भारतवर्ष का इतिहास/३४—सूर वंश

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भारतवर्ष का इतिहास  (1919) 
द्वारा ई॰ मार्सडेन

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३४—सूर वंश।
(१५४० ई॰ से १५५५ ई॰ तक)

१—शेरशाह अफगा़न जो असल में पेशावर से आया था सूर जाति का था। यह और इसके पीछे के तीन बादशाह सूर वंश के बादशाह कहलाते हैं।

शेर शाह।

इसका असली नाम फ़रीद खां था। इसका दादा बहलोल लोधी के समय में जङ्गी नौकरी की खोज में हिन्दुस्थान आया था। इसका बाप सुलतान जौनपुर की सरकार में सवारों का जमादार हुआ और उसको बिहार में कुछ थोड़ी सी जागीर भी मिल गई। फ़रीद खां एक दिन सुलतान के साथ शिकार खेल रहा था। उसने शेर को तलवार का एक हाथ ऐसा मारा कि वहीं वह गिर कर मर गया। बस सुलतान ने वहीं उसको शेर खां की पदवी दे दी।

२—जब शेर खां दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपना नाम शेरशाह रख लिया। यह शेर के समान बली और चतुर था। शत्रु पर दया करना तो जानता ही न था और जो देखता कि अपनी बात के तोड़ने में कोई नाम है तो उसमें भी नहीं चूकता था। [ १५६ ]३—जब बाबर बादशाहत करता था तो यह भी उसके दर्बार में पहुंचा और एक पद पर नियत किया गया। एक दिन दस्तरख़ान पर कुछ खाना आया जिसे चमचे से खाना चाहिये था। शेरखां चमचे से खाना नहीं जानता था। और सभासद उसे देख कर हँस रहे थे। उसने तलवार म्यान से निकाली और उस बस्तु के छोटे छोटे टुकड़े किये और उन्हें खाता गया; इसबात का कुछ बिचार न किया कि कोई मुझ पर हँस रहा है। बाबर ने जो देखा कि शेरखां दर्बार के आचार नहीं जानता और दस्तरख़ान पर भी तलवार से काम लेता है तो अमीरों से बोला कि यह सर्दार अपनी तलवार के बल से किसी ऊंचे पद पर पहुंचेगा।

४—जब हुमायूं ने उस पर चढ़ाई की और चुनार गढ़ ले लिया तो शेरखां ने बिहार के रोहतास गढ़ को छीन कर अपने आधीन कर लिया जो चुनार गढ़ से भी मज़बूत था। रोहतास गढ़ उसने बड़ी चतुराई से लिया। वहां के राजा से कहा कि मैं अपने परिवार और धन को किसी सुरक्षित स्थान में रखना चाहता हूं। जो मैं हुमायूं से लड़ाई में मारा जाऊं तो तुम मेरा धन ले लेना। राजा ने यह बात स्वीकार की; इसपर एक हज़ार डोले तय्यार हुए। शेरखां ने आगे के दो तीन डोलों में तो औरतों को बिठा दिया और सब में हथियार बंद सिपाही बिठा दिये। जब डोले क़िले में पहुंचे तो राजा ने अगले दो तीन डोलों के पर्दे उठा उठा कर देखे। उनमें स्त्रियां थीं। शेरखां का चोबदार बोला कि यदि कोई बाहरी मनुष्य हमारी बेगमों को देखेगा तो हमारे मालिक का बड़ा अपमान होगा। राजा ने समझा कि ठीक कहता है और बचे हुए डोलों को बिना देखे जाने दिया। जब सब डोले क़िले के भीतर आगये तो अफ़ग़ान [ १५७ ] सिपाहियों ने डोलों से निकल कर किले के फाटक खोल दिये और शेर खां की सेना भीतर घुस आई और क़िले पर अपना अधिकार जमा लिया।

५—बादशाह बनने के पीछे शेरशाह ने बड़ी बुद्धिमानी से राज किया। इसने देखा कि अगले बादशाह अपनी बड़ाई और सजधज के अभिमान में छोटी छोटी बातों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यह लोग अपने वज़ीरों और सलाहकारों पर इतना भरोसा रखते थे कि आंख मूंद कर राज के प्रायः कुल काम काज उन्हीं के ऊपर छोड़ देते थे। पहिले तो वज़ीर और सलाहकार मेहनती और बहादुर होते थे। फिर यह भी सुख चैन में पड़ जाते थे और खाने पीने सोने ही को अपना कर्तव्य जानते थे। राजकाज सब नौकरों के हाथ में छोड़ देते थे।

६—शेरशाह ऐसा नहीं करता था। यह हर एक बात को आप देखता भालता था। एक बड़े भारी राज का मालिक होने पर भी वह कभी सुस्त नहीं बैठता था और राज के कारबार में ऐसा लगा रहता था जैसे कोई दरिद्री मज़दूर अपनी जीविका की चिन्ता में अपने हाथ पांव से अड़ा रहता है। और जैसे आप काम करता था वैसे ही अपने मातहतों से भी काम लेता था। इस से पहिले किसी अफ़ग़ान बादशाह ने इस योग्यता के साथ राज नहीं किया। यह जानता था कि प्रजा की रक्षा और उनका पालन करना बादशाह का सब से बड़ा धर्म है। इसने हिन्दुओं को नहीं सताया और बहुत से हिन्दुओं को ऊंचे पद पर नियत करके राजकर्मचारियों में मिला लिया। इन में से एक टोडरमल थे जो माल के मुहकमे के मंत्री थे।

७—शेरशाह सिपाहियों की तनख़ाह बहुधा अपने आगे [ १५८ ] बटवाया करता था, इस बिचार से कि ऐसा न हो किसी की तनख़ाह मारी जाय; बङ्गाले से पञ्जाब तक और आगरे से मालवे तक सड़क के किनारे बराबर सरायें बनवा दी थीं जहां यात्रियों को बिना दाम भोजन मिलता था; चिट्ठियों के पहुंचाने के लिये सड़कों पर घोड़ों की डाक बिठा दी थी। सड़कों पर दोनों ओर मेवेदार पेड़ लगवा दिये थे और थोड़ी थोड़ी दूर पर यात्रियों की सुगमता के लिये कुएं बनवा दिये थे।

८—शेरशाह ने मालवा और मारवाड़ देश जीत लिये, मारवाड़ में रायसेन के राजपूतों को बहुत सताया। यहां के राजा पूरनमल से वादा करलिया था कि जो तुम मेरी आधीनता स्वीकार करो तो क़िले से अपना माल अस्बाब, बाल बच्चे और नौकर चाकर लेकर निकल जाओ मैं किसी को न रोकूंगा न किसी तरह का कष्ट दूंगा। राजपूत इस भरोसे पर क़िले से निकल आये कि बच जायंगे पर शेरशाह ने उन्हें मारडाला। यह कहा करता था कि शत्रु के साथ अपने बचन के पूरा करने की क्या आवश्यकता है? इस घटना के दूसरे बरस शेरशाह बुन्देलखंड में कालींजर के क़िले का घेरा कर रहा था कि मारा गया।

सुलतान असलम शाह या सलीम शाह।

९—शेरशाह के मरने पर उसका बड़ा बेटा तो कहीं दूर था इस कारण उसके छोटे बेटे ने तख़्त पर अधिकार जमा लिया। पहिले पहल तो यह कहता था कि मैं अपने भाई के आने तक बादशाह हूं पर भाई इस से डरता था। वह एक रियासत लेकर तख़्त और ताज का ध्यान छोड़ बैठा। सलीम ने उसको मारना चाहा पर वह बिहार की ओर भागा और फिर न जाने उसपर क्या बीती और वह कहां गया। बहुत से अफ़गान [ १५९ ] अमीर बाग़ी हो गये पर सलीम शाह ने उनको दबा दिया और फिर कोई दंगा फ़साद न हुआ। शान्ति हो जाने पर उसने भी अपने बाप के समान बड़ी योग्यता से राज किया। यह लम्बे डील का सुन्दर और बुद्धिमान जवान था; विद्या और विद्वानों का प्रेमी भी था। इसने नौ बरस तक राज किया।

सलीम शाह।

१०—सलीम के मरने पर उसका छोटा बेटा फीरोज़ सिंहासन पर बैठा पर तीन ही दिन राज करने पर अपने चचा मुबारज़ खां के हाथ से मारा गया। मुबारज़ खां आदिलशाह के नाम से बादशाह हुआ। थोड़े ही दिनों राज करने पर इसके व्यवहारों से प्रगट हो गया कि यह राजकार्य करने का सामर्थ्य नहीं रखता। इसने कुल खज़ाना नाच रङ्ग में उड़ा दिया और एक नीच जाति के हिन्दू को जिसका नाम हीमू था अपना मित्र और सलाहकार बनाया। अफ़ग़ान अमीर बड़े अभिमानी थे। उन्हों ने चारों ओर बिगड़ना और फ़साद मचाना आरम्भ किया। हुमायूं को जब यह समाचार मिला तो उसने बिचारा कि राज के फिर ले लेने का अवसर यही है। वह काबुल से चला और दिल्ली और आगरे का बादशाह हो गया। पर मौत ने उसे अधिक राज करने न दिया और जैसा पहिले लिखा जा चुका है वह शीघ्र ही मर गया।