बेकन-विचाररत्नावली/३१ मैत्री

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मैत्री।

पापान्निवारयति[१], योजयते हिताय,
गुह्यञ्च गूहति, गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं नच जहाति, ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥

भर्तृहरि।

"जिस मनुष्यको एकान्तवासमें आनन्द आता है उसे या तो [ ९३ ] अरण्यवासी पशु कहना चाहिए या प्रत्यक्ष देवता कहना चाहिए"। यह एक ऐसी उक्ति है कि इसमें सत्यता और असत्यता दोनोंका समान मिश्रण है। इससे अधिक सत्य अथवा असत्य व्यञ्जक उक्ति दोही चार शब्दोंमें, और किसी दूसरे प्रकारपर यदि कहनेवाला कहता; तो उसे विशेष कठिनाई पड़ती। जनसमुदायके विषयमें किसी मनुष्यके मनमें स्वाभाविक तिरस्कार और अनादर होना पशुत्वका लक्षण है। यह बात बहुत सत्य है। परन्तु इसप्रकार अरण्यवासको सुखप्रद माननेवालोंमें अणुमात्र भी देवांशका होना स्थिर करना; नितान्त असत्य है। हां जो मनुष्य सुखानुभवके लिए एकान्तवास नहीं करते किन्तु जन्म मरणादि दुःखोंसे छूटनेके लिए परमार्थ साधनके हेतु एकान्तवासका आश्रय लेते हैं वे अवश्यमेव प्रशंसनीय हैं। उनको देव अथवा देवांश मानना अनुचित नहीं। पुरातन समयमें क्रिश्चियन धर्म्माधिकारी और साधुपुरुष सच्चे अरण्यवासी होगए हैं। मूर्तिपूजकोंमें भी इस प्रकारके पुरुष पाए जाते हैं। यथाः–कांडियानिवासी यपीमिनीडस[२], रोमनिवासी न्यूमा[३], सिसलीनिवासी यम्पीडीक्लिस[४]; राइना निवासी अपोलो [ ९४ ] नियस[५]; परन्तु औरोंको दिखलानेके लिए इन लोगोंने एकान्तवास स्वीकार कियाथा; किसी और सद्धेतु से नहीं।

परन्तु एकान्तवास कहते किसे हैं, और उसकी सीमा कहांतक है–इसका बहुत कम ज्ञान लोगोंको होता है। मनुष्योंके समुदाय को मित्रोंका समुदाय नहीं कह सकते; और परस्पर प्रीति न होनेसे मनुष्योंके मुखको मुख नहीं कह सकते; चित्र भलेही कहसकतेहै। इसीप्रकार जिनमें परस्पर स्नेह नहीं है उनका वार्त्तालाप वार्त्तालाप नहीं, किन्तु एक प्रकारका ताली बजाना है। लैटिनमें कहावत प्रसिद्ध है कि "बड़ा नगर बड़े एकान्त वास के बराबर है" यह कहावत, हमारे उपरोक्त कथन से, कुछ २ मिलती है। कारण यह है, कि एक विस्तृत नगर में मित्रजन–एक यहां एक वहां–इस प्रकार, दूर दूर अन्तर पर रहा करते हैं। अतः छोटे छोटे नगरोंमें, वारंवार मेल मिलाप होते रहने से जितना स्नेह होता है, उतना बड़े बड़े नगरोंमें बहुधा नहीं होता। परन्तु, हम, उपरोक्त लैटिन भाषाकी कहावत से भी आगे जाते हैं। हमारा तो मत-दृढमत यह है कि सच्चे मित्रका न होना पूर्णतया दुःखाई एकान्त वास है। बिना मित्रके सारा संसार केवल अरण्यमय है। जो मनुष्य, अपने स्वभावके कारण अथवा अपने मनोविकारके कारण, मैत्री करनेके योग्य नहीं; उसकी एतादृशी अयोग्यता उसके पशुत्वकी सूचक है; मनुष्यत्व की सूचक नहीं।

मैत्री का मुख्य फल यह है कि उसके योगसे नाना प्रकारके मनोविकारोंसे भरे हुए हृदयको रिक्त करनेका अवसर मिलता है। इस प्रकार विकाररूपी उफानोंको बाहर निकाल देनेसे हृदय हलका [ ९५ ] हो जाताहै। जो रोग शरीरसे बाहर नहीं निकाले जासकते वे मनुष्य को अतिशय पीडित करते हैं। यह सभी जानते हैं। मानसिकरोगोंकी भी यही दशा है। यकृतको यथास्थित करनेके लिए तुम सार्सापिरिला लोगे, प्लीहाको अच्छा करनेके लिये तुम कांतीसार लोगे; फेफड़ाके रोगी होजानेसे तुम गन्धकके फूल लोगे; मस्तकमें विकार उत्पन्न होनेसे तुम का स्टोरियम नामक ओषधिलोगे:—परन्तु हृदयको रिक्त करने के लिए सच्चे, मित्रके अतिरिक्त अन्य धनही नहीं। जिसप्रकार धर्मगुरूके सन्मुख पापक्षय होनेके लिए अपने सारे पापकृत्य स्वीकार किए जाते हैं उसी प्रकार दुःख, सुखभय, आशा, संशय, परामर्श,—जो कुछ हृत्पटल पर खचित होकर क्लेशकर होरहाहो—उसके विषयमें अपने मित्रसे वार्तालाप किए बिना चित्त कभी स्वस्थ नहीं होता।

यह जानकर आश्चर्य होता है कि मित्रताके जिस फलका वर्णन हमने किया उसको राजा महाराजा लोग कितना मूल्यवान् समझते हैं। मित्रताके फलको वे लोग इतना महत्व देते हैं कि उसकी प्राप्तिके लिए वे अपने अधिकार को भूलकर बहुधा अपने प्राणभी धोखेमें डालते हैं। इसका यह कारण है कि राजा और उसकी प्रजा तथा उसके अनुचर वगमें स्थिति भिन्नत्व के कारण जो अन्तर होता है, उस अन्तर को विनष्ट करके जबतक वे दो मनुष्योंको अपना सहचर अथवा अपनी बराबरीका नहीं बनालेते तबतक उनको मित्रताके फलका पूरा पूरा उपभोग नहीं मिलता। इस प्रकार उच्च अधिकार देनेसे राजाओंको बहुधा असुविधाभी होतीहै। आधुनिक भाषामें ऐसे लोगोंको 'राजप्रिय' अथवा 'गुप्तमित्र' कहते हैं। यह बात इस नामहीसे सूचित होती है कि एतादृश लोगोंपर राजाकी कृपा है। परन्तु ऐसे मनुष्योंका जो नाम रोमन लोगोंमें प्रचलित है, उससे उनकी यथार्थ उपयोगिता और उच्च पद प्राप्तिका ठीक ठीक कारण ध्यानमें आजाता है। रोमन लोग ऐसे मित्रोंको "चिन्ताके विभाजक, कहते हैं यह सत्य है वे अवश्यमेव मित्रकी चिन्ताको विभक्त करके [ ९६ ] कम कर देते हैं। यही कारण है, कि राजामें और उनमें अतिशय स्नेह होताहै। यह न समझना चाहिए, कि जो राजा विषयी और राजकाजमें अकुशल होते हैं, उन्हीको इस प्रकारके मित्रों की आवश्यकता पड़ती है। नहीं; आजपर्यन्त अनेक दूरदर्शी और विशालबुद्धि राजाओंने भी, अपने नौकरोंमेंसे, किसी न किसीसे मैत्री सम्पादनकी है; और ऐसा करके उनको उन्होंने मित्र कहकर स्वयं पुकारा है, और दूसरोंसेभी ऐसाही सम्बोधन कराया है।

जिस समय रोमनगरका अधिपति सीला था, उस समय उसने पाम्पीनामक एक मनुष्यको(जो पीछेसे "बड़े पाम्पीके" नामसे प्रसिद्ध हुआ) इतने ऊंचे पदपर चढ़ा दिया था कि, वह अपनेको सीलासेभी अधिक प्रतिष्ठित होनेका गर्व हांकने लगा। एकबार रोमके प्रधान अधिकारी कानसलका पद खाली हुआ। उस पदको अपने एक मित्रको दिलवाने के लिए सीलाकी इच्छाके विरुद्ध पाम्पी प्रयत्न करने लगा और अन्तमें उसे दिलवाही तो दिया। सीला न होने पाया। यह सीलाको अच्छा नहीं लगा। उसने पाम्पीको भला बुरा कहा। परन्तु पाम्पीने अतिशय मर्मभेदक उत्तर देकर सीलाको चुप कर दिया। उसने कहा कि लोकमें अस्ताचलपर आरूढ़ होते हुए सूर्य की अपेक्षा उदयाचलपर आरूढ़ होते हुए सूर्यकी पूजा बहुत मनुष्य करते हैं।

डेसिमस ब्रूटस[६]ने जूलियस सीज़रको इतना वशीभूतकर लिया था कि सीज़रने अपने मृत्युपत्रमें लिखदिया था कि "मेरे भतीजे के अनन्तर मेरी सारी सम्पत्ति का स्वामी ब्रूटसहै"। इसी ब्रूटसने सीज़रको [ ९७ ] नष्टकर देनेकी शक्ति प्राप्त करली थी क्योंकि अशकुन और विशेषतः अपनी स्त्री काल पूरनियाके देखे हुए दुःस्वप्नके कारण, सीज़र सीनेट नामक सभा उठा देना चाहताथा; परन्तु ब्रूटसने धीरेसे उसका हाथ पकड़ कर उसे उसकी कुरसीसे उठाया, और कहा कि, जबतक तुम्हारी स्त्री एक अच्छा स्वप्न न देखै तबतक सीनेट सभा न उठादेनी चाहिए। सिसरोने, अपने एक ग्रन्थमें, अंटोनियसके एक पत्रका अवतरण ज्यों का त्यों दिया है। इस पत्रमें लिखा है कि सीज़र का ब्रूटसके ऊपर इतना प्रेम था मानो ब्रूटसने उसपर जादू कीथी।

आग्रिपा[७]का जन्म यद्यपि नीचकुलमें हुआ था, तथापि रोमके राजा आगस्टस सीज़रने उसे इतने ऊंचे पद पर चढ़ादियाथा कि जब राजाने, अपनी कन्या जूलियाके विषयमें, मेसेना[८]से परामर्श किया तब मेसेनाने निर्भय होकर यह स्पष्ट कह दिया कि "तुमने आग्रिपाकी योग्यता इतनी बढ़ादी है कि अब यातो जूलियाके साथ उसका विवाह करदो, या उसका प्राण लेलो; इन दोके अतिरिक्त तीसरा मार्गही नहीं है"। [ ९८ ] टिबेरियस [९]सीज़रने सेजानस[१०] को इतने ऊंचे पदपर चढ़ा दियाथा कि, मनुष्य उन दोनोंको मित्रयुग्म कहने लगे थे। टिवेरियसने एक पत्रमें, सेनानस को लिखा है, कि "हमारी दोनों की अतिशय मैत्री होने के कारण हम ये बातैं तुमसे गुप्त नहीं रखते"। इससे सिद्धहैकि टिबेरियस गुप्त से गुप्त भी बातैं सेजानससे कहदेताथा। रोम की सेनेट सभाने, इन दोनों की दृढ मैत्री के स्मरणार्थ, देवताओंके देवालयके समान मैत्रीका एक मनोहर मन्दिर निर्म्माण कर दियाहै। ऐसीही, किंबहुना इससेभी आधिक सेप्टीमिस[११] सेविरस और प्लाटियानस[१२] की मित्रता थी। सेप्टीमिस सेविरसने, अपने बड़े लड़केका प्लाटियानस की लड़कीके साथ बलवत् विवाह कर दियाथा। अपने लड़के और [ ९९ ] प्लाटियानस के मध्य अनुचित व्यवहार होते देख, सेप्टीमिस सेबिरस प्लाटियानसही का पक्ष लेताथा। सेप्टीमिस सेविरसने रोमकी सेनेट सभा को यहांतक लिखाथा, कि "प्लाटियानसको मैं इतना प्यार करताहूं कि मेरी यह इच्छा है, कि उसके पहलेही मेरा मरण आवे"।

ऊपर जिनका वर्णन कियागया है वे राजा यदि ट्राजन[१३] अथवा मारकस आरेलियस के समान होते, तो यह कह सकतेथे, कि अतिशय सौशील्य और सुस्वभाव के कारण, इस प्रकार की मैत्री होगई होगी। परन्तु वे इतने बुद्धिमान, इतने दृढ निश्चय वाले, और इतने स्वाभिमानी थे, कि उस प्रकार का तर्क होही नहीं सकता। अतः यह बात स्पष्ट है, कि यद्यपि उनको सुखकी सारी सामग्री प्रस्तुत थी, तथापि बिना मित्र के वह सब उनको आधी ही जान पड़ती थी; एक मित्र के बिना उससे उन्हैं पूरा पूरा आनन्द नहीं मिलता था। सबसे अधिक ध्यानमें रखने योग्य बात तो यह है कि इन राजाओं के स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे सब होकर भी उनसे इनको मैत्री का सुख नहीं मिलताथा।

फ्रांस के इतिहासकार कोमीनियस ने एक बात लिख रक्खी है; वह स्मरण रखने योग्य है। उसका कथन है, कि उसका स्वामी ड्यूक चार्लस दि हार्डी-अपनी गुप्त बातैं किसीसेभी न कहता था; तिसपर ऐसे रहस्य जो उसे अतिशय त्रासदायक थे उनका मर्म तो वह कदापि मुखसे बाहरही नहीं होने देता था। इस संकोचवृत्ति का परिणाम यह हुआ, कि उत्तर वयमें, उसकी विचार शक्ति दुर्बल होगई; दुर्बलही नहीं किन्तु कुछ कुछ नष्ट भी होगई। कोमी [ १०० ] नियस यदि चाहता तो वह अपने दूसरे स्वामी फ्रांसके राजा ग्यारहवें लिवी–के विषय में भी यही बात कहता, क्योंकि उसको भी उसकी संकोच वृत्ति ने, बहुत सताया था। "हृदय को मत भक्षण करो"। (अर्थात त्रासदायक बातों को मनका मनही में न रहने दो) इस प्रकारका एक दृष्टान्त पिथागोरस[१४]ने दिया है। यह यद्यपि स्पष्ट नहीं है, तथापि सत्य है; क्योंकि हृदय को हलका करने के लिए जिनके कोई मित्र नहीं है, उनको यदि कोई बुरा नाम देना हो तो "हृदय भक्षक" ही कहना युक्त है। परन्तु एक बात बड़ीही विलक्षण है उसको कहकर मित्रताके प्रथम फलके विषय का लेख हम समाप्त करैंगे। वह यह है कि मित्र के पास हृदयको हलका करनेसे परस्पर विरुद्ध दो कार्य होते हैं। अर्थात् मित्रसे सुख की बात कहनेसे वह सुख दूना होजाता है; और दुःख की बात कहनेसे वह दुःख आधा रहजाता है। मित्रको सुख संवाद सुनानेसे जिसका सुख वृद्धिगत नहीं होता, किम्बा दुःख की वार्त्ता कहनेसे जिसका दुःख न्यून नहीं होता ऐसा मनुष्यही नहीं है। योरपके कीमिया करनेवालोंका कथन है कि पारस पत्थरमें परस्पर विरुद्ध गुण हैं,परन्तु उनसे शरीरको अपाय नहीं होता; उलटा लाभ होता है। इसी प्रकार मनकी बात मित्रसे कहनेसेभी मन कलुषित नहीं होता; प्रफुल्ल होता है। कीमिया वालों की बात जाने दीजिये; व्यवहार मेंभी इस बात के स्पष्ट उदाहरण देख पड़ते हैं। संयोग से पदार्थों का स्वाभाविक गुण बढ़ता है और दृढ होता है, परन्तु बलपूर्वक उनका वियोग करने से वे मन्द तथा अशक्त होजाते हैं। मन की भी यही दशा है॥ [ १०१ ] मनो विकार अनावर होने पर मैत्री के योगसे मन स्वस्थ होता हैं। मैत्रीका यह प्रथमः फल हैं। मैत्रीका दूसरा फल यह है, कि उसके योगसे बुद्धि को निरोगता आती है, बुद्धि के विकारों को दूर करने के लिए वह अव्यर्थ महौषधि है। जिस प्रकार मनोविकारों के उच्छृखल होने से, मैत्रीका साहाय्य पाकर मन शान्त होता है, वैसे ही नानाप्रकारके भले बुरे विचारों में निमग्न होनसे, बुद्धि के ऊपर छायाहुवा अन्धकार भी मैत्री के योग से जाता रहता है। यह न समझना चाहिये, कि मित्र के द्वारा उचित उपदेश मिलनेसे ऐसाहोता है; नहीं उपदेश मिलनेके पहलेही बुद्धिका अज्ञानपटल नाश होजाताहै। जिसका मन नाना प्रकार के विचारोंसे भर जाता है, वह जब दूसरे मनुष्य से भाषण करने लगता है और अपने मनकी बातैं कहने लगता है, तब उसकी विकल हुई बुद्धि और विचार शक्ति शुद्ध होने लगती हैं। उस समय वह अपने विचारों को अधिक सरलतासे व्यक्त करता है; सुव्यवस्थित रीतिपर, एक के अनन्तर एकको कहता जाता है; और शब्दों में परिणत होने पर वे अच्छे लगते हैं अथवा नहीं यह भी देखता जाता है। सत्य तो यह है, कि एक दिन पर्यन्त, अपनेही मनमें मनन करनेसे, मनुष्यको जितनी बुद्धिमत्ता आती है, उतनी दूसरेके साथ एक घंटेही भर संभाषण करनेसे आजाती है। एतादृश संभाषणसे, पहले की अपेक्षा, मनुष्य अधिक ज्ञान सम्पन्न होजाताहैं।

ईरानके राजासे थेमिस्टाक्लिस[१५]ने बहुत ठीक कहा है, कि भाषण [ १०२ ] फैलाए हुए क़ालीन के समान है। फैलानेहींसे कालीनके ऊपर निकाले हुए चित्र विचित्र बेल बूटे दिखाई देतेहैं। इसी प्रकार, जब भाषणद्वारा विचार व्यक्त कियेजाते हैं तभी वे शोभायमान होते हैं, लपेटकर मनहीमें रख छोड़नेसे नहीं अच्छे लगते। यह समझना ठीक नहीं कि जो मित्र सदुपदेश और सत्परामर्श देनेमें समर्थ होते हैं, उन्हींके साथ वार्तालाप करनेसे मित्रताके बुद्धि विकाश रूपी दूसरे फलकी प्राप्ति होती है। ऐसे ऐसे मित्र मिलैं तो और भी अच्छा है परंतु यदि नभी मिलैं तो औरोंके साथ भी बातचीत करनेसे, मनुष्य बहुत कुछ ज्ञान सम्पादन कर सकता है, और अपने विचारोंको व्यक्त करनेकी युक्ति सीख सकता है। सानपर रखनेसे जैसे चाकू, कैंची इत्यादि पदार्थ चमकदार और धारयुक्त होजाते हैं परन्तु सान जैसीकी तैसीही रहजाती है, वैसेही मनुष्य चाहै कैसाही अज्ञान क्यों नहो, उसके साथ बातचीत करनेसे, बोलने वालेकी बुद्धि अवश्यमेव प्रखर होजाती है। हमारा तो यह मत है, कि अपने विचारोंको मनहीमें जीर्ण करके व्याकुल होनेकी अपेक्षा उनको किसी चित्र के सामने अथवा किसी मूर्त्तिके सामने जाकर कह सुनाना अच्छा है।

मित्रताके इस दूसरे फल के माहात्म्यको पूरा करनेके लिए एक बात और कहनी है। वह एक ऐसी बात है जो विशेष स्वष्ट है और जिसे साधारणतया छोटे बड़े सभी जानते हैं। वह यह है कि मित्रसे सत्परामर्श मिलता है। हिराक्लिटस[१६]ने अपने एक कूटसुभाषित में ठीक कहाहै, कि "प्रकाशों में शुद्ध प्रकाश सबसे उत्तम है"। यह सर्वथैव सत्य है, कि दूसरे के परामर्शसे बुद्धि विकास रूपी जो [ १०३ ] प्रकाश मिलता है वह अपने निज के ज्ञान और सदसद्विचार रूपी प्रकाश से अधिक शुद्ध और विमल होताहै। इसका यह कारण है कि अपनी बुद्धि के प्रकाश में अपने मनोविकार और स्वाभाविकदोष मिले रहते हैं। यह बात दूसरेसे प्राप्त हुए परामर्श रूपी प्रकाश में नहीं होती। अतएव मित्रसे जो परामर्श मिलता है, उसमें और स्वतः के परामर्श में उतनाहीं अन्तर है जितना मित्र और मिष्टभाषी किसी चाटुकार के परामर्श में अन्तर होता है। स्मरण रखना चाहिये कि मनुष्य के लिये अपनी अपेक्षा अधिक और कोई चाटुकार नहीं, और अपने चाटुकार रूपी रोग को दूर करनेके लिये, स्पष्टवक्ता मित्र के अतिरिक्त दूसरी और कोई औषधि नहीं।

परामर्श (सलाह-मसलहत) दो प्रकार का है। एक चलन वलन सम्बन्धी; दूसरा कर्तव्यकर्म्म सम्बन्धी। चलन वलन सम्बन्धी परामर्श का पहले विचार करैंगे।

मनको कुमार्गमें जानेसे रक्षित रखनेके लिये सच्चे मित्र के वाग्दण्ड के समान और औषध नहीं। अपने आपही, अपने कार्यों की आलोचना करके, मनको ऊंचा नीचा सुझाना भी वैसीही औषधि है, परन्तु उसका प्रयोग हृदय को बहुधा विशेष पीडा और आघात पहुँचाता है। नीति विषयक ग्रन्थों का अवलोकन करने से भी मनुष्य की मानसिकवृत्ति नहीं बिगडती; परन्तु इस प्रकार के ग्रन्थों के पढ़ने में जी नहीं लगता। अपने सदृश दोषों का परिणाम यदि दूसरों में देखना चाहैं, तो वह भी कभी अयोग्य समझा जाता है। अतः मित्रकृत वाग्दंड के समान, इस विषय में, अन्य उपाय नहीं; उसका गुण भी उत्तम है और वह स्वयं ग्रहण करने में भी उत्तम है–क्लेशकर नहीं। अनेक मनुष्यों को–विशेष करके बड़े बड़े लोगों को–महान् प्रमाद और उपहासास्पद बातों को करते देख आश्चर्य होता है। ऐसे ऐसे प्रमाद और असंगत बातोंके कारण [ १०४ ] उनकी कीर्त्ति और सम्पत्ति दोनों में बट्टा लगता है। परंतु उनकी भूल उनके दिखलाने वाले यदि उनके मित्र होते तो ऐसा कदापि न होता। सेंटजेम्सका कथन है कि ऐसे मनुष्योंकी गणना उनमें करनी चाहिए, जो अपना मुख दर्पणमें देखकर तत्कालही अपना स्वरूप और आकृति भूल जाते हैं।

कर्तव्यकर्म्म सम्बन्धी परामर्शके विषय में अब विचार करैंगे। बहुतेरे उद्भट विद्वानों का यह मत है, कि एक नेत्र की अपेक्षा दो नेत्रोंसे अधिक नहीं देख पड़ता; दूर खड़े होकर देखनेवाले की अपेक्षा खेलनेवालोंको खेल का मर्म्म अधिक समझ पड़ता है, क्रोध से अभिभूत हुआ मनुष्य शान्त मनुष्य के बराबरही विचारशील होता है; बन्दूक को किसी वस्तुपर रखकर उसके सहारे जैसा लक्ष्यभेद करते बनता है वैसाही हाथ में रखकर भी करते बनता है; परन्तु हमारी समझ में ये तथा इस प्रकारकी और बातैं प्रलाप मात्र हैं। जिनमें नख से शिखा पर्य्यन्त अहङ्कार भराहुआ है वही बहुधा, ऐसे ऐसे उद्गार निकालते हैं। चाहै जो कहिये और चाहै जो कीजिए, एक बात यह निर्विवाद है, कि सत्परामर्श लेनेसे काम काज निर्विघ्न और यथेच्छ होता चलाजाता है। यदि किसीकी इच्छाहो, कि वह एक काम में एक मनुष्य का और दूसरे में दूसरे का परामर्श लेवें, तो वह वैसा भी करसकता है। वैसा करना भी अच्छा है-निदान किसीसे कुछभी न पूंछने सेतो अच्छाही है। परन्तु इस प्रकारके परामर्शमें दो डर हैं। एक तो सत्परामर्श मिलनाही कठिन होगा, क्योंकि सच्चे मित्रके अतिरिक्त दूसरेसे क्वचित् ही निष्कपट परामर्श मिलताहै; फिर एक बात और यहहै कि परामर्श देनेवाले का कोई न कोई उद्देश रहता ही है; अतः उस उद्देश के अनुसार, स्वार्थका कुछ अंश परामर्शमें अवश्यमेव मिश्रित होजाता है। दूसराडर यह है, कि परामर्श देनेवालेका हेतु यदि अच्छा भी [ १०५ ] हुआ तो भी उसके कथनका अनुसरण करनेसे धोखा और अपाय होना संभव है। ऐसे परामर्शमें गुण और दोष दोनों मिले रहते हैं। जो वैद्य रोगी की प्रकृतिसे परिचित नहीं है, वह यद्यपि चिकित्सामें प्रवीण भी हुआ, और यद्यपि जिस रोगके लिये वह बुलाया गया है उसको उसने अच्छा भी करदिया, तोभी सम्भव है, कि, औषधोपचार करनेसे शरीरमें एक दूसराही रोग वह उत्पन्न करदेवै और तद्वारा रोगीकी मृत्युका कारण होवै। जो पूर्णतया परिचित नहीं हैं उनके परामर्श में भी ऐसाही भय रहता है। परन्तु अपने मित्रको अपना सारा वृत्त इत्थंभूत विदित रहता है; इसलिए एक काम करनेसे दूसरा काम न बिगड़ने देनेके विषयमें वह सावधान रहता है और कभी अनुचित परामर्श नहीं देता। अतः फुटकर, ऐसे वैसे मनुष्योंसे सलाह न लेनी चाहिए; लेनेसे कामकी सुव्यवस्थातो होती नहीं, चित्त उलटा क्षुब्ध होजाताहै और परिणाम हितावह नहीं होता।

मैत्रीके दो उत्कृष्ट फलोंका उल्लेख होचुका। इन दोमेंसे एक, मनोविकारोंको उच्छृंखल होनेसे बचाना है और दूसरा, सदसद्विचार बुद्धिको सहायता पहुंचाना है। अब तीसरे फलका माहात्म्य सुनिए। यह फल अनारके समान है; अनार जिसमें अनेक दाने होतेहैं। इस कथनसे हमारा यह अभिप्राय है, कि सब कामोंमें और सब प्रसंगोंमें मित्रसे साहाय्य मिलता है और मित्रका उपयोग होता है। यदि यह देखना हो, कि कहां कहां, और किस किस समयमें, कौन कौन काम मित्रसे निकलते हैं, तो मनुष्यको चाहिए कि वह इसका विचार करै, कि ऐसी कितनी बातैं हैं जो वह अकेले नहीं कर सकता। ऐसा करनेसे यह विदित हो जायगा कि पुरातन लोग मित्र की महिमा बहुत कम समझते थे। यही कारण है जो उन्होंने "मित्र अपनाही एक अन्य आत्मा है" इस प्रकार मित्र का लक्षण [ १०६ ] कहा है; क्योंकि मित्र अपना आत्मा नहीं किन्तु आत्मासे भी अधिक है। मनुष्य का आयुष्य नियमित है। अपने इस हेतु सिद्ध होने के पहले ही बहुधा मनुष्य काल कवल हो जाताहै। हमारे पीछे हमारी सन्तति की क्या दशा होगी। जो काम हमने आरम्भ किया है वह कैसे समाप्त होगा"। ऐसी ऐसी अनेक प्रकारकी चिन्ता मनुष्य के मनको पीडित किया करती हैं। परन्तु यदि मनुष्य के कोई सन्मित्र हुआ, तो उसको इस बात का विश्वास रहता है, कि उसके मरने के अनन्तर उसकी इच्छित बातों को उसका मित्र पूरा करैगा। अभिलषित बातों की पूर्त्तिके विषय में, मित्र के होनेसे, मनुष्य मानो दो आत्माओं में विभक्त होजाता है। मनुष्यके एकही देह है और वह एकही स्थान में स्थित रहता है; परन्तु मित्रहोनेसे यह मानना पड़ता है कि मनुष्य संसारके सारे काम करने में समर्थ होता है; क्योंकि जो काम वह स्वयमेव नहीं कर सकता वह वह अपने मित्रसे कराता है; और मित्र अपनाही आत्मा है। ऐसी कितनीही बातैं हैं, जो मनुष्य लज्जा और संकोचवश होकर स्वयं नहीं कह सकता, अथवा स्वयं नहीं कर सकता। अपने मुखसे अपनेहीं गुण मनुष्य मर्य्यादशीलतासेभी नहीं कह सकता, फिर प्रशंसापूर्वक कहने की बातही दूर रही। कभी कभी याचना और विनय करनेका भी साहस मनुष्यको नहीं होता। एक नहीं ऐसी अनेक बातैं हैं। अपने मुखसे ऐसी ऐसी बातैं कहना लज्जास्पद है; परन्तु यही बातैं मित्रके मुंख से निकलने पर उलटी शोभा देती हैं। फिर मनुष्यके अनेक सम्बन्धी होतेहैं; उनका सम्बन्ध वह तोड़ नहीं सकता। लड़केसे पिताके समान बोलना पड़ता है; स्त्रीसे पतिके समान बोलना पड़ता है; शत्रुसे शत्रुके समान बोलना पड़ता है। जिससे जैसा सम्बन्ध होता है उसके साथ उसके सम्बन्धके अनुसार भाषण करना पड़ता [ १०७ ] है; परन्तु मित्रके लिये किसी सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं होती। समयानुकूल जैसा चाहिए वैसाही वह बोल सकता है। कहांतक कहैं; ऐसी अनेक बातैं हैं। सभीका समावेश करनेसे पार पाना दुस्तर होगा। यहांपर हमने एक नियम मात्र कह दिया, कि किस प्रकार मनुष्य, मित्रकी सहायताके बिना अपने काम नहीं कर सकता। यदि मनुष्यके मित्र नहीं है, तो उसे चाहिए, कि इस संसाररूपी रंगभूमि से वह निकल जावै।

  1. जो सच्चा मित्र है, वह अपने मित्रको, अनुचित कार्य करनेसे रोकता है, जिसमें उसका हित हो, उस कार्यकी ओर उसे वह प्रवृत्त करता है; जो बातैं किसीसे न कहनी चाहिए उन्हें वह छिपाता है; जो बातें उसके सद्गणोंकी परिचायक हैं, उनको, वह, सब ओर प्रकट करता है. आपत्ति आनेपर वह अपने मित्रको कभी नहीं छोडता; और समयपर वह उनकी रुपये पैससेभी सहायता करता है-सत्पुरुषोंने सच्चे मित्रके यही लक्षण कहे हैं।
  2. यपीमिनीडस कीटद्वीप मे उत्पन्न हुआ था और वहीं इसने मृत्यु पाई। सुनते हैं यह १५७ वर्षका होकर मरा था। इसने अनेक बार अनेक चमत्कार दिखलाए हैं। एक गुहामें एकबार यह ५० वर्षतक सोता रहा। कहते हैं यह अपने आत्माको शरीरसे यथेच्छ बाहर करदेता था और फिर बुलालेताथा।
  3. न्यूमा रोमका दूसरा राजाथा। यह अत्यन्त धर्मनिष्ठथा। किम्वदन्ती है कि यह राजा इजीरिया नामक देवताके प्रत्यक्ष दर्शन करके, उससे उपदेश ग्रहण करता था। ४३ वर्ष राज्य करके, ६७२ वर्ष ईसवी सन् के पहिले, इसने इस लोकका परित्याग किया।
  4. सिसलीमें, ईसवी सन् के ४४४ वर्ष पहले यम्पीडोक्लिसनामका एक प्रख्यात तत्त्ववेत्ता और कवि होगया है। कहते हैं इसने अनेक अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलाए हैं। एक बार एकमृतस्त्रीको इसने सजीव कर दिया। इसका ठीक ठीक पता नहीं लगता कि यह कब और किसप्रकार मरा।
  5. अपोलोनियस ईसवी सन् के प्रथम शतकमें हुआ है। यह बड़ा विद्वान बड़ा भ्रमणशील और बड़ा तपस्वीथा। इसने भी अनेक आश्चर्यजनक चमत्कार दिखलाए हैं।
  6. सीजरने, एक युद्धमें, डेसिमस ब्रूटसको प्राणदान देकर उसे अपना परम मित्र बनाया था। परंतु सीजरके अन्यायको सहन न करके, ब्रूटसने उसे रोमके सीनेर नामक कौंसिलगृहमें मारडाला। ब्रूटसने, ईसवी सन् के ४२ वर्ष पहले सीजरके मित्र अंटोनियस द्वारा निधन पाया।
  7. आग्रिपा रोमका निवासी था। इसने कई युद्धोंमें बड़ी वीरता दिखाई है। रोमके राज्यको इसने विशेष लाभ पहुँचाया। आगस्टस सीज़रका यह परम मित्र था। ५१ वर्षके वयमें ईसवी सन् के १२ वर्ष पहले इसकी मृत्यु हुई। इसकी समाधि उसी स्थानमें बनाई गई जिसे आगस्टस सीज़रने अपने लिये निश्चित किया था।
  8. मेसेना रोम का एक प्रसिद्ध सरदार था। इसका सम्बन्ध यहूदियोंके राजवंश से था। यह महा विद्वान था। आगस्टस सीज़र का मित्र होनेके कारण, यह, उसको सदैव सदुपदेश दिया करता था। इसने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं; परन्तु इस समय उनका पता नहीं लगता। ईसवी सन् के ८ वर्ष पहले इसकी मृत्यु हुई।
  9. टिबेरियस सीज़र, रोम में, एक महाविषयी राजा होगया है। अपने मित्र सेजानसको राज्यकाभार अर्पण करके यह वांछित सुख भोगमें निमग्न होगया था। सन् ३७ ई॰ में इसका अन्त हुआ।
  10. सेजानस, टिबेरियसका परममित्र था। राज्यशासन सूत्र, इसके हाथ में आतेही, इसने उलटी टिबेरियसहीकी अवहेलना आरम्भ की। वही इसके मृत्यु का कारण हुआ।
  11. सेप्टीमिस सेविरस रोमका राजा था। इसका शासन काल सन् २११ ई॰ तक रहा।
  12. प्लाटियानस की जन्मभूमि आफ्रिका थी। इसका जन्म एक नीचकुलमें हुआ था। रोमका राज्य पानेके पहलेही सेप्टीमिस सेविरससे इसकी मित्रता होगईथी। सेप्टीमिस सेविरसने इसका महत्व बहुत ही बढ़ा दिया था। सेप्टीमिस सेविरसके लड़के की इच्छा के विरुद्ध इसने अपनी लड़की का विवाह उससे करा दिया था। लड़की को जब कष्ट मिलने लगा, तब प्लाटियानस ने राजा और राजपुत्र के प्रतिकूल कुछ जाल फैलाया। इस बातको सुनकर सेप्टीमिस सेविरसने इसे मरवा डाला।
  13. ट्राजन और मारकस आरेलियस ये दोनों रोम में परम दयालु, परमोदार और परम यशस्वी राजा होगेयेहैं। मारकस आरेलियस को तो रोमन लोगों ने देवता माना है।
  14. ग्रीसमें पिथागोरस नामक एक अद्वितीय तत्त्वज्ञ होगया है। ईसवी सन् के लगभग ५०० वर्ष पहले यह विद्यमान् था। २२ वर्ष तक मिश्रदेशमें रहकर नाना प्रकारकी विद्यायें इसने सीखीथी। परमाणु से सृष्टि उत्पन्न हुई है और उसका कर्ताभी कोई अवश्य है–यह इसका सिद्धान्त था। सूर्यबीचमें है और समग्र ग्रह उसके चारों ओर घूमते हैं–यह उपपत्ति इसीकी कीहुई है। यह मांसाहारी नथा। योग में भी यह कुशलथा; हिंस्रजीवोंको यह अपने वशमें कर लेताथा और एकही समयमें कई स्थानों में उपस्थित होजाता था।
  15. थेमिस्टाक्लिस एथन्स में एक बड़ा बुद्धिमान् शूरवीर और साहसी सेनानायक होगया है। अपरिमित सेना लेकर ग्रीस पर चढ़ाई करने वाले जरकसीज़ नामक फ़ारसके राजाको इसीने परास्त किया। किसी कारण से एथन्स वाले इससे अप्रसन्न होगए; अतः यह ज़रकसीजके पुत्रके पास फ़ारस चला गया। थेमिस्टाक्लिस के लोकोत्तर गुणोंसे मुग्ध होकर फारसके राजा–ज़रकसीज़के पुत्र–ने, पुरानी शत्रुता भूलकर इसको बड़े आदरसे रक्खा–थेमिस्टाक्लिस ४४९ वर्ष ईसवी सन् के पहले मृत्युको प्राप्त हुआ।
  16. ग्रीसमें हिराक्लिटस नामक एक महान् तपस्वी और तत्त्वेवत्ता होगयाहै। इसको एकान्तवास अति प्रिय था। फारसके राजा डारियस के बुलाने परभी यह अपनी पहाड़ी गुफासे बाहर नहीं निकला इसकी मृत्यु जलोदर रोगसे हुई। ईसाके लगभग ५०० वर्ष पहले यह विद्यमान था।