बेकन-विचाररत्नावली/३३ प्रवास

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी
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प्रवास।

देशान्तरेषु[१] बहुविधभाषावेषादि येन न ज्ञातम्।
भ्रमता धरणीपीठे तस्य फलं जन्मनो व्यर्थम्॥
विद्यां वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक्।
यावद्व्रजति न भूमौ देशाद्देशान्तरं हृष्टः॥

पञ्चतन्त्र।

अप्रौढ वयस्क लोगों के लिए, प्रवास, उनके शिक्षण का एक भाग है; और प्रौढवयस्क लोगों के लिए, अनुभव प्राप्त करने का वह एक मार्ग है। किसी देश विशेष की भाषा में प्रवेश किए बिना जो उस देश को जाता है, उसके लिए यह न कहना चाहिए कि वह पर्य्यटन करने जाताहै, किन्तु यह कहना चाहिए कि वह पाठशाला में पढ़ने जाताहै। हम इसे उत्तम समझते हैं कि युवक जन जब प्रवास करने निकलैं, तब अपने शिक्षक अथवा गम्भीर स्वभाववाले अपने किसी नौकर को वे अपने साथ लेलेवैं। अपना साथी ऐसा होना चाहिए जो विदेश की भाषा का ज्ञान रखता हो, और वह उस देश को पहले कभी गया भी हो। इस प्रकार का मनुष्य साथ होनेसे, प्रवास करने वाले को, वह, यथा समय, यह बतलाता जायगा कि जिस देश में वे पर्यटन कररहे हैं उसमे कौन कौन वस्तु देखने योग्यहै, कौन कौन पुरुष भेट करने योग्य हैं, और कौन कौन बात सीखने योग्य है। ऐसा मनुष्य साथ न होनेसे, [ ११७ ] तरुण लोग, नेत्रों पर परदासा डाल कर चलैंगे; प्रेक्षणीय वस्तुओं की ओर उनकी दृष्टि बहुत कम पहुँचेगी।

यह एक आश्चर्यकी बात है कि समुद्रमें जहां ऊपर आकाश और नीचे पानीके अतिरिक्त और कुछ नहीं देख पड़ता, वहां तो लोग दिनचर्य्या रखते हैं; परन्तु पृथ्वी पर जहां कितनीही दर्शनीय सामग्री हैं, वहां पर्यटन करते समय बहुधा वे दिनचर्य्यातक नहीं रखते। क्या वे यह समझते हैं कि भलीभांति अवलोकन की गई बातोंकी अपेक्षा आकस्मिक बातोंका लिख रखना अधिक उपयोगी होता है! नहीं, दिनचर्य्या अवश्य रखनी चाहिए।

विदेश जाकर, जो कुछ देखना और ध्यानमें रखना चाहिए वह यह है;–राजसभा–विशेषतः जब अन्य देशीय राजाओं के प्रतिनिधियोंका सभामें समागम होता है; न्यायालय-जिस समय वाद प्रतिवाद होता है; धर्म्माधिकारियोंके समाज; देवालय और महात्माओंके आश्रम तथा स्मरणके लिए उनमें रक्खे हुए उपलब्ध पदार्थ; छोटे बड़े सब नगरोंकी दीवारें और दुर्ग; सामुद्रिक बन्दर और घाट; पौराणिक पदार्थ और टूटी फूटी पुरानी इमारतैं; पुस्तकालय, विद्यालय, और जहां वाद विवाद अथवा व्याख्यान होते हों वह स्थान; सामुद्रिक यान, धूमपोत और उनके बेड़े; बड़े नगरोंके निकट विहारके लिए बनाए गए राजमन्दिर और उद्यान; आयुधागार, तोपखाने, गोला, बारूद आदि रखनेके स्थान; लेन देनका बाज़ार, महाजनोंकी कोठी, घोडोंका फेरना, व्यायाम भूमि, सैनिक लोगोंका अभ्यास इत्यादि, ऐसी ऐसी नाट्यशाला जहां प्रतिष्ठित घरानेके लोग जाते हों; रत्नागार, बहुमूल्य वस्त्रागार; राजाओंकी मन्त्रिसभा; अपूर्व और अप्राप्य पदार्थोंका संग्रहालय-सारांश जहां जो कुछ देखनेके योग्य हो वहां वह सब देखना चाहिए। शिक्षक अथवा नौकर को इस बातका भलीभांति अनुसन्धान कर लेना चाहिए कि कहां कहां क्या क्या वस्तु प्रेक्षणया [ ११८ ] है। चित्र विचित्र खेल, विवाहोत्सव, भोजन समारम्भ, शवयात्रा, वधदंड इत्यादि काभी स्मरण दिलानेकी आवश्यकता नहीं। प्रसंग पड़ने पर उनकोभी देखना चाहिए।

किसी अप्रौढवयस्क तरुणको यदि थोड़ेही समयमें अनेक बातोंका ज्ञान सम्पादन करने की इच्छा हो, तो हमारे कहनेके अनुसार उसको चलना चाहिए। जिस देशमें पर्य्यटन करना है उस देशकी भाषाका थोड़ा बहुत ज्ञान अवश्य होना चाहिए; यह पहले कह आए हैं। फिर साथमें एक ऐसा शिक्षक अथवा नौकर होना चाहिए जिसने उस देशमें एक बार भ्रमण कियाहो, इसकाभी ऊपर उल्लेख हो चुका है। जिस देशमें परिभ्रमण करना है उस देशका मानचित्र (नक्शा,) अथवा जिसमें उस देशका वर्णन हो ऐसी एक आध पुस्तक साथ रखना चाहिए; ऐसा करनेसे विशेष पूंछ पांछ करनेकी आवश्यकता न पड़ैंगी। दिनचर्य्या भी रखनी चाहिए, एकही स्थान अथवा एकही नगरमें बहुत दिन तक न रहना चाहिए। जिस स्थान अथवा जिस नगरमें जितने दिन रहनेकी आवश्यकता हो उतनेही दिन रहकर स्थानान्तरमें गमन करना उचित है। जब किसी नगरमें रहनेका प्रसंग पड़ै, तब चलनेके समय तक वहां एकही भागमें न रहकर, थोड़े थोड़े दिनके लिए कई भागोंमें निवास करना अच्छा है। दो एक दिन एक महल्लेमें, दो एक दिन दूसरेमें, दो एक दिन तीसरे में, इस प्रकार रहना चाहिए। ऐसा करनेसे जान पहँचान बढ़ती है। अपने देशके लोग जहां रहते हों वहां न रहना चाहिए। भोजन ऐसे स्थान में करना चाहिए जहां बड़े बड़े लोग एकत्र होते हों। स्थानान्तर करते समय तत्रस्थ किसी प्रतिष्ठित पुरुष के नाम कहीं से एक आध सिफ़ारशी पत्र प्राप्त करना चाहिए। ऐसा करने से, जो जो वस्तु देखने अथवा जानने के योग्य है उसके देखने अथवा जानने में, उस प्रतिष्ठित पुरुष की कृपासे, विशेष सुविधा [ ११९ ] होगी। इस प्रकारके सदनुष्ठान से थोड़ेही समय मे बहुत लाभ होगा।

अब यह देखना है कि प्रवास में किस किस का समागम श्रेयस्कर होता है। अन्य देशीय राजाओं के वकील, दूत और कामदार इत्यादिकों से परिचय करना बहुतही लाभदायक है। इन लोगों के परिचय से एक देशमें प्रवास करके अनेक देशों का ज्ञान सहजही होजाता है। इसी प्रकार, जो लोग देशदेशान्तर में प्रख्यात हों उनसे भी मिलना और वार्त्तालाप करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य को यह विदित हो जायगा कि जैसा उनका नाम है तदनुरूप उनका चरित भी है अथवा नहीं।

सुविचार और सुयुक्ति का व्यवहार करके लड़ाई झगड़े जहां तक टलैं टालने चाहिए। ... ... .... ...। कलह प्रिय और पित्त प्रकृति मनुष्यों की संगति से दूर रहना चाहिए। ऐसे मनुष्य प्रवासी के साथ बहुधा, व्यर्थ कलह करने लगते हैं। इनसे सावधान रहना चाहिए।

प्रवास से प्रत्यागमन करके, जिन जिन देशों को देखाहो उनको भूल न जाना चाहिए। विदेश में जिनसे परिचय होगया हो, उनमें से जो सबसे अधिक प्रतिष्ठित हों उनसे पत्र व्यवहार रखना चाहिए। विदेशी हाव भाव और वेषभूषण ग्रहण करके, अपने प्रवास की साक्षी न देनी चाहिये किन्तु वार्त्तालाप ऐसा करना चाहिए जिससे लोग समझजावें कि इसने प्रवास किया है। बिना पूंछे, अपने मुखसे अपने प्रवासकी कथा न कहनी चाहिये; परन्तु जब कोई उस विषयमें कुछ पूंछै तो यथोचित उत्तर देना चाहिए। वर्ताव इस प्रकारका रखना उचित है जिससे कोई यह न समझे कि इसने अपनी चाल ढाल छोड़ विदेशकी चाल ढाल स्वीकारकी हैं, किन्तु यह समझे कि विदेशमें जो कुछ उपादेय और उत्तम है उसे, अपने देशमें प्रचलित करनेकी इच्छासे इसने ग्रहण किया है।

  1. देशान्तर में भ्रमण करके, जिस मनुष्यने, नाना प्रकारकी भाषा और वेष इत्यादि का ज्ञान नहीं सम्पादन किया, उनका, इस भूतल पर जन्म लेनाही व्यर्थ है। जगत् में जबतक मनुष्य देश देशान्तरों का आनन्द पूर्वक अवलोकन नहीं करता तबतक विद्या, वित्त औ शिल्प कौशलका उसे सम्यक् लाभ नहीं होता।