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बेकन-विचाररत्नावली/३५ निरीश्वरमत

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बेकन-विचाररत्नावली
महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ १२३ से – १२९ तक

 

निरीश्वरमत।

विश्वं[] विलोक्याप्यखिलं तदीय-
कर्तारमीशं नहि मन्यते यः ॥
अहं हि जातो जनकं विनेति
न भाषते विज्ञवरः कथं सः ॥ १ ॥

स्फुट।

यह बात माननेकी अपेक्षा कि इस संसारचक्रका कोई भी नायक नहीं, मुसल्मानोंके अलकुरान, यहूदियोंके तालमूद और रोमन कैथलिक सम्प्रदायवाले क्रिश्चियन लोगोंके लिजेंड नामक ग्रन्थों में जो, नाना प्रकारकी साधु सन्त सम्बन्धी कहानियां भरी हैं, उन सबको सचमान लेनेके लिए हम प्रस्तुत हैं। ईश्वरकी सामान्यसे भी सामान्य प्राकृतिक लीलायें उसके अस्तित्वकी साक्षी दे रही हैं। इसी लिए ईश्वरने निरीश्वर मतवालोंको अपने अस्तित्वका प्रमाण देनेके लिए अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलानेके आडम्बरकी योजना नहीं की। जो मनुष्य अल्पज्ञ "ज्ञानलवदुर्विदग्ध" हैं वही विशेष करके निरीश्वरमतकी ओर झुकते हैं। जो अच्छे ज्ञानवान् हैं उनका मन धर्म्मको छोड़ अधर्म्मका कभी आश्रय नहीं लेता। मनुष्य का मन, जब तक, ब्राह्मसृष्टि की कार्य कारण रूप गौण बातों का विचार करता है, तबतक, वह, कभी कभी, उन्हीं की मीमांसा में निमग्न रहजाताहै; उनके आगे जो इस विश्व का आदि कारण है, वहां तक उसकी पहुँचही नहीं होती। परन्तु, जब, इन कार्यकारणों की श्रृंखला उसके दृग्गोचर होती है, और एक का सम्बन्ध दूसरे से और दूसरे का तीसरे से देखते देखते जब वह इस कार्यकारण मालिका के छोर तक पहुँच जाता है, तब ईश्वर का आस्तित्व अंगीकार किए बिना वह नहीं रह सकता। * * * * *

धर्म्मग्रन्थ में यह लिखाहै, कि मूर्ख मनुष्य अपने मन में कहा करता है, कि ईश्वर नहीं है। परन्तु यह कहीं नहीं लिखा, कि ईश्वरका न होना उसका मन स्वीकार करताहै। इससे यह फलितार्थ निकलता है, कि अपने मन को समझानेके लिए चाहै कोई, "ईश्वर नहीं है," "ईश्वर नहीं है" इस प्रकार का घोष किया करै, परन्तु इससे यह प्रमाणित नहीं होता, कि उसका मन इस सिद्धान्त को ग्रहण करता है और तदनुरूप व्यवहार करने के लिए वह सिद्ध रहता है। यदि ईश्वर न होता तो उन लोगोंको छोंडकर जिनको कुछ लाभ हुआ होता और कोई यह न कहता कि ईश्वर नहीं है। मनुष्य के ओष्ठोंही में निरीश्वर मत वास करता है; हदय में नहीं। इसीसे निरीश्वर वादी अपने मत के विषय में सदैवही वाद विवाद किया करते हैं; मानो अपने मतकी सत्यता का उनको स्वयंही निश्चय नहीं रहता; और निश्चय न रहने से मानौं दूसरे की अनुमति ग्रहण करके उसे वे पुष्ट करना चाहते हैं। यहां तक, कि जैसे और सम्प्रदायवाले शिष्य ढूंढा करते हैं वैसेही निरीश्वर वादी भी अपना शिष्यसमुदाय बढ़ाने के यत्न में रहते हैं। सबसे अधिक आश्चर्यकी बात तो यह है कि निरीश्वर वादी लोग अनेक कष्ट सहते हैं परन्तु ईश्वरका अस्तित्व नहीं अंगीकार करते। यदि उनकी धारणा सत्य सत्य यही है कि ईश्वरही नहीं है, तो फिर, हम नहीं जानते, वे इतना दुःख व्यर्थ क्यों उठाते हैं? "महात्मा हैं परन्तु सांसारिक कार्योंको वे आदर दृष्टि से नहीं देखते, वे सबसे निरालेही रहते हैं, और आनन्द पूर्वक कालातियान करते हैं–यह यपीक्यूरस[]का वचन है। उस पर यह दोषारोप किया जाता है कि यह वाक्य जो उसने कहा है वह ठीक नहीं कहा। कहते हैं कि यपीक्यूरसका आभ्यन्तरिक मत तो यह था कि ईश्वर नहीं है परन्तु उस सिद्धान्तको गुप्त रखकर, वह, उपरोक्त सदृश वाक्य कहकर लोगोंसे अपना पीछा छुड़ाताथा। यह आरोप उस पर व्यर्थ रक्खा जाता है, क्योंकि उसकी और और उक्तियां विशेष उदार और दिव्य हैं। एक स्थलपर उसने कहा है कि "नीच जातिके लोगोंके देवताओंको देवता न माननेसेईश्वरकी निन्दा नहीं होती; किन्तु देवताओंके विषयमें, उन लोगोंके जो अनुचित और अग्राह्य मत हैं उनके द्वारा देवताओंका देवत्व सिद्ध करनेसे ईश्वरको निन्दा होती है"। प्लेटो भी इससे अधिक और क्या कह सकता? यद्यपि उसने विश्वासपूर्वक कहदिया कि इस संसार चक्रका चालक ईश्वर नहीं है, तथापि उसे यह कहनेका साहस नही हुआ कि ईश्वर है ही नहीं। पश्चिमी गोलार्द्ध में जो इंडियन लोग रहते हैं उनके यहां प्रत्येक देवताके लिए एक एक नाम है; परन्तु ईश्वरके लिए कोई नाम नहीं; जिससे यह सिद्ध होता है, कि यद्यपि इन असद्धर्मी जंगली लोगोंके मनमें ईश्वर विषयक पूरी पूरी कल्पना नहीं उद्भूत हुई, तथापि उसके अस्तित्वका कुछ न कुछ इनको भी ज्ञानहै। ग्रीक लोगोंने भी, पहले, देवताओंके जुपिटर, अपोलो, मार्स इत्यादि अनेक नाम नियत किए थे; परन्तु ईश्वरवाची 'द्यौः' शब्दतक उनकी पहुँच नहीं हुई थी। अब देखिए कि महा असभ्य जंगली लोगोंसे लेकर बड़े बड़े तत्त्ववेत्ताओंतक सभी निरीश्वर मत वालों के प्रतिपक्षी होरहे हैं। मनसा, वाचा, कर्म्मणा ईश्वरका अस्तित्व न स्वीकार करनेवाले नास्तिक बहुत कम हैं। एक आध डियागोरस[], बायन[], लूशियन[], अथवा ऐसेही और दो चार; बस। तथापि निरीश्वर वादी लोगोंकी यथार्थतः जितनी संख्या है तदपेक्षा उसके अधिक होनका भास होता है। इसका यह कारण है कि वर्तमान धर्म्म अथवा भ्रमात्मक धर्म्मभीरूताके विरुद्ध जो कोई कुछ कहता है उसकी निरीश्वर वादियोंमें गणना होने लगती है। हमारे मत के अनुसार तो सबसे बड़े चढ़े निरीश्वर वादी वे हैं जो धार्म्मिक विषयोंमें दम्भ और कपट का व्यवहार करते हैं। ऐसे लोग, बाहर धर्म्मशीलताके हाव भाव दिखलातेहैं, परन्तु अन्तःकरणमें वे सद्धर्म्मका लेश भी नहीं रखते। पहँचानके लिए इनके मस्तक पर कोई चिह्न होना चाहिए। निरीश्वरवादके उत्पन्न होने के कई कारण हैं। एक धर्म्मकी अनेक शाखायें होजाना पहला कारण है। दोही शाखायें होनेसे दोनों के अनुयायी जनोंका, परस्परको देखकर, उत्साह बढ़ता रहता है; परन्तु अनेक शाखाओंके होनेसे निरीश्वरता अवश्य उत्पन्न होतीहै। नास्तिकताके प्रादुर्भूत होनेका दूसरा कारण धर्म्माधिकारियोंका दुराचरण है। धर्म्माधिकारियोंके अनाचारसे जो दशा होतीहै उसका सेन्ट बरनार्ड नामक महात्माने अच्छा वर्णन किया है। वह कहता है "बात इस स्थितिको पहुँच गई है कि इस समय यह भी नहीं कह सकते कि जैसे सर्व साधारण मनुष्य हैं वैसे धर्म्माधिकारी भी हैं; क्योंकि सर्वसाधारणका वैसा बुरा बर्त्ताव नहीं जैसा धर्माचार्योंकाहै"। धार्म्मिक विषयोंको धिक्कार दृष्टिसे देखना और उनकी हेलना करना नास्तिकताकें प्रवेश होनेका तीसरा कारण है। ऐसा करनेसे लोगोंकी श्रद्धा धीरे धीरे धर्मसे उठ जाती है। विद्याकी अधिक वृद्धि होना नास्तिकता उत्पन्न होनेका अन्तिम कारण है–विशेष करके उस समय जब देशमें शान्ति और सम्पत्ति दोनों वास करती हैं। ठीकही है; धर्म्मकी ओर मनुष्योंकी. प्रवृत्ति तभी होती है जब उनपर विपत्ति आती है और तंज्जनित अनेक कष्ट उनको सहने पड़ते हैं।

जो ईश्वरका अस्तित्व नहीं स्वीकार करते वे मनुष्यकी श्रेष्ठताको हानि पहुँचाते हैं। जिन पञ्चमहाभूतोंसे पशुओंका शरीर बना है उन्हींसे मनुष्यका भी बना है। मनुष्यका पार्थिव शरीर पशुओंके शरीरसे निकट सम्बन्ध रखता है। अतः आत्मोन्नतिद्वारा, मनुष्य यदि अपनेको ईश्वरका निकटवर्ती नहीं बना सकता तो वह मनुष्य नहीं किन्तु एक महार्निद्य और नीच पशु है। निरीश्वरता स्वीकार करनेसे उदारता और आत्मोत्कर्ष दोनों का नाश होजाता है। इस सम्बन्धमें कुत्तेका उदाहरण लीजिए। कुत्ता जब यह देखता है कि मेरी सहायता कोई मनुष्य कर रहा है तब वह अपूर्व शौर्य दिखलाता है। कुत्ते के लिए मनुष्यही ईश्वर है। मनुष्यको वह सर्वश्रेष्ठ मानना है। यह बात स्पष्ट है कि कुत्ता यदि मनुष्यको अपनेसे श्रेष्ठ और अपने संरक्षण करनेके लिए समर्थ न समझता तो वह इतना शौर्य कदापि न दिखा सकता। इसीप्रकार मनुष्य, जब अपनी रक्षाका भार ईश्वर पर रखता है और यह समझता है कि उसीकी कृपासे मेरा कल्याण होगा तब उसमें एक प्रकारके विलक्षण बल और विश्वास का उदय होता है। ईश्वर में आस्था हुए बिना एतादृश बल और विश्वास नहीं आसकता। निरीश्वर मत सब प्रकारसे निंद्य है। उसका अवलंबन करनेसे मानुषिक दुर्बलतासे मुक्त होकर मनुष्यको अपने आत्माकी उन्नति करनेकी आशासे हाथ धोना पड़ता है। इस विषयमें जो नियम व्यक्ति विशेषके लिए चरितार्थ होता है वही नियम जाति विशेषके लिए भी होता है। प्राचीन समयमें रोमन लोग जितने उदार और मनस्वी थे उतने और कोई न थे। उन लोगोंसे सिसरो क्या कहता है सो सुनिए। वह कहता है:–"हे रोमवासी! हम लोग अपने मुखसे अपनी चाहे जितनी प्रशंसा करैं, हमैं कोई रोक नहीं सकता; परन्तु एक बात स्मरण रखने योग्य है। वह यह है कि हम लोगों ने जो स्पेनवालों को परास्त किया वह सैन्यबलसे नहीं; गॉल लोगो को जो विजय किया वह बाहु बलसे नहीं; पीनी लोगों को जो वशमें कर लिया वह युद्ध कौशल से नहीं; ग्रीक लोगों को जो पराजित किया वह युक्ति से नहीं; और जाने दीजिए स्वयं इटैलियन और लैटिन लोगों पर भी जो हमने अपनी सत्ता चलाई वह वे और हम एकजातीय तथा एकदेशीय हैं इस कारण से नहीं; किन्तु इस कारण से कि औरौं की अपेक्षा हममें ईश्वर भक्ति अधिक है; औरौं की अपेक्षा हममें धार्म्मिकता अधिक है, औरो की अपेक्षा हमको इसका ज्ञान अधिक है कि यह संसारचक्र केवल ईश्वरही की आज्ञासे चलरहा है। इन्हीं कारणों से, हम लोग औरौं के ऊपर आधिपत्य करने में समर्थ हुए हैं"।

  1. इस विस्तृत विश्वमंडलको देखकर भी–इसका कर्ता ईश्वरहै–यह जो मनुष्य नहीं मानता, वह विज्ञवर ऐसा क्यों नहीं कहता कि मैं बिना बापके पैदा होगया।
  2. ग्रीसमें यपीक्यूरस एक उत्तम तत्त्ववेत्ता होगया है। सुनते हैं इसने३०० पुस्तकैं तात्त्विकविषयों पर लिखकर प्रकाशकी थीं। जिस समय यपीक्यूरस का वय १२ वर्ष का था उस समय इसके अध्यापकने इसे यह सिखाया कि "सृष्टिके आदिमें पञ्चतत्त्व उत्पन्न किएगए"। इसपर यपीक्यूरसने पूछा "किसने उत्पन्न किए" अध्यापक ने उत्तर दिया, "इस बातको मैं नहीं जानता; तत्त्ववेत्ता लोग जानते हैं"। तब यपीक्यूरसने कहा, "आज से मैं तत्ववेत्ताओं ही से अध्ययन करूंगा" यह बड़ा विद्वान् था। "अनेक अज्ञात पूर्व बातों को सिद्ध करके ७२ वर्ष के वयमें, २७० वर्ष ईसा के पहले इसने इस लोकसे प्रस्थान किया। मूत्रावरोधसे इसकी मृत्यु हुई।
  3. डियागोरस, ग्रीसमें, एक परम नास्तिक हो गया है। इसका किसी धर्म्म पर विश्वास न था। एक बार एक मनुष्यने न्यायालय में झूंठ बोला और झूंठ बोलकर भी वह दंड पानेसे बच गया। इस बातको देखकर, डियागोरसने सर्वसाधारणके सामने, ईश्वर में अपना अविश्वास प्रकट किया और उस दिनसे देवता तथा धर्म्म सम्बन्धी सारी बातों का यह उपहास करने लगा। इसका शिर काट लाने वाले को विशेष द्रव्यदेनेकी घोषणा प्रकाशित हुई थी। इसे सुनकर डियागोरस कारिंथ को भाग गयाथा। वहां जाकर इस संसारसेभी इसे शीघ्रही भागना पड़ा। यह ईसा के लगभग ४१६ वर्ष पहले विद्यमान था।
  4. वायन भी निरीश्वर वादी था। एथन्स में इसने तत्त्वज्ञान सीखा था। यह थियोडोरस का शिष्यथा। इसका विशेषवृत्त विदित नहीं है।
  5. ईजिप्टके एक रोमन गवर्नर के पास लूशियन नामक एक अधिकारी था। इसने अनेक ग्रन्थ लिखेहैं। न अपने देशके धर्म्म पर इसको विश्वास था और न और देशके धर्म्म पर। किश्चियन मत पर भी इसने बहुत कुछ आक्षेप किया है। सन् १८० ईसवी में ९० वर्ष का होकर यह मृत्युको प्राप्त हुआ।