भक्तभावन/ज्वालाष्टक

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[ ४७ ]

अथ श्री ज्वालाष्टक

कवित्त

सिन्धु सुत पीवे प्रीत पूरन प्रतीतकर। आसुरी न लावें कंठमत वृत्ति को धरे।
कृमि तन ही जाने भेद दुःखदान लोकन कों। दीरघ रदन जिन्हें देखत सबे डरे।
ग्वाल कवि जीव गुरु वरने पुरानन में। शिव ही कौं जानत औगुन ही भलें भरैं।
हार धारे होरन में धोरन धरत ऐसैं। देवन अदेवन सहाय ज्वाला कू करें॥१॥

कवित्त

चोवदार चौमुख खवासी करे षटमुख। एक मुख वारो धुनि कियो करेब की।
द्वारे द्वारपाल देवराज दल देवन के। हवन करै वे पर हाजरी हैरंब की।
ग्वाल कवि प्रसिद्ध प्रभाकर पें पानदान। छत्र में छपाकर वरद अविलंब की।
जा हर जलूस जोर जुग-जुग जोइयत। जागती जगत जोत ज्वाला जगदम्ब को॥२॥

कवित्त

अम्बर तैं आवे द्वै नहर जल धारन की। लहर दुहुधा देवधुनि के रसाला की।
दौरे देवतान के दलील दल दखर। हखर हाजिरी में भीरे देवबाला की।
ग्वाल कवि गावे गुन नारद न पावे अंत। संत को सहाइक इकत छबि आला की।
फूले बहु नत्र जायें ऐसी नत्र कंदरा। हेम नत्र तामें जोति ज्वाला की॥३॥

कवित्त

कैधों वृषभान की प्रभावन जीतिबे कों राधे। शीश फूल धार यो शोश सुखया हिलोरेको।
कैधों विधि वाजीगर बाजी खेलि जातो रह्यो। रहि गयो प्यालो माला जो लिनके चोरे को।
ग्वाल कवि कैधों सुरराज ने असुर जीत। राख्यो है उतार टोप सोहे सकाझोरे को।
कैघों जगदम्ब जोति ज्वाला को जलूसदार। जाहर जगे है छत्र जात रूप जोरे को॥४॥

कवित्त

एरी मात ज्वाला जोति जाला की कहो में कहा। कौतुक विशाला गति अद्भुत तेरी है।
भानते कशानतेसु चक्रहूते पुष्ट झार। दुष्टन के दल दवरि होत नेरी है।
ग्वाल कवि दासन को शीतल सदाई ऐसी। जैसी है सु तैसी सो कहे क्यों मत मेरी है।
चन्दन सी चन्द्रमासो चन्द्रिकातें चौगुनीसी। जलसी हिमंत सो हिमालय सी हेरी है॥५॥

[ ४८ ]

कवित्त

एरे नग नांगे कहा काया को सँवारे नित। ताया तात मायाजानि छाया हितू कोईना।
कालीको पुरान सो सुन्यो न कभू कान देके। मान में समान्यो भी कुमति रेख धोईना।
ग्वाल कवि जानी है अजानी क्यों बनत अरे। पानी भयो कौन सो विचार आस खोईना।
धिक धिक जीवन जनम जोग जग जोयें। ज्वाला जगदंबिका की जोति मिय जोईना।३।

कवित्त

काम तखर कामधेनु चारु चितामनि। कामना के पूरक इन्है ही पहिचान सब।
तेऊ कुल कामना कलित नित जाँचे तुम्हें। सांचे दरबार मिले मांगे मुहदान सब।
ग्वाल कवि एई उपमान है जहां न ऐसो। बान देन रावरी लुटावे जग खान सब।
याते राजरानी महरानी मात ज्वाला जोति। आप सी तो आप ही हो गावत पुरान सब।७।

कवित्त

एकमुखी है के मुनि मानस मुदित कीने। छिन्नमुखी के धार श्रोणित की दई तें।
भूमिमुखी द्वे के राक बीज निरबीज कियो। बगलामुखी है अरि बुद्धि बद्ध लई तें।
ग्वाल कबि तू ही सौम्य मुखी औ करालमुखी। मोहमुखी तू ही जो मनंत मुंखी ठई तें।
कलि कलुषी के तारिबे को सखी पारिने को। जाहर जाहूर ज्वाला मुखी जग भई ते‌।८।

इति श्री ज्वालाष्टक

[ ४९ ]

अथ पहिला गणेशाष्टक

कवित्त

मूसा के सवारन सवार दुख वृंदन के। जाके ध्यान किये नशे पापको पहार है।
पुष्ट पुष्ट पाय मंजु मुख और पिंडुरी है। जैसो ही सुठार जंघ कटि इक सार है।
ग्वाल कवि कहे तैसी तोंद थूल थिरकत। उरभुज तुण्ड शीश शोभा को अगाह है।
रीझे बार बार बार लावें नहि एको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥१॥

कवित्त

गौरिजू के नंदन है विधन निकंदन है। चाटे चारु चंदन है शोभा के अगार है।
सिंदूरते सजित सकल तन तेजदार। चूअत कपोल मद झार विसतार है।
ग्वाल कवि रवि कीसी किरन हजार छुटे। सुंडा दंड फैलन फिरनि बेसुमार है।
रोझें बार बार बार लावै नहि एका बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार ह॥२॥

कवित्त

गनन के नायक है दासन सहायक है। दुष्टन के नासक है सुखमा भंडार है।
द्वितीया को चन्द जगदंब राजे मस्तक पे। भौरन को वृंद गंड मंडित महार है।
ग्वाल कवि कहे भुजदंड चार चारु जाके। उचित अखंड बलवंड बेसुमार है।
रीझे बार बार बार लावें नहिं ऐको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥३॥

कवित्त

पूत पंच आनन के भाई षट आनन के। मुकट सुजानन के छबि के भंडार है।
फूलन की माले उर शोभित विशाले हाले। चाले मंद मंद तरु डारत विदारे है।
ग्वाल कवि सेवक के शत्रुन को छार करें। पार करें भव तें दयालता हजार है।
रीझें बार बार बार लावं नहिं एको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥४॥

कवित्त

परशुराम जू को जुद्ध माहि गर्व भंजि डार्यो। भंजि डार्यो अंग कर्यो क्रुद्ध विकरार है।
वीरभद्र आदिक अनंत गन ताबे रहे। दाबे रहे सबको पराक्रम भंडार है।
ग्वाल कवि कहे व्यासदेवजू के सुखकारी। बनिके लिखारो कियो अति उपकार है।
रीझे बार बार बार लावें नहिं एको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥५॥

कवित्त

संकट विनासन है तेज के प्रकाशन है। सुमन सिंघासन है शास्त्र के अगार है।
एकदंत बलवंत छविवंत छाजि रह्यो। गाजि रह्यो तीनों लोक माहि सुख सार है
ग्वाल कवि कहे जाकी चाँदनी चहुँधा चारु। चाँदनी न होय सर अति उजियार है।
रोछे बार बार बार लावें नहि एको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥६॥

[ ५० ]

कवित्त


सोलतान पास जाके लंबो है उदर जाको। तीन लोक संपत्ति को पूरन भंडार है।
वेदन में शास्त्रन में पूरन पुरानन में। गज मुख गाइयत आनंद अगार है।
ग्वाल कवि कहे सर्व वेदन विदारन है। पारन है पैज के कृपाल बेसुमार है।
रीझें बार बार बार लावें नहिं एको बार। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥७॥

कवित्त


आदि शुभ काजन के पूजन परम जाको। पारवती जू को प्यार पुञ्ज को पहार है।
प्रभा प्रभाकर की परास्त सी भई ही जान। पेखि पेखि जाको प्रभापुञ्ज विसतार है।
ग्वाल कवि भलन की जाहर जलूस पारे। चूसडारे चिंता देंय मोह पारावार है।
रीझें बार बार बार लावें नहिं एको बा। ऐसो को उदार जग महिमा अपार है॥८॥

[ ५१ ]

अथ दूसरा गणेशाष्टक

कवित्त

आठै सिद्धि नोहू निदि वृद्धि के करेया सदा। सकल समृद्धि के दिवैया यही आज है।
लाडिले ललित गौरिशंकर के सरसत। भंजन भयंकर के दरसे दराज है।
ग्वाल कवि विद्या के विलासन कों बकसत। दासन कों देत अभयत्व के समाज है।
सुजस-सुबासन के दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महराज है॥१॥

कवित्त

भारत के पूरिबेके आछे उपकारन हे। विपति विदारन है करुना समाज है।
वीरन को वीरता के धीरन कौं धीरता के। पीरन कों पीरता के दायक दराज है।
ग्वाल कवि तेतिस करोड देवतान के ये। इच्छक हमेंश सब ही के सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥२॥

कवित्त

सतोगुन रजोगुन तमोगुन तत्व जामें करे ते प्रभत्व जाके होत शुभकाज है।
दूर करें दरद रिपून को गरद करे। रद करे रंकता दयालता दराज है।
ग्वाल कवि कहत कुरूपन सरूप देत। इज्जत अनूप देत दान के जहाज है।
सुजस सुवासन दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महाराज है॥३॥

कवित्त

सदा दंड उच्च करि चाहे तो लपेटें रवि। चाहे तो चपेटे चंदे ऐसे बे इलाज है।
चाहे तो स्वरंग गंग पलमांहि पीय डारे। चाहे तो उखारि डारे नंदन समाज है।
ग्वाल कवि कहे जो में चाहे एक टकरतें। मेरु कों बखेरें ऐसे बल सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥४॥

कवित्त

सूरज के रथमांहि एक चक्र सुनियत। ताही की फिरनि लोकलोक दुति साज है।
शुक्र जू को एके द्रग दैत्यन को रच्छक है। पच्छक है नीको होय तातें सब काज है।
ग्वाल कवि कहे ऐसें एक दंत बलवंत। अति छबिवंत पूरे कामना समाज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकाशन गनेश महाराज है॥५॥

[ ५२ ]

कवित


जाके उपहासतें विकास होत जाहर है। भादी सुदि चौथ को न देखे दुजराज है।
एक कलाचंद की विराजमान मस्तक। याही हेत दुतिया को वंदत समाज है।
ग्वाल कवि कहे नाम मात्र इंद्र सुरराज। ये पुंजें सकल काज यातें सुरराज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नाम के प्रकासन गनेश महाराज है॥६॥

कवित्त


माघ वदी चौथ को भली प्रकार पूजे जिन्हें। तिन्हें देत रिद्धि सिद्धि निद्धि के समान है।
सिंदूर संजुल तुंडचंदन त्रिपुंड तेसो। अद्युतो सुढार सुंड सुखमा विराज है।
ग्वाल कवि अतर अखंड अंग अंग राजे। उर पर साजे गंज गजरे दराज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥७॥)

कवित्त


नाम जाके द्वादश विशेष करि जपनीय। सुमुख ओ एकदंत कपिल विराज है।
गजकरन लंबोदर विकट विघननाश। बिहंसि विनायक औ धूम्रकेतु[१] साज है।
ग्वाल कवि भनत गणाधिप औ भालचद्र। गाइयें गजानन त्रिलोक सिरताज है।
सुजस सुवासन के दायक हुलासन के। नामके प्रकासन गनेश महाराज है॥८॥

इति दुसरा गणेशाष्टक

[ ५३ ]

अथ शिवादि देवतान की स्तुति

कवित्त

धारन विभूत के कियो है अवधूत रूप। देत है विभूत तिहु लोक असमान की।
दास अनदेखन के मुण्डन की माल जाल। बालशशि भाल सी सुरसरी शान की।
ग्वाल कवि प्रलयादि कर्म करैया मंजु। मुक्ति के दिवैया तन पंगत प्रमान की।
ऐसे शिवनाम की न लेन हारी जेती जीभ। सेती मानुषी न जात स्वान के समाज की॥१॥

कवित्त

सूत सनकादि शेष पुरहूत ध्यावे गावे। माने कंजभूत पूत जाकी गुन गाथ है।
कूत में न आबे दीन घालता अनूप ताकी। मलि के विभूत कों विभूत देत हाथ है
दूत भजे जामी जाके दास मजबूतन तें। ग्वाल कहे छूत सूत टूटत अकाथ है।
पूत है न काहू के अनादि है अभूत है त्यों। वरद अभूत भव्य भूत भूतनाथ है॥२॥

सवैया

अंग विभूत अकूत अभूतसु है अवधूत धुरंधर लेखे।
है हरि आसन दिव्य प्रकासन वासन हूँ हरि को अवरेखे।
यों कवि ग्वाल हिये हिर हार है मुण्डन झुण्डन हार विशेखे।
आनन पाँच क पाँच हू भाल पें, सांच में पाँच निशाकर देखे॥३॥

कवित्त

छोड़ि सब कामे कामे जनम बितावे मूढ़। राखिते कलामें नित नामे गुरग्यानी के।
रोचन से लाल लाल लोचन मसम माछे। भसम दिपत गरे गरल अमानी के।
ग्वाल कवि वृष के सवार अहि हार सदा। परम उदार औधि करुना निधानी के।
देव धुनि धारा बीच जटा के अपारा धूम| तारा पति सोहे शीश ईशवरदानी के॥४॥

कवित्त

वाह वाहें वाह वाहें रोझ भोलानाथ की कों। उच्चतासों बंजब कहे भै दरि देत है।
सेवन के थाल मोदकादिक रसाल और। मधुर विसाल फल लोक धरि देत है।
ग्वाल कवि तापेन खुसाल होत महाराज। लेके भंग प्याला सर्व सुख भरि देत है।
और तो कपोल कलषित कों न गीने पल। ये तो वाही ख्याल में निहाल करि देत है॥५॥

[ ५४ ]

अथ हनुमानजी के कवित्त

बाने वीर जंगी जंग जारी बजरंग वीर। अंकित करी है लंक रंकित झड़ाझड़ी।
डारे नाग फांस चरख बांधि के पछाड़े फेर। छाती चढ़ि टक्कर में टक्कर तडातड़ी।
ग्वाल कवि मोतीचूर को लुआ कितेकन को। दे दे ताल कुधन सुभट्टन सड़ासड़ी।
फुट्टत सुमेर फेर टूट्टत विमान आन। असुरो अटुट शशि कुट्टत कड़ाकड़ी॥६॥

कवित्त

कोने जुद्ध उद्धत प्रसिद्ध दुरबुद्धिन सों। कुद्ध कुछ वृद्धित प्रसिद्धित अंत का जब।
रेले रुई दस्त हस्त वेलेकरि कस्त फेर। दस्ती औ उदस्ती मूल संपत झमका जब।
ग्वाल कवि बैठ कल वेदावेस कैंची ऐच। बहिबली दिज्जित वडे बल का जब।
शंका घुम लोक लोक लोक केसुण्ड का फूटा। लंका में लसँया हनुमान वीर बंका जब॥७॥

कवित्त

लंकागढ़ उद्धत प्रसिद्ध हनुमंत जाइ। वीर बलवंतन में करत तकातकी।
कोने हय कोड़ा नार सिंघन पछाड़ फेर। वाला दस्त स्वस्तन समस्त में चकाचको।
ग्वाल कवि डोरि करि बगली उलट्टे चट्ट। थप्पन पें पप्पडुक्क दुक्क को भकाभकी।
सुक्कत सुरेश वेश लुक्कत दिनेश हिये। रुक्कत महेश शेष धुक्कत धकाधकी॥८॥

भैरव के कवित्त

शिवजू के नंदन अनंदन के कंद बूंद। दुष्टन निकन्दन अमन्दता लसी रहे।
माथे पे विभूत भूत प्रेतन के नाथ नीके। दूत मजबूत ले अभूत ता कसी रहे।
ग्वाल कवि दास को हुल्लास कर भाल शशि। विविधि विलासकर सुखमा रसी रहे।
ऐहो विधि विधि सिधि ऐसी करो मेरे मन। ऐसें भै नाथजू की मूरति बसी रहे॥९॥

त्रिभंगी छंद

जे जे जगदम्बा हितनि करम्बा। अधिक अभूता नित नूता।
शिशुचंद ललाट है दुति ठाट। अधिपति भूता मजबूता।
वरदायक दासहि बुद्धि प्रकासहि देत विभूता अद्भूता।
भैरों भय हंता अति बलवंता शंकर पूता अवधूता॥१०॥

स्वामी कार्तिक के कवित्त

दादी करे प्यार पुन माता देत प्रान वार। अति सुकुमार रूप मारतें सरस है।
आठों सिद्धि नवों निद्धि दायक प्रसिद्ध जग। वृद्धि बुद्धिकार कसु भक्तन वश है।
ग्वाल कवि ताही को सपूत सब भाखत है। अधिक बड़ेनतें प्रताप सर बस है।
बाबा जू के चारमुख बापजू के पांच मुख। आप जूके षटमुख कुल के कलश है॥११॥

[ ५५ ]

कवित्त

ताटक असुर सुर जीत लियो जुद्धकर। तब सुरराज वज्र मारयो ज्यों लगे घड़ी।
विष्णुचक्र मार्यो सोक वक भयो धार मुड़ि। सम्भु को त्रिशूल लागे फूल ज्यों घड़ी घड़ी।
ग्वाल कवि स्वामी सुनाम कारतिक जू ने जब। सहज सुभाइ मारी बरछी अनी बड़ी।
शत्रु उर पुर फोड़ि कोंच गिर फोरि कर। फेर दिश दिग्गज के कुम्भ जाइकें गड़ी॥१२॥

शीतलाजी के कवित्त

गीत ले सुनावे जोपें जागि कें सकल रेनि। तोपे विसे वीस सो वसी करे मही तले।
चीत ले मनोरथ चतुर चित चाउ जेते। पूरन सु तेते होइ जेहे प्रन प्रीत ले।
जीत से अरिदल के वृन्द कवि ग्वाल भने। ताके चरनारविंद देखन की नीतले।
होतले बसावे भक्ति रीत ले प्रतीत ले के। सीतलें करत बाहि ऐसी मात शोतले॥१३॥

सूर्य के कवित्त

वाधक तिमिर प्रभा साधक अगाध कहे। राधक त्रिकाली के असाधक प्रतच्छही।
विष्णु पति नोको नीको बन्धु है कलानिधि सो। तामें सिद्धि प्रसिद्धि परी है दुति स्वच्छ हो।
ग्वाल कवि जिनकी सुकर के निकर कर। फैली है जगत जोति अच्छ अच्छ अच्छ ही।
अधिक उदंड खंड खंड में अखंड मंड। चंड मारतंड सदा मोपें रच्छ रच्छ हो॥१४॥

कवित्त

विद्रुम वरन उदे प्राची ते प्रकाश होत। तम तोम ताके महा नाशक विलच्छ है।
करत प्रनाम मात्र होते सुप्रसन्न होत। धन्न धन्न जाको जग भाखे भांतिलक्ष है।
ग्वाल कवि कोक कोकनद प्रफुल्लित कारी। ब्रह्म को विराट रूप दक्षन सुअक्ष है।
शोभित सहस्र अंशु सुभाशुभ कर्म साक्षी। सूरज समान सुर और न प्रतक्ष है॥१५॥

ब्रह्माजी के कवित्त

विष्णु को विशद वर उदर जु सरवर। क्रांति स्वच्छ कमल सु पुरित विरंचिये।
ताको मध्यपल नाभि नन्दित करन धन। तातें उद्भव एक कमल श्री जचिये।
ग्वाल कवि कोशासन करि के स्वयं प्रकाश। तुर्यवक्त वेद वक अम्ब सों परचिये।
चंदन तें चंद्रकतें चंपातें चमोलिन तें। चित दे दे चौंपन तें चरन चरचिये॥१६॥

इन्द्र के कवित्त

क्रिल्या की चले न जापें जित्या है पताल हाल। पृथ्वी में अहिल्या के अखिल सर्वकाज होय।
भज्ज भज्ज गये वृन्द वृन्दारक लज्ज लज्ज। तज्ज तज्ज शस्त्रन पुकारे रक्ष आज होय।
ग्वाल कवि जाके षट कौन ऐसो वज्रलेकें। वृत्रासुर मार्यो ताकी तीन लोक गाज होय।
महातेज वक्र औ पराक्रम अत्यग्र अद। ऐसे महाराज शक्र क्यों न सुरराज होय॥१७॥

[ ५६ ]

मधुपुरी के कवित्त

पांति निगुरी है ते बनावत गुरी है ताहि। सुमति धुरी घोर दुरमति चुरी है।
पापन की पंगत झुरि है ओ दुरी है जमुना। ठुरी है सो जमेश जूकों बुरी है।
ग्वाल कवि उकति फुरी है सो मुरी है नाहि। मुक्ति अंकुरी है जमदूतन कों छुरी है।
धर्म की धुरी है षट पुरी की सुरी है जोर। जोति सी जुरी है ऐसी मंजुमधुपुरी है॥१८॥

वृंदावन के कवित्त

बरनि बरनि व्यासदेव भी थकित होत। बरन बरन वाक वानी बरनीन है।
विधि विधि बिधिहू विशेषन विशेखे देत। विप्रधर बने बाल गोप बरनत है।
ग्वाल कवि वन्दत विलोकि पतवेदन में। वेदन विदीरन बिनोद
वितरन है।
वृन्दारक वृन्द आइ वपुष वसिन्द बने। वृन्दावन चन्द को विदित बृन्दावन है॥१९॥

त्रिवेनीजी के कवित्त

बैल पैं चढ़त कभू फैल के गरुड़ चढ़े। हंस पैं दिखात कभू बिचरे अनूपिया।
पांच मुख सबकों दिखाई रहि जाय एक। फेर होय जाम चार-वदन सरूपिया।
ग्वाल कवि कबहू त्रिसूल-चक्र-वीणा धरे। बाल बने ज्वान बने बाल विरध विरूपिया।
तज्जूब तमासो त्रिवेनीजू तिहारो ताक्यो। तामेंजे अन्हात ते बनत बहूरूपिया॥२०॥

कवित्त

दारिद दरैनी सुभ संपत्ति भरैनी भर। पूरन सरेनी जसभक्ति रंग रैनी है।
चैनी जमराज की अचैनी जी जरैनी जोर। बोर देनी कागद गुपित्र के गरैनी है।
ग्वाल कवि न्हैयत तरैनी वितरैनी तेंज। मुक्ति परसैनी तिहूंपुर दरसेनी है।
पारन कों तापन को छैनी अति पैनी ऐनी। सुरमन सैनी सुख-दैनी ये त्रिवेनी है॥२१॥

अथ श्री कालीजी के कवित्त

कोप करि काली खड्ग म्यानतें निकालो ऐसी। कांति जो कराली सो न पैये भव-भाल में।
वाही दीह दैत्य पेंसु काटिके मुकट शीश‌ घरकाटि अश्वकाटि पैठि भूमि थाल में।
ग्वाल कवि कहे फेर अतल वितल काटि। छाँटि के सुतल करी गर्ज डहि काल में।
कादि के तलातल महातल रसातल कों। चारि के पताल जाय बाजी जल जाल में॥२२॥

कवित्त

ठाली मत बैठे वनवारी बुद्धिवाली इहाँ। विषै वनमाली तें न मिली भागवाली जो।
दाली बहु फसल उसास की पे हाली अब। त्यागी हरी दाली ममता की झुकि झाली जो।
लालो और लादिन की ढाली चहै ग्वाल कवि। राह ले निराली कही साहगुर हयाली जो।
खाली वैस वघिया उताली चली जात पातें। काली नाग लादि लेनी नफा की खुशाली जो॥२३॥

[ ५७ ]

कवित्त

लच्छ लच्छ लच्छित अलच्छन में लच्छ तुही। लच्छन में लच्छ लच्छ लच्छन में तेरो सब।
जच्छ जच्छ दच्छन में दच्छन प्रदच्छन में। पच्छिन में पच्छ पच्छ राज पच्छ तेरो सब।
ग्वाल कबि भिच्छुक दरस पद पच्छक कों। रच्छक अपच्छिन अकच्छ कच्छ धेरो जब।
स्वच्छ स्वच्छ वरद प्रतच्छ लच्छ लच्छन में। दच्छन में कालिकासु अच्छ अच्छ हेरो अब॥२४॥

कवित्त

छामा है छिने कही में दैत्यन को खामा करे। आदि मध्य परिनामा दुष्टन विहालिका।
जामा जिन धाम्यो जब पालिवे को नेक नामा। देवन को विश रामा पूर प्रन पालिका।
सामा भुक्ति मुक्ति की इनामा कवि ग्वाल जाके। धामा महातेज को अछिन्न राशि मालिका।
वामा वामदेव की प्रनामा करे जग ताहि। गिर के शिखिर अभिरामा स्यामा कालिका॥२५॥

श्री मनसा भवानीजी के कवित्त

राजे गिरि रूप छवि छाजे मंजु मंदिर में। साजे चहुँ ओरन में लीला जो पुरानी है।
विप्रन की मंडली करत धुनि वेदन की। वेदन की नामक कमंडलो बखानी है।
ग्वाल कवि घंटन की झाँझन की झालर की। नौवत निनादन की धुंध मन मानी ह।
लाख लाख वेर मन साख भरे एक यही। मनसा पुजाइबे को मनसा भवानी है॥२६॥

नैना देवी के कवित्त

मेरु सो उत्तंग गिरि शृंग में विराजमान। जाके चहुँआन भई सतसद सेवी है।
श्री गुविंद सिंघ को दियो है वरदान जिन। भयो पंथ खालसा प्रसिद्ध अति जेवी है।
ग्वाल कवि जाके दरस किये अति हर्ष होत। अघ ओघ संकट अनेक हरि लेवी है।
भुक्ति पद लेना तो भजहु दिन रैना सब। आंनद की सैना जग ऐना नैनादेवी है॥२७॥

देवीजी के कवित्त

किलकि किलकि कूदि कूदि के चिलक भरी। बालचंद तिलक ललक भाव भरियें।
पान के सुमद इध असुर गरघ करि। इध करि डारे वलो वघ इक धरियं।
ग्वाल कवि सिंघ को सि प्रसी दराज ढूंक। सुनि सुनि भये टंक भ्रंक अनुसरियें।
तेज अति वद्धंनी कंपदेनी विदित ऐसी। महिषासुर मर्दनी को ध्यान नित करिये॥२८॥

कवित्त

एक कर माला इक प्याला करबाला ऐक। एक सों मरोडी असुरेस शृङ्ग वंकटी।
वामकर चक्र चमं शंख एक धनुवान। मस्तक द्विजेश गले माला आला कंकटी।
ग्वाल कवि उन चहुँरूपा धार्यो तरु मार्यो। पाछेते जुट्यो हे सिंध दूके झार झंकटो।
अंकटी जहाँ बीच जाहर असंकटी है। महिषासुर मर्दनी कपर्दनी अंतकटी॥२९॥

[ ५८ ]

कवित्त

दंडी ध्यान लावे गुन गावे है अदंडी देव। चंड भुज दंडी आदि केतक विदंडी है।
कीरति अखंडी रही छायन बखंडो खूब। चौभुज उदंडी वरामै असि भूसंडी है।
झंडी करुना को ब्रह्मंडो कहे ग्वाल कवि। छंडी नहीं पैज भक्ति पालन घमंडी है।
मंदी जोति जाहर घमंडी खल खंडी दंडी। अधिक उमंडी बल बंदी मात चंडी है॥३०॥

कवित्त

गावत विरंचो रंचो विष्णु ना विसारत है। धारत महेश जो मिटैया बहु रंज की।
त्रिभुवन पालन की पोखन की पैज तेरी। भलन के शत्रुन को शोमा भूर भंज की।
ग्वाल कवि जग में जपत जगदंबा गौरी। जाचत हों एके यह बात सुख संज की।
जौ लौ रहे जिंदगी जिहान[२] बोच मेरी मात। तौ लौ करौं बंदगी तिहारे पद कंज की॥३१॥

कवित्त

मामें अति औगुन अधमाता के शैल सुते। तिनकौ न ताको तो मिटेगी बात रंज की।
तारक विरद बुझि आपनो जो दीजे मुक्ति। तो रहों समीप करौं सेवा मोद मंज की।
ग्वाल कवि जो पे वेर वेर जनमाओ तोपें। मानस बने यो दीजो भक्ति भ्रम भंजकी।
जो लों रहै जिंदगी जहान वीच मेरो मात। तो लो करौं बंदगी तिहारो पद कंजकी॥३२॥

अमृत ध्वनि

खलबल पच्छिम जग्ग में। सुंभ निसुंभ समुद्द।
जुड़े श्री जगदंब सों। कहि कबि ग्वाल बिहृद्द।
इद्रं है दव्चत कद्द हैं। पव्वत वद्दहं वद्यजु।
नद्दह श्रोनित छद्दह। प्रथ्यिम चम्चत रद्यजु।
कुद्दह चेंडिय सद्दह भंजिय‌। रुद्दह अरि[३] दल।
मुद्दह निज्जर फंदह जुग्गिन। रद्दह खलबल॥३३॥

काशीजी के कवित्त

गर्भ ते निकासी किंवा प्रान की निकासी होई। भवतें निकासो जाकी सहज प्रकासी है।
कोट कोट जन्मन के पाप की विनासो खासी। दासी है मुकति द्वार द्वार में विकासी है।
ग्वाल कवि वासी सब होइ जात अविनासी। तारक हुलासी परम धर्म नवकासी है।
पढ़े सारिकासी जहाँ ब्रह्म ग्यान कारिकासी। काशी में बताऊँ भैया काशी सो सुकासी है॥३४॥

  1. मूलपाठ–धुमकेतु।
  2. मूलपाठ––जीहान
  3. अरी