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भारतेंदु-नाटकावली/३–प्रेमजोगिनी

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास
३––प्रेमजोगिनी

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ २४४ से – २५१ तक

 
प्रेमजोगिनी






नाटिका











संवत् १९३२



भा० ना०---९




बैठ कर सैर मुल्क की करना।
यह तमाशा किताब में देखा॥

प्रेमजोगिनी

नाटिका

( नांदी पाठ )

भरित नेह नव नीर नित बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर॥

और भी---

जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत-जंजाल।
जयतु सदा सो ग्रंथ कवि प्रेमजोगिनी बाल॥

( मलिन मुख किए सूत्रधार और पारिपार्श्वक आते हैं )

सूत्र--( नेत्र से आँसू पोंछ और ठंढी सॉस भरकर ) हा! कैसे ईश्वर पर विश्वास आवे!

पारि०---मित्र, आज तुम्हें क्या हो गया है और क्या बकते हो और इतने उदास क्यों हो?

( सूत्रधार के नेत्र से जल की धारा बहती है और रोकने से भी नहीं रुकती )

पारि०---( अपने गले से सूत्रधार को लगाकर और आँसू पोंछकर ) मित्र, आज तुम्हें हो क्या गया है? यह क्या सूझी है? क्या आज लोगों को यही तमाशा दिखाओगे? सूत्र०---हो क्या गया है? क्या मैं झूठ कहता हूँ? इससे बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कर्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे, यदि कोई हो तब न न उठे। हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिंधु उसको नहीं कहते? क्या माता-पिता के सामने पुत्र की, स्त्री के सामने पति की और बंधुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है? क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसकी इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं? केवल प्राणमात्र नहीं त्याग करते, पर उनकी सब गति हो जाती है। क्या इस कमल-धन-रूप भारतभूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न-भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर-चंगेजखाँ ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भरतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गये? हा! ( आँसू बहते हैं ) लोग कहते हैं कि यह उसके खेल हैं। छि! ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?

पारि०---इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो दुःखरूप आप ही है, इसमें सुख का तो केवल आभासमात्र है।

सूत्र०---आभास-मात्र है---तो फिर किसने यह बखेड़ा बनाने और पचड़ा फैलाने को कहा था? उस पर भी न्याय करने और कृपालु बनने का दावा! ( आँख भर आती है )

पारि०---आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है? भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हो कि नाटक खेलने आए हो?

सूत्र०---क्या नाटक खेलें, क्या न खेलें, लो इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परमबन्धु, पिता-मित्र-पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सत्य का एकमात्र आश्रय, सौजन्य का एकमात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिंदी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चंद्र ही दुखी हो! ( नेत्र में जल भरकर )---हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि 'कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना'। लोभ के परित्याग के समय नाम और कीर्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत् से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रखकर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निंदा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है; तुझे इससे क्या, प्रेमी लोग जो तेरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेगे और तेरी रहन-सहन को अपनी जीवनपद्धति समझेंगे। ( नेत्रों से आँसू गिरते हैं ) मित्र, तुम तो दूसरों का अपकार और अपना उपकार दोनो भूल जाते हो; तुम्हें इनकी निंदा से क्या? इतना चित्त क्यों तुब्ध करते हो? स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकवहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रखके विहार करोगे। क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए---"कहेंगे सबै ही नैन नीर भरि-भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी।" मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ है; हा! बड़ा विपरीत समय है। ( नेत्र से ऑसू बहते हैं )

पारि०---मित्र, जो तुम कहते हो सो सब सत्य है, पर काल भी तो बड़ा प्रबल है, कालानुसार कर्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता।

सूत्र०---हॉ, न चले तो हम लोग काल के अनुसार चलेंगे, कुछ वह लोकोत्तर-चरित्र थोड़े ही काल के अनुसार चलेगा!!

पारि०---पर उसका परिणाम क्या होगा? सूत्र०---क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।

पारि०---तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं।

सूत्र०---तो ये सब सभासद तो उसके मित्रवर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं हैं उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है। ये क्यों न इन बातों को आनन्दपूर्वक सुनेंगे?

पारि०---परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलेगा न! देखो ये हिन्दी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं, इन्हें कोई खेल दिखाओ।

सूत्र०---आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्र में मगन है। आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।

पारि०---तो उनके चरित्र के अनुरूप ही कोई नाटक करो।

सूत्र०---ऐसा कौन नाटक है? यो तो सभी नायकों के चरित्र किसी-किसी विषय में उनसे मिलते हैं, पर आनुपूर्वी चरित्र कैसे मिलेगा?

पारि०---मित्र! मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो, क्योकि उसके नायक चारुदत्त का चरित्रमात्र उनसे सब मिलता है, केवल वसंत-सेना और राजा की हानि है।

सूत्र०---तो फिर भी आनुपूर्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने में इनका जी भी न लगेगा, कोई नया खेलें। पारि०---( स्मरण करके ) हाँ हॉ, वह नाटक खेलो जो तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे। वह उनके और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है। उसके खेलने से लोगो को वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई-पुरानी दोनों रीति मिलके बना है।

सूत्र०---हाँ हां प्रेमजोगिनी---अच्छी सुरत पड़ी---तो चलो योंही सही, इसी बहाने उनका स्मरण करें।

पारि०---चलो।

[ दोनों जाते हैं

( आधी जवनिका गिरती है )