बेकन-विचाररत्नावली/३ बदला लेना

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी
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बदला लेना ३.

उपकारकमायतेर्भृशं[१] प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः।
अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासममन्यसाधनम्॥

किरातार्ज्जुनीय।

बदला लेना एक प्रकारका असभ्य न्याय है। ऐसे न्यायकी ओर मनुष्य की प्रवृत्ति जितनी अधिकहो विधि (कानून) की उतनीही अधिक उसकी प्रतिबंधकता करनी चाहिये, क्योंकि पहिलाअपकार केवल विधि की सीमा का अतिक्रमण करता है परन्तु उस अपकारका बदला लेने जाना मानों विधि की सत्ताहीको न मानना है। यह सत्य है कि, बदलालेनेसे मनुष्य अपने शत्रुकी बराबरीका होजाता है परन्तु बदला न लेकर तत्कृत अपराधको क्षमा करनेसे वह उसकी अपेक्षा श्रेष्ठताको पहुँचजाता है, क्योंकि क्षमा करना बड़ोंका काम है। सालोमन[२] ने यह कहा है कि, "दूसरोंके अपराधको चित्तमें न लाना मनुष्यके लिये अत्यन्त भूषणास्पद है"। जो हुआ सो हुआ; गई हुई बात पुनः पीछे नहीं आती; अतः बुद्धिमान् लोग वर्त्तमान और भविष्य बातोंहीका चिन्तन करते हैं; गत बातोंका नहीं। गतका विचार करते बैठना मानो अपने बहुमूल्य समय को अकारण नष्ट करना है।

ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो दूसरेका अपकार बिना किसी कारणके करताहो। अपकार करनेमें उसका कुछ न कुछ अभीष्ट अवश्य रहताही है; चाहै वह प्राप्ति हो, चाहै मनोरंजन हो, चाहै भूषण हो [  ] अथवा चाहै ऐसेही और कुछहो। कुछपै कुछ स्वार्थ रहताहीहै। तब हमारी अपेक्षा अपना हित साधनके लिये किसीको विशेष तत्पर रहते देख हमें बुरा क्यों मानना चाहिये? परन्तु यदि दुष्टप्रकृति होनेहीके कारण बिना किसी उद्देशके कोई किसी का अनिष्ट करै तो भी बुरा न मानना चाहिये, क्योंकि दूसरोंका अपकार करना उसका स्वाभाविक धर्मही है। काँटोंसे यदि शरीर चुभ अथवा खुरच गया तो क्या किसीको क्रोध आताहै? नहीं; चुभ जाना और खुरचना काँटोंका जन्म स्वभावही है। ऐसे अपराध जिनके लिये नीतिशास्त्रमें कोई दंडविधान नहीं किया गया उनका बदला लेना किसी भाँति मान्य कहा जासकता हैं? परन्तु बदला लेनेके पहिले मनुष्यको निश्चय कर लेना चाहिये कि, यथार्थमें इस अपराधके ऊपर नीतिकी सत्ता नहीं चल सकती; नहीं तो एकके स्थानमें उसे दो शत्रुओंका सामना करना पड़ैगा। एक तो अपकार करनेवालेका और दूसरा विधि शास्त्रका। कोई कोई मनुष्य बदला लेनमें अपने प्रतिपक्षीको किसी न किसी प्रकार विदित करदेते हैं कि, अमुक व्यक्तिने अमुक बातके लिये उससे बदला लिया। ऐसे व्यवहार में विशेष उदारता व्यक्त होती है, क्योंकि इसमें प्रतिपक्षी का अहित करके आनन्द माननेकी अपेक्षा उसको पश्चात्ताप पहुँचानेका हेतु अधिक रहता है। परन्तु नीच और भीरु मनुष्य अन्धकारमें बाणप्रहार करनेके समान छिपके बदला लेते हैं।

फ्लारेन्सके कास्मस नामक ड्यूकने अविश्वासपात्र और समयपर सहायता न करनेवाले मित्रोंके विषयमें बहुत कठोर वाक्य कहे हैं। उसके मतानुसार मित्रकृत अपराधोंकी क्षमा होही नहीं सकती। उसका यह कथन है कि, शत्रुओंको क्षमा करनेके विषयका आधार मिलता है परन्तु मित्रोंको क्षमा करनेके विषयका आधार नहीं मिलता। परन्तु जाब नामक महात्माका कहना इतना अप्रशस्त नहीं है। वह कहताहै कि ईश्वरके दियेहुए सुखका जब हम अनुभव करते हैं तब [  ] उसीके दियेहुए दुःखको क्या हमें न सहन करना चाहिये? करनाही चाहिये। बस, इसी नियमका प्रयोग मित्रों के विषयमेंभी करना उचित है।

सत्य तो यह है कि, जो मनुष्य अपने प्रतिपक्षीसे बदला लेनेके विचार में सदैव निमग्न रहता है वह अपनेही घाव को, जो योंही छोड़ देनेसे कुछ दिनमें सूखकर आपही आप अवश्य अच्छा होजाता, मानों नया बनाए रखता है। सार्वजनिक विषयमें बदला लेनेसे बहुधा देशका कल्याण होता है जैसे सीजर[३], परटीनैक्स[४] और फ्रान्सके तृतीय हेनरी इत्यादिकी मृत्युसे हुआ है; परन्तु व्यक्तिविशेषके वैरकी बात वैसी नहीं है। उससे कल्याण नहीं होता। कल्याण तो दूररहा बदला लेनेमें तत्पर रहने वालोंकी दशा डाइनकीसी होजाती है। अर्थात् जैसे डाइन जबतक जीती है तबतक दूसरोंको पीड़ित करती है और अन्त में स्वयं दुःख भोगती है वैसेही वे लोग भी दूसरोंको दुःख देकर अपने आपको भी दुःखित करते हैं।

  1. भविष्यत् में अधिकाधिक उपकारक होनेवाली, कार्यसिद्धिके उत्तमोत्तम फल की देनेवाली, स्वयं कभी भी नाश न होकर शत्रुओंका नाश करनेवाली क्षमाके समान अन्य साधन संसारमें नहीं है।
  2. सालोमन जेर्युशलेम का राजाथा। इसने ईसवी सन् के पहिले ९७५ से १०१५तक राज्य किया। यह एक अद्वितीय चतुर, न्यायी और महात्मा था। तत्त्वशास्त्र का भी इसे उत्तम ज्ञान था।
  3. जूलियस सीजर रोम का पहिला सार्वभौम राजा था। यह महा पराक्रमी था। इसने समग्र इटली देशको ६० दिनमें विजय किया। इसके सभासदोंने जिनमें इसका मित्र ब्रूटस भी था, इसकी चढ़ती कलाको सहन न करके इसे ईसवी सन् के ४४ वर्ष पहिले मारडाला। उस समय इसका वय ५६ वर्षका था।
  4. परटीनैक्स भी रोमका एक सार्वभौम राजाथा। यह एक निकृष्ट वंशसे उत्पन्न हुआथा। ८७ दिन राज्य करनेके अनन्तर सन् १९३ में इसके सैनिकोंने इसकी की हुई सुधारणासे अप्रसन्न होकर इसे मारडाला। यह बड़ाही सद्गुणी राजाथा।