बेकन-विचाररत्नावली/३४ नई प्रथा
पुराणमित्येव[१] न साधु सर्व।
न चापि नूनं नव मित्यवद्यम्॥
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते।
मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः॥
मालविकाग्नि मित्र।
जितने प्राणी हैं, जन्म लेनेके समय, प्रथमतः सभी कुरूप होते हैं। नई नई प्रथायेंभी आरम्भमें, उसी भांति, बेढंगी होती हैं यह एक साधारण नियम हुआ; कभी कभी इसके विरुद्ध भी घटना होती है। जैसा समय आता है वैसीही प्रथायेंभी प्रचलित होजाती हैं; अतः यह कहना चाहिए कि नई नई प्रथायें जो व्यवहारमें आती हैं वे समयकी सन्तति हैं। जो पुरुष प्रथमही प्रथम अपने कुलकी मान मर्यादा बढ़ानेके कारणीभूत होते हैं उनकी जितनी प्रतिष्ठा होती है उतनी उनके अनन्तर होनेवाले उनके वंशजोंकी नहीं होती। इसी भांति प्रथमही प्रथम प्रचारमें लाई गई प्रथायें जैसी अच्छी होती हैं वैसी पीछेसे औरोंके द्वारा अनुकरणकी गई प्रथायें नहीं होती। मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बुरी बातोंकी ओर अधिक होती है; अतः जो कुछ बुरा है उस विषयमें लोगोंकी वासना सदैव जागृत रहती है परन्तु जो कुछ अच्छा है उसके विषयमें, वह पहिले प्रबल होकर धीरे धीरे कम होती जाती है। नवीन रीतियोंकी भी यही दशा है। जितनी स्वाभाविक रीतियां हैं वे सदैव दृढ़ बनी रहती हैं, परन्तु जितनी अस्वाभाविक हैं वे पहले प्रबल होकर धीरे धीरे बलहीन हो जाती हैं।
यह समझना भूल है कि जो कुछ नया है सभी बुरा है। जितनी औषधियाँ हैं उन सबके सेवनकी रीति किसी न किसी समय अवश्य नवीन ही निकली होगी। अतः जो नवीन आविष्कृत की हुई औषधियों को प्रयोगमें न लावेगा उसे नवीन रोगोंसे अभिभूत होने के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। यह जगत् परिवर्तनशील है; इसमें समयानुसार सभी वस्तुओंका स्थित्यन्तर हुआ करता है। यदि समय के फेरसे, परिवर्तन होनेके कारण अपनी स्थितिको बुरी दशा प्राप्त होती हो, और यदि सुविचार और सत्परामर्शकी सहायतासे हम इसके सुधारनेका यत्न न करैं, तो कहिये हमारी इस असावधानता का क्या फल होगा?
यह सत्य है कि जो बातैं, रूढिके अनुसार, बहुत दिनोंसे चली आई हैं वे यद्यपि अच्छी न हुई तथापि अभ्यास पड़जानेसे यही जान पड़ता है कि वे अच्छी नहीं तो समयोचित अवश्य हैं। जो बातें, चिरकालसे, साथही साथ हुआ करतीहैं वे एक दूसरेकी सह वासिनी सी जान पड़ती हैं। परन्तु नई और पुरानी बातोंका मेल नहीं मिलता। उपयोगी होनेके कारण नई बातोंसे मनुष्यको यद्यपि सहायता मिलती है तथापि उनका असादृश्य त्रासदायक होता है। नई बातें अपरिचित मनुष्योंके समान हैं। जिनसे परिचय नहीं होता उनकी प्रशंसातो सब कोई करताहै, परन्तु उनपर अनुग्रह कोई नहीं करता अर्थात् उनको कोई कुछ देता नहीं। वैसेही, मनुष्य, नवीन रीतियों की मुखसे प्रशंसा करते हैं, तथापि उनको स्वीकार नहीं करते। यदि समय स्थिर होता तो यह सब ठीक था, परन्तु वह इतने वेगसे दौडता है कि किसी नई प्रथाके स्वीकार करनेसे जितनी असुविधा होती है उत नीहीं पुरानी प्रथाको हठपूर्वक प्रचलित रखने से होती है। यही कारण है कि जो पुरानी रीति भांतिके अतिशय पक्षपाती होते हैं उनका नए समयमें उपहास होता है। अतः मनुष्योंको चाहिए, कि जब वे कोई नई चालढाल निकालना चाहैं, तब समय की और अवश्य ध्यान रक्खैं। समय सदैव नया होता जाता है और अपने साथही नई नई प्रथायेंभी लाता है। समय के साथ साथ जो प्रथायें आती हैं वे, चुपचाप, कम कमसे आती हैं। उनका आना किसीके ध्यान में भी नहीं आता। नई नई बातोंके प्रचारके लिए समयपर निर्भर न रहकर उनको व्यवहारमें बलात् प्रविष्ट करना अच्छा नहीं; क्योंकि नई नई बातोंको अंगीकार करनेके लिए स्वभावहीसे मनुष्य प्रस्तुत नहीं रहते। उनके प्रचलित होनसे, यदि अनेकोंको लाभ होता है तो अनेकोंको हानि भी होतीहै। जिसको लाभ होता है, वह अपना सौभाग्य समझता है और समयको धन्यवाद देता है। परन्तु जिसको हानि होती है, वह समझता है कि उसे अकारण दंड हुआ और नवीन प्रथाके प्रचलित करनेवाले को गालियां देता है।
यदि नई नई प्रथाओंके प्रचलित करनेकी अतिशय आवश्यकता न हो, और यदि उनके प्रचलित होनसे निश्चित रूपमें लाभ होनेके लक्षण स्पष्ट न दिखलाई देते हों, तो, उनको केवल परीक्षाके लिए प्रविष्ट करनेका प्रयत्न न करना चाहिए। यदि नई प्रथायें प्रचलित करनी ही पड़ैं, तो यह सिद्ध करके दिखलाना चाहिए कि तत्कालीन प्रणालीके अनुसार उनका व्यवहार में लायाजाना अत्यावश्यक है। किसीको यह न भास होने पावै कि नई नई प्रथाओंको प्रचलित करनेहीं की इच्छासे परिवर्तन किया गया है इस विषयमें सदैव सावधान रहना चाहिए। एक बात यह और स्मरण रखनी चाहिए कि किसी नई चालको लोगोंने अमान्य नभी किया तो भी, उनको उस विषयमें संशय उत्पन्न होनेका अवसर न मिलने देना चाहिए। धर्म्म शास्त्रकी आज्ञानुसार "प्राचीन मार्ग में खड़े होकर, हम लोगोंको, अपने चारों ओर देखना चाहिए; तदनन्तर सीधे और सच्चे मार्गका पता लगाकर उसीसे गमन करना चाहिए।
- ↑ जो कुछ पुराना है सभी अच्छाहै–यह कहना ठीक नहीं; और जो कुछ नयाहै सभी बुराहै–यह कहना भी ठीक नहीं;। सत्पुरुष, परीक्षा द्वारा, अच्छे बुरेका भेद जानकर, दोमें से जो ग्राह्य होता है उसीको ग्रहण करतेहैं। परंतु मूर्खमनुष्य भेड़िया धसान होते हैं; दूसरेने जो कुछ कहा वही वह मान लेते हैं।