बेकन-विचाररत्नावली/१ सत्य

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी
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बेकन-विचाररत्नावली।


सत्य १.
सत्य[१]मेकाक्षरं ब्रह्म सत्यमेकाक्षरं तपः।

सत्यमेकाक्षरो यज्ञः सत्यमेकाक्षरं श्रुतम्॥

महाभरात।

"सत्य कहते किसे हैं"? इसप्रकार पायलेट[२]ने विनोदसे प्रश्न किया, परन्तु उत्तर मिलनेके पहिलेही वह उठ खड़ा हुआ और चल दिया। ऐसेभी बहुतसे मनुष्य होते हैं—यह सत्य है। उनको किसी बातपर विश्वास नहीं आता; भ्रमिष्ठकी भाँति चित्तवृत्तिको चारों ओर चक्कर देनाही उन्हैं अच्छा लगता है। किसीभी मतको ग्रहण करके उसपर स्थिर होना, पैर में बेड़ी पड़ने के समान उन्हैं कष्टदायक जान पड़ता है। वे यह समझते हैं कि, उनको इस बातका पूरा अधिकार है कि, वे जिसप्रकारके विचार अथवा व्यवहार चाहैं कर सकते हैं। प्राचीन कालमें नास्तिकोंका एक पंथ ऐसा था जिसके मूल तत्त्व ऐसेही थे। यद्यपि उस पन्थका अस्तित्व इस समय जाता रहाहै, तथापि उसके मतका अवलंबन करनेवाले अबभी बहुतसे लोग पाए जाते हैं। वे लोगभी विवादचातुर्य दिखाने और प्रत्येक विषयमें संशयउत्थापन करनेमें कुशल होतेहैं। परन्तु फिरभी प्राचीनोंकी ऐसी दक्षता उनमें नहीं होती। [  ]मनुष्योंको असत्य क्यों इतना प्रिय है? सत्यके ढूँढनेमें अनेक कष्ट और परिश्रम उठाने पड़ते हैं, इसलिये लोग असत्य बोलतेहैं; अथवा सत्यको पाने पर तदनुकूल व्यवहार करनेसे वे डरतेहैं, इसलिये असत्य बोलते हैं। नहीं; ये दोनों कारण ठीक नहीं। मनुष्यका बुरा स्वभावही असत्य बोलनेका आदिकारण जान पड़ता है। कवि लोग मनोरंजनके लिये मिथ्या बोलते हैं और व्यापारी लोग व्यापारमें लाभ उठानेके लिये ग्राहकोंसे मिथ्या बोलते हैं; परन्तु जहाँ अणुमात्रभी स्वार्थकी सिद्धि नहीं है, वहाँभी बहुधा लोग मिथ्या बोलते हैं। इसका क्या कारण है कुछ समझमें नहीं आता। झूठ बोलनेमें क्या कोई विशेष आनन्द मिलता है जिससे लोग वैसा करते हैं? इस विषयका शोध करनेके लिये एक ग्रीकतत्त्ववेत्ताने बहुत कालपर्यन्त परिश्रम किया, परन्तु उसका अभीष्ट अन्तमें सिद्ध नहीं हुआ। सत्य, दिनके शुभ्र प्रकाशके समान तो नहीं है? नाट्याभिनय तथा ऐन्द्रजालिक खेलोंमें जो नाना प्रकारके दृश्य दिखाये जाते हैं, वे रात्रिके समय जितने भव्य और मनोरंजक लगते हैं उसके आधे भी दिनमें नहीं लगते। इसी प्रकार सांसारिक विषय असत्यका सहारा पानेसे जैसा खुलते हैं सत्यका सहारा पानेसे वैसा नहीं खुलते। सत्यकी तुलना मोतीसे की जा सकती है-मोती दिनमें विशेष चमकता है परन्तु हीरा नहीं। इसीसे हीरेकी उपमा नहीं दे सकते। हीरेके चारों ओर रात्रि में दीपकका प्रकाश पड़नेसेही उसकी दीप्ति अधिक दिव्य देख पड़ती है।

सत्यके साथ असत्यका मेल करनेमें मनुष्यको एक प्रकारका आनन्द मिलताहै-इसमें कोई सन्देह नहीं। यदि मनुष्यके मनसे वृथाभिमान, अत्युच्च आशा, अनुचित आग्रह तथा नाना प्रकारकी कल्पना निकाल ली जावैं तो सहस्रशः मनुष्योंका चित्त इतना उदास, खेदित और आकुञ्चित होजायगा कि, वह स्वतः उन्हींको दुःखदायक होने लगेगा। [  ]एक क्रिश्चियन धर्मप्रचारकने आवेशमें आकर कविताको "राक्षसों के पान करने का पदार्थ" कहा है; क्योंकि कवित्वके आस्वादनसे मनुष्योंके मनमें नाना प्रकारकी असत्यकल्पना उत्पन्न होती हैं। ऐसा असत्य जो उत्पन्न होकर कुछ कालके अनन्तर नाश होजाता है वह हानिप्रद नहीं है; परन्तु जो असत्य मनमें लीन होकर वहीं स्थिर रहता है वह अति अन्यायकारक है और इस प्रस्तावमें उसी प्रकारके असत्यसे हमारा अभिप्राय है। विवेकहीन दुष्टप्रकृति मनुष्योंको असत्य चाहै जितना प्रिय हो परन्तु सत्य स्वयमेव यह शिक्षा करता है कि, सत्यका शोध करनेमें, सत्यको जाननेमें और सत्यपर विश्वास रखनेहीमें मनुष्यका कल्याण है। सृष्टिरचना के समय ईश्वरने प्रथम इन्द्रियगोचर प्रकाश निर्माण किया; तदनन्तर उसने ज्ञानगम्य प्रकाश को बनाया अर्थात् आदिमें उसने पञ्च महाभूतोंको और फिर मनुष्यको आत्मा रूपी प्रकाशसे प्रकाशित किया। तदतिरिक्त अभीतक बराबर समय समयपर वह अपने प्रीतिपात्र भक्तोंके अन्तःकरणको सत्यप्रकाशसे प्रकाशित कियाही करता है।

औरोंकी अपेक्षा एक कनिष्ठ जातिको अलंकृत करनेवाला एक कवि बहुतही उत्तमताके साथ कहता है कि, तटपर खड़े होकर समुद्र में जहाजोंका इधर उधर डगमगाना देखकर आनन्द होता है; गढ़के भीतर खिड़कीके पास बैठकर नीचे होते हुए युद्ध और तद्गत वीरोंके पराक्रमको देखकर आनन्द होता है; परन्तु सत्यके शिखरपर आसन लगाकर नीचेके लोगोंके प्रमाद, दौड़ धूप, भ्रान्ति और अज्ञान को देखकर जो आनन्द होता है उस आनन्दकी उपमाही नहीं है। हां, यह अवश्य है कि, ऐसी दशामें देखनेवालोंको उन्मत्त होकर गर्वकी दृष्टिसे नहीं किन्तु दयार्द्रदृष्टि से देखना चाहिये। जो परोपकारमें रत है, ईश्वर में जिसको विश्वास है और सत्यका जो अनुसरण करता है उसको भूमण्डलही स्वर्ग है। [  ]तत्त्वज्ञान और परमार्थविषयक सत्यको छोड़ अब हम साधारण व्यवहार विषयक सत्यका विचार करते हैं। जो मनुष्य कपटी और अप्रमाणिक हैं वे भी इस बातको स्वीकार करेंगे कि, निष्कपट और सरल व्यवहार मनुष्यमात्रका भूषण है। सत्यमें असत्यका मेलकरनेसे वही परिणाम होता है जो परिणाम सोना और चाँदीमें राँगा इत्यादि कम मूल्यके धातुओंको मिलानेसे होता है। यह सत्य है कि, हीन धातुके मिश्रणसे सोने अथवा चाँदीके सिक्के अच्छे निकलते हैं परन्तु उनका मूल्य अवश्यमेव कम होजाता है और सब कहीं उनपर बट्टा लगने लगता है। असत्य बोलनेसेभी बातमें बट्टा लगता है, यह सभी जानते हैं। समस्त प्राणिवर्गमें सर्प[३] अधम है, क्योंकि पैरसे न चलके वह पेटके बल टेढी चाल चलता है। इसलिये उस मनुष्यको भी सर्पहीके समान अधम समझना चाहिये जो सत्यकी सरल रीतिका अवलम्बन न करके असत्यकी वक्र गतिको अंगीकार करता है। असत्यव्यवहार और कृत्रिमभाव प्रकाशित होनेपर मनुष्यको जितनी लज्जा लगती है उतनी लज्जा और किसीभी जघन्य कृत्यके प्रकाशित होनेपर नहीं लगती। "रे मूर्ख! ऐसा असद्ध्यवहार करता है"! इस प्रकार किसीको कहनेपर उसे इतना क्रोध और इतनी लज्जा क्यों लगनी चाहिये? इसपर मान्टेन कैसी मार्मिकतासे कहता है कि "किसीको कहना कि, तुम असत्यका वर्त्ताव करतेहो मानों उसे यह सूचित करना है कि, तुम ईश्वरसे तो डरते नहीं किन्तु मनुष्यसे डरतेहो"; क्योंकि असत्य व्यवहार करनेवाला असत्यको, डरके मारे, मनुष्योंसे तो छिपाता है परन्तु उसके समस्त कृत्योंका साक्षी परमेश्वर है, इसका उसे स्मरणही नहीं रहता।

  1. सत्य अविनश्वर ब्रह्म है, सत्य अविनश्वर तप है, सत्य अविनश्वर यज्ञ है और सत्यही अविनश्वर श्रुति है।
  2. जूडिया प्रदेशमें 'पायलेट' नामक एक रोमन गवर्नर था। इसीने काइस्टको वधदण्ड दिया। इसीने जब क्राइस्ट से पूछा "तू कौन है"? तब क्राइस्ट ने कहा "मैं सत्यके प्रचार करनेके लिये उद्योग करनेवाला हूं"। इसपर पायलेटने फिर प्रश्न किया कि 'सत्य कहते किसे हैं'? परन्तु उत्तर मिलनेके पहिलेही वह न्यायासन छोड़कर चल दिया।
  3. क्रिश्चियन लोगोंका कथन है कि, सर्पने मनुष्योंके आदि पितरोंको धोखा दिया था इसलिये ईश्वरने उसे यह शाप दिया कि, तू आजसे पैरोंके बल न चलकर पेटके बल चलैगा।