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भक्तभावन/अन्योक्ति

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भक्तभावन
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ ७८ से – ८० तक

 

अथ अन्योक्ति प्रारंभ

तोतान्योक्ति

जाइ जिन तोता नारिकेर के बड़ेरे तरु। कौन अब पार जातें छिलका छिले है तूं।
छीलहू लियातो फेर फूटि है न तेरे पास। फोरि हू लियो तो गरी गरी को चवे है तूं।
ग्वाल कवि यातें लघु तरु पें विरमि रहु। बीज भी बकुल बिन सुफल चित है तूं।
श्रमतें विनाही बेस किसमिस के झूमकागन। झूम झूम खैहे स्वाद लैहे सुख पै है तूं॥१॥

शिरीषान्योक्ति

पंकज गुलाब गुल मूल के महित सदा। चम्पक को करकश गन्ध अति धेरे है।
यातें अहो शिरिष सिरफ एक तुम्हें जान। आयो दूर देश तजि अलिको सु डेरे है।
ग्वाल कवि सुखद सबेई विधि ताक्यो तुही। पूजि है तु आश विसवास हिय मेरे है।
आयो मैं उछाहतें सुवास रस चाहिबे कों। आमें अब नेह को निवाह हाथ तेरे है॥२॥

भ्रमरान्योक्ति

मालती शिरिष औ कंदब के कंदबन तें। फैलत सुगन्ध दूर ही तें अति स्वच्छ है।
दौर दौर गयो जिन जिन पें जबेई तबे। पास हू गये मिलि परिमल लच्छ है।
ग्वाल कवि आगें केवडान की लपट लागे। घाइ मयो तिनही के धोखे खोलि अच्छ है।
पास पहुंचे तें पाई वह न सुवास रास। उडि न सकत कियो कंटक विपच्छ है॥३॥

घनान्योक्ति

शरद हिमन्त अन्त करिकें शिशिर तन्त। वितयो वसन्त गार्यो ग्रीषम को थम्ब है।
आइ अब पावस समाज इक ठौरो भयो। घेरो भयो घनो फुल्यो बन नि कडम्ब है।
ग्वाल कवि त्रिविधि समीर को अण्डबर ह्वै। अम्बर में धनुष लखायो विकलम्ब है।
ये हो धन दीजे स्वाति बुन्द के कदम्ब मोहि। अम्ब की दुहाई एक तेरो अवलम्ब है॥४॥

मालाकारान्योक्ति

ऐके बागवान तें लगायो है रसाल पौधा। तासुकी वहालरीत पूर करी चाहिये।
तल हो सिरफ मूल मोहि भर देइ वेते। चलत न काम स्वछा भूर करी चाहिये।
ग्वाल कवि देव की झुकाव की तरफ चाहे। वाटहू जातें नैको दूर करी चाहिये।
शीत धूप वरषा निवारिन निवित्त ताकों। त्रनन की छाया हू जरूर करी चाहिये॥५॥

भ्रमरान्योक्ति

गहरे गुलाबन के खेत ते तजे अचेत। जाइजो कमल पें तौ कौन प्रतिबंध है।
सेवती न सेई ते न जान्यो कछु भेऊ अजो। चंपक तें चापो जहाँ हित को निबंध है।
ग्वाल कवि कहें क्यों बबूर के सुमन भ्रमे। बैठे तें छिदेंगी तेरी तम तन संध है।
पीरे पीरे देखि भयो तीरे तीरे याके अरे। मधुकर अंध यामें रस है न गंध है॥११६॥

गजान्योक्ति

बल में अपार देख्यो दल को सिंगार चारु। उथल पहार डारे, थल को न कोटी है।
पुष्ट-पुष्ट थंबन में पाये पग चार सुष्ट। पुच्छ पृष्ट पांसुरी हु तुष्ट बोटी बोटी है।
ग्वाल कवि जैसो कुंभ कान दंत तुंड तैसो। तैसी फूतकार और चिंतार अति मोटी है।
ऐरे गजराज और साज सब ठीक तेरे। एपें या दराज देह माँहि आँख छोटी है॥११७॥

उलूकाग्योक्ति

जाहिं ते विकास होत पदमिनि पुंजनि को। पहुँचे सुवास भाँति भाँति देवतान कौं।
जाहिं ते उदित होत उदित मुदित कोक। कोकी शोक ओक नाश करैं बिछुरान कौं।
ग्वाल कवि जाहिते उजेरो जग माँहि होय। हेरो परे अखिल बसेरो हरजान कौं।
जाही भासमान कै प्रकासमान होइ बेंतें। भाखत उलूक भयो रोग आसमान कौं॥११८॥

काकान्योक्ति

वाके चोंच चरन अरुन दोक सुनियत। याके मुखकारो पाय-नीले कहियत है।
वह मानसर को बसैया बिलसैया वर। यह नीच गैरहु लसैया लहियत है।
ग्वाल कवि वह मुकताहल चुनत नित। यह मंद वस्तु भाखे देखे दहियत है।
वह बोले मिष्ट यह दुष्ट करे काँइ काँइ। हंस को दिवान कहा काग चहियत है॥११९॥

कमलान्योक्ति

केतकी को केवड़ा को सेवती गुलाबन को। मधु को पिवैया ओ करेगा चंपा चौर है।
मालती पे माधवी पें मोद को मनैया महा। ठौर ठौर खुसबो की गहकत जोर है।
ग्वाल कवि सदा तें पुराननतें सुनी बात। रात कों रखत मूँद भौरें कंज झोर है।
अजब अनूठो अदभूत अरविंद यह। जाने दिन रात राख्यो मूदि भले भौंर है॥१२०॥

पयपानहारान्योक्ति

धन्य धन्य तोहि मोहि जानिकै अनाश्रित सों। कियो उपकार धरियातु चतुराई को।
घेर लायो गैयाँ एसी और के न आवे हाथ। पोंछि पुचकार दुही गेह चंचलाई को।
ग्वाल कवि कहे ओटि ओटि अति मीठो कियो। कहाँ लौं बखानों गुन रावरी भलाई को।
पूरि सबकाज अब करत अकाज काहे। प्याइबे कों ल्याये भलो बासन खटाई को॥१२१॥

सिपाहान्योक्ति


ऐठी वेठी पांग बांकी भोइलों झुकाई राखें। पाछे लटकाइ राखें पेंच वांकवाने सौं।
अकड़ि अकड़ि चले पकड़ि पकड़ि तेग। जकड़ि जकड़ि ढाल बांधे इतराने सों।
ग्वाल कवि कहे पेशक बज तबल लेकें। निज बल भाखें राखे काम न लजाने सों।
लेकरि तमचा चोट चार को बरूद बाँधि। बनिके सिपाही जुम्यो चाहे तोपखाने सों॥२२॥

मायान्योक्ति


तेरे हो वनन की हिय में आश लगी रहै। जगी रहै छुधा मोहि अति अधिकाइ के।
छुटे छोर पार कितने ही पिये आइ आइ। मेंने करी कोन तकसीर भोरे भाइ के।
ग्वाल यह साखी में तो बछरा तिहारो दोन। दन्त को न पाइक न पीयक दुखाइ के।
एरी माइ गाइ अम्भू प्यावे तो भली है बात। ना तो फन्द काटि चारो चरु कहूं जाइ॥२३॥

लाल ओ सुर्ख कहे हमसों जिन पालिबे की गति ने कली है।
देखि युगो तुही आयो हुतो पर पेट भर्यो नहि बेकली है।
त्यों कवि ग्वाल करीसो करी तुम में कहा त्यागहु टेक ली है।
जाल में आइ फैसे तो फसे यह नेह को रोति निवेकली है॥२४॥