भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/तीसरा अंक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ३३८ ]

तीसरा अंक

स्थान-तालाब के पास एक बगीचा

( समय तीसरा पहर, गहिरे बादल छाए हुए )

[ झूला पड़ा है, कुछ सखी भूलती, कुछ इधर-उधर फिरती हैं ]

( चंद्रावली माधवी, काममंजरी, विलासिनी इत्यादि एक स्थान पर बैठी हैं, चंद्रकांता, वल्लभा, श्यामला, भामा झूले पर हैं, कामिनी और माधुरी हाथ में हाथ दिए घूमती हैं। )

कामिनी---सखी, देख बरसात भी अब की किस धूमधाम से आई है मानो कामदेव ने अबलाओ को निर्बल जानकर इनके जीतने को अपनी सेना भिजवाई है। धूम से चारों ओर से घूम-घूमकर बादल परे के परे जमाए बगपंगति का निशान उड़ाए लपलपाती नंगी तलवार सी बिजली चमकाते गरज-गरज कर डराते बान के समान पानी बरखा रहे हैं और इन दुष्टों का जी बढ़ाने को मोर बरखा सा कुछ अलग पुकार-पुकार गा रहे हैं। कुल की मऱजाद ही पर इन निगोड़ों की चढ़ाई है। मनोरथों से कलेजा उमगा आता है अौर काम की उमंग जो अंग-अंग [ ३३९ ]में भरी हैं उनके निकले बिना जी तिलमिलाता है। ऐसे बादलो को देखकर कौन लाज की चद्दर रख सकती है और कैसे पतिव्रत पाल सकती है!

माधुरी---विशेष कर वह जो आप कामिनी हो। ( हॅसती है )

कामिनी---चल तुझे हंसने ही की पड़ी है। देख, भूमि चारों ओर हरी-हरी हो रही है। नदी-नाले बावली-तालाब सब भर गए। पच्छी लोग पर समेटे पत्तों की आड़ में चुपचाप सकपके से होकर बैठे हैं। बीरबहूटी और जुगुनूँ पारी-पारी रात और दिन को इधर-उधर बहुत दिखाई पड़ते हैं। नदियों के करारे धमाधम टूटकर गिरते हैं। सर्प निकल-निकल अशरण से इधर-उधर भागे फिरते हैं। मार्ग बंद हो रहे हैं। परदेसी जो जिस नगर में हैं वहीं पड़े-पड़े पछता रहे हैं, आगे बढ़ नहीं सकते। वियोगियों को तो मानो छोटा प्रलय-काल ही आया है।

माधुरी---छोटा क्यों बड़ा प्रलयकाल आया है। पानी चारों ओर से उमड़ ही रहा है। लाज के बड़े-बड़े जहाज गारद हो चुके, भया फिर वियोगियों के हिसाब तो संसार डूबा ही है, तो प्रलय ही ठहरा।

कामिनी---पर तुझको तो बटेकृष्ण का अवलंब है न, फिर तुझे क्या, भांडीर घट के पास उस दिन खड़ी बात कर ही रही थी, गए हम--[ ३४० ]माधुरी---और चंद्रावली?

कामिनी---हॉ, चंद्रावली बिचारी तो आप ही गई बीती है, उसमें भी अब तो पहरे में है, नजरबंद रहती है, झलक भी नहीं देखने पाती, अब क्या--

माधुरी---जाने दे नित्य का झंखना। देख, फिर पुरवैया झकोरने लगी और वृक्षों से लपटी लताएँ फिर से लरजने लगीं। साड़ियों के आँचल और दामन फिर उड़ने लगे और मोर लोगों ने एक साथ फिर शोर किया। देख यह घटा अभी गरज गई थी पर फिर गरजने लगी।

कामिनी---सखी वसंत का ठंढा पवन और सरद की चाँदनी से राम राम करके वियोगियो के प्राण बच भी सकते हैं, पर इन काली-काली घटा और पुरवैया के झोंके तथा पानी के एकतार झमाके से तो कोई भी न बचेगा।

माधुरी---तिसमें तू तो कामिनी ठहरी, तू बचना क्या जाने।

कामिनी---चल ठठोलिन। तेरी आँखो में अभी तक उस दिन की खुमारी भरी है, इसी से किसी को कुछ नहीं समझती। तेरे सिर बीते तो मालूम पड़े।

माधुरी---बीती है मेरे सिर। मैं ऐसी कच्ची नहीं कि थोड़े में बहुत उबल पडूँ।

कामिनी---चल, तू हई है क्या कि न उबल पड़ेगी। स्त्री की बिसात ही कितनी। बड़े-बड़े जोगियों के ध्यान इस [ ३४१ ]बरसात में छूट जाते हैं, कोई जोगी होने ही पर मन ही मन पछताते हैं, कोई जटा पटककर हाय-हाय चिल्लाते हैं, और बहुतेरे तो तूमड़ी ताड़-तोड़कर जोगी से भोगी हो ही जाते हैं।

माधुरी---तो तू भी किसी सिद्ध से कान फुँकवाकर तुमड़ी तोड़वा ले।

कामिनी---चल! तू क्या जाने इस पीर को। सखी, यही भूमि और यही कदम कुछ दूसरे ही हो रहे हैं और यह दुष्ट बादल मन ही दूसरा किए देते हैं। तुझे प्रेम हो तब सूझे। इस आनंद की धुनि में संसार ही दूसरा एक बिचित्र शोभावाला और सहज काम जगानेवाला मालूम पड़ता है।

माधुरी---कामिनी पर काम का दावा है इसी से हेरफेर उसी को बहुत छेड़ा करता है।

( नेपथ्य में बारंबार मोर कूकते हैं )

कामिनी---हाय-हाय! इस कठिन कुलाहल से बचने का उपाय एक विषपान ही है। इन दईमारों का कूकना और पुरवैया का झकोरकर चलना यह दो बातें बड़ी कठिन हैं। धन्य हैं वे जो ऐसे समय में रंग रंग के कपड़े पहिने ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ी पीतम के संग घटा और हरियाली [ ३४२ ]देखती हैं वा बगीचों, पहाड़ों और मैदानों में गलबाहीं डाले फिरती हैं। दोनो परस्पर पानी बचाते हैं और रंगीन कपड़े निचोड़ कर चौगुना रंग बढ़ाते हैं। झूलते हैं, झुलाते हैं, हँसते हैं, हँसाते हैं, भीगते हैं, भिगाते हैं, गाते हैं, गवाते हैं, और गले लगते हैं, लगाते हैं।

माधुरी---और तेरो न कोई पानी बचानेवाला, न तुझे कोई निचोड़नेवाला, फिर चौगुने की कौन कहे ड्योढ़ा सवाया तो तेरा रंग बदेहीगा नहीं।

कामिनी---चल लुच्चिन! जाके पायँ न भई बिवाई सो क्या जानै पीर पराई।

( बात करती-करती पेड़ की आड़ में चली जाती है )

माधवी---( चंद्रावली से ) सखी, श्यामला का दर्शन कर, देख कैसी सुहावनी मालूम पड़ती है। मुखचंद्र पर चूनरी चुई पड़ती है। लटें सगबगी होकर गले में लपट रही हैं। कपड़े अंग में लपट गए हैं। भींगने से मुख का पान और काजल सबकी एक विचित्र शोभा हो गई है।

चंद्रा०---क्यों न हो। हमारे प्यारे की प्यारी है। मैं पास होती तो दोनों हाथों से इसकी बलैया लेती और छाती से लगाती।

का० मं०---सखी, सचमुच आज तो इस कदंब के नीचे रंग [ ३४३ ]बरस रहा है। जैसा समा बँधा है वैसी ही झूलनेवाली हैं। झूलने में रंग-रंग की साड़ी की अर्द्ध-चंद्राकार रेखा इंद्रधनुष की छबि दिखाती है। कोई सुख से बैठी झूले की ठंढी-ठंढी हवा खा रही है, कोई गाँती बाँधे लॉग कसे पेंग मारती है, कोई गाती है, कोई डरकर दूसरी के गले में लपट जाती है, कोई उतरने को अनेक सौगंद देती है, पर दूसरी उसको चिढ़ाने को झूला और भी झोके से झुला देती है।

माधवी---हिंडोरा ही नहीं भूलता। हृदय में प्रीतम को झुलाने के मनोरथ और नैनो में पिया की मूर्ति भी झूल रही है। सखी, आज सॉवला ही की मेंहदी और चूनरी पर तो रंग है। देख बिजुली की चमक में उसकी मुख-छबि कैसी सुंदर चमक उठती है और वैसे पवन भी बार-बार घूँघट उलट देता है। देख---

हूलति हिये में प्रानप्यारे के बिरह-सूल
फूलति उमंगभरी झूलति हिंडोरे पै।
गावति रिझावति हँसावति सबन 'हरि-
चंद' चाव चौगुनो बढ़ाइ घन घोरे पै॥
वारि वारि डारौं प्रान हँसनि मुरनि बत-
रान मुँह पान कजरारे दृग डोरे पै।

[ ३४४ ]

ऊनरी घटा मैं देखि दूनरी लगी है आहा
कैसी आजु चूनरी फबी है मुख गोरे पै॥

चंद्रा०---सखियो, देखो कैसो अंधेर और गजब है कि या रुत मैं सब अपनो मनोरथ पूरो करै और मेरी यह दुरगत होय! भलो काहुवै तो दया आवती। ( आँखों में आँसू भर लेती है )

माधवी---सखी, तू क्यों उदास होय है। हम सब कहा करें, हम तो आज्ञाकारिणी दासी ठहरीं, हमारो का अखत्यार है तऊ हममैं सों तो कोऊ कछू तोहि नायँ कहै।

का०मं०---भलो सखी, हम याहि कहा कहैंगी! याहू तो हमारी छोटी स्वामिनी ठहरी।

विला०---हाँ सखी, हमारी तो दोऊ स्वामिनी हैं। सखी, बात यह है कै खराबी तो हम लोगन की है, ये दोऊ फेर एक की एक होयँगी। लाठी मारवे सों पानी थोरों हूँ जुदा होयगो, पर अभी जो सुन पावैं कि ढिमकी सखी ने चंद्रावलियै अकेलि छोड़ि दीनी तो फेर देखो तमासा।

माधवी---हम्बै बीर। और फेर कामहू तौ हमीं सब बिगारैं। अब देखि कौन नै स्वामिनी सों चुगली खाई। हमारेई [ ३४५ ]तुमारे में सो बहू है। सखी चंद्रावलियै जो दुःख देयगी वह आप दुःख पावैगी।

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय! प्यारे, हमारी यह दशा होती है और तुम तनिक नहीं ध्यान देते। प्यारे, फिर यह शरीर कहाँ और हम-तुम कहाँ? प्यारे, यह संजोग हमको तो अब की ही बना है, फिर यह बातें दुर्लभ हो जायँगी। हाय नाथ! मैं अपने इन मनोरथों को किसको सुनाऊँ और अपनी उमंगें कैसे निकालूँ! प्यारे, रात छोटी है और स्वॉग बहुत हैं। जीना थोड़ा और उत्साह बड़ा। हाय! मुझ सी माह में डूबी को कहीं ठिकाना नहीं। रात-दिन रोते ही बीतते हैं। कोई बात पूछनेवाला नहीं, क्योंकि संसार में जी कोई नहीं देखता, सब ऊपर ही की बात देखते हैं। हाय! मैं तो अपने-पराए सब से बुरी बनकर बेकाम हो गई। सब को छोड़कर तुम्हारा आसरा पकड़ा था सो तुमने यह गति की। हाय! मैं किसको होके रहूँ, मैं किसका मुँह देखकर जिऊँ। प्यारे, मेरे पीछे कोई ऐसा चाहनेवाला न मिलेगा। प्यारे, फिर दीया लेकर मुझको खोजोगे। हा! तुमने विश्वासघात किया। प्यारे, तुम्हारे निर्दयीपन की भी कहानी चलेगी। हमा तो कपोतव्रत है। हाय! स्नेह लगाकर दगा देने पर भी सुजान कहलाते हो। बकरा [ ३४६ ]जान से गया, पर खानेवाले को स्वाद न मिला। हाय! यह न समझा था कि यह परिणाम करोगे। वाह! खूब निबाह किया। बधिक भी बधकर सुध लेता है, पर तुमने न सुध ली। हाय! एक बेर तो आकर अंक में लगा जाओ। प्यारे, जीते जी आदमी का गुन नहीं मालूम होता। हाय! फिर तुम्हारे मिलने को कौन तरसेगा और कौन रोएगा। हाय! संसार छोड़ा भी नहीं जाता। सब दुःख सहती हूँ, पर इसी में फँसी पड़ी हूँ। हाय नाथ! चारों ओर से जकड़कर ऐसी बेकाम क्यों कर डाली है। प्यारे, योंही रोते दिन बीतेंगे। नाथ! यह हौस मन की मन ही में रह जायगी। प्यारे, प्रगट होकर संसार का मुँह क्यों नहीं बंद करते और क्यों शंकाद्वार खुला रखते हो? प्यारे, सब दीनदयालुता कहाँ गई! प्यारे, जल्दी इस संसार से छुड़ाओ। अब नहीं सही जाती। प्यारे, जैसी हैं, तुम्हारी हैं। प्यारे, अपने कनौड़े को जगत की कनौड़ी मत बनाओ। नाथ, जहाँ इतने गुन सीखे वहाँ प्रीति निबाहना क्यों न सीखा? हाय! मँझधार में डुबाकर ऊपर से उतराई माँगते हो; प्यारे सो भी दे चुकी, अब तो पार लगाओ। प्यारे, सबकी हद होती है। हाय! हम तड़पें और तुम तमाशा देखो। जन-कुटुंब से छुड़ाकर यों छितर-बितर करके बेकाम कर [ ३४७ ]देना यह कौन बात है। हाय! सबकी आँखो में हलकी हो गई। जहाँ जाओ वहाँ दुर दुर, उस पर यह गति। हाय! "भामिनी तें भौंड़ी करी, मानिनी तें मौड़ी करी, कौड़ी करी हीरा ते, कनौड़ी करी कुल तें।" तुम पर बड़ा क्रोध आता है और कुछ कहने को जी चाहता है। बस अब मैं गाली दूँगी। और क्या कहूँ, बस आप आप ही हौ; देखो गाली में भी तुम्हे मैं मर्मवाक्य कहूँगी---झूठे, निर्दय, निघृण, "निर्दय हृदय कपाट", बखेड़िये और निर्लज, ये सब तुम्हें सच्ची गालियाँ है; भला जो कुछ करना ही नहीं था तो इतना क्यों झूठ बके? किसने बकाया था? कूद-कूदकर प्रतिज्ञा करने बिना क्या डूबी जाती थी? झूठे! झूठे!! झूठे!!! झूठे ही नहीं वरंच विश्वासघातक! क्यो इतनी छाती ठोक और हाथ उठा-उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते चाहे जहन्नुम में पड़ते, और उस पर तुर्रा यह है कि किसी को चाहे कितना भी दुखी देखें आपको कुछ घृणा तो होती ही नहीं। हाय-हाय! कैसे-कैसे दुखी लोग हैं---और मजा तो यह है कि सब धान बाइस पसेरी। चाहे आपके वास्ते दुखी हो, चाहे अपने संसार के दुःख से; आपको दोनों उल्लू फँसे हैं। इसी से तो "निर्दय हृदय कपाट" यह नाम है। भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और [ ३४८ ]जाल करने को कहा था? कुछ न होता, तुम्हीं तुम रहते बस चैन था, केवल आनंद था, फिर क्यों यह विषमय संसार किया। बखेड़िये! और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परले सिरे की। नाम बिके, लोग झूठा कहें, अपने मारे फिरें, आप भी अपने मुँह झूठे बनें, पर वाह रे शुद्ध बेहयाई और पूरी निर्लजता! बेशरमी हो तो इतनी तो हो। क्या कहना है! लाज को जूतों मार के पीट-पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं उस मुहल्ले में लाज की हवा भी नहीं जाती। जब ऐसे हो तब ऐसे हो। हाय! एक बैर भी मुँह दिखा दिया होता तो मत-वाले मत-वाले बने क्यों लड़-लड़कर सिर फोड़ते। अच्छे खासे अनूठे निर्लज्ज हो, काहे को ऐसे बेशरम मिलेंगे, हुकमी बेहया हो, कितनी गाली दूँ, बड़े भारी पूरे हो, शरमाओगे थोड़े ही कि माथा खाली करना सुफल हो, जाने दो---हम भी तो वैसी ही निर्लज और झूठी हैं। क्यो न हो। जस दूलह तस बनी बराता। पर इसमें भी मूल उपद्रव तुम्हारा ही है, पर यह जान रखना कि इतना और कोई न कहेगा, क्योंकि सिपारसी नेति नेति कहेंगे, सच्ची थोड़े ही कहेंगे। पर यह तो कहा कि यह दुःखमय पचड़ा ऐसा ही फैला रहेगा कि कुछ तै भी होगा, वा न तै होय। हमको क्या? पर हमारा तो पचड़ा छुड़ाओ। हाय मैं किससे कहती हूँ। कोई सुनने [ ३४९ ]वाला है। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। नहीं नहीं, वह सब देखता है, वा देखता होता तो अब तक मेरी खबर न लेता। पत्थर होता तो वह भी पसीजता। नहीं नहीं, मैंने प्यारे को इतना दोष व्यर्थ दिया। प्यारे, तुम्हारा दोष कुछ नहीं। यह सब मेरे करम का दोष है। नाथ, मैं तो तुम्हारी नित्य की अपराधिनी हूँ। प्यारे छमा करो। मेरे अपराधों की ओर न देखो, अपनी ओर देखो। ( रोती है )

माधवी---हाय-हाय सखियो! यह तो रोय रही है।

काममं०---सखी प्यारी रोवै मती। सखी तोहि मेरे सिर की सौंह जो रोवै।

माधवी---सखी, मैं तेरे हाथ जोड़ूँ मत रोवै। सखी हम सबन को जीव भरयो आवै है।

विला०---सखी, जो तू कहेगी हम सब करैगी। हम भले ही प्रियाजी की रिस सहैंगी, पर तोसूँ हम सब काहू बात सों बाहर नहीं।

माधवी---हाय-हाय! यह तो मानै ही नहीं। ( ऑसू पोंछकर ) मेरी प्यारी, मैं हाथ जोड़ूँ हा हा खाऊँ मानि जा।

काममं०---सखी यासों मति कछू कहौ। आओ हम सब मिलि कै विचार करैं जासों याको काम होय। [ ३५० ]पिला०---सखी, हमारे तो प्रान ताइ यापैं निछावर हैं पर जो कछू उपाय सूझै।

चंद्रा०---( रोकर ) सखी, एक उपाय मुझे सूझा है जो तुम मानो।

माधवी---सखी, क्यों न मानैगी तू कहै क्यों नहीं।

चंद्रा०---सखी, मुझे यहाँ अकेली छोड़ जाओ।

माधवी---तो तू अकेली यहाँ का करेगी?

चंद्रा०---जो मेरी इच्छा होगी।

माधवी---भलो तेरी इच्छा का होयगी हमहूँ सुनै?

चंद्रा०---सखी, वह उपाय कहा नहीं जाता।

माधवी---तौ का अपनो प्रान देगी। सखी, हम ऐसी भोरी नहीं हैं कै तोहि अकेली छोड़ जायँगी।

विला०---सखी, तू व्यर्थ प्रान देने को मनोरथ करै है तेरे प्रान तोहि न छोड़ैगे। जौ प्रान तोहि छोड़ जायँगे तो इनको ऐसा सुंदर शरीर फेर कहाँ मिलैगो।

काममं०---सखी, ऐसी बात हम तूं मति कहै, और जो कहै सो सो हम करिबे कों तयार हैं, और या बात को ध्यान तू सपने हू मैं मति करि। जब ताई हमारे प्रान हैं तब ताई तोहि न मरन देंयगी। पीछे भलेई जो होय सो होय।

चंद्रा---( रोकर ) हाय! मरने भी नहीं पाती। यह अन्याय! माधवी---सखी, अन्याय नहीं, यही न्याय है। [ ३५१ ]काममं०---जान दै माधवी वासो मति कछु पूछै। आओ हम तुम मिलकै सल्लाह करै के अब का करनो चाहिए।

विला०---हॉ माधवी, तू ही चतुर है तू ही उपाय सोच।

माधवी---सखी, मेरे जी में तौ एक बात आवै। हम तीनि हैं सो तीनि काम बॉटि लें। प्यारीजू के मनाइबे को मेरो जिम्मा। यही काम सबमें कठिन है और तुम दोउन मैं सो एक याके घरकेन सो याकी सफाई करावै और एक लालजू सो मिलिबे की कहै।

काममं०---लालजी सों मैं कहूँगी। मै विन्नै बहुती लजाऊँगी और जैसे होयगो वैसे यासों मिलाऊँगी।

माधवी---सखी, वेऊ का करैं। प्रियाजी के डर सों कछू नहीं कर सकै।

विला०---सो प्रियाजी को जिम्मा तेरो हुई है।

माधवी---हाँ हाँ, प्रियाजी को जिम्मा मेरो।

विला०---तौ याके घर को मेरो।

माधवी---भयो, फेर का। सखी काहू बात को सोच मति करै। उठि।

चंद्रा०---सखियो! व्यर्थ क्यों यत्न करती हौ। मेरे भाग्य ऐसे नहीं हैं कि कोई काम सिद्ध हो।

माधवी---सखी, हमारे भाग्य तो सीधे हैं। हम अपने भाग्यबल सों सब काम करैंगी। [ ३५२ ]काममं०---सखी, तू व्यर्थ क्यों उदास भई जाय है। जब तक सॉसा तब तक आसा।

माधवी---तौ सखी बस अब यह सलाह पक्की भई। जब ताई काम सिद्ध न होय तब ताई काहुवै खबर न परे।

विला०---नहीं, खबर कैसे परैगी?

काममं०---( चंद्रावली का हाथ पकड़कर ) लै सखी, अब उठि। चलि हिंडोरें झूलि।

माधवी---हॉ सखी, अब तौ अनमनोपन छोड़ि।

चंद्रा०---सखी, छूटा ही सा है, पर मैं हिंडोरे न झूलूँगी। मेरे तो नेत्र आप ही हिंडोरे झूला करते हैं।

पल-पटुली पै डोर-प्रेम की लगाय चारु
आसा ही के खंभ दोय गाढ़ कै धरत हैं।
झुमका ललित काम पूरन उछाह भरयौ
लोक बदनामी झूमि झालर झरत है॥
'हरीचंद' ऑसू दृग नीर बरसाइ प्यारे
पिया-गुन-गान सो मलार उचरत है।
मिलन मनोरथ के झोंटन बढ़ाइ सदा
बिरह-हिंडोरे नैन झूल्योई करत हैं॥

और सखी, मेरा जी हिंडोरे पर और उदास होगा।

माधवी---तौ सखी, तेरी जो प्रसन्नता होय! हम तौ तेरे सुख की गाहक हैं। [ ३५३ ]चंद्रा---हा! इन बादलो को देखकर तो और भी जी दुखी होता है।

देखि धन स्याम घनस्याम की सुरति करि
जिय मैं बिरह घटा घहरि-घहरि उठै।
त्यौंही इंद्रधनु-बगमाल देखि बनमाल
मोतीलर पी की जिय लहरि-लहरि उठै॥
'हरीचंद' मोर-पिक-धुनि सुनि बंसीनाद
बाँकी छबि बार बार छहरि-छहरि उठै।
देखि-देखि दामिनी की दुगुन दमक पीत-
पट-छोर मेरे हिय फहरि-फहरि उठै॥

हाय! जो बरसात संसार को सुखद है वह मुझे इतनी दुखदायिनी हो रही है।

माधवी---तौ न दुखदायिनी होयगी। चल उठि घर चलि।

काममं०---हाँ चलि।

[ सब जाती हैं

( जवनिका गिरती है )

वर्षा-वियोग-विपत्ति नामक तृतीय अंक

भा० ना०---१६