भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/प्रथम अंक
प्रथम अंक
( जवनिका उठती है )
स्थान---इंद्रसभा
( बीच में गद्दी तकिया धरा हुआ, घर सना हुआ, इंद्र * आता है )
( इंद्र "यहाँ सत्य-भय एक के" यह दोहा फिर से पढ़ता हुआ इधर-उधर घूमता है )
( द्वारपाल आता है )
द्वार०---महाराज! नारदजी आते हैं।
इंद्र---आने दो, अच्छे अवसर पर आए।
द्वार०---जो आज्ञा।
[ जाता है
इंद्र---( आप ही आप ) नारदजी सारी पृथ्वी पर इधर-उधर फिरा करते हैं, इनसे सब बातो का पक्का पता लगेगा। हमने माना कि राजा हरिश्चंद्र को स्वर्ग लेने की इच्छा न हो, तथापि उसके धर्म की एक बेर परीक्षा तो लेनी चाहिए।
- जामा, क्रीट, कुंडल और गहने पहने हुए, हाथ में वज्र ( कई फल का छोटा भाला ) लिए हुए।
( नारदजी* आते हैं )
इंद्र---( हाथ जोड़कर दंडवत् करता है ) आइए आइए, धन्य भाग्य, आज किधर भूल पड़े?
नारद---हमें और भी कोई काम है? केवल यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ; यही हमें है कि और भी कुछ?
इंद्र---साधु स्वभाव ही से परोपकारी होते हैं, विशेष करके आप ऐसे जो हमारे से दीन गृइस्थो को घर बैठे दर्शन देते हैं। क्योकि जो लोग गृहस्थ और कामकाजी हैं वे स्वभाव ही से गृहस्थी के बंधनो से ऐसे जकड़ जाते हैं कि साधुसंगम तो उनको सपने में भी दुर्लभ हो जाता है, न वे अपने प्रबंधो से छुट्टी पावेंगे न कहीं जायँगे।
नारद---आपको इतना शिष्टाचार नहीं सोहता। आप देवराज हैं और आपके संग को तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इच्छा करते हैं, फिर आपको सत्संग कौन दुर्लभ है? केवल जैसा राजा लोगों में एक सहज मुँहदेखा व्यापार होता है वैसी ही बातें आप इस समय कर रहे हैं।
इंद्र---हमको बड़ा शोच है कि आपने हमारी बातों को
- धोती की लाँग कसे, गाँती बाँधे, सिर से पाँव तक चन्दन का
खौर दिए, पैर में घुँघरू, सिर के बाल छुटे और हाथ में बीन लिए हुए। आने और जाने के समय "रामकृष्ण गोविंद" की ध्वनि नेपथ्य में से हो। शिष्टाचार समझा। क्षमा कीजिए, आपसे हम बनावट नहीं करते। भला विराजिए तो सही, यह बातें तो होती ही रहेंगी।
नारद---विराजिए। ( दोनो बैठते हैं )
इंद्र---कहिए, इस समय कहाँ से आना हुआ?
नारद---अयोध्या से। अहा! राजा हरिश्चंद्र धन्य है। मैं तो उसके निष्कपट और अकृत्रिम स्वभाव से बहुत ही संतुष्ट हुआ। यद्यपि इसी सूर्य-कुल में अनेक बड़े-बड़े धाम्मिक हुए पर हरिश्चंद्र तो हरिश्चंद्र ही है।
इंद्र---( आप ही आप ) यह भी तो उसी का गुण गाते है।
नारद---महाराज! सत्य की तो मानो हरिश्चंद्र मूर्ति है। निस्संदेह ऐसे मनुष्यो के उत्पन्न होने से भारतभूमि का सिर केवल इनके स्मरण से उस समय भी ऊँचा रहेगा जब यह पराधीन होकर हीनावस्था को प्राप्त होगी।
इंद्र---( आप ही आप ) अहा! हृदय भी ईश्वर ने क्या ही वस्तु बनाई है! यद्यपि इसका स्वभाव सहज ही गुणग्राही हो, तथापि दूसरो की उत्कट कीर्ति से इसमें ईर्षा होती है, उसमें भी जो जितने बड़े है उनकी ईर्षा उतनी ही बड़ी है। हमारे ऐसे बड़े पदाधिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना दूसरो की संपत्ति और कीर्ति।
नारद---आप क्या सोच रहे है? इंद्र---कुछ नहीं। योही, मैं यह सोचता था कि हरिश्चंद्र की कीर्ति आजकल छोटे-बड़े सबके मुँह से सुनाई पड़ती है, इससे निश्चय होता है कि नहीं, हरिश्चंद्र निस्संदेह बड़ा मनुष्य है।
नारद---क्यो नहीं, बड़ाई उसी का नाम है जिसे छोटे-बड़े सब मानें और फिर नाम भी तो उसी का रह जायगा जो ऐसा दृढ़ होकर धर्म साधन करेगा। ( आप ही आप ) और उसकी बड़ाई का यह भी तो एक बड़ा प्रमाण है कि आप ऐसे लोग उससे बुरा मानते हैं, क्योकि जिससे बड़े-बड़े लोग डाह करें, पर उसका कुछ बिगाड़ न सकें, वह निस्संदेह बहुत बड़ा मनुष्य है।
इंद्र---भला! उसके गृह-चरित्र कैसे है?
नारद---दूसरों के लिये उदाहरण बनाने के योग्य। भला पहले जिसने अपने निज के और अपने घर के चरित्र ही नहीं शुद्ध किए हैं उसकी और बातों पर क्यों विश्वास हो सकता है। शरीर में चरित्र ही मुख्य वस्तु है। वचन से उपदेशक और क्रियादिक से कैसा भी धर्मनिष्ठ क्यों न हो, पर यदि उसके चरित्र शुद्ध नहीं हैं तो लोगों में वह टकसाल न समझा जायगा और उसकी बातें प्रमाण न होंगी। महात्मा और दुरात्मा में इतना ही भेद है कि उनके मन, वचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न-भिन्न। निस्संदेह हरिश्चंद्र महाशय है। उसके आशय बहुत उदार है, इसमें कोई संदेह नहीं।
इंद्र---भला! आप उदार वा महाशय किसको कहते हैं?
नारद---जिसका भीतर-बाहर एक सा हो और विद्यानुरागिता, उपकारप्रियता आदि गुण जिसमें सहज हों, अधिकार में क्षमा, विपत्ति में धैर्य, संपत्ति में अनभिमान और युद्ध में जिसकी स्थिरता है, वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है और उसी की माता पुत्रवती है। हरिश्चंद्र में ये सहज हैं। दान करके उसको प्रसन्नता होती है और कितना भी दे पर संतोष नहीं होता, यही समझता है कि अभी कुछ नहीं दिया।
इंद्र---( आप ही आप ) हृदय! पत्थर के होकर तुम यह सब कान खोल के सुनो।
नारद---और इन गुणो पर ईश्वर की निश्चला भक्ति उसमें ऐसी है जो सबका भूषण है, क्योंकि उसके बिना किसी की शोभा नहीं। फिर इन सब बातों पर विशेषता यह है कि राज्य का प्रबंध ऐसा उत्तम और दृढ़ है कि लोगों को संदेह होता है कि इन्हे राजकाज देखने की छुट्टी कब मिलती है। सच है, छोटे जी के लोग थोड़े ही कामों में ऐसे घबड़ा जाते हैं मानो सारे संसार का बोझ इन्हीं पर है, पर जो बड़े लोग हैं उनके सब काम महारंभ होते है तब भी उनके मुख पर कहीं से व्याकुलता नहीं झलकती, क्योकि एक तो उनके उदार चित्त में धैर्य और अवकाश बहुत है, दूसरे उनके समय व्यर्थ नहीं जाते और ऐसे यथायोग्य बँटे रहते है जिससे उन पर कभी भीड़ पड़ती ही नहीं।
इंद्र---भला महाराज! यह ऐसे दानी है तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?
नारद---यही तो हम कहते हैं। निस्संदेह वह राजा कुल का कलंक है, जिसने बिना पात्र विचारे दान देते-देते सब लक्ष्मी का क्षय कर दिया, आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया और जहाँ प्रबंध है वहाँ धन की क्या कमती है। मनुष्य कितना धन देगा और याचक कितना लेंगे?
इंद्र---पर यदि कोई अपने वित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु माँगे जिससे दाता की सर्वस्व-हानि होती हो, तो वह दे कि नहीं?
नारद---क्यों नहीं। अपना सर्वस्व वह क्षण भर में दे सकता है, पात्र चाहिए। जिसको धन पाकर सत्पात्र में उसके त्याग की शक्ति नहीं है वह उदार कहाँ हुआ!
इंद्र---( आप ही आप ) भला देखेगे न। नारद---राजन्! मानियो के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है। वे तो अपने सहज सुभाव ही से सत्य और विचार तथा दृढता में ऐसे बँधे है कि सत्पात्र मिलने या बात पड़ने पर उनको स्वर्ण का पर्वत भी तिल सा दिखाई देता है। और उसमें भी हरिश्चंद्र---जिसका सत्य पर ऐसा स्नेह है जैसा भूमि, कोष, रानी और तलवार पर भी नहीं है। जो सत्यानुरागी ही नहीं है, भला उससे न्याय कब होगा, और जिसमें न्याय नहीं है, वह राजा ही काहे का है? कैसी भी विपत्ति या संकट पड़े और कैसी ही हानि वा लाभ हो, पर न्याय न छोड़े, वही धीर और वही राजा। और उस न्याय का मूल सत्य है।
इंद्र---तो भला वह जिसे जो देने को कहेगा देगा वा जो करने को कहेगा वह करेगा?
नारद---क्या आप उसका परिहास करते है? किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निंदा है। क्या आपने उसका यह सहज साभिमान वचन नहीं सुना है?
चंद टरै सूरज टरै, टरै जगतब्यौहार।
पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्यविचार॥
इंद्र---( आप ही आप ) तो फिर इसी सत्य के पीछे नाश भी होंगे, हमको भी अच्छा उपाय मिला। ( प्रगट )
नारद---वाह! भला जो ऐसे हैं उनके आगे स्वर्ग क्या वस्तु है? क्या बड़े लोग धर्म स्वर्ग पाने को करते हैं? जो अपने निर्मल चरित्र से संतुष्ट हैं उनके आगे स्वर्ग कौन वस्तु है? फिर भला जिनके शुद्ध हृदय और सहज व्यवहार हैं, वे क्या यश वा स्वर्ग की लालच से धर्म करते हैं? वे तो आपके स्वर्ग को सहज में दूसरे को दे सकते हैं और जिन लोगो को भगवान के चरणारविद में भक्ति है वे क्या किसी कामना से धर्माचरण करते हैं? यह भी तो एक क्षुद्रता है कि इस लोक में एक देकर परलोक में दो की आशा रखना।
इंद्र---( आप ही आप ) हमने माना की उसको स्वर्ग लेने की इच्छा न हो, तथापि अपने कर्मों से वह स्वर्ग का अधिकारी तो हो जायगा।
नारद---और जिनको अपने किए शुभ अनुष्ठानों से आप संतोष मिलता है उनके उस असीम आनंद के आगे आपके स्वर्ग का अमृतपान और अप्सरा तो महातुच्छ हैं। क्या अच्छे लोग कभी किसी शुभ कृत्य का बदला चाहते है?
इंद्र---तथापि एक बेर उनके सत्य की परीक्षा होती तो अच्छा होता। नारद---राजन्! आपको यह सब सोचना बहुत अयोग्य है। ईश्वर ने आपको बड़ा किया है, तो आपको दूसरों की उन्नति और उत्तमता पर संतोष करना चाहिए। ईर्षा करना तो क्षुद्राशयों का काम है। महाशय वही है जो दूसरो की बड़ाई से अपनी बड़ाई समझे।
इंद्र---( आप ही आप ) इनसे काम न होगा। ( बात बहलाकर प्रगट ) नहीं नहीं, मेरी यह इच्छा थी कि मैं भी उनके गुणो को अपनी आँखो से देखता। भला मैं ऐसी परीक्षा थोड़े लेना चाहता हूँ जिससे उन्हें कुछ कष्ट हो।
नारद---( आप ही आप ) अहा! बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा वही है जिसका चित्त बड़ा है। अधिकार तो बड़ा है, पर चित्त में सदा क्षुद्र और नीच बातें सूझा करती हैं, वह आदर के योग्य नहीं है; परंतु जो कैसा भी दरिद्र है पर उसका चित्त उदार और बड़ा है वही आदरणीय है।
( द्वारपाल आता है )
द्वार०---महाराज! विश्वामित्रजी आए हैं।
इंद्र---( आप ही आप ) हॉ, इनसे यह काम होगा। अच्छे अवसर पर आए। जैसा काम हो वैसे ही स्वभाव के लोग भी चाहिएँ। ( प्रगट ) हाँ हाँ, लिवा लाओ। द्वार०---जो आज्ञा।
[ जाता है
( विश्वामित्रजी* आते हैं )
इंद्र---( प्रणामादि शिष्टाचार करके ) अाइए भगवन्, विराजिए।
( विश्वामित्र नारदजी को प्रणाम करके और इंद्र को आशीर्वाद देकर बैठते हैं )
नारद---तो अब हम जाते हैं, क्योकि पिता के पास हमें किसी आवश्यक काम को जाना है।
विश्वा०---यह क्या? हमारे आते ही आप चले, भला ऐसी रुष्टता किस काम की?
नारद---हरे हरे! आप ऐसी बात सोचते हैं---राम-राम, भला आपके आने से हम क्यों जायँगे? मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गए।
इंद्र---( हँसकर ) आपकी जो इच्छा।
नारद---( आप ही आप ) हमारी इच्छा क्या, अब तो आप ही की यह इच्छा है कि हम जायँ, क्योंकि अब आप तो विश्व के अमित्रजी से राजा हरिश्चंद्र को दुःख देने की सलाह कीजिएगा, तो हम उसके बाधक क्यों हों? पर इतना निश्चय रहे कि सज्जन को दुर्जन लोग जितना कष्ट
- मृगचर्म दाढ़ी, जटा, हाथों में पवित्री और कमंडल, खड़ाऊँपर चढ़े।
समर्पण
मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए॥
जे स्वारथ-रत धूर्त हंस से काक-चरित-रत।
ते औरन इति बंचि प्रभुहि नित होहिं समुन्नत॥
जदपि लोक की रीति यही पै अंत धर्म जय।
जौ नाहीं यह लोक तदपि छलियन अति जम भय॥
नरसरीर में रत्न वही जो परदुख साथी।
खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी॥
तासो अब लौं करी, करी सो, पै अब जागिय।
गो श्रुति भारत देस समुन्नति मैं नित लागिय॥
साँच नाम निज करिय कपट तजि अंत बनाइय।
नृप तारक हरि-पद भजि साँच बड़ाई पाइय॥
ग्रंथकार।
देते हैं, उतनी ही उनकी सत्य कीर्ति तपाए सोने की भॉति और भी चमकती है, क्योंकि विपत्ति बिना सत्य की परीक्षा नहीं होती। ( प्रगट ) यद्यपि "जो इच्छा" आपने सहज भाव से कहा है तथापि परस्पर में ऐसे उदासीन वचन नहीं कहते, कोंकि इन वाक्यों से रूखापन झलकता है। मैं कुछ इसका ध्यान नहीं करता,
केवल मित्रभाव से कहता हूँ। लो, जाता हूँ और यही आशीर्वाद देकर जाता हूँ कि तुम किसी को कष्टदायक मत होओ, क्योकि अधिकार पाकर कष्ट देना यह बड़ों की शोभा नहीं, सुख देना शोभा है।
( इद्र कुछ लज्जित होकर प्रणाम करता है। नारदजी जाते हैं )
विश्वा०---यह क्यों? अाज नारद भगवान ऐसी जली-कटी क्यों बोलते थे? क्या तुमने कुछ कहा था?
इंद्र---नहीं तो, राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग निकला था सो उन्होने उसकी बड़ी स्तुति की और हमारा उच्चपद का आदरणीय स्वभाव उस परकीर्ति को सहन न कर सका, इसमें कुछ बात ही बात ऐसा संदेह होता है कि वे रुष्ट हो गए।
विश्वा०---तो हरिश्चंद्र में कौन से ऐसे गुण हैं?
( सहज ही भृकुटी चढ़ जाती है )
इंद्र---( ऋषि का भ्रूभंग देखकर चित्त में संतोष करके उनका
क्रोध बढ़ाता हुआ ) महाराज! सिपारसी लोग चाहे जिसको बढ़ा दे, चाहे घटा दें। भला सत्यधर्म-पालन क्या हँसी-खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है, जिन्होंने घरबार छोड़ दिया है। भला राज करके और घर में रहके मनुष्य क्या धर्म का हठ करेगा! और फिर कोई परीक्षा लेता तो मालूम पड़ती। इन्हीं बातों से तो नारदजी बिना बात ही अप्रसन्न हुए।
विश्वा---मैं अभी देखता हूँ न। जो हरिश्चंद्र को तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भला मेरे सामने वह क्या सत्यवादी बनेगा और क्या दानीपने का अभिमान करेगा!
( क्रोधपूर्वक उठकर चला चाहते हैं कि परदा गिरता है )