बेकन-विचाररत्नावली/३६ सौजन्य और परोपकार

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सौजन्य और परोपकार।

वेदनं[१] प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोप रणं येषां केषां न ते वंद्याः ॥ १॥

सुभाषितरत्नभाण्डागार।

मनुष्यों को दुःखित देख उनके दुःखों के परिमार्जन करने की भावनाही सौजन्य का सर्वोत्तम लक्षण है। इसी को–अर्थात् दूसरों का कल्याण चिन्तन करने वाली बुद्धि को–ग्रीक लोगों ने 'भूतदया' के नाम से उल्लेख किया है। एतादृशी सद्बुद्धि अथवा सौजन्य के लिए 'भूतदया'–यह नाम विशेष शोभा देता है; 'मनुष्य धर्म्म' अथवा और कोई नाम देने से उसमें न्यूनता आजाती है। परोपकार बुद्धि की वासना के अनुसार बर्त्ताव करने का अभ्यास पड़ते पड़ते पूरी पूरी सुजनता उदित होती है। मनुष्य में जितने सद्गुण और जितने उच्चधर्म्म हैं उन सबमें सौजन्य श्रेष्ठ है। कारण यह है कि सौजन्य ऐश्वरीय गुण है। मनुष्य में यदि सौजन्य न होतो वह केवल उदरपोषक उपद्रवी और दरिद्री जीव है। ऐसे मनुष्य में और छोटे छोटे कृमिकीटकादिकों में विशेष अन्तर नहीं। वेदान्त शास्त्र में दयाकी अतिशय महिमा वर्णन कीगई है। दयाही का दूसरा नाम सौजन्य है। सौजन्य में चाहै और किसी प्रकारकी भूल होजावै परन्तु मर्यादा के [ १३० ] बाहर जाने की भूल नहीं होसकती। देवदूतों[२] को मर्य्यादा के बाहर प्रभुत्व पानेकी इच्छा हुई; इसीसे उनका अधःपतन हुआ। मनुष्य[३] को मर्य्यादाके बाहर ज्ञान सम्पादन करनेकी इच्छा हुई; अतः उसकाभी अधःपतन हुआ। परन्तु सौजन्यकी मर्य्यादा नहीं; अतएव न तो उससे देवदूतोहींको किसी प्रकारका भय है और न मनुष्योंही को भय है। दूसरेका कल्याण करनेकी वासना, मनुष्यके मनमें, स्वभावहीसे खचित रहता है; यहां तक कि यदि उसकी प्रवृत्ति मनुष्यकी ओर न हुई तो और और जीवोंकी ओर होजाती है। तुर्क लोगोंको देखिये। ये लोग महा निर्दयी और क्रूर होतेहैं; परन्तु पशुओंको वे विशेष दयादृष्टि से देखतेहैं, और कुत्ते तथा पक्षियों तकको खिलाते पिलाते हैं। बसवीचियसने लिखा है कि कांस्टैंटिनोपलमें एक बार एक क्रिश्चियन लड़केने किसी लंबे चोंचवाले पक्षीके मुखमें कपड़ा भर कर उसका बोलना बन्द कर दिया। इस नटखटताको देख, तुर्क लोग, उसके ऊपर पत्थर बरसाने लगे।

सौजन्य और दानशीलतामें प्रमाद होना सम्भव है। इटैलियन लोगोंमें एक अप्रशस्त कहावत प्रसिद्ध है कि "अमुक मनुष्य इतना अच्छा है कि वह किसी अच्छे कामके योग्य नहीं"। इटलीके डाक्टर [ १३१ ] निकलस मैचियाव्यलको तो इसमें इतना विश्वास था कि उसने स्पष्टाक्षरोंमें यह लिख दिया है कि क्रिश्चियन धर्म्मने अपने अनेक सत्स्वभाव और दयालु अनुगामियोंको क्रूर और अन्यायी जनोंके फंदे में फंसाया है। यह उसने इस लिए कहा है; क्योंकि दयाशीलता[४]को जितना महत्व क्रिश्चियन धर्म्ममें दिया गया है, उतना और किसी धर्म्म पन्थ अथवा मतमें नहीं दियागया। अतएव मनुष्यको चाहिए कि वह इस बातका सदैव विचार रक्खै कि अधिक दयाशील होनेसे क्या बनता है और क्या बिगड़ता है; तथा उससे क्या हानि है और क्या लाभ है? यदि दया दिखलानेका परिणाम बुरा होता हो तो उससे बचना चाहिए। दूसरोंका कल्याण करनेके लिए दत्तचित्त होना उचित है, परन्तु उनके बाहरी स्वरूप और आडम्बरको देखकर उनके फंदेमें फंसना अच्छा नहीं। दूसरोंकी मीठी मीठी बातोंमें सहसा न आजाना चाहिए। ईसापके कथनानुसार मुर्गेको हीरा मत दो। ज्वारका एक दाना देनेसे वह अधिक प्रसन्न और सुखी होगा। परोपकार करने और सौजन्य दिखलानेमें ईश्वरका अनुकरण करना चाहिए। न्यायी और अन्यायी–सभीके उपयोगके लिए ईश्वर पानी बरसाता है और सूर्यको प्रकाशित करता है; परन्तु सम्पत्ति सबको वह बराबर नहीं देता और न अधिकार तथा सद्गुणरूपी सूर्यही सब पर समान भावसे प्रकाशित करता। सामान्य बातों में सब पर सदृश दया करनी चाहिए; परन्तु विशेष विशेष बातोंमें पात्रापात्रका विचार रखना उचित है। ईश्वरने आत्मप्रीतिको नमूना कल्पना किया है और जन प्रीतिको उस नमूनके आधार पर बनाया हुआ चित्र [ १३२ ] कल्पना किया है। अतः इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि औरोंका चित्र खींचनेमें कहीं अपना नमूना न टूट जावै। इसका अभिप्राय यह है कि दूसरेका हित करनेमें अपने हितकी ओर दुर्लक्ष्य न करना चाहिए। एक महात्मासे किसीने मोक्ष होनेका उपाय पूंछा। उसने कहा,–"जो कुछ तेरे पास हो उसे बेंचकर दीनोंको देडाल,और मेरे साथ चल, परन्तु मेरे साथ चलनेको यदि तू पूर्णतया कटिबद्ध हो तभी ऐसा कर, नहीं तो कोई आवश्यकता नहीं; क्यों कि यदि तुझे यह विश्वास हो, कि विरक्त होकर भी तू उतनाहीं परोपकारकर सकैगा जितना, गृहस्थाश्रममें, धनकी सहायतासे करना सम्भव है, तभी तुझे निर्धनता स्वीकार करनी चाहिए। यदि तेरा निश्चय दृढ न होगा तो तू मानो प्रवाहको बहता बनाये रखने के लिए पानी देते देते पानी का सोतही सुखाडालेगा"।

मनुष्य में, सदसद्विचार शक्तिही के कारण, सौजन्य और परोपकार बुद्धि नहीं उद्भूत होती। किसी किसी में ये सद्गुण स्वाभाविक होते हैं। जिस प्रकार किसी किसी में, ये गुण स्वभाव सिद्ध होते हैं उसी प्रकार किसी किसी में, इनके प्रतिकूल दुर्गण भी स्वभाव सिद्ध होते हैं। दूसरे प्रकारके लोग स्वभावहीसे कुटिल होते हैं। कौटिल्य वृत्तिकी मात्रा कम होनेसे मनुष्य औरों का विरोध करने लगते हैं; उनके काममें विघ्न डालते है; हठ करते हैं; किसी का कहना नहीं मानते इत्यादि। परन्तु कौटिल्य वृत्तिकी मात्रा अधिक होनेसे वे स्पष्टतया मत्सर करने लगते हैं और हर प्रयत्न से औरौं को हानि पहुँचाते हैं, दूसरों को दुःखित देख, ऐसे मनुष्यों को आनन्द होताहै; इतनाहीं नहीं किन्तु दूसरे के दुःखको अधिक गरुवा करने के लिए भी ये प्रयत्न करते हैं। अपने स्वामी के व्रण को जीभसे चाट कर उसे अच्छा करने की उत्सुकता व्यक्त करने वाले कुत्तों के जैसा भी [ १३३ ] स्वभाव इन लोगों का नहीं होता। इनका स्वभाव मक्खियों का सा होताहै। ब्रणको देखकर जैसे मक्खियों के झुंड के झुंड उसकी ओर चलते हैं, वैसेही आपत्ति में पड़ेहुए मनुष्य को देख, उसे उससे भी अधिक दुःखित करने के लिए ये लोग दौड़ धूप करना आरम्भ करते हैं। इसप्रकार के दुःशील लोग यह सब कुछ करैंगे, परन्तु यदि कोई इनसे यह कहै कि अपने वृक्षकी डालीमें फांसी लगाकर हमैं मरही जाने दो, तो टिमोन[५] के समान ये अपनी डालीभी किसीके उपयोगमें न आने देंगे। ऐसे ऐसे स्वभाववाले मनुष्योंको उत्पन्न करना ब्रह्मदेव की भूलहै। तथापि राजकीय कामोंमें इस प्रकारके मनुष्य विशेष उपयोगी होते हैं। कोई कोई लकड़ी ऐसी होती है कि वह छतका भार नहीं सहनकर सकती इसलिए घरबनानेके काममें नहीं आती; परन्तु जहां समुद्र के गगनभेदी तरंगोंके आघात सहन करना पड़तेहैं वहां–अर्थात् धूमपोत और नौकाओंमें उसी लकड़ीका प्रयोग होता है। यह उदाहरण दुष्ट प्रकृति लोगोंके लिए समान रीतिपर चरितार्थ हो सकता है।

सौजन्यके कई चिह्न हैं; उसके भेदभी कई हैं। यदि मनुष्य अपरिचित्तजनोंको कृपादृष्टिसे देखता है और उनका आदर सत्कार करता है, तो मानो समस्त भूमंडलको वह अपनाहीं देश और समस्त मानव जातिको अपनाही कुटुम्बी जानता है। अर्थात् जिस भांति भूमिसे एक आध भूमिका भाग पृथक् होकर द्वीप होजाता है, उस भांति वह अपना मन मानवजातिसे पृथक् नहीं समझता। दूसरोंको दुःखित देख यादि उसका हृदय दयार्द्र होजाता है तो उसको–काटने [ १३४ ] परभी सुगन्ध देने वाले चन्दन वृक्षके समान समझना चाहिए। यदि वह दूसरोंके अपराध सहजही क्षमा कर देता है तो वह यह सूचित करता है कि उसका मन अपकार ग्रहण करने की सीमाका अतिक्रमण करगया है। यदि अत्यल्प उपकारक लिए भी वह कृतज्ञता व्यक्त करता है, तो उससे यह विदित होता है कि वह मनुष्यकी मनोनिष्टा देखता है उसके उपकारका परिमाण नहीं देखता। और सबसे अधिक यदि वह महात्मा सेन्टपालके समान, जन समुदायके हितार्थ अपना आत्मा भी अर्पण करने के लिए सिद्ध रहता है तो यह समझना चाहिए कि उसमें ऐश्वरीय अंश विशेष हैं, अंशही नहीं, किन्तु यों कहना चाहिए कि उसमें एक प्रकार का ऐश्वरीय सादृश्य है।

  1. मुख जिनका प्रसादसे परिपूर्ण है, हृदय जिनका दयालु है, वाणी जिनकी सुधामयी है, कर्तव्य कर्म्म जिनका केवल परोपकार है–ऐसे सत्पुरुष किसके वन्दन करने योग्य नहीं?
  2. क्रिश्चियन लोगों का कथन है कि देवदूतोंको, देवताओंसे भी अधिक प्रभुत्वशाली होनेकी इच्छा हुई। अतः उन्हों ने देवताओं से विरोध आरम्भ किया। इस आचरणसे देवता अप्रसन्न हुए और उन्होंने देव दूतों को स्वर्ग से निकाल दिया।
  3. देवताओंने एक मनुष्य युग्म उत्पन्न करके उन दोनोंको एक वाटिका में रक्खा और कहा, कि तुम लोग और सब वृक्षोके फल खाना, परन्तु 'ज्ञानवृक्ष' के फलों को हाथ मत लगाना। इस आज्ञाकी ओर ध्यान न देकर, ज्ञानवान होने के लालचसे, उस मानवजोड़ीने, 'ज्ञानवृक्ष' के भी फल खा लिए; जिसका परिणाम यह हुआ, कि देवताओंने उस युग्म को उस वाटिकासे निकाल दिया यह भी क्रिश्चियन लोगोंका कथन है।
  4. डाक्टरों और विद्वानों की बात जाने दीजिए, हमारे यहां की स्त्रियां और बालक भी तुलसी दासजीके इस दोहे को जानते हैं:–"तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घटमें प्रान"। परन्तु इटली के डाक्टर साहब इस बात को क्या जानैं।
  5. एथन्स नगर में एक मनुष्य टिमोन नामी होगयाहै वह मनुष्य मात्र का द्वेष्टाथा। एक बार उसने यह घोषणादी कि, "मेरी वाटिका में एक गूलर का वृक्ष है, जिसकी डालों से लटक लटककर, आजतक अनेक लोगोंने प्राण त्याग किएहैं; अब मैं उसे कटाना चाहताहूं, अतः जिसे मरना हो वह शीघ्रही वहां जाकर प्राणान्त करे"।