भारतेंदु-नाटकावली/२–सत्य हरिश्चंद्र/चतुर्थ अंक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ २०७ ]

चतुर्थ अंक

स्थान---दक्षिण श्मशान

[ नदी, पीपल का बडा पेड, चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी इत्यादि ]

( कंबल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चंद्र दिखाई पड़ते हैं )

हरि०---(लंबी सॉस लेकर ) हाय! अब जन्म भर यही दुख भोगना पड़ेगा।

जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान।
कफन खसोटी को करम, सब ही एक समान॥

न जाने विधाता का क्रोध इतने पर भी शांत हुआ कि नहीं। बड़ो ने सच कहा है कि दुःख से दुःख जाता है। दक्षिणा का ऋण चुका, तो यह कर्म करना पड़ा। हम क्या सोचें? अपनी अनाथ प्रजा को, या दीन नातेदारो को, या अशरण नौकरों को, या रोती हुई दासियो को, या सूनी अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान बालक को, या अपने ही इस चांडालपने को। हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोध-भरी और रानी ने जाते समय करणा-भरी दृष्टि से [ २०८ ]जो मेरी ओर देखा था वह अब तक नहीं भूलती। ( घबड़ाकर ) हा देवी! सूर्यकुल की बहू और चंद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गईं और दासी बनीं। हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की माला भी नहीं गूंथ सकती थीं उनसे बरतन कैसे मॉजोगी? ( मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हलकर ) अथवा क्या हुआ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चंद्र ने सत्य छोड़ा।

बेचि देह दारा सुअन, होइ दास हू मंद।
राख्यो निज बच सत्य करि, अभिमानी हरिचंद॥

( आकाश से पुष्पवृष्टि होती है )

अरे यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी? किसी पुण्यात्मा का मुरदा आया होगा। तो हम सावधान हो जायँ। [ लट्ठ कंधे पर रख कर फिरता हुआ ] खबरदार! खबरदार! बिना हमसे कहे और बिना हमें आधा कफन दिए कोई संस्कार न करे। [ यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा उधर देखता फिरता है। नेपथ्य में कोलाहल सुन कर ] हाय-हाय! कैसा भयंकर श्मशान है! दूर से मंडल बाँध-बाँधकर चोच बाए, डैना फैलाए, कंगालो की तरह मुर्दों पर गिद्ध कैसे गिरते हैं और कैसा मांस नोच-नोचकर आपस में लड़ते और चिल्लाते हैं। इधर अत्यंत कर्णकटु अमंगल के नगाड़े की भॉति एक के शब्द की [ २०९ ]लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिर्राइन फैलाती हुई चट-चट करती चिताएँ कैसी जल रही हैं, जिनमें कहीं से मांस के टुकडे उड़ते हैं, कहीं लोहू वा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला-पीला हो रहा है, ज्वाला घूम-घूमकर निकलती है, कभी एक साथ धधक उठती है, कभी मंद हो जाती है। धुआँ चारो ओर छा रहा है। [ आगे देखकर आदर से ] अहा! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो; अतएव कहा है---

"मरनो भलो विदेश को, जहाँ न अपुनो कोय।
माटी खॉय जनावरॉ, महा महोच्छव होय॥"

अहा! देखो।

सिर पै बैठ्यो काग अॉख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनँद उर धारत॥
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि खोदि कै मांस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि के खान बिचारत॥

बहु चील नोचि लै जात तुच माद मढ़यो सबको हियो।
मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो॥

अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है! [ २१० ]

साई मुख सोई उदर, सोई कर पद दोय।
भयो आजु कछु और ही, परसत जेहि नहिं कोय॥
हाड़ मॉस लाला रकत, बसा तुचा सब सेाय।
छिन्न भिन्न दुर्गंध-मय, मरे मनुस के होय॥
कादर जेहि लखि कै डरत, पंडित पावत लाज।
अहो! व्यर्थ संसार को, विषय बासना साज॥
अहो! मरना भी क्या वस्तु है।

सोई मुख जेहि चंद बखान्यौ।
सोई अंग जेहि प्रिय करि जान्यौ॥
सोई भुज जे प्रिय गर डारें।
सोई भुज जिन नर बिक्रम पारें॥
सोई पद जिहि सेवक बंदत।
साई छबि जेहि देखि अनंदत॥
सोइ रसना जहँ अमृत बानी।
जेहि सुन के हिय नारि जुड़ानी॥
सोइ हृदय जहँ भाव अनेका।
सोई सिर जहँ निज बच टेका॥
सोई छबि-मय अंग सुहाए।
आज जीव बिनु धरनि सुहाए॥
कहाँ गई वह सुंदर सोभा।
जीवत जेहि लखि सब मन लोभा॥

[ २११ ]

प्रानहुँ ते बढि जा कहँ चाहत।
ता कहँ आजु सबै मिलि दाहत॥
फूल बोझ हू जिन न सहारे।
तिन पै बोझ काठ बहु डारे॥
सिर पीड़ा जिनकी नहिं हेरी।
करत कपाल-क्रिया तिन केरी॥
छिनहूँ जे न भए कहुँ न्यारे।
तेउ बंधुगन छोड़ि सिधारे॥
जो दृगकोर महीप निहारत।
आजु काक तेहि भोज बिचारत॥
भुजबल जे नहिं भुवन समाए।
ते लखियत मुख कफन छिपाए॥
नरपति प्रजा भेद बिनु देखे।
गने काल सब एकहि लेखे॥
सुभग कुरूप अमृत विष साने।
आजु सबै इक भाव बिकाने॥
पुरु दधीच कोऊ अब नाहीं।
रहे नामही ग्रंथन मॉहीं॥

अहा! देखो वही सिर, जिस पर मंत्र से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रखा जाता था, जिसमें इतना अभिमान था कि इंद्र को भी तुच्छ गिनता था, और [ २१२ ]जिसमें बड़े-बड़े राज जीतने के मनोरथ भरे थे, आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छूने में भी घिन करते हैं। ( आगे देखकर ) अरे यह श्मशान-देवी हैं। अहा! कात्यायनी को भी कैसा वीभत्स उपचार प्यारा है? यह देखो, डोम लोगों ने सूखे गले सड़े फूलों की माला गंगा में से पकड़-पकड़कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है। मरे बैल और भैसो के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं, जिनमें लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है। घंटे के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोहू के थापे लगे हैं। नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उसके खाने को कुत्ते और सियार लड़-लड़कर कोलाहल मचा रहे हैं। ( हाथ जोड़कर )

"भगवति! चंडि! प्रेते! प्रेतविमाने! लसत्प्रेते! प्रेता-स्थिरौद्ररूपे! प्रेताशिनि! भैरवि! नमस्ते"॥

( नेपथ्य में )

राजन्! हम केवल चांडालो के प्रणाम के योग्य हैं। तुम्हारे प्रणाम से हमें लज्जा आती है। माँगो क्या वर माँगते हो? [ २१३ ]हरि०---( सुनकर आश्चर्य से ) भगवति! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमारे स्वामी का कल्याण कीजिए।

( नेपथ्य में )

साधु महाराज हरिश्चंद्र साधु!

हरि०---( ऊपर देखकर ) अहा! स्थिरता किसी को भी नहीं है। जो सूर्य उदय होते ही पद्मिनीवल्लभ और लौकिक वैदिक दोनों कर्म का प्रवर्तक था, जो दोपहर तक अपना प्रचंड प्रताप क्षण-क्षण बढाता गया, जो गगनांगन का दीपक और कालसर्प का शिखामणि था, वह इस समय परकटे गिद्ध की भॉति अपना सब तेज गॅवाकर देखो समुद्र में गिरा चाहता है।

अथवा

सॉझ सोई पट लाल कसे कटि सूरज खप्पर हाथ लह्यो है।
पच्छिन के बहु शब्दन के मिस जीव उचाटन मंत्र कह्यो है॥
मद्य भरी नरखोपरी सो ससि को नव बिंबहु धाइ गह्यो है।
दै बलि जीव पसू यह मत्त है काल-कपालिक नाचि रह्यो है॥
सूरज धूम बिना की चिता सोई अंत में लै जल मॉहि बहाई।
बोलैं घने तरु बैठि बिहंगम रोअत सो मनु लोग-लोगाई॥
धूम अँधार, कपाल निसाकर, हाड़ नछत्र लहू सी ललाई।
आनँद हेतु निशाचर के यह काल मसान सो सॉझ बनाई॥

[ २१४ ]अहा! यह चारों ओर से पक्षी सब कैसा शब्द करते हुए अपने-अपने घोंसलों की ओर चले आते हैं। वर्षा से नदी का भयंकर प्रवाह, सॉझ होने से श्मशान के पीपल पर कौओ का एक संग अमंगल शब्द से कॉव-कॉव करना और रात के आगमन से सन्नाटे का समय चित्त में कैसी उदासी और भय उत्पन्न करता है। अंधकार बढता ही जाता है। वर्षा के कारण इन श्मशानवासी मंडूकों का टर-टर करना भी कैसा डरावना मालूम होता है।

रुरुआ चहुँ दिसि ररत डरत सुनि के नर-नारी।
फटफटाइ दोउ पंख उलूकहु रटत पुकारी॥
अंधकारबस गिरत काक अरु चील करत रव।
गिद्ध-गरुड़-हड़गिल्ल भजत लखि निकट भयद रव॥

रोअत सियार, गरजत नदी, स्वान झूँकि डरपावहीं।
सँग दादुर झींगुर रुदन-धुनि मिलि स्वर तुमुल मचावहीं॥

इस समय ये चिता भी कैसी भयंकर मालूम पड़ती हैं। किसी का सिर चिता के नीचे लटक रहा है, कहीं आँच से हाथ-पैर जलकर गिर पड़े हैं, कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिलकुल कच्चा है, किसी को वैसे ही पानी में बहा दिया है, किसी को किनारे ही छोड़ दिया है, किसी का मुँह जल जाने से दाँत निकला हुआ भयंकर हो

भा० ना०---७
[ २१५ ]रहा है और कोई भाग में ऐसा जल गया है कि कहीं पता भी नहीं है। वाह रे शरीर, तेरी क्या-क्या गति होती है!! सचमुच मरने पर इस शरीर को चटपट जला ही देना योग्य है, क्योकि ऐसे रूप और गुण जिस शरीर में थे उसको कीड़ों पा मछलियो से नुचवाना और सड़ाकर दुर्गधमय करना बहुत ही बुरा है। न कुछ

शेष रहेगा न दुर्गति होगी। हा! चलो आगे चलें। ( खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर घूमता है )

( पिशाच और डाकिनीगण परस्पर आमोद करते और गाते-बजाते हुए आते हैं )

पि०---

और डा० हैं भूत प्रेत हम, डाइन हैं छमाछम,
हम सेवै मसान शिव को भजै बोलै बम बम बम।

पि०---

हम कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ कड़ हड्डी को तोड़ेगे।
हम भड़ भड़ धड़ धड़ पड़ पड़ सिर सबका फोड़ेंगे।

डा०---

हम घुट घुट घुट घुट घुट घुट लोहू पिलावेंगी।
हम चट चट चट चट चट चट ताली बजावेंगी॥

सब---हम नाचें मिलकर थेई थेई थेई थेई कूदें धम् धम् नम्र। हैं भूत०--

पि०---

हम काट काट कर शिर का गेंदा उछालेंगे।
हम खींच खींच कर चरबी पंशाखा बालेंगे॥

[ २१६ ]डा०---

हम माँग में लाल-लाल लोहू का सेंदुर लगावेगी।
हम नस के तागे चमड़े का लहँगा बनावेंगी॥

सब---हम धज से सज के बज के चलेंगे चमकेंगे चम चम चम।

पि०---

लोहू का मुँह से फर्र फर्र फुहारा छोड़ेंगे।
माला गले पहिरने को अँतड़ी को जोड़ेंगे॥

डा०---

हम लाद के औंधे मुरदे चौकी बनावेंगी।
कफन बिछा के लड़कों को उस पर सुलावेंगी॥

सब---हम मुख से गावेंगे ढोल बजावेगे ढम ढम ढम ढम ढम।

( वैसे ही कूदते हुए एक ओर से चले जाते हैं )

हरि०---( कौतुक से देखकर ) पिशाचो की क्रीड़ा-कुतूहल भी देखने के योग्य है। अहा! यह कैसे काले-काले झाड़ू से सिर के बाल खड़े किए लंबे-लंबे हाथ-पैर विकराल दाँत लंबी जीभ निकाले इधर-उधर दौड़ते और परस्पर किलकारी मारते हैं मानो भयानक रस की सेना मूर्तिमान होकर यहाँ स्वच्छंद विहार कर रही है। हाय-हाय! इनका खेल और सहज ब्यौहार भी कैसा भयंकर है। कोई कटाकट हड्डी चबा रहा है, कोई खोपड़ियों में लहू भर-भर करके पीता है, कोई सिर का गेंद बनाकर खेलता है, कोई अँतड़ी निकाल गले में डाले है और चंदन की [ २१७ ]भॉति चरबी और लहू शरीर में पोत रहा है, एक दूसरे से मांस छीनकर ले भागता है, एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुँह में रख लेता है, पर जब गरम मालूम पड़ता है तो थू थू करके थूक देता है, और दूसरा उसी को फिर झट से खा जाता है। हा! देखो यह चुडैल एक स्त्री की नाक नथ समेत नोच लाई है, जिसे देखने को चारों ओर से सब भुतने एकत्र हो रहे हैं और सभों को इसका बड़ा कौतुक हो गया है। हँसी में परस्पर लोहू का कुल्ला करते हैं और जलती लकड़ी और मुरदो के अंगों से लड़ते हैं और उनको ले-लेकर नाचते हैं। यदि तनिक भी क्रोध में आते हैं तो श्मशान के कुत्तों को पकड़-पकड़कर खा जाते हैं। अहा! भगवान् भूतनाथ ने बड़े कठिन स्थान पर योगसाधन किया है। ( खबरदार

इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिरता है। ऊपर देखकर ) आधी रात हो गई, वर्षा के कारण अँधेरी बहुत ही छा रही है, हाथ से हाथ नहीं सूझता! चांडाल कुल की भॉति श्मशान पर तम का भी आज राज हो रहा है। ( स्मरण करके ) हा! इस दुःख की दशा में भी हमसे प्रिया अलग पड़ी है। कैसी भी हीन अवस्था हो, पर अपना प्यारा जो पास रहे तो कुछ कष्ट नहीं मालूम पड़ता। सच है--[ २१८ ]

"टूट ठाट घर टपकत खटियौ टूट।
पिय कै बॉह उसिसवाँ सुख कै लूट॥"

बिधना ने इस दुःख पर भी वियोग दिया। हा! यह वर्षा और यह दुःख! हरिश्चंद्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा, पर जिसने सपने में भी दुःख नहीं देखा वह महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो, धीरज धरो! तुमने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है, जिसके साथ सदा दुःख ही दुःख है। ( ऊपर देखकर ) पानी बरसने लगा। अरे! ( घोघी भली भॉति अोढ़कर ) हमको तो यह वर्षा और श्मशान दोनों एक ही से दिखाई पड़ते हैं। देखो---

चपला की चमक चहूँघा सों लगाई चिता
चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है।
हेती बगमाल स्याम बादर सु भूमि कारी
बीरबधू लहूबूँद भुव लपटायो है॥
'हरीचंद' नीर-धार आँसू सी परत जहाँ
दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है।
दाहन बियोग दुखियान को मरे हू यह
देखो पापी पावस मसान बनि आयो है॥

[ २१९ ]( कुछ देर तक चुप रहकर ) कौन है? ( खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिर कर )

इंद्र काल हू सरिस जो आयसु लॉघै कोय।
यह प्रचंड भुजदंड मम प्रतिभट ताको होय॥

अरे कोई नहीं बोलता। ( कुछ आगे बढ़कर ) कौन है?

( नेपथ्य में )

हम है।

हरि०---अरे हमारी बात का यह उत्तर कौन देता है? चलें, जहाँ से आवाज आई है वहाँ चलकर देखें। ( आगे बढ़कर नेपथ्य की ओर देखकर ) अरे यह कौन है?

चिता-भस्म सब अंग लगाए। अस्थि-अभूषन बिबिध बनाए॥
हाथ कपाल मसान जगावत। को यह चल्यो रुद्र सम आवत॥

( कापालिक के वेष में धर्म* आता है )

धर्म---अरे, हम हैं।

वृत्ति अयाचित आत्म-रति करि जग के सुख त्याग।
फिरहिं मसान मसान हम धारि अनंद बिराग॥

( आगे बढ़कर महाराज हरिश्चंद्र को देखकर आप ही आप )


  • गेरुए वस्त्र का काला काछे, गेरुआ कफनी पहिने, सिर के बाल खोले, सेंदुर का अर्द्धचंद्र किए, नंगी तलवार गले में लटकती हुई, एक हाथ में खप्पड़ बलता हुआ, दूसरे हाथ में चिमटा, अंग में भभूत पोते, नशे से आँखें लाल, लाल फूल की माला और हड्डी के आभूषण पहिने। [ २२० ]

हम प्रतच्छ हरि-रूप जगत हमरे बल चालत।
जल-थल-नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत॥
हमहीं नर के मीत सदा साँचे हितकारी।
इक हमहीं सँग जात तजत जब पितु सुत नारी॥

सो हम नित थित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो।
सोइ सत्य-परिन्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो॥

( कुछ सोचकर ) राजर्षि हरिश्चंद्र की दुःखपरंपरा अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्र अत्यंत आश्चर्य के हैं। अथवा महात्माओ का यह स्वभाव ही होता है।

सहत बिबिध दुख मरि मिटत, भोगत लाखन सोग।
पै निज सत्य न छाँड़ाहीं, जे जग साँचे लोग॥
बरु सूरज पच्छिम उगे, बिंध्य तरै जल माहिं।
सत्यबीर जन पै कबहुँ निज बच टारत नाहिं॥


अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुःख को दुःख सुख को सुख गिनते ही नहीं। चलें उनके पास चलें। ( आगे बढ़कर और देखकर ) अरे! यही महात्मा हरिश्चंद्र हैं? ( प्रगट ) महाराज, कल्याण हो।

हरि०---( प्रणाम करके ) आइए योगिराज!

धर्म---महाराज, हम अर्थी हैं।

( हरिश्चन्द्र लज्जा और विकलता नाट्य करता है )

[ २२१ ]उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी? ( प्रत्यक्ष ) महाराज! इसमें धर्म न जायगा, क्योंकि स्वामी की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं। सिद्धि का आकर इसी श्मशान के निकट ही है और मैं अब पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप विघ्नों का निषेध कर दीजिए।

[ जाता है

हरि०---( ललकार कर ) हटो रे हटो विघ्नो! चारों ओर से तुम्हारा प्रचार हमने रोक दिया।

( नेपथ्य में )

महाराजाधिराज! जो आज्ञा। आपसे सत्य वीर की आज्ञा कौन लॉघ सकता है!

खुल्यो द्वार कल्यान को, सिद्ध जोग तप आज।
निधि सिधि विद्या सब करहिं अपने मन को काज॥

हरि०---( हर्ष से ) बड़े आनंद की बात है कि विघ्नों ने हमारा कहना मान लिया।

( विमान पर बैठी हुई तीनों महाविद्याएँ* आती हैं )

महावि०---महाराज हरिश्चंद्र! बधाई है। हमी लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम किया था,


  • ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वेश में पर स्त्री का श्रृंगार। खेलने में

चित्रपट द्वारा परदे के उपर इनको दिखलावेंगे और इनकी ओर से बोलने वाला नेपथ्य में से बोलेगा। [ २२२ ]तब देवताओं ने माया से आपको स्वप्न में हमारा रोना सुनाकर हमारा प्राण बचाया।

हरि०---( आप ही आप ) अरे यही सृष्टि की उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली महाविद्याएँ हैं, जिन्हें विश्वामित्र भी न सिद्ध कर सके। ( प्रगट हाथ जोड़कर ) त्रिलोक-विजयिनी महाविद्याओं को नमस्कार है।

महावि०---महाराज! हम लोग तो आपके वश में हैं। हमारा ग्रहण कीजिए।

हरि०---देवियो, यदि हम पर प्रसन्न हो तो विश्वामित्र मुनि की वशवर्तिनी हों, उन्होंने आप लोगो के वास्ते बड़ा परिश्रम किया है।

महावि०---धन्य महाराज! धन्य! जो आज्ञा।

[जाती है

( धर्म एक बैताल के सिर पर पिटारा रखवाए हुए आता है )

धर्म---महाराज का कल्याण हो, आपकी कृपा से महानिधान* सिद्ध हुआ। आपको बधाई है। अब लीजिए इस रसेंद्र को।

याही के परभाव सो अमर देव-सम होइ।
जोगी जन बिहरहिं सदा मेरु-शिखर भय खोइ॥


  • महानिधान बुभुक्षित धातुभेदी पारा, जिसे बावन तोला पाव रत्ती

कहते हैं। [ २२३ ]"हरि०---प्रणाम करके ) महाराज! दासधर्म के यह विरुद्ध है। इस समय स्वामी से कहे बिना मेरा कुछ भी लेना स्वामी को धोखा देना है।

धर्म---( आश्चर्य से आप ही आप ) वाह रे महानुभावता!( प्रगट ) तो इससे स्वर्ण बनाकर आप अपना दास्य छुड़ा लें।

हरि०---यह ठीक है, पर मैंने तो विनती की न कि जब मैं दूसरे का दास हो चुका तो इस अवस्था में मुझे जो कुछ मिले सब स्वामी का है। क्योकि मैं तो देह के साथ ही अपना स्वत्वमात्र बेच चुका, इससे आप मेरे बदले कृपा करके मेरे स्वामी ही को यह रसेंद्र दीजिए।

धर्म---( आश्चर्य से आप ही आप ) धन्य हरिश्चंद्र! धन्य तुम्हारा धैर्य! धन्य तुम्हारा विवेक! और धन्य तुम्हारी महानुभावता! या---

चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय।
पै बीरन के मन कबहुँ चलहिं नहीं ललचाय॥

तो हमें भी इसमें कौन हठ है। ( प्रत्यक्ष ) बैताल! जाओ, जो महाराज की आज्ञा है वह करो।

बैताल---जो रावलजी की आज्ञा।

[ जाता है

धर्म---महाराज! ब्राह्ममुहूर्त निकट आया, अब हमको भी आज्ञा हो। [ २२४ ]हरि०---योगिराज! हमको भूल न जाइएगा, कभी-कभी स्मरण कीजिएगा।

धर्म---महाराज! बड़े-बड़े देवता आपका स्मरण करते हैं और करेंगे, मैं क्या कहूँ।

[ जाता है

हरि०---क्या रात बीत गई! आज तो कोई भी मुरदा नया नहीं आया। रात के साथ ही श्मशान भी शांत हो चला, भगवान् नित्य ही ऐसा करे।

( नेपथ्य में घंटा नूपुरादि का शब्द सुनकर )

अरे! यह बड़ा कोलाहल कैसा हुआ?

( विमान पर अष्ट महासिद्धि, नव निधि और बारहों प्रयोग आदि देवता* आते हैं )

हरि०---( आश्चर्य से ) अरे ये कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर श्मशान पर एकत्र हो रहे है?

देवता---महाराज हरिश्चंद्र की जय हो। आपके अनुग्रह से


  • साधारण देवी-देवताओं के वेश में। अष्ट महासिद्धि, यथा अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व

और वशित्व। नवनिधि, यथा---पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और वच्र्चस्। बारह प्रयोग, यथा---मारण, मोहन, उच्चाटन, कीलन, विद्वेषण और कामनाशन---ये छः बुरे और स्तभन, वशीकरण, आकर्षण, बदीमोचन, कामपूरण और वाक्प्रसारण---ये छः अच्छे। ये भी चित्रपट में दिखलाए जायँगे। [ २२५ ]हम लोग विघ्नों से छूटकर स्वतंत्र हो गए, अब हम आपके वश में हैं। जो आज्ञा हो, करें। हम लोग अष्ट महासिद्धि, नव निधि और बारह प्रयोग सब आपके हाथ में हैं।

हरि०---( प्रणाम करके ) यदि हम पर आप लोग प्रसन्न हों तो महासिद्धि योगियों के, निधि सजनों के और प्रयोग साधकों के पास जाओ।

देवता---( आश्चर्य से ) धन्य राजर्षि हरिश्चंद्र! तुम्हारे बिना और ऐसा कौन होगा जो घर आई लक्ष्मी का त्याग करे। हमी लोगों की सिद्धि को बड़े-बड़े योगी मुनि पच मरते हैं। पर तुमने तृण की भाँति हमारा त्याग करके जगत् का कल्याण किया।

हरि०---आप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं पर मैं क्या करूँ क्योकि मैं पराधीन हूँ। एक बात और भी निवेदन है। वह यह कि छः अच्छे प्रयोगों की तो हमारे समय में सद्य:- सिद्धि होय पर बुरे प्रयोगों की सिद्धि विलंब से हो।

देवता---महाराज! जो आज्ञा। हम लोग जाते हैं। आज अपके सत्य ने शिवजी के कीलन* को भी शिथिल कर दिया। महाराज का कल्याण हो।

[ जाते हैं


  • शिवजी ने साधनमात्र को कील दिया है जिसमें जल्दी न सिद्ध [ २२६ ]

( नेपथ्य में इस भाँति मानो राजा हरिश्चंद्र नहीं सुनता‌ )

( एक स्वर से ) तो अप्सरा को भेजें। ( दूसरे स्वर से ) छिः मूर्ख! जिसको अष्ट सिद्धि नव निधियों ने नहीं डिगाया उसको अप्सरा क्या डिगावेंगी? ( एक स्वर से ) तो अब अंतिम उपाय किया जाय? ( दूसरे स्वर से ) हाँ, तक्षक को आज्ञा दे। अब और कोई उपाय नहीं है!

हरि०---अहा! अरुण उदय हुआ चाहता है। पूर्व दिशा ने अपना मुँह लाल किया। ( सॉस लेकर )

"वा चकई को भयो चित चीतो चितोति चहूँ दिसि चाय सों नाँची।
ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनि जोति मनों जम जाँची॥
बोलत बैरी बिहंगम 'देव' सँजोगिन की भई संपति कॉची।
लोहू पियो जो बियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिनि प्राची॥"

हा! प्रिये! इन बरसात की रातों को तुम रो-रो के बिताती होगी! हा! वत्स रोहिताश्व, भला हम लोगों ने तो अपना शरीर बेचा तब दास हुए, तुम बिना बिके ही क्यों दास बन गए?

जेहि सहसन परिचारिका राखत हाथहिं हाथ।
सो तुम लोटत धूर में दास-बालकन साथ॥


हों सो राजा हरिश्चंद्र ने विघ्नों को जो रोक दिया इसमें वह कीलन

भी शिवजी की इच्छापूर्वक उस समय दूर हो गया था, क्योंकि यह भी तो एक सबमें बड़ा विघ्न था। [ २२७ ]

जाकी आयसु जग नृपति सुनतहि धारत सीस।
तेहि द्विज-बटु आज्ञा करत, अहह कठिन अति ईस॥
बिनु तन बेचे बिनु दिए, बिनु जग ज्ञान बिबेक।
द्वैव-सर्प दंशित भए, भोगत कष्ट अनेक॥

( घबड़ाकर ) नारायण! नारायण! मेरे मुख से क्या निकल गया? देवता उसकी रक्षा करें। ( बाईं अॉख का फड़कना दिखाकर ) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? ( दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर ) अरे और साथ ही यह मंगल-शकुन भी!न जाने क्या होनहार है! वा अब क्या होनहार है? जो होना था सो हो चुका। अब इससे बढ़कर और कौन दशा होगी? अब केवल मरणमात्र बाकी है। इच्छा तो यही है कि सत्य छूटने और दीन होने के पहले ही शरीर छूटे, क्योकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है, पर वश क्या है?

( नेपथ्य में )

पुत्र हरिश्चंद्र! सावधान। यही अंतिम परीक्षा है। तुम्हारे पुरुषा इक्ष्वाकु से लेकर त्रिशंकु पर्यंत आकाश में नेत्र भरे खड़े एकटक तुम्हारा मुख देख रहे हैं। अाज तक इस वंश में ऐसा कठिन दुःख किसी को नहीं हुआ था। ऐसा न हो कि इनका सिर नीचा हो। अपने धैर्य का स्मरण करो। [ २२८ ]हरि०---( घबड़ाकर ऊपर देखकर ) अरे यह कौन है? कुलगुरु भगवान् सूर्य अपना तेज समेटे मुझे अनुशासन कर रहे हैं। ( ऊपर देखकर ) पितः, मैं सावधान हूँ। सब दुःखों को फूल की माला की भाँति ग्रहण करूँगा।

( नेपथ्य में रोने की आवाज सुन पडती है )

हरि०---अरे अब सबेरा होने के समय मुरदा आया! अथवा चांडाल-कुल का सदा कल्याण हो, हमें इससे क्या?( खबरदार इत्यादि कहता हुआ फिरता है )

( नेपथ्य में )

हाय! कैसी भई! हाय बेटा! हमें रोती छोड़ के कहाँ चले गए! हाय-हाय रे!

हरि०---अहह! किसी दीन स्त्री का शब्द है, और शोक भी इसको पुत्र का है। हाय हाय! हमको भी भाग्य ने क्या ही निर्दय और बीभत्स कर्म सौंपा है! इससे भी वस्त्र मॉगना पडेगा।

( रोती हुई शैव्या रोहिताश्व का मुरदा लिए आती है )

शैव्या---( रोती हुई ) हाय बेटा! अब बाप ने छोड़ दिया, तब तुम भी छोड़ चले! हाय! हमारी बिपत और बुढ़ौती की ओर भी तुमने न देखा! हाय! हाय रे! अब हमारी कौन गति होगी! ( रोती है ) [ २२९ ]हरि०---हाय-हाय! इसके पति ने भी इसको छोड़ दिया है। हा! इस तपस्विनी को निष्करुण विधि ने बड़ा ही दुःख दिया है।

शैव्या---( रोती हुई ) हाय बेटा! अरे आज मुझे किसने लूट लिया! हाय मेरी बोलती चिड़िया कहाँ उड़ गई! हाय, अब मैं किसका मुँह देख के जीऊँगी! हाय, मेरी अंधी की लकड़ी कौन छीन ले गया! हाय, मेरा ऐसा सुंदर खिलौना किसने तोड़ डाला! अरे बेटा, तै तो मरे पर भी सुंदर लगता है! हाय रे! अरे बोलता क्यों नहीं! बेटा जल्दी बोल, देख, मा कब की पुकार रही है! बच्चा! तू तो एक ही दफे पुकारने में दौड़ कर गले से लपट जाता था, क्यो नहीं बोलता? ( शव को बार-बार गले लगाती, देखती और चूमती है )

हरि०---हाय-हाय! इस दुखिया के पास तो खड़ा नहीं हुआ जाता।

शैव्या---( पागल की भॉति ) अरे यह क्या हो रहा है? बेटा, कहाँ गये हो आओ जल्दी। अरे अकेले इस मसान में मुझे डर लगता है, यहाँ मुझको कौन ले आया है रे? बेटा जल्दी आओ! अरे क्या कहते हो, मैं गुरु को लेने गया था, वहाँ काले साँप ने मुझे काट लिया। हाय! हाय रे!! अरे कहाँ काट लिया? अरे कोई


भा० ना०---८

[ २३० ]दौड़ के किसी गुनी को बुलाओ जो जिलावे बच्चे को। अरे वह सॉप कहाँ गया, हमको क्यों नहीं काटता? काट रे काट, क्या उस सुकुँआर बच्चे ही पर बल दिखाना था? हमें काट। हाय! हमको नहीं काटता। अरे यहाँ तो कोई सॉप-वॉप नहीं है। मेरे लाल झूठ बोलना कब से सीखे? हाय-हाय! मैं इतना पुकारती

हूँ और तुम खेलना नहीं छोड़ते? बेटा, गुरुजी पुकार रहे हैं, उनके होम की बेला निकली जाती है। देखो, बड़ी देर से वह तुम्हारे आसरे बैठे है। दो जल्दी उनको दूब और बेलपत्र। हाय! हमने इतना पुकारा, तुम कुछ नहीं बोलते! ( जोर से ) बेटा, सॉझ भई, सब विद्यार्थी लोग घर फिर आए; तुम अब तक क्यों नहीं आए? (आगे शव देखकर) हाय-हाय रे! अरे मेरे लाल को सॉप ने सचमुच डस लिया! हाय लाल! हाय रे! मेरे अॉखों के उजियाले को कौन ले गया! हाय मेरा बोलता हुआ सुग्गा कहाँ उड़ गया! बेटा! अभी तो बोल रहे थे, अभी क्या हो गया! हाय मेरा बसा घर अाज किसने उजाड़ दिया! हाय मेरी कोख में किसने आग लगा दी! हाय, मेरा कलेजा किसने निकाल लिया! ( चिल्ला-चिल्लाकर रोती है ) हाय, लाल कहाँ गये? अरे! अब मैं किसका मुँह देखके जिऊँगी रे? हाय! अब मा कहके मुझको कौन [ २३१ ]पुकारेगा? अरे आज किस बैरो की छाती ठंढी भई रे? अरे, तेरे सुकुँआर अंगों पर भी काल को तनिक दया न आई! अरे बेटा! अॉख खोलो। हाय! मैं सब बिपत तुम्हारा ही मुँह देख कर सहती थी, सो अब कैसे जीती रहूँगी। अरे लाल! एक बेर तो बोलो! ( रोती है )

हरि०---न जाने क्यो इसके रोने पर मेरा कलेजा फटा जाता है।

शैव्या---( रोती हुई ) हा नाथ! अरे अपने गोद के खेलाए बच्चे की यह दशा क्यों नहीं देखते? हाय! अरे तुमने तो इसको हमें सौंपा था कि इसे अन्छी तरह पालना, सो हमने इसकी यह दशा कर दी। हाय! अरे ऐसे समय में भी आकर नहीं सहाय होते! भला एक बार लड़के का मुँह तो देख जाओ! अरे मैं अब किसके भरोसे जीऊँगी!

हरि०–--हाय-हाय! इसकी बातो से तो प्राण मुँह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। यहाँ से हट चलें। ( कुछ दूर हट कर उसकी ओर देखता खड़ा हो जाता है )

शैव्या---( रोती हुई ) हाय! यह बिपत का समुद्र कहाँ से उमड़ पड़ा। अरे छलिया मुझे छल कर कहाँ भाग गया! ( देखकर ) अरे आयुष की रेखा तो इतनी लंबी है, [ २३२ ]फिर अभी से यह बज्र कहाँ से टूट पड़ा। अरे ऐसा सुंदर मुँह, बड़ी-बड़ी आँख, लंबी-लंबी भुजा, चौड़ी छाती, गुलाब सा रंग! हाय, मरने के तुझमें कौन लच्छन थे जो भगवान् ने तुझे मार डाला! हाय लाल! अरे, बड़े-बड़े जोतसी गुनी लोग तो कहते थे कि तुम्हारा बेटा बड़ा प्रतापी चक्रवर्ती राजा होगा, बहुत दिन जिएगा सो सब झूठ निकला! हाय! पोथी, पत्रा, पूजा, पाठ, दान, जप, होम कुछ भी काम न आया! हाय! तुम्हारे बाप का कठिन पुण्य भी तुम्हारा सहाय न हुआ और तुम चल बसे! हाय!

हरि०--–अरे! इन बातो से तो मुझे बड़ी शंका होती है! ( शव को भली भांति देखकर ) अरे! इस लड़के में तो सब लक्षण चक्रवर्ती के से दिखाई पड़ते हैं! हाय न-जाने किस बड़े कुल का दीपक आज इसने बुझाया है, और न जाने किस नगर को आज इसने अनाथ किया है। हाय! रोहिताश्व भी इतना बड़ा हुआ होगा। ( बड़े सोच से ) हाय! हाय! मेरे मुँह से क्या अमंगल निकल गया! नारायण! ( सोचता है )

शैव्या---भगवन् विश्वामित्र! आज! तुम्हारे सब मनोरथ पूरे हुए! हाय! [ २३३ ](घबराकर) हाय-हाय! यह क्या? ( भली भाँति देखकर रोता हुआ ) हाय! अब तक मैं संदेह ही में पड़ा हूँ! अरे! मेरी ऑखें कहाँ गई थीं, जिनने अब तक पुत्र रोहिताश्व को न पहिचाना, और कान कहाँ गए थे जिनने अब तक महारानी की बोली न सुनी! हा पुत्र! हा लाल! हा सूर्यवंश के अंकुर! हा हरिश्चंद्र की विपत्ति के एकमात्र अवलंब! हाय! तुम ऐसे कठिन समय में दुखिया मा को छोड़कर कहाँ गए? अरे! तुम्हारे कोमल अंगो को क्या होगया? तुमने क्या खेला, क्या खाया, क्या सुख भोगा कि अभी से चल बसे? पुत्र! स्वर्ग ऐसा ही प्यारा था तो मुझसे कहते, मैं अपने बाहुबल से तुमको इसी शरीर से स्वर्ग पहुँचा देता। अथवा अब इस अभिमान से क्या? भगवान् इस अभिमान का फल यह सब दे रहा है। हाय पुत्र! ( रोता है )

अाह! मुझसे बढ कर और कौन मंदभाग्य होगा! राज्य गया, धन-जन-कुटुंब सब छूटा, उस पर भी यह दारुण पुत्रशोक उपस्थित हुआ। भला अब मैं रानी को क्या मुँह दिखाऊँ? निस्संदेह मुझसे अधिक अभागा और कौन होगा? न-जाने हमारे किस जन्म के पाप उदय हुए हैं! जो कुछ हमने आज तक किया, वह यदि पुण्य होता तो हमें यह दुःख न देखना पड़ता। हमारा धर्म का अभिमान [ २३४ ]सब झूठा था, क्योंकि कलियुग नहीं है कि अच्छा करते बुरा फल मिले। निस्संदेह मैं महा-अभागा और बड़ा पापी हूँ। ( रंगभूमि की पृथ्वी हिलती है और नेपथ्य में शब्द होता है ) क्या प्रलयकाल आ गया? नहीं, यह बड़ा भारी असगुन हुआ है, इसका फल कुछ अच्छा नहीं; वा अब बुरा होना ही क्या बाकी रह गया है जो होगा? हा! न-जाने किस अपराध से दैव इतना रूठा है। ( रोता है ) हा, सूर्य-कुल-बाल-बाल-प्रवाल! हा हरिश्चंद्र-हृदयानंद! हा शैव्यावलंब! हा वत्स रोहिताश्व! हा मातृ-पितृ-विपत्ति-सहचर! तुम हम लोगो को इस दशा में छोड़कर कहाँ गए! आज हम सचमुच चांडाल हुए। लोग कहेंगे कि इसने न-जाने कौन दुष्कर्म किया था कि पुत्रशोक देखा। हाय! हम संसार को क्या मुँह दिखावेनगे! ( रोता है ) वा संसार में इस बात के प्रगट होने के पहले ही हम भी प्राणत्याग करें? हा निर्लज्ज प्राण! तुम अब भी क्यों नहीं निकलते? हा वज्र-हृदय! इतने पर भी तू क्यो नहीं फटता? अरे नेत्रो! अब और क्या देखना बाकी है कि तुम अब तक खुले हो? या इस व्यर्थ प्रलाप का फल ही क्या है, समय बीता जाता है। इसके पूर्व कि किसी से सामना हो, प्राणत्याग करना ही उत्तम बात है। ( पेड़ के पास जाकर फाँसी देने के योग्य डाल खोजकर उसमें दुपट्टा बाँधता है ) धर्म! मैंने अपने [ २३५ ]जान सब अच्छा ही किया, परंतु न-जाने किस कारण मेरा सब आचरण तुम्हारे विरुद्ध पड़ा सो मुझे क्षमा करना! ( दुपट्टे की फाँसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चौंक कर ) गोविंद! गोविंद! यह मैंने क्या अनर्थ अधर्म विचारा! भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण---त्याग करना चाहा! भगवान् सूर्य इसी क्षण के हेतु अनुशासन करते थे। नारायण! नारायण! इस इच्छा-कृत मानसिक पाप से कैसे उद्धार होगा? हे सर्वेतर्यामी जगदीश्वर! क्षमा करना। दुःख से मनुष्य की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती। अब तो मै चांडाल कुल का दास हूँ। न अब शैव्या मेरी स्त्री है और न रोहिताश्व मेरा पुत्र! चलूँ, अपने स्वामी के काम पर सावधान हो जाऊँ, वा देखूँ, अब दुःखिनी शैव्या क्या करती है। ( शैव्या के पीछे जाकर खड़ा होता है )

शैव्या---( पहले की तरह बहुत रोकर ) हाय! अब मैं क्या करूँ! अब मैं किसका मुँह देखकर संसार में जीऊँगी! हाय! मैं आज से निपूती भई! पुत्रवती स्त्रियाँ अपने बालकों पर अब मेरी छाया न पड़ने देंगी! हा! नित्य सबेरे उठकर अब मैं किसकी चिंता करूँगी! खाने के समय मेरी गोद में बैठकर और मुझसे मॉग-मॉगकर अब कौन खायगा! मैं परोसी थाली सूनी देख कर कैसे प्राण रखूँगी! ( रोती [ २३६ ]है ) हाय! खेलते-खेलते आकर मेरे गले से कौन लपट जायगा और मा-मा कहकर तनक-तनक बातो पर कौन हठ करेगा! हाय! मैं अब किसको अपने आँचल से मुँह की धूल पोछकर गले लगाऊँगी और किसके अभिमान से बिपत्ति में भी फूली-फूली फिरूँगी! ( रोती है ) या जब रोहिताश्व ही नहीं तो मैं ही जीके क्या करूँगी!( छाती पीटकर ) हाय प्राण! तुम अब भी क्यो नहीं निकलते? हाय! मैं ऐसी स्वारथी हूँ कि आत्महत्या के नरक के भय से अब भी अपने का नहीं मार डालती! नहीं-नहीं, अब मैं न जीऊँगी। या तो इस पेड़ में फॉसी लगाकर मर जाऊँगी या गंगा में कूद पडूँगी। ( उन्मत्ता की भाँति उठकर दौड़ना चाहती है )

हरि०---( आड़ में से )

तनहिं बेचि दासी कहवाई।
मरत स्वामि-पायसु बिनु पाई॥
करु न अधर्म सोच जिय माहीं।
"पराधीन सपने सुख नाहीं"॥

शैव्या---( चौकन्नी होकर ) अहा! यह किसने इस कठिन समय में धर्म का उपदेश किया। सच है, मैं अब इस देह की कौन हूँ जो मर सकूँ! हाय दैव! तुझसे यह भी न देखा [ २३७ ]गया कि मैं मर कर भी सुख पाऊँ! ( कुछ धीरज धरकर ) तो चलूँ छाती पर वज्र धरके अब लोकरीति करूँ। ( रोती और लकड़ी चुनकर चिता बनाती हुई ) हाय! जिन हाथों से ठोक-ठोक कर रोज सुलाती थी, उन्हीं हाथो से आज चिता पर कैसे रखूँगी, जिसके मुँह में छाला पड़ने के भय से कभी मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे---( बहुत ही रोती है )

हरि०---धन्य देवी, आखिर तो चंद्र-सूर्यकुल की स्त्री हो, तुम न धीरज धरोगी तो कौन धरेगा।

( शैव्या चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना चाहती और रोती है )

हरि०---तो अब चलें उससे आधा कफन माँगें। ( आगे बढकर और बलपूर्वक आँसुओ को रोक कर शैव्या से ) महाभागे! श्मशानपति की आज्ञा है कि आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूँकने न पावे सो तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो। ( कफन मॉगने को हाथ फैलाता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती है )

( नेपथ्य में )

अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलम्।
त्वया राजन् हरिश्चंद्र सर्वे लोकोत्तरं कृतम्॥

( दोनों आश्चर्य से ऊपर देखते हैं )

[ २३८ ]शैव्या---हाय! इस कुसमय में आर्यपुत्र की यह कौन स्तुति करता

है! वा इस स्तुति ही से क्या है, शास्त्र सब असत्य हैं, नहीं तो आर्यपुत्र से धर्मी की यह गति हो! यह केवल देवताओ और ब्राह्मणों का पाखंड है।

हरि०---( दोनों कानो पर हाथ रखकर ) नारायण! नारायण! महाभागे! ऐसा मत कहो। शास्त्र, ब्राह्मण और देवता त्रिकाल में सत्य हैं। ऐसा कहोगी तो प्रायश्चित्त होगा। अपना धर्म विचारो। लामो मृतकम्बल हमें दो और अपना काम आरंभ करो। ( हाथ फैलाता )

शैव्या---( महाराज हरिश्चंद्र के हाथ में चक्रवर्ती का चिह्न देखकर और कुछ स्वर कुछ प्राकृति से अपने पति को पहचानकर ) हा आर्यपुत्र! इतने दिन तक कहाँ छिपे थे? देखो अपने गोद के खेलाए दुलारे पुत्र की दशा। तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व देखो अब अनाथ की भाँति मसान में पड़ा है। ( रोती है )

हरि०---प्रिये! धीरज धरो, यह रोने का समय नहीं है। देखो सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कोई आ जाय और हम लोगों को जान ले, और एक लज्जामात्र बच गई है वह भी जाय। चलो कलेजे पर सिल रख कर अब रोहिताश्व की क्रिया करो और आधा कंबल हमको दो। [ २३९ ]शैव्या---( रोती हुई ) नाथ! मेरे पास तो एक भी कपड़ा नहीं था, अपना आँचल फाड़कर इसे लपेट लाई हूँ, उसमें से भी जो अाधा दे दूँगी तो यह खुला रह जायगा! हाय! चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मिलता! ( बहुत रोती है )

हरि०---( बलपूर्वक आँसुओ को रोककर और बहुत धीरज धर- कर ) प्यारी! रो मत। ऐसे समय में तो धीरज और धरम रखना काम है। मैं जिसका दास हूँ उसकी आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत करने दो। इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र समझकर तुमसे इसका आधा कफन न लूँ तो बड़ा अधर्म हो। जिस हरिश्चंद्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिये धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा फाड़ दो। देखो, सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कुलगुरु भगवान् सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर चित्त में उदास हों। ( हाथ फैलाता है )

शैव्या---( रोती हुई ) नाथ! जो आज्ञा।

( रोहिताश्व का मृतकंबल फाड़ा चाहती है कि रगभूमि की पृथ्वी हिलती है, तोप छूटने का सा बडा शब्द और बिजली का सा उजाला होता है। नेपथ्य में बाजे की और बस धन्य और जय जय की ध्वनि होती है, [ २४० ]फूल बरसते हैं, और भगवान् नारायण प्रगट होकर राजा हरिश्चन्द्र का हाथ पकड़ लेते हैं )

भग०---बस महाराज बस! धर्म और सत्य सबकी परमावधि हो गई। देखो, तुम्हारे पुण्य-भय से पृथ्वी बारंबार कॉपती है, अब त्रैलोक्य की रक्षा करो। ( नेत्रो से ऑसू बहते हैं )

हरि०---( साष्टांग दंडवत् करके रोता हुआ गद्गद् स्वर से ) भगवन्! मेरे वास्ते आपने परिश्रम किया! कहाँ यह श्मशान-भूमि-कहाँ यह मर्त्यलोक, कहाँ मेरा मनुष्य शरीर, और कहाँ पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदधन साक्षात् आप! ( प्रेम के आँसुओं से और गद्गद् कंठ होने से कुछ कहा नहीं जाता )

भग०---( शैव्या से ) पुत्री! अब सोच मत कर। धन्य तेरा सौभाग्य कि तुझे राजर्षि हरिश्चंद्र ऐसा पति मिला है। ( रोहिताश्व की ओर देखकर ) वत्स रोहिताश्व! उठो। देखो, तुम्हारे माता-पिता देर से तुम्हारे मिलने को व्याकुल हो रहे हैं।

( रोहिताश्व उठ खडा होता है और आश्चर्य से भगवान् को प्रणाम करके माता-पिता का मुँह देखने लगता है, आकाश से फिर पुष्पवृष्टि होती है। हरिश्चन्द्र और शैव्या आश्चर्य, आनन्द, करुणा और प्रेम से कुछ कह नहीं सकते। आँखों से आँसू बहते हैं और एकटक भगवान् के [ २४१ ]मुखारविंद की ओर देखते हैं। श्रीमहादेव, पार्वती, भैरव, धर्म, सत्य, इंद्र और विश्वामित्र आते हैं )*

सब---धन्य महाराज हरिश्चंद्र धन्य! जो आपने किया सो किसी ने न किया, न करेगा।

( राजा हरिश्चन्द्र, शैव्या और रोहिताश्व सब को प्रणाम करते हैं )

विश्वा०---महाराज! यह केवल चंद्र-सूर्य तक आपकी कीर्ति स्थिर रखने के हेतु मैंने छल किया था, सो क्षमा कीजिए और अपना राज्य लीजिए।

( हरिश्चन्द्र भगवान् और धर्म का मुँह देखते हैं )

धर्म---महाराज! राज्य आपका है, इसका में साक्षी हूँ, आप निस्संदेह लीजिए।

सत्य---ठीक है, जिसने हमारा अस्तित्व संसार में प्रत्यक्ष कर दिखाया उसी का पृथ्वी का राज्य है।

श्रीमहादेव---पुत्र हरिश्चंद्र! भगवान् नारायण के अनुग्रह से ब्रह्मलोक-पर्येत तुमने पाया, तथापि मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी कीर्ति जब तक पृथ्वी है तब तक स्थिर रहे और रोहिताश्व दीर्घायु, प्रतापी और चक्रवर्ती हो।


  • श्रीमहादेव, पार्वती और भैरव का ध्यान सबको 'विदित है। इंद्र

और विश्वामित्र का लिख चुके हैं। धर्म चतुर्भुज, श्याम रंग, पीतांबर, दंड, पत्र और कमल हाथ में। सत्य शुक्ल वर्ण, श्वेत वस्त्राभरण, नारायण के चारों शस्त्र हाथ में। [ २४२ ]पार्वती---पुत्री शैव्या! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियाँ गावें। तुम्हारी पुत्रवधू सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग न करें।

( हरिश्चन्द्र और शैन्या प्रणाम करते हैं )

भैरव---और जो तुम्हारी कीर्ति कहे-सुने और उसका अनुसरण करे उसको भैरवी यातना न हो।

इंद्र---( राजा को आलिंगन करके और हाथ जोड़ के ) महाराज! मुझे क्षमा कीजिए। यह सब मेरी दुष्टता थी। परंतु इस बात से आपका तो कल्याण ही हुआ; स्वर्ग कौन कहे, आपने अपने सत्यबल से ब्रह्मपद पाया। देखिए, आपकी रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी, आप उपाध्याय बने थे, नारदजी बटु बने थे, साक्षात् धर्म ने आपके हेतु चांडाल और कापालिक का वेष लिया, और सत्य ने आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का रूप धारण किया। न आप बिके न दास हुए, यह सब चरित्र भगवान् नारायण की इच्छा से केवल आप के सुयश के हेतु किया गया।

हरि०---( गद्गद् स्वर से ) अपने दासों का यश बढ़ाने वाला और कौन है?

भग०---महाराज! और भी जो इच्छा हो, माँगो। [ २४३ ]हरि०---( प्रणाम करके गद्गद् स्वर से ) प्रभु! आपके दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आपके आज्ञानुसार यह वर माँगता हूँ कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ वैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे।

भग०---एवमस्तु, तुम ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट-पतंग जीव-मात्र सब परमधाम जायँगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण टूट जायँगे, तब भी वह तुम्हारे इच्छानुसार सत्य-मात्र एक पद से स्थित रहेगा। इतना ही देकर मुझे संतोष नहीं हुआ; कुछ और भी मॉगो। मैं तुम्हें क्या-क्या दूँ? क्योकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका। तथापि मेरी इच्छा यही है कि तुमको और कुछ वर दूँ। तुम्हे वर देने में मुझे संतोष नहीं होता।

हरि०---( हाथ जोड़कर ) भगवन्! मुझे अब कौन इच्छा है? मैं और क्या घर मागूँ? तथापि भरत का यह वाक्य सुफल हो---

खलगनन सो सज्जन दुखी मत होइँ, हरिपद रति रहै।
उपधर्म छुटै, सत्त्व निज भारत गहै, कर-दुख बहै॥
बुध तजहिं मत्सर, नारि-नर सम होहिं, सब जग सुख लहै।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृतबानी सब कहै॥

( पुष्पवृष्टि और बाजे की ध्वनि के साथ जवनिका गिरती है )