतिपात्र होते हैं; खुशामदी लोगोंके मूर्तिमन्त देवता होते हैं; और अपनी ही वृथा बड़ाईके दास होते हैं।

  1. भले आदमियों को अपने गुण अपनही मुखसे कहना अच्छा नहीं लगता। अपनेही करकमलोंसे अपनेही कुचकलशोंको स्पर्श करना स्त्रियोंके लिये, भला कहिये, क्या कोई विनोद की बात है?
  2. अरिस्टाटल ईसवी सन् के ३८४ वर्ष पहिले ग्रीसमें पैदा हुवा था। यह एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता था। इसने प्लेटोके पास विद्याध्ययन किया था। सिकन्दरके पिताने इसीसे सिकन्दरको शिक्षण दिलाया था।
  3. गेलन ईसवी सन् के दूसरे शतकमें उत्पन्न हुवा। यह एक विख्यात वैद्य था। इसने वैद्यकके अनेक ग्रन्थ लिखे हैं।
  4. दूसरा प्लीनी रोमनगरके एक अच्छे घरानेका था। यह स्पेनका गवर्नर नियत किया गया था। विद्योपार्जनमें यह इतना दत्तचित्तसे लगा रहता था कि इसने अपना एक भी मिनट व्यर्थ नहीं खोया। यहांतक कि, भोजन तथा स्नान करनेके समय भी वह शास्त्रचर्चा करता रहता था। साहसी भी वह इतना था कि, व्यस्यूषियस नामक ज्वालामुखी पर्वतकी परीक्षाके लिए, अपने मित्रोंके द्वारा रोके जानेपर भी, वह उसके इतना निकट पहुंच गया कि, वहीं परीक्षा करतेही करते पर्वतकी प्रचंड लपटोंसे उसे अपने प्राण देने पड़े। ५६ वर्षके वयमें इसकी मृत्यु ७९ ई॰ में हुई। इसने अनेक ग्रन्थ लिखे; परन्तु "नैच्युरल हिस्टी" (जिसके ३७ भाग हैं) के सिवाय इसके और कोई ग्रन्थ देखने में नहीं आते।
  5. टासिटस रोममें एक प्रसिद्ध इतिहासकार होगया है। ईसवी सन् के प्रथम शतकमें वह विद्यमान था।