भक्तभावन/प्रस्तावक नीति

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भक्तभावन  (1981) 
द्वारा ग्वाल
[ ८१ ]

अथ प्रस्तावक नीति कवित्त

पाखण्ड सिद्धी विषे कविस–यमक

विमल विभूत धारें चाहत विभुत फिरे। पंचभूत मोहि भूत थापें होत जैसे है।
तेवर रंगीन राखे तूम्बर से गावे फेर। काहूँ तें कहत मागि तूम्बर हमे में है।
ग्वाल कवि कहे फेरें मनका विकारवे न। मनका फिरावें लोभ मनका धरे से है।
सिद्धि तौ न सिद्धि पर सिद्धि रूप बनि बनि। करे भोग सिद्धि प्रसिद्धि सिद्ध ऐसे हैं॥१॥

कवित्त–यमक

वासना विविध विधि भसम करी न गर्द। भसम को गोला जो पुत्तायोतो भयो कहा।
कामादिक पंचकतें भयो न भगों हौं कभू। वसन भगौ हौ रंगवायो तो भयो कहा
ग्वाल कवि कहे जातवेद तज दियो जिन। जातवेद सों तन तपायो तो भयो कहा।
अलख में मन को लगायो छिन एक हन। हार हार अलख जगायो तो भयो कहा॥२॥

कवित्त

जाकी खूब खूबी खूब खूबन के खूबी इहाँ। ताकी खूब खूबी खूब खूबी न भगाहना।
जाकी बदजाती बदजाती इहाँ चीरन में। ताकी बदजाती बदजाती व्हां ऊराहना।
ग्वाल कवि येई परि सिद्धि सिद्ध रैहै पर। सिद्ध वही जाकी है इहाँ वहाँ सराहना।
जाकी इहाँ चाहना है ताकी उहाँ चाहना है। जाकी इहां चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना॥३॥

नेह निबाह विषे

चाहिये जरूर इनसानियत मानस में। नौबत बजे पें फेर भेर बजनो कहाँ।
जात औ अजात कहा हिन्दू औ मुसलमान। जातें कियो नेह फेर तातें भजनो कहाँ।
ग्वाल कवि जोक लिये शीश पें बुराइ लई। लाजहू गँवाई कहो फेर लजनो कहा।
यातो रंग काहू के न रंगिये सुजान प्यारे। रंगे तो रंगेई रहे फेर तजनो कहा॥४॥

जीविका विषे ब्रह्म उपालंभ

आवत जरा के जड़ बुद्धि होत सांची सुनी। याही ते सठयानोरे विरंचि गुनखान है।
जीविका विहीन क्यों बनाये जन जग बीच। जीविका के आसरे रखेंगे तन प्रान है।
ग्वाल कवि जाहर जहर होत जीविका तें। बाढ़त अछेइ जप जस को निदान है।
जीविका विहीन है न जीवन सु जीवन को। जीवन मरे तें। जानस जहाँन है॥५॥

[ ८२ ]

अस्तोदय विषे

देख्यो दुनिया में दौरि दीरघ तमासो यह। जब लों सुदिन वीर सब लौं करार सब।
आनंद अछेह में सनेह करे गेह तजे। देह कौं गीने न धूप मेह के विचारे सब।
ग्वाल कवि सरस सुधा ते बेन भाखें फेर। अति अभिलाले साखें पूरत अपार सब।
छोटे कहा मोटे है न टोटे के संघाती कोऊ। भये दिन खोटे तब लोटे बन्धु यार सब॥६॥

चार पुरुषार्थ विषे

आय अवनी पे जात जीवन वृथा है बोत। कीन तीन बात ये न समय समाती जिन।
आनकान सान गुनमान सों दरव खान। आन सक्यो नाहि करी कीरति दिखाती जिन।
ग्वाल कवि पत जाम जप में जुर्यो न जाय। जानी जगदीसुरी न जोति सरसाती जिन।
चारु चन्द वदनी के चूमिकें कपोल गोल। खोलिकुच कचुंक लगाई है न छाती जिन॥७॥

मूर्ख राजा विषे

मूरखतें मन लावें सदा अरु मस्खरी में सरदार छये सब।
पातुर को पहुँचावत जे फिर वेई मुसाहब दीह भये सब।
त्यों कवि ग्वाल भले पहुँचैं नहीं बीचन नर्क के बीज वये सब।
है असराफन की गरदी गुन के दरदी उठि भागि गये सब॥८॥

दुर्जन सज्जन विषे

कौल हजार करें कितने फिर एक हूतो तिनमें निबहे ना।
होइ सके न रती भर काम ओ तोलन की भरे साख गहे ना।
त्यों कवि ग्वाल धने इमि दीखत पें न वे पुरूष पसू हुते है ना।
है बिरले नरसो जग में जो कहे सो करे औ करे सो कहेना॥९॥

कवित

होय जो तुरङ्ग ताहि कूदियो शिखावे भले। कैसेकें शिखावे ये पे शीतलाके वाहने।
होय जो सुजान ताहि कविता सुनावे परी। मूरखें सुनावें तो करे जो पेर दाहिने।
ग्वाल कवि कहे करी कुम्भ कौं विदारैं सिंघ जंबुक जमा तन को जोरदार काहने।
मानुषे रिझाऊँ पे रिझाऊँ कौन भाँत ये जो। मानुष को मूरति बनी है बीच पाहने॥१०॥

उज्जम द्रव्य विषे

जिसका जितेक साल भरकें खरच उसके। चाहियें तो दूना पें सवाया तो कमा रहै।
हूर या परीसा नूर नाजनी सहूर वारी। हाजिर हुकम होय तो दिल बथमा रहे।
ग्वाल कवि साहब कमाल इल्म सोहबत हो। यादमें गुसैंया के हमेंश विरमा रहे।
खाने को हमा रहे न काहू की तमा रहे न। गाँठ में जमा रहे तो खातिर जमा रहै॥११॥

[ ८३ ]

पण्डित और कवित्त के कठिन कर्म विषे

पहिले तो मानुस को पढिवो कठिन अति। पढ़े ता प्रदेशन में जानो देश निंदके।
फेर अति कठिन सभान में पहुँच जैबो। पहुँचि गयो तो शत्रु फन हैं फनिंदके।
ग्वाल कवि जोपे लये जीत उनहूँ को तोपे। रीझबो कठिन तन धारे जे नरिंद के।
रीझे तों न देय देह ओपें तों मधुर बानी। याते हम जानी गुनी गुन ही गुबिंद के॥१२॥

गुनी गाइक पे जात विषे

मूँठन के मण्डल घमण्ड के उमड़े वही। वाग बलखण्ड बनखण्ड है सघन में।
जिनके सुभाहु निखासित निरस वारे। फूल फूल रहे फूल फूल अनगन पें।
ग्वाल कवि तिनतें हुलास कहुं पावे कोन। मौन करि गौन की जियत है लगन पें।
गुनी गुन गाइक पें ऐसें चलि जात जेसें। भौंर दौर जात है सुवास के सुमन पें॥१३॥

ईश्वर भजना और संतोष में रहना

रोजगार तेरा रोज लगा है कदम साथ। गम साथ क्या है अब सासक भीना लाने।
जिसने दिया दम वह दम नहीं देगा। यार बेगम गुजार बनाने कियों के दालाने।
ग्वाल कवि हाजिर खुदा को बंदगी में रहु। उसको पसंदगी के कार सब बजा लाने।
दाना छितराना तहां जाना है जरूर अरु। पाना भी वही है जो दिलाना हुक्म ताला ने॥१४॥

मूर्ख

बैठने की उठिबे को बोलिबे की चलिबे की। जानत न एको चाल आइ जग ढांचे में।
देखत में मानुष की आकृति दिखाई परे पर नर पशु औ परन्द है न जाँचे में।
ग्वाल कवि जानि के विरश्चि[१] तुच्छ जन्तुन को। डारे और ठौर लखि ख्याल ही के खांचे में।
कूकरते सूकरतें गर्दभते उल्लूकते। काढि काढि जीव डारे मानुष के साँचे में॥१५॥

कवि को खिझाइबे विषे

कवित्त के अपमानी देह की पतल करी। ताको नाम खण्ड मो मसाले वा कुचाल के।
गगन जलेबि नहिं तमन तिकोने धरी। खेड़ी रमन सेव सगन सम्हाल के।
ग्वाल कवि कहे इस आदि के अवाद सवाद। लाद लाद देवें बहु विजन जंजाल के।
पोसे अतिरोसे जोस जोसे बिन जोसे ऐसे। कविन के कोसे ते परोसे मानो काल के॥१६॥

कवित्त

त्यालन के चोसे जैसें मूठके मसोसे जैसें। डाकुन के खोसें जैसें होत बदहाल के।
जहर के तोसे जैसें भालन के ठोसे जैसें। छरेन के तोसें जैसें रहेना जमाल के।
ग्वाल कवि कहत चुरेलन के पोसे जैसें। पावक के बोसे जैसें बिना धर्म जाल के।
रामजू के ऐसे जैसे तापिन[२] के दोसे ऐसें। कवित्त के कोसे तें परोसें आगैं काल के॥१७॥

[ ८४ ]

लबारी के लबारपन विषे

सिंघन के रोमन को जोर पाऊँ जुलिकार। उलिकरि और पाऊँ गंग की निकारी को।
पुंज परना नुन के ढोर पाऊँ जब तब। तोर पाऊँ फूल बोच बाग असुरारी को।
ग्वाल कवि सिंधु की हिलोर पाऊँ गिन गिन। फोर पाऊँ शृंगन सुमेर सुखकारी को।
तारन के तुंगन उत्तंगन बटोरि पाऊँ। पैन छोर पाऊँ काहू काहूकी लबारी को॥१८॥

झूठे मनुष्य विषे

द्वार पर झूठ पिछवारे पर झूठ झुक्यो। दोऊ ही किनारे पर झूठ उलहत है।
आंगन में झूठ और दलानन में झूठ भर्यो। कोठे माहि झूठ छत पर बहत है।
ग्वाल कवि कहत सलाहन में झूठे झूठ। सैनन में बैनन में झूठ ही कहत है।
हाथी भर झूठ जाके उर में बसत सदा। ऊँट भर झूठ जाकी मूंठ में रहत है॥१९॥

वचन फेर सरदार विषे

तरल तुरंग रंग रंग के मत्तंग संग। पालकी सुरंग सजेकार चोब कारी को।
भूषन वसन वेश कीमती विविध विधि। भोग करिबे को पास पांति बर नारी की।
ग्वाल कवि हाजिर हुकम सब भांति पूर। पर इतने पे परिजात धूर स्वारी की।
कौल करि बोल फेर बदलत तुतं तातें। तोल मौल घटे कठ पोल सरदारी की॥२०॥

काम परे मनुष्य की परीक्षा होत

देखे अंग अंग के न मालुम परत कछु। कारे गोरे रंगहुतें जाँचन हुलत है।
एक ही में सबही सफेद यो सहोसदार। बैठन औचन चितौन अतुलत है।
ग्वाल कवि क्योंहू गुन औगुन न जाने पर। ऐपे एक बात चतुरन में तुलत है।
दाम परे गौहर को एब गुन खुले जैसें। तेसें काम परे नर जौहर खुलत है॥२१॥

दुर्जन विषे

गंगा के न गौरि के गिरीश के न गोविन्द के। गोत के न जोत के न जाये राहगीर के।
काहू के न संगी रति रंगी भेन भानजी के। जीके अति खोटे सोटे खेहे जम भोर के।
ग्वाल कवि कहे देखो नारी को खसम जाने। धर्म कों पसम जाने पातकी शरीर के।
निमक हराम वद काम करें ताजे जाजें। बाजे वाजे बेटोचोद गुरु के न पीर के॥२२॥

कवि पालिबे विषे

वाज गजराज नाज चीतें फोज बकामदार। राखिबो सहज जातें राज उपचार होय।
भांड. बहुरूपिया सरूपिया न चैमन कों। कंचनी कलावत को आदर अपार होय।
ग्वाल कवि कविन को राखिबो सहज है न। हमे वही राखे जाके लेख रेखाचार होय।
गुन को विचार होय अति रिझवार होय। उदित उदार होय सुजस लिलार होय॥२३॥

[ ८५ ]

अंगों प्रति उपदेश

एरे हाथ जोपे बिन आसिख रहे न तोपें। सों ही जे न जोरे हाथ तिनकों तूठ के जिन।
जो चारु चरचा बिना न रहें सोवें चित्त। जेहे हिय दाहक चाहक सों वके तिन।
ग्वाल कवि जोपें लोभ तो हूँ सों रह्यो न जाय। तोपे जे अदाता ताके बैन रस छके तिन।
ऐरे द्रग मेरे जो तका तकी तजे न तोपें। तोकू जे तके नतिन तन तुहूत के जिन॥२४॥

हरीद्वता विषे

सबही के बाँके बोल सहने परत सदा। ढाँके न परत कछु मरमलु कौन तें।
नैन नीचें करने परत हर एकन सों। बैन झूठे कहने परत छल भौनतें।
ग्वाल कवि कहे जुलि रचनी परत लाख। लाजतें बंधत बैर प्यार होत मौनतें।
बृत्ति होत शिथल लचारी कीजु क्रति होत। हित अनहित होत वित्त अनहोन तें॥२५॥

भडवा-लुच्चा सरदार विषे

आदर अपार कर शोभा पारवार कर। भाँत भाँत प्यार कर राजी करिबो करे।
सभा में सुनावे कहे कंठ गज तुरी देवो। लाखन की बात नित ताजी करिबो करे।
ग्वाल कवि कहे जब बिदा को सुनत नाम। सूरत हराम इतराजी करिबो करे।
कबिन सौं दगाबाजी दमबाजी ठगबाजी। पाजीन को पाजी महापाजी करिबो करे॥२६॥

भडुवा-वंभी राजा विषे

सोख शेर मारिबे को सभा में सुनावे सदा। स्यारह न मार्यो कभू झाड़ी की सरीनको।
हाथ में न जोर यह शेरी के उगइबे को। जिभ्यातें उछार्यो करे पुंज शिखरीन को।
ग्वाल कवि कहे श्री युधिष्ठिर सों साँचो बने। सबहीं को देत दम साम औ धरीन को,
कोई कोई भूप ऐसो बेशरम होइ जात। राख लेत हाथी चारो डारत चिरीन को॥२७॥

पंडित निदा

व्याकरन ज्योतिष कछूक धर्मशास्त्र पढि। द्रव्य ओ पदार्थ गुण न्याय के भनत है।
और कों बतावे ब्रह्म ज्ञान राग द्वेष तजो। आप महाकामी अति ईरषा सनत है।
ग्वाल कवि द्वै द्वै चार चार शिख शुभ श्लोक। साहित के ग्रंथन के नाम को गनत है।
आदि अंत एक हू न ग्रंथ गुन मंडित है। ऐसे किते खंडित ते पंडित बनत है॥२८॥

कलि विषे

ईरषा की सैन लिये कलियुग भूप आयो। झूठ के नगारे सो धजत दिन रात है।
काम क्रोध लोभ मोह तेग तीर धनु नेजा। अदया अखंड तोप चंद घहरात है।
ग्वाल कवि जब्बर गसीले गोल गोला चले। टोला कूट बचनों के पूर लहरात है।
हूजियो हुस्यार पार साँच के मवासे माँहि। पाप को पताका आसमान फहरात है॥२९॥

[ ८६ ]

पुनः कलि विषे

देखो कलिजू के राजनीत को तमासो यह। वासो कियो आनि हर एक की अकल पें।
खान दान वारे पान दान लिये दौरत है। गान तान वारे बैठि जोवत महल पें।
ग्वाल कवि कहे चार चतुरों को चैन है न। ऐस में रहत लेश कूर चढ़े बल पें।
मलमल घारे जे वे धूरन हैं मलमल। परमल खान वारे सोवे मखमल पें॥३०॥

लंपट व्यभिचारी

माया धारनी तें भाई भैन कहे जासों भै न। काहूकी न होइतासों काको कहि बोले है।
आपसी प्रकृति ताहि मौसी कहि मेले मन। जामें बड़ी मामता हि मामी कहि खोले है।
ग्वाल कवि देखो होनहार को कहत भाभी। कलिके कलंकी ये विचार भरे डोले है।
जैसे तैसे जहां तहां जोई मिले सोई बाल। ह्वै कर निहाल काम के लिये कलोले हैं॥११॥

उदार बाता सोम विषे

बलि सर्वस्व देहि बस्य करि राखे विष्णु। अति उच्चता को अरब चढ़ि सरसात है।
शंकर को रावन नें दे दे शीश शंकरन। भयो तिहूपुर की भयंकर विख्यात है।
ग्वाल कवि रामदे विभीषने लंकेश पद। तोरिलई लंक जाकी अजों बंक घात है।
सुमन को नाव जलहूपें फाटि डूबि जात। दासन की नाव तो पहार चढ़ि जात है॥३२॥

उत्तम मित्रता विषे कवित्त


राम असमसतें तिया लें दशकंध चल्यो। भयो अंतरिक्ष तिय रोदन जु लाख्योई।
जानि निज मित्र सुत वधु को विपक्ष भई। ग्रिहपथ जटायु उडि वन वाक्य माख्योई।
ग्वाल कवि कहे जुट्यो पंजन ते पक्षन तें। चुंच सर तीक्षन तें रहय पहय नाख्योई।
लक्ष लक्ष घाव पृष्ट वक्ष में प्रतक्ष करि। ढ गयो विपक्ष तऊ पक्ष पक्ष राख्योई॥३३॥

पुनः कवित

दशरथ मित्र को तनय राम वे पिछान । ताकी तिया हरो दशकंध दुष्ट होत है।
रोदन सुनत उडि जुट्यो है जटायु गिद्ध। छेदि डार्यो ताको तिन कोनो मंद जोत है।
ग्वाल कवि कहे फेर आय व्हे विपक्ष गिर्यो। निको चहत प्रान छुट्यो श्रोन सोत है।
दुस्सह वचन बानमारिबा तज्यो न तोऊ। जाहर जहान में सुमित्र ऐसे होत है॥३४॥

पुन: कवित्त

जैसो मुख आगें तैसो पीछे तैसौ ताके मरे। सुख दुःख एक सो चरित्र चाहियत है।
बदलौ न चाहे मन गदलो करे न कभू। हर लौं लगे वे में विचित्र चाहिमत है।
ग्वाल कवि सुक्रत सुबुद्धि मिष्ट हित बेनी। निज कुल माहि सों पवित्र चाहियत है।
गिद्धप जटायु को सो प्रन धन सत्य शील। सर्वदा सुखद ऐसो मित्र चाहियत है॥३५॥

[ ८७ ]

अधम मित्र विषे

संपति में रहे संग अंग बने रहे नीके। रंग रंग छल बैन बोले हरखाने के।
मित्र के दुपट्टा एक खरचि दुशाला चहै। कर्ज ले न देई बने रूप है बहाने के।
ग्वाल कवि कहे खोटे काम में फसाई देइ। दाइ दाइ खेंचे दाम साथी सीर्फ खाने के।
धर्म को न माने पर पीर कों न पहिचाने। ऐसे मित्र बहुत बिचर या जमाने के॥३६॥

प्रेम करायबे विषे नायिका प्रति दूती वचन

ना रहे संपति नित्य सदा मद छाये अनेक यही भ्रमजार है।
जात वृथा यह वैस वही हर एकन कों हर एक बिचार है।
त्यों कबि ग्वाल सही है वही जो लही जग में रसरीत[३] अपार है।
नेह के नेजन को झिलिबो हिलिबो मिलिबो खिलिबो यही सार है॥३७॥

दैव की विचित्र गति

कौन को मालुम ही जग में दशकंध हने जुग वाल प्रमाने।
तूंहै विभीखन लंकपती जिहको अति सूघता लोक बखाने।
कोरवे जीतिहै यो कवि ग्वाल गरीब जे पांडव पीड़ित प्राने।
जाने जुगींदमुनिंद न इंद्रसु गोबिंद की गति गोविंद जाने॥३८॥

आकों प्रभु सहाय ताको बिगरत नाँहि

धारे अंग अंग तेग तबल कटोरे कोट। मरद मुछारे बल भारे तेह ताप रे।
वित्त के भंडारे हितचित्त के करारे सब। कित उजियारे प्रन भारे तेज़ मंद रे।
ग्वाल तू अखारे वाम झारे द्रौपदी के वास। दुसासन सारे ही उघारे में न उघरे।
चार भुज वारे जाके होत रखवारे ताके। दोइ भुजवारे के बिगारे कहा बिगरे॥३९॥

कवित्त

कंस से हत्यारे करे क्रोध विकरारे जिन। मारे कई बालक विचारे मृदु मंद रे।
बंद में उतारे वसुदेव जडे तारे जहाँ। जन विकरारे[४] भयकारे कारे कंदरे।
ग्वाल कवि गोकुल सिधारे अंधियारे सोई। सेत फन वारे छत्र ठाटे चले सुंदरे।
चार भुज वारे जाके होत रखवारे ताके। दोइ भुजवारे के बिगारे कहा बिगरे॥४०॥

[ ८८ ]

द्रगशतकम् ग्रन्थ

मंगलाचरण-दोहा

प्रान प्रियासु महेश की। तिनके सुत गननाथ।
विधन विनासन सुमति दा। दासन के नित साथ॥१॥
तिनके पद अरविंद को। हाथ जोरि शिर नाय।
बन्दी विप्रसु ग्वाल कवि। रचत ग्रन्थ मन लाय॥२॥
ग्रन्थ संवत् १९१९
संवत निधि शशि निधि शशी। फागुन पख उजियार।
द्वितीया रवि भारंभ किय। द्रगसत सुख को सार॥३॥

दोहा


प्यारी तनसु प्रयाग में। नैन त्रिवेनी चारु।
ताकी चितवन न्हान ते। है बैकुण्ठ अपार॥१॥
प्यारी द्रग हीरा परस। चुनी जटित दुहु धाहि।
पुतरी सालिगराम ज्वे। क्यों न पाप नशि जाहि॥२॥
प्यारी तो तन ताल में। फूले द्रग अरविंद।
चितवनि रस मकरंद हित। मो मन भयो मलिंद॥३॥
प्रान प्रिया के द्रगन की। शोभा इमि दरसाय।
मनो श्वेत अरविंद में। रह्यो मलिंद लुभाय॥४॥
रंग रसीले द्रगन में। पुतरी यों दरसाइ।
मनो अतन तन धारिके। रह्यो सरन है आइ॥५॥
मन हरनी तो द्रगन की। छबि ऐसी अभिराम।
फटिक[५] जंत्र में स्याम मनि। पूजि चढ़ाई काम॥६॥
पिक बैनी अखियान की। खूबी अजब॥
लछमी लसे सुहाग की। मृगगद बिन्दु लगाइ॥७॥
गज गवनी द्रग भूमि में। समरस अति दरसाय।
सांत सिंगार विरोध तजि। बसे कूटि इक आय॥८॥
नित्त पनो निरबाह को करि सलाह रस राइ।
बसे छबीली द्रगन में। हास विगार उछाह॥९॥

[ ८९ ]

सुर असुरन अरु सम्भु को। पोषत तिय तो नैन।
अमी वारूनी गरल करि। करत इते कन चैन॥१०॥
नहिं विधि आसन लछि। नहिं हरि हाथ वसिंद।
जैसी कछू सुवास छबि। तिय तो द्रग अरविंद॥११॥
बरुनी बखतर धर रहै। पुतरी ढाल सजोर।
चितवनि बाँकी असि सिये। नैन सिपाही तोर॥१२॥
बरुनी सांमल सखिन से। तारा हरि सुख रास।
सितता श्री राधा लिये। द्रग चंचल रचि रास॥१३॥
तन नद अखियाँ नाव वन। तारे खेवट त्यार।
मनहि मलाही सेवके। दोवत सुधार॥१४॥
प्यारी अँखियाँ रावरी। है सुखदर दरियाउ।
बरुनी सुहद सिकंदरी। कहत न आउ न आउ॥१५॥
द्रग कामद में लिख रहै। तारे प्रेम सु आंक।
जो बांचे सो होत है। बोरो बके निशांक॥१६॥
नैना फन्दक फबि रहे। अरुनाई को जाला
प्रेम किलिन को गद नितें। मन मृग फैसि बद हाल॥१७॥
द्रग समता बन जाइ जो। तो जीवन सफलाइ।
इहि हित मृग वन जाय रहि। मीन रहे वन जाइ॥१८॥
अँखिया तेरी अंगना। है अति ही अभिराम।
अमी पियालिन बोच धसि। पीवत सालिगराम॥१९॥
नैना नटुवा रावरे। पलक सु ढोल बजाहि।
दीठि कला बाजी करें। राजी करन पियाहि॥२०॥
मदते कबहूँ लाल से। कबहुँ होत कजरार।
कबहुँ विशद है जात है। द्रग बहु रूप सु धार॥२१॥
जो उनके चितवें तनक। रहे वही न संभाल।
नैन तिहारे लाडिली। है कह कह दीवाल॥२२॥
तो चितवनि अंकड़ सद्रस। छेदत सूधी जाय।
बँचत हू हरि लेत है। हृदय प्रान इक दाय॥२३॥
कोमल बेधक होत नहिं। तो द्रग कमल दिखाय।
पै यह शर है मैन को। यों हि पार कढि जाय॥२४॥
नैनारो ना काम के। परी काम की छाय।
क्यों न होय ये काम कर कोन काम सर साय॥२५॥

[ ९० ]

नेह भरे गुन के भरे। जोति बरे द्रग दीप।
निस दिन इक से सखि दुवे। द्वीप द्वीप के दीप॥२६॥
बादशाह तिय द्रगन के। तेरे द्रग है बाल।
पलक छत्र बरुनी चैवर। चितवनि फौज विशाल॥२७॥
मदन महीपति के जु ये। तेरे द्रग सु वकील।
क्योंकि बढावत काम ये। होन देत नहिं ढोल॥२८॥
सारस द्रग तेरे निरखि। सारस वेद बिजात।
सारस दल नये। सारस जोड़ सुहात॥२९॥
तीरंदाजी जो सिखे। तो द्रग गुरु करि लेइ।
दूरंदाजी की कला। इन ते बढ़ि को देह॥३०॥
चितवनि मीठी मेलि के। नहीं लखन विषमांहि।
सो द्रग द्रग करि गाफिलो। मन धन छोडत नाहिं॥३१॥
तेरे द्रग शरतें छियो। प्रान सिपाही सूर।
ससकत हूँ सों ही रहे। नेको होत न दूर॥३२॥
पलक गोदरी बरुनि गुन। पुतरी ताज सुधार।
अहाँ सदा करि लेत मन। द्रग येन यों तुम्हार॥३३॥
द्रग तेरे खंजन नहीं। खंजर खूबी खूब।
यो धीरज बखतर कठिन। फोडि जात है दूब॥३४॥
पुतरी विष बोरे भये। बरुनी चढ़े खरसान।
तो द्रग सर विकलान करि। क्यों नहिं सोखे प्रान॥३५॥
और बान ते जे छिदत। ते रोवत दिन रात।
तेरे द्रग सर के छिदे। छिन छिन अति हुलसात॥३६॥
यह अचरज मों को महा। बुधि कछु करत न दोर।
तो द्रग सर छेदो हियो। छिदत्त चहत है और॥३७॥
तो द्रग कमलन तें कढ़े। चितवनि पावक बान।
त्यागो निज कुल धरम जिन। क्यों न जरावें प्रान॥३८॥
द्रग तरकस ही में इन्हें। अजी रहन तुम देउ।
तिरछी चितवनि सरन तें। मत प्रानन को लेउ॥३९॥
बडो पाप निरदेयनी। घायल फिर वार।
द्रग सर छिदे परे तिन्हें। छेदत पार हजार॥४०॥
तेरे द्रग सर के छिदे। जखमी अति बद हाल।
सीवन मलहम तेलहू। पूरि सकत नहिं साल॥४१॥

[ ९१ ]

सूर सुधा प्याली उभय। धरी चंद में लाय।
ताहि पान हित असुर शठ। तामें बैठे आय॥४२॥
त्रिपुर रूप विविकुंड के। प्रभा कटोरी ऐन।
किधों जंत्र जग मोहने। के प्यारो के नैन॥४३॥
तेरे नैनन की तुला। तोल्यो मन अरु प्रान।
स्वास समीरहु के लगे। रहतजु एक समान॥४४॥
हरि सत विधि रज ईश तम। इक इक गुन आधार।
प्यारी तो द्रग गुनति हूँ। क्यों न करे भव पार॥४५॥
मोन केत के मोन तें। सरस प्रिया के नैन।
वात घात सब करत यें। दे दे सुंदर सैन॥४६॥
सख चख बिन पग चलत चल। पें दुग की सम नाहि।
उनको नर मारत रहे। ये नर हने स चाहि॥४७॥
इक इक रंग के मीन बहु। दूग त्रै रंग रंगीन।
ये मारे अरु जिबाइ ले। वे इन गुनन विहीन॥४८॥
शख जल में जल चखन में। वे जल चपल दिखाय।
ये बिन जल चंचल रहे। ये गुन सरस सुहाय॥४९॥
रिस मुद मेल अमेल की। कहँ कमलन तें सैन।
ये गुन गन अनगिन भरे। प्यारी तेरे नेन॥५०॥
रतिहूर्ते अद्भुत लखे। प्यारी तेरे नैन।
छोरधि सीपी उलटि के। हरि धरि पूजत मैंन॥५१॥
ललची हँसि ता शोक मय। रिसी उछाही पोन।
डरी संकुचित चकित सम। चितवनि नव रस लीन॥५२॥
रात मुर्दे दिन में खुले। यां तें कमल बने न।
निस दिन प्रफुलित रहत है। प्यारी तेरे नैन॥५३॥
प्यारी तेरे दुगन में। बसत मंत्र ये चार।
आकषरन सु उचाटिबो। मोहन, मारन, त्यार॥५४॥
चंचलाइ तो दूगन की। लखि लखि खंजन मोन।
सीखत पें आवत नहीं। होत मलीन रु दीन॥५५॥
मीत दरस के समय। द्रग चपलाई जु आय।
सो लखि मीन मलीन के। डूबे जल में जाय॥५६॥
लखि तिय चख की चपलई। खंजन गये खिस्याय।
चिता चिनगिनतें जरे। कारे परे लजाय॥५७॥

[ ९२ ]

वन वन के आवत रहे। वन वन के उमगाइ।
लखि द्रग तारे सम अवन। वन मिस रोवत जाइ॥५८॥
अँखियां तेरी शशिमुखी। बिन पखियाँ उडिजाइ।
लखियाँ परे न काहु को। सखियाँ चतुर भुलाइ॥५९॥
भयेहु सबनतें। वाहू को इन वीर।
स्वादू किय बलवीर को। तो द्रग जादूगीर॥६०॥
नैन नेकहू ये शिखे। यातें ठीक ही नैंन।
मिले खिले पल में छलें। दले मले चित चैन॥६१॥
बिन कजरारी करत रद। कजरारी अखियान।
बिन सरखान करे कतल। ये असि सी खरसान॥६२॥
तो अखियाँ मदहद भरी। ताज लबरेज।
पे न दया नेकहु भरी। काटत रहत करेज॥६३॥
अखियां अद्भुत रावरी। पानी को नितवास।
चितवत ही लाबे अगिन घूमन करे प्रकास॥६४॥
धनु ते शर छुटि ना फिरे। दृग शर इनि फिर आइ।
यह विधि असतर तुहि दियो। दई सिहाइ सिहाइ॥६५॥
अमल कमल दल दल मलन। छलिन छलन छविवंत।
चपलन में चपलन चख। तो दूग चलन लखंत॥६६॥
सूधी चितवनि बानसी। होइ जात है पार।
बंक बिलोकत तो नयन। तब दारत है मार॥६७॥
चितवत चितवनि चीकनी। चुभत चुभत चुभि जाय।
रूखी चितवनि पलक में। करत हजारन घाय॥६८॥
सरसीले हरनीनते। रहे रसीले ऐन।
कीले रतिपति ने तक। गजवीले ये नैन॥६९॥
नैना बेधक कहत है। बेधन कहूँ दिखाय।
जो न बेधतो कढ़त क्यों। हिये हजारन हाय॥७०॥
हरनी के हमें लखें। ओ हरनी के ऐन।
हरनी के द्रग तें भले। मन हरनी के नैन॥७१॥
शशिवदनी तेरे नयन। जगत जोति के जाय।
जोति दिखे मन को हरैं। यह अति अचरज माय॥७२॥
अरजुन हू के बान तें। द्रग बलवान अपार।
वे तन वे बेधत हुते। ये बिन परसे पार॥७३॥

[ ९३ ]

पहिले ही ये नैन है। बड़े नुकीले तोर।
तामें सुरमा नोक यह। करे दुनाली फोर॥७४॥
बरछी हू की अनियतें। तो द्रग अनी इजाद।
क्योंकि घायल हु चहत है। और बिंधन को स्वाद॥७५॥
नैन छबीले छल छके। छलत छलिन छित छोर।
छिय छिय छित्तरत छिनक में। छीनत चित बरजोर॥७६॥
खूबी तो द्रग खुलक की। करे खुसी में लीन।
खंजन खिसियाने रहे। खिन खिन होतें खीन॥७७॥
नजव नजर तू करत है। गजब नैन की कोर।
अजब विरह की अगिन में। गजब होत मन मोर॥७८॥
मृग नैनन से उड़ रहे। मृग मदहूँ[६] बिच ऐन।
भरे चौकड़ी मृगन सी। प्यारी तेरे नैन॥७९॥
और अंग साजे रहे। भूषन ते दिन रैन।
ये बिन भूषन हो दिपत। शशि मुखि तेरे नैन॥८०॥
पाँखें राखे तिनहु की। अभिलाखें रद होत।
नाखें साखें सुरिन की। ये आँखें जग जोत॥८१॥
ये मद लोचन रावरे। रोचन रंगे दिखात।
शोचन के मोचन महा। मन रोचन सरसात॥८२॥
जल छिर के जल केल में कैसे अरुन।
मीन केत के मीन मनु। कुसुम हौज लहरात॥८३॥
बैरिन[७] को यह रोत है। मारत है सब खून।
द्रग खूनी दिन रात कै। इन तें बचे कभून॥८४॥
संदीपन उनमाद कर। मोहन सोषन ऐन।
संतापन शर समर के। बसे बाल के नैन॥८५॥
मालति आम अशोक नित। अरुन नील अरविंद।
ये प्रसून शर समर के। तिय द्रग वास बसिंद॥८६॥
छीन लई बरछीन की। नोकें पैनी छीन।
दीन किये सर समर के। तिय द्रग अनी रंगीन॥८७॥
है न्यारी सब तियनतें। ये मनियारी आंख।
अजब गजब करि डारती। जो कहुँ होते पांख॥८८॥

[ ९४ ]

तो अँखियां नीकी कहत। भरी अनी की घात।
हिय वेधत कसकत नहीं। भीतर धसकत जात॥८९॥
काजर की का जर हती। जो दृग शोम बढ़ाय।
द्रग ये अनुपमते प्रभा। काजर की सरसाय॥९०॥
रवि किरन हूँ ते अधिक। तुव इक चितवन तेज।
ओट भये हू हिय जरे। बुझे न किय जल सेज॥९१॥
रोकि रोकिरी रोकि री। ये गजबीले नैन।
पल में कतल करें हियो। ऐसे देखें में न॥९२॥
तोरथ के जे फल विमल। ते नित तो दूग तीर।
तीरथ के सब समर के। चले न कछु तदवीर॥९३॥
किसे भरे केते मरत। किते साल बे शाल।
अखियाँ तेरी ही भई। पर खेली ब्रजबाल॥९४॥
क्या लाली कोयेन की। क्या कजरारी रेख।
क्या अलबेली आँख ये। ओ चितवनि अनिमेख॥९५॥
अधखुलियां खियांन को। अलसनियाँसु चितौन।
अनियाँ वनियां पैनियो। नहि भेदनियाँ कौन॥९६)
क्या जाने किहि लगन में। रवे गये तो नैन।
लाख लाख विधि करत विधि। ऐसे और बनैन ॥९७॥
ये इठलाहट की भरी। अलबेली अखियान।
निरखि निरखि बचि है न ब्रज। करें राखि तू म्यान॥९८॥
सुंदरता शशि ते खतम। मधुर पियूष परे न।
खूबी नैनन की खतम। करो तिहारे नैन॥९९॥
प्यारी लोचन ब्रह्म में। मन लय ह्ववो भुक्ति।
नजर ओर ये जात नहिं। होत जगत ते मुक्ति ॥१००॥

[ ९५ ]

भक्ति और शांत रस के कवित्त

कवित्त

काल की न खबर कहाँ सो होय मेरे मन। ख्याल को है काया यह पानी भरी खाल को।
पालकी में चढ़ि मत भूले मढि नालकी में। कढि करि तीरथ सुमति खुसहाल को।
भालकी जताये जिन मालन में ग्वाल कवि। करि सतसंग बेड़ि काटि भायजाल की।
बालको बिलोकन विसारि हालाहाल की तूं। छवि दीन दयाल की विलोक नंदलाल को॥१॥

कवित्त

तात मात बहिन सुप्ता औ सुत बनिता हू। भानजे भतीजे साथ चलि है न खेवामें।
हाथी हथियार हय गय ग्राम धाम घौर। भूखन वसन छुटि जेहे नेक ठेवामें।
ग्वाल कवि कीजें सतसंगत जो फूले अंग। राखि निज वृत्ति एक सांवरे को सेवामें।
कोक है न हित सब वित्त के लिवैया अरे। भूले मत चित्त नित काल के कलेवा में॥२॥

'कवित्त

काया जिन आपनी गिने तू मन मूंढ येरे। याके घने गाहक है तोष पोष भरिजा।
बात कहे मेरी बात कै तु कहे मेरी यह। नीर नीर जीव कहे मेरी मोहि भरिजा।
ग्वाल कवि ऐसें सब झगरो मचावे तहाँ। काल कहे मेरी यह काहू की न चरिजा।
यातें नंदनंदन कें नामकी बनाव नाव। संत जन केवट ले पार तूं उतरिजा॥३॥

कवित्त

चोवा मार चंदन कपूर चूर चारु ले ले। अत्तर गुलाब को लगाये तन धारी में।
खासा तनजेव के धसन वेश धारि धारि। भूषन संवारि कहा सोवे सेज पारी में।
ग्वाल कवि साधन के साधन लगेन मंद। बेठि मसलंद पे भुलायो दगा रारो में।
मेरी यह सेरो सो बँधी है मजबूत वैरी। मेरी मेरी कहत मिलेगो अंत माटी में॥४॥

कवित्त

पनहैन तेरो कोऊ तन है न तेरो इहाँ। प्रन है न तेरो बनि बैठ्यो गर्व भारी सों।
पितु है न तेरो कोऊ हितु है न तेरो तकि। चित्त है न तेरो बस्यो ही में जोरवारी सों।
ग्वाल कवि मेरो यह तेरो सो अंधेरो भयो। ताहि करि दूर बोध चंद उजियारी सों।
नग है न तेरे नरनग है न तेरे संग। नग है न तेरे पग क्यों न नग धारी सों॥५॥

[ ९६ ]

कवित्त

जाने क्यों न जिय में प्रमाने क्यों न राधे पद। आने क्यों न हिय में सराइसो वसेरो भव।
पंचभूत जाइके मिलेंगे पंचभूतन में। दूतन के घेरे यों कहेंगे मिलि घेरो सब।
ग्वाल कवि रचासा की न आसा कछु राखे यह। आई बान आई रार समुझि सबेरो अब।
माने जो न एके आज काल में अकाल काल। काल करि लेहे सतकाल काल तेरो तब॥६॥

कवित्त

जानि पर्यो मोकों जग असत अखिल यह। ध्रुव आदि काहू को न सर्वदा रहन है।
यामें परिवार व्यवहार जीत हारादिक। त्यागकर सबही विकरि रह्यो मन है।
ग्वाल कवि कहे काइ रह्यो न मेरो क्योंकि। काहू के न संग गयो तन धन है।
कियो में विचार एक ईश्वर ही सत्य नित्य। अलख अपार चारु चिदानन घन है॥७॥

कवित्त

राम घनस्याम के न नाम ते उचारे कभू। कामवस है के वाम भरे बाँह डाली है।
एक एक स्वांस ये अमोल कढ़े जात हाय। लोल चित्त यहै ढोल फोरत उताली है।
ग्वाल कवि कहे तू विचारे वर्ष बढ़े मेरे। एरे घटे छिन आयुकी बहाली है।
जैसें धार दीखत फुहारे की बढ़त आछे। पाछें जल घटे हौज होत आवे खाली है॥८॥

कवित्त

आयो तू कहाँ ते उपजायो कौन कौन विधि। पालि बढ़ायो कहो कौन करकस तें।
कोन सों करार कौन कौन करि आयो फेर। आयकें भुलायो छक्यो काम वरकस ते।
ग्वाल कवि कहे तें न आप में विलोक्यो ब्रह्म। जुदों हूँ न जानि भज्यो भज्यो अरकस तें।
स्वास स्वास माँहि स्वास अंग तें कढ़त ऐसें। जैसें जंग परे कढ़े तीर तरकस तें॥९॥

कवित्त

रंक जात कीने पंकजात जाके नैनन में। ऐसें स्याम गात के न ध्यान में समात है।
चंदमुखी साम्हने दिखात हरखात ख्यात। संपति जमात में भुलात हुलसात है।
ग्वाल कवि जीवन के तातमात तातभ्रात। खोवे तिन घात नरदेही करामात है।
यह मतजाने दिन जात रात जात भैया। बात बात मांहि बात जात बात जात है॥१०॥

कवित्त

जोइ सन तनक न भूमि में लगन हुते। सोई तन भूमि खोदि गाड़े नोन संग में।
जोइ तन तन कसके न छूय कोई नर। सोई तन गीध स्वान चीथत उमंग में।
ग्वाल कवि जो तन दुशालन लपेटे हुते। सो तन जरत देखे चेतिका उतंग में।
जोई तन अतरन के होज में तरे है सोई। सुवासे तरल डोले तोप के तरंग में॥११॥

[ ९७ ]

कवित्त

साथी सब स्वारथ के हाथी हय हेत वारे। हाथ पाँय अंय में भरोसो है न ताहू को।
माता पिता भ्राता मीत नाता रह्यो ताता पूर। पूत अपनो है में विस्वास है न जाहूको।
ग्वाल कवि सुख में सुने ही है सभी के सब। दुख की दरेहन में होत है पनाहू को।
मासे उरधार एक रामे प्रखवार तेरो। रामे रखवार बोर कोक है न काहू को॥१२॥

कवित्त

तात कहे तात अरु तात करे तात मेरो। भ्रात कहे भ्रात मेरो जात जात जपनो।
ताई कहे मेरो अरु भाई कहे मेरो लाल। बाल कहे वाह यह मेरो बाल थपनो।
ग्वाल कवि कहे कहे सासुरे जमाई मेरो। भैन कहे भाई मेरो दाई कहे ठपनो।
तजिकैं विवेक नेक सजिकैं कुटेक लेखो। देखो जीव एक कों अनेक माने अपनो॥१३॥

कवित्त

पापन की पारी लेउवारी उरधारी सदा। वृत्ति न सुधारी कहो मोसो और कोन है।
तारी कहवाई जोन मेरी तुम तारी बात। ये ही अफसोस कहो ऐसो और कौन है।
ग्वाल कवि गनिका उधारी नाम प्रनधारी[८]। ये ही आसभारी औ भरोसो और कोन है।
नारी जो विपति बारी सिला ही विपतिवारी। करी सो विपत्तिवारी तोसो और कौन है॥१४॥

कवित्त

रीझन तिहारी न्यारी अजब निहारी नाथ। हारी मति व्यास हू की पावत न ठौर है।
नाम लियो सुत को सो हिते को विचार्यो नित। गनिका पढ़ायो शुक तापें करि दौर है।
ग्वाल कवि गौतम की नारी ह्वै शिला सरूप, कियो कब तरिबे को कहो कौन तौर है।
पति को पतारी हुति पातिक कतारी ताहि। तारी तुम राम तारी तुमसो न और है॥१५॥

कवित्त

गिरिसें कुचन लाई तिन्हें सहरावे रमा। भावे वह आपको अजब उपचार है।
गौतम की नारी शिला[९] भारी ह्वै परी ही नाथ। ताही पें पधारे त्यागि मग मृदु तार है।
ग्वाल कवि कहे यातें इकथल और हूहे। ताहि में बताऊँ जातें रुचि सुखसार है।
शिला हूतें हृदय कठोर मेरी महाराज। वा पगाधारि भलें करिये विहार[१०] है॥१६॥

कवित्त

अस्यो ग्राहराज ने गहकि गजराज भोटे। बलके भरोंसें रोसें जोसें जीउ महतो।
ग्राह खैंचे जलमाहि गज खैंचे बल मांहि। खल बल भाच्यो जल उछलत वहतो।
ग्वालकवि तब गज लेके सुण्ड–पुण्डरीक। तुण्ड करी ऊँचो कही हरि मोहि गहतो।
त्योंही चल्यो चक्र हरि चक्रधर चिते परै। नहिं तो गरीबन निवाज कौन कहतो॥१७॥

[ ९८ ]

कवित्त

पानी पीयबे कों गज गयो हो गहकि कर। माइ ग्रस्यो ग्राहने अथाह बल भरकें।
जोर बहु पार्यो न टार्यो मयो ग्राह तब। दीन है पुकार्यो हरि हार्यो में तो लरिकें।
ग्वाल कवि सुनत सवारी तजि प्यारी तजि। धाये चित्त सारी तजि नांगे पाउँ ठरके।
जानी न परी है कब चक चक्रधर जूसों। चलि दल नक्र गयो कर चक्र धरके॥१८॥

कवित्त

देवन को दुःख दंद देवको को फंद कर्यो। कंस मति मंद को जमी है नींव काल की।
ब्रजवासी वृंद को भई जो बात ही पसंद। रूप की अमंद राशि खुलि परी ख्याल की।
ग्वाल कवि श्रुतिन को सो स्वच्छन्द भयो। मोहन बुलंद भयो मूरति रसाल की।
अद्भुत चन्द भयो जसुमति नन्द भयो। नन्द के अनन्द भयो जे कन्हैया लाल को॥१९॥

कवित्त

ब्रह्म आइ बाल भयो लोकपाल पाल भयो। देवन कृपाल भयो सुषमा को पाल है।
मुनि मन माल भयो राधा उरमाल भयो। रूप तिहुँ[११] लोक को सुताल भो विशाल है।
ग्वाल कवि गौवन को अद्भुत ग्वाल भयो। गोपिन को ख्याल नेह जाल भो रसाल है।
ब्रज इकताल भयो जसुदा के लाल भयो। लाल के भये तें भयो नंदमुख लाल है॥२०॥

कवित्त

आज ब्रज के नंद के भयो अनंद कंद नंद। वारो कोटि चंद ब्रजचंद बेसवारे पर।
षटमुख गजमुख पंचमुख लिये उमा। चौमुख औ भानु इन्द्र आये मौन मारे पर।
ग्वाल कवि कूदत लचत उचकत फेर। ख्यालन खचित[१२] गावे चारहूँ किनारे पर।
मोर नचे मूसा नचे नन्दी नचे सिंघ नये। हंस नचे हय नचे गज नचे द्वारे पर॥२॥

इति शांतरस कवित्त

 

दीपावली के कवित्त

छाई छवि छित पें छहर छवि छैलन की। छम के छपाकर छटा सी बाल त्यारी पे।
उन्नत अनार अलगारन अगारन पें। आसमान तारे उठे ऊपर अगारी पे।
ग्वाल कवि जाहर जवाहर जगत जोर। जागत जुआरी जाम जाम जर जारी है।
दीप दीप दीपन की दीपति दवरि आइ। जंबू दीप दीपन में दिपत दीवारी पे॥२२॥

[ ९९ ]

दोहा

श्री जगदंबा राधिका। त्रिभुवन पति की प्रान।
तिनके पद में मन रहे। श्री शिव दिजें दान॥२३॥

इति श्री ग्वाल कवि कृत भक्तभावन ग्रंथ संपूर्णम्

 

विक्रम संवत् १९५३ का माघ वदी १० शुक्रवार के दिन श्री सिहोर में खवास गोविन्द गीलाभाई ने यह ग्रन्थ मधुरा से कवि नवनीतजी की पास से मंगाय कें उन



  1. मूलपाठ :––विरंची।
  2. तापीन।
  3. मूलपाठ––रसरित।
  4. वीकरारे।
  5. मूलपाठ :––फटीक।
  6. मूलपाठ :–– मदहु
  7. फैलीन।
  8. मूलपाठ––प्रनधारि
  9. शीला‌
  10. वीहार।
  11. मूलपाठ––तिहूँ
  12. खचित।