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भक्तभावन/दशमहाविज्ञान की स्तुति

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भक्तभावन
ग्वाल, संपादक प्रेमलता बाफना

वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन, पृष्ठ ४५ से – ४६ तक

 

अथ श्री दशमहाविज्ञान की स्तुति

महाकाली जी के कवित्त

गरे मुण्डमाल औ त्रिनेत्र जटा छूटि रही। जुग्म शव रूप शिव पर्यो समसान पर।
दसन चरन ताके उर धर वाम पीछें। ऐसें ठाढी ह्वै रही तु भूषित कलान पर।
ग्वाल कवि कहे कीनी कांची हे करन कीसु। मुंड मंजु भुलन की भल है विशालवर।
वाम ऊर्ध कर खड्ग अधकर शीश सध। दसना अघोर्य अभे वरद सुध्यान पर॥१॥

कवित्त

कानन में कुण्डल सो शव के विराजमान। मुल केश लांबे कुहूतम अनुसरियें।
दंत विकराल जिह्वा ललित लंबाइमान। घोर अट्टहास धन घट्टा सो पसरियें।
ग्वाल कवि कहत त्रिलोचन कमल सम। अमल प्रकाश दिसदिस विसतरियें।
घनस्याम तन औ दिगंबरी हसित मुख। दक्षिन श्री काली जू को ध्यान नित करियें॥२॥

ताराजी के कवित्त

कंज को हरित पत्र तापे कंज फूल्यो लाल। तापे श्वेत नीलकंज विकसित है।
तापें शवरूप शिव सूधो पर यो मुक्तकेश। ताके दुहु पग पर वाम पग है।
ग्वाल कवि दक्षिन चरन गें भूप रहें। वाष चर्म नागन सों कटि पे कसित है।
मुण्डन की माल सत अहिमाल बाजू त्योंही। स्वर्ण वर्ष सर्पन के कंकन लसित है॥३॥

कवित्त

दक्षन दुभुज अधकीत्री ऊध खड्ग खुल्यो। वाम अध कर में कपाल है विराजमान।
ऊर्छाकर नीलकंज चारोकर अरुनाई। नील धन दुति देह दंत खर्व कुन्द जान।
ग्वाल कवि जिह्वा दीह तीन द्रग शशिभाल। वद्धित सुकेश शशि पांचन सों शोभवान।
बहुमुख सर्प सेत शोश सो छत्र रहे। द्वितीया श्री ताराजी को ऐसें करो नित ध्यान॥४॥

विद्या षोठशी जी के कवित्त


सोने के सिंघासन पें राजे अरुनांबर से। वंदन वरन तन सुखमा उदोत है।
मोतिन के भूषन सुदक्षिन अधार्घ कर। इषु अरु अंकुश सेत सरसत जोत है।
ग्वाल कवि बायें एक कर धनु एक चक्र। विद्रग प्रसन्न मुख क्रीटमणि जोत है।
राज राज ईश्वरी श्री विद्याषोड़सी को शुभ्र। ऐसो ध्यान धार पार जन होत है॥५॥

भुवनेश्वरी जी के कवित्त

दक्षिन सुकर उर्छा अंकुश औ अध अभे। त्यों ही वामकर पास नर को दीजत है।
लालपट मुलाहल भूषित सकल अंग। पीत फूल माल हेम बरन रजत है।
ग्वाल कवि भनत त्रिअक्ष अक्षक्रीट स्वच्छ। लक्षित विलक्ष छत्र सूरहू लजत है।
परम प्रसन्नानन निरखत नित पाते। भुवन भुवन भुवनेश्वरी भजत है ॥६॥

भैरबी जी के कवित्त

राजे कमलासन शरद राका शशि दुति। सेतही वसन हेम भूषन सों सजे है।
दाहिने सुकर कर्ष मुसलमान अध अभे। वामकर ऊर्ध्वपोथी तखर रजे है।
ग्वाल कवि नैन तीन शीश पेसु क्रोटकीन। देखि चारु चन्द्रिकाकों चन्द्रिका सु लजे है।
भाल भाल माहि वेई भाल है भले जे सदा। भक्ति भूर भावन सों भैरवी जू भजे है॥७॥

छिन्नमस्ता जी के कवित्त

कामरति रति विपरीत लिखि काहू हेत। रति के नितम्ब वाम पद दे सजत है।
रति मुडि देखि त्यों प्रहार्यो चहें दुजो पद। दाहिने सुकर खड्ग कौते उभरत है।
वामकर निज शीश धड कठ्यो धान पीवे। डॉकिनी औ साँकनी दुहू धों पीरजत है।
पीतो रंग सज्ञ उपयोत जैसें करि राख्यो। ऐसे छिन्नमस्ताजू को ध्यान बरनत है॥८॥

धूमावती जो के कवित्त

काक पे सवार सूपवामकर लियो धार। दाहिनो सुकर निज और मुरकायो है।
अम्बर मलीन धूप बरन सुदेह दुति। अति वृद्धि लोम को समूह सरसायो है।
रुक्ष अक्ष तीनो जुल शीघ्रता[] कलह पर छधा त्रिषालीन सिंह चंचल समायो है।
कुन्तल विमुक्त रुक्ष विरल दसन धरे। धूमावतीजी को ध्यान ऐसी रीति गायो है॥९॥

बगलामुखी जी के कवित्त

सात कुम्भ सिंघासन छत्र छबि छाजत है। अम्बरसु पीत दुति चम्पासी महान है।
वामकर ऊध खड्ग दक्षनाध कर गद। दक्षनोर्ध पासु फोस्यो राक्षस अजान है।
ग्वाल कवि कहे वाम अध करता सो ताकी। जिह्वा गहि[] खैचे दयौवलतो को भान है।
आभूषन पीत क्रोड़ ओ त्रिअक्ष मुल केश। बगुलामुखी को यों हमेश होत ध्यान है॥१०॥

मांतगी जी के कवित्त

सुधा सिन्धु रलदीप कल्पवृक्ष वन मध्य। मणिमय मंडप सिंघासन दिखानी है।
मधुपान मुदितासु धूरणित अक्षलाल। दुईकर वीणा दुति हरित समानी है।
ग्वाल कवि मृगमद तिलक मुकट शशि। मुलमाल सुक स्यामलाग्र शोभ सानी है।
चंगी मुलि दानी निजदासन की अंगी सत्ता। तंगी की मिटैया श्री मंतगी महरानी है॥११॥

कमला जीके कवित्त

सिंदूर सी कांति कमलासन सरूपनिधि। दिव्य पट लाल मुलमाल हलरत है।
क्रीट काम्य कुण्डल सु किंफनी जु भूषित है। ऊर्धकर दोउ कंज फुल्लित धरत है।
ग्वाल कवि कहे वाम अधकर वसुपात्र। दक्षन सु अधकर पुस्तक टरत है।
तरस त्रिअक्षजाके अंग अंग अमला है। कारज सकल सिद्धि कमला करत है॥१२॥

  1. मूलपाठ––शिघ्रता
  2. गही।