बेकन-विचाररत्नावली/३० दाम्भिक बुद्धिमत्ता

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दाम्भिक बुद्धिमत्ता।

[१] भेतव्यं न बोद्धव्यं न श्राव्यं वादिनो वचः।
झटिति प्रतिवक्तव्यं सभासु विजिगीषुणा॥

कलिविडम्बन.

किसी किसीका यह मत है कि फ्रान्सके निवासी जितना देख पड़ते हैं उससे वे अधिक बुद्धिमान् होते हैं और स्पेनके निवासी जितना होते हैं उससे वे अधिक बुद्धिमान देख पडते हैं। देशवासीजनोंके सम्बन्धमें चाहै यह बात पाई जावै चाहै न पाई जावै परन्तु मनुष्य मनुष्य के सम्बन्धमें यह अवश्यमेव पाई जाती है। एक धर्माचार्यका कथन है कि,-"अनेक लोग सदाचार दिखलानेका मिष मात्र करते हैं परन्तु यथार्थतया उनमें कुछ भी भक्तिभाव नहीं होता"। इसी प्रकार ऐसे अनेक लोग हैं जो बुद्धिमत्ता और चतुरताका अतिशय हाव भाव दिखलाते हैं। वे कोई काम नहीं करते; किया भी तो बहुत थोड़ा और सो भी बड़ी गम्भीरताके साथ। जिस विषयको वे नहीं जानते उसका उनको पूर्ण ज्ञान है-इस बातको सिद्ध करनेके लिए "ढोलके भीतर पोल" के उपमाधारी ये लोग ऐसी ऐसी युक्तियां लड़ाते हैं जिनको देख सद्विचारयुक्त मनुष्यको हँसी आती है, यही नहीं, किन्तु तत्सम्बन्धी एक प्रहसन भी लिखने की इच्छा होती है। कोई कोई इतने मितभाषी और अन्तर्ग्रन्थि स्वभावके होते हैं कि स्पष्टतया वह कभी कुछ भी नहीं बोलते। दोचार बात कहते हैं और शेष सब मनका मनहीमें रहने देते हैं, स्पष्ट नहीं कहते। उस समय वे यह भाव। व्यक्त करते हैं कि जानते तो हैं हम परन्तु बतलावेंगे नहीं। जो कुछ [ ९० ] वे कहते हैं उसका अर्थ उन्हींको पूरा पूरा नहीं समझ पडता; और यह बात वे स्वयं जानते हैं परन्तु बाहरसे सर्वज्ञताका भाव दिखलाते हैं।

बहुतेरे मनुष्य अपनी मुखचर्या, भ्रूविक्षेप और हावभावादिसे अपनी बद्धिमत्ता प्रकटित करते हैं। सिसरोंने पिसो[२]के विषयमें ऐसाही कहा है। उसका कथन है कि जब पिसो उसके प्रश्नका उत्तर देताथा तब वह अपनी एक भ्रुकुटीको तो ऊपर ललाट तक चढ़ाले जाताथा और दूसरीको नीचे ठोढीतक झुका देता था। कोई कोई बड़े बड़े शब्दोंका प्रयोग करके लक्ष्यपूर्वक भाषण करते हैं। यदि किसी विषयको वे पूर्णतया सिद्ध नहीं कर सकते तो भी हठात् वे यही कहते जाते हैं कि जो कुछ हमने कहा वही यथार्थ है और बराबर बोलतेही चले जाते हैं। बहुत ऐसे होते हैं कि जो बात वे नहीं समझते उसे वे तुच्छ मानते हैं और उसको निरुपयोगी तथा तिरस्कार्य कहकर अपने अज्ञानको छिपाते हैं।

किसी किसीको भेदभाव करनेका स्वभाव पड़जाता है। ऐसे मनुष्य क्लिष्टकल्पना द्वारा सूक्ष्मसे सूक्ष्म भेद निकालकर लोगोंका मनोरञ्जन करते हैं। इस प्रकार अर्थच्छल करके मूल विषयका वे उत्थानही नहीं होने देते। ऐसे लोगोंका उपहास करनेके लिए प्लेटो[३]ने एक संदर्भ लिखाहै [ ९१ ] उसका नाम उसने प्रोटागोरस[४] रक्खाहै। इस संदर्भ में प्रोडिकस[५] नामक एक पात्रके मुखसे उसने एक वक्तृता दिलाई है जिसमें आदि से लेकर अन्ततक केवल "भेद" वर्णन है। मुख्य विषयकी ओर दृक्पात तक नहीं किया गया। जितने विचारणीय विषय हैं उन सबमें एतादृश मनुष्य प्रतिकूल पक्ष अवलम्बन करते हैं। तदनन्तर वे भावी विघ्नोंका विवेचन करके अनेक शंका उठाते हैं और तद्द्वारा अपनी बुद्धिमानी व्यक्त करते हैं। इसी प्रकारका व्यवहार करना वे अपने [ ९२ ] लिए हितावह समझते हैं, क्यों कि जिस बातका विचार करना है वह यदि विघ्नभावना और शंकोत्थान करनेसे परित्यक्त होगई तो उसी क्षण उसका अन्त होगया। परन्तु यदि मान्य समझीगई तो मानो आगे के लिए और काम बढ़ा। ऐसी दाम्भिक बुद्धिमत्तासे काम का सत्यानाश होता है; इसमें कोई सन्देह नहीं। सत्य तो यह है कि ऐसे ऐसे दाम्भिक पुरुषोंको अपनी न्यूनताको गोपन करके अपनी बुद्धिमानी दिखाने के लिए जितना प्रयत्न करना पड़ता है उतना एक आध दिवालिए महाजन अथवा नष्टद्रव्य धनीको भी अपना दास्य छिपाने के लिए नहीं करना पड़ता।

दाम्भिक बुद्धिमत्ताको व्यक्त करनेवाले लोग कदाचित् लोकमें मान सम्भ्रम भी प्राप्त करते होंगे परन्तु किसी भी विचारशील पुरुषको उनकी बाहरी बात चीतमें लुब्ध होकर उन्हैं कोई काम न देना चाहिए। कामकाजके लिए ऐसे पाखंड पूरित मनुष्योंकी अपेक्षा भोले भाले सीधे मनुष्य अच्छे होते हैं।

  1. यदि यह इच्छा हो कि सभामें हम विजयी हों, तो डरना न चाहिए, प्रकृत विषयको समझनेका यत्न भी न करना चाहिए; और दूसरेकी बातको सुनना भी न चाहिए; बस, उस समय जो कुछ मुखसे निकलै वह, पूछे जाने पर बराबर कहतेही चलेजाना चाहिए।
  2. पिसो रोममें एक प्रसिद्ध पुरुष होगया है। यद्यपि वह कृपण था तथापि वह एक प्रख्यात वक्ता, व्यवहारदर्शन वेत्ता और इतिहासज्ञ था। लगभग १४९ वर्ष ईसाके पहिले वह विद्यमान था।
  3. प्लेटो ग्रीसमें एक अति व्याख्यात तत्त्ववेत्ता हुआहै। उसके नामसे प्रायः सभी लिखे पढ़े मनुष्य परिचित हैं। उसका नाम अरिस्टाक्लिस था परन्तु उसके कन्धे अतिशय विस्तृत होने के कारण लोग उसे प्लेटो कहकर पुकारने लगे। शारीरिक और मानसिक दोनों शिक्षा इसको पूर्णरूपसे दीगई थी। चित्रकला और कविता इसने पहिले पहिल विशेष अभ्यास किया था। कवितामेंतो इतना नैपुण्य इसने प्राप्त किया था कि थोड़ीही अवस्था में इसने एक उत्तम काव्य लिखाथा। परन्तु जब इसने उसे होमरके काव्यसें मिलाकर देखा तब उससे अपने काव्यको हीन पाया, अतः अपने ग्रन्थको अपनेही हाथसे इसने जलाडाला। २० वर्षके वयमें इसने एक नाटक भी लिखा था परन्तु उसके खेले जानेके पहिलेही इसने साक्रेटिसकी वक्तृता और कीर्ति सुनी और सुनकर ऐसा मुग्ध होगया कि उसका शिष्य बनकर तत्त्वज्ञान सीखनेलगा। ८ वर्षतक इसने साक्रेटिससे शिक्षाग्रहणकी अनन्तर ईजिप्त और इटली इत्यादि देश भ्रमण करके अपनी विद्याकी और भी अधिक इसने वृद्धिकी। इसने एथन्समें एक पाठशाला स्थापन करके सहस्रशः नवयुवकों को विद्यादान दिया। इसको ज्यामिति और गणित शास्त्रका बड़ा व्यसन था। इसने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। आत्माको यह अमर मानता था और पुनर्जन्ममेंभी विश्वास करता था। साक्रेटिसकातो शिष्यहीथा फिर भला क्यों न यह ऐसा करै? गुरुकेभीतो सिद्धान्त ऐसेही थे।
  4. प्रोटागोरस नामका एक तत्त्ववेत्ता ग्रीसमें हुवा है। वह ईश्वरका अस्तित्वही नहीं मानताथा। एक पुस्तक उसने इसी विषयपर लिखीथी जो सर्व साधारणके सामने एथन्स में जलादीगई। प्रोटागोरस अपनी नास्तिकताके कारण देशसे निकाल दियागया था। भूमध्य सागरके अनेक द्वीपोंमें घूमता फिरता सिसलीमें ४०० वर्ष ईसाके पहिले वह मृत्युको प्राप्त हुआ। अनुमान होता है प्लेटोका निबन्ध इसी प्रोटागोरसके सम्बन्धमें है।
  5. प्रोडिकस लगभग ३९६ वर्ष ईसाके पहिले नास्तिक मतावलम्बी एक साहित्यज्ञ होगया है। एथन्समें तथा ग्रीसके और बड़े बड़े नगरोंमें यह व्याख्यान देता फिरता था। इसने कई एक ग्रन्थ लिखे हैं। इसके सिद्धांतोंसे अप्रसन्न होकर एथन्सवालोंने इसको यह अपराध लगाकर मरवाडाला कि यह अपक्क बुद्धि नवयुवकोंके चित्तको अपने व्याख्यानोंसे कलुषित करताहै।