भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/अंकावतार

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ३३५ ]

दूसरे अंक के अंतर्गत

अंकावतार

स्थान---बीथी, वृक्ष

( संध्यावली दौड़ी हुई आती है )

संध्या राम राम! मैं तो दौरत-दौरत हार गई, या व्रज की गऊ का हैं सॉड़ हैं; कैसी एक साथ पूँछ उठाय कै मेरे संगदौरी हैं, तापैं वा निपूते सुवल को बुरो होय, और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबन को लहकाय दीना, अरे जो मैं एक संग प्रान छोड़ि कै न भाजती तो उनके रपट्टा में कब की आय जाती। देखि आज वा सुवल की कौन गति कराऊँ, बड़ो ढीठ भयो है, प्रानन की हॉसी कौन काम की। देखो तो आज सोमवार है नंदगॉव में हाट लगी होयगी मैं वहीं जाती, इन सबन ने बीच ही आय धरी, मैं चंद्रावली की पाती वाके यारैं सौंप देती तो इतनो खुटकोऊ न रहतो। ( घबड़ाकर ) अरे आई ये गौवें तो फेर इतैही कूँ अरराई।

( दौड़कर जाती है और चोली में से पत्र गिर पड़ता है। चंपकलता आती है )

चंपक०---( पत्र गिरा हुआ देखकर ) अरे! यह चिट्ठी किसकी पड़ी है, किसी की हो देखूँ तो इसमें क्या लिखा है। [ ३३६ ]( उठाकर देखती है ) राम राम! न जाने किस दुखिया की लिखी है कि ऑसुओं से भींजकर ऐसी चिपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलने में फटी जाती है। ( बड़ी कठिनाई से खोलकर पढ़ती है )

प्यारे!

क्या लिखू! तुम बड़े दुष्ट हो, चलो, भला सब अपनी वीरता हमी पर दिखानी थी। हाँ! भला मैंने तो लोक-वेद, अपना-बिराना सब छोड़कर तुम्हें पाया, तुमने हमें छोड़ के क्या पाया? और जो धर्म उपदेश करो धर्म से फल होता है, फल से धर्म नहीं होता। निर्लज्ज, लाज भी नहीं आती, मुँह ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हो। चलो वाह! अच्छी प्रीति निबाही। जो हो, तुम जानते ही हौ, हाय कभी न करूँगी योंही सही, अंत मरना है, मैंने अपनी ओर से खबर दे दी, अब मेरा दोष नहीं, बस।

केवल तुम्हारी"

( लंबी सॉस लेकर ) हा! बुरा रोग है, न करै कि किसी के सिर बैठे-बिठाए यह चक्र घहराय। इस चिट्ठी के देखने से कलेजा कॉपा जाता है। बुरा! तिसमें स्त्रियो की बड़ी बुरी दशा है, क्योकि कपोतब्रत बुरा होता है कि गला घोट डालो मुँह से बात न निकले। प्रेम भी इसी का नाम है। राम-समे उस मुँह से जीभ खींच ली जाय [ ३३७ ]जिससे हाय निकले। इस व्यथा को मैं जानती हूँ और कोई क्या जानेगा क्योंकि "जाके पॉव न भई बिवाई सो क्या जाने पीर पराई"। यह तो हुआ पर यह चिट्ठी है किसकी? यह न जान पड़ी, ( कुछ सोचकर ) अहा जानी! निश्चय यह चंद्रावली ही की चिट्ठी है, क्योंकि अक्षर भी उसी के से हैं और इस पर चंद्रावली का चिह्न भी बनाया है। हा! मेरी सखी वुरी फँसी। मैं तो पहिले ही उसके लच्छनो से जान गई थी, पर इतना नहीं जानती थी; अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं। मनुष्य न इधर का होता न उधर का। संसार के सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है। जो हो, यह पत्र तो मैं आप उन्हें जाकर दे आऊँगी और मिलने की भी बिनती करूँगी।

( नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से )

हाँ तू सब करेगी।

चंप०---( सुनकर और सोचकर ) अरे यह कौन है। ( देखकर ) न जानै कोऊ बूढ़ी फूस सी डोकरी है। ऐसा न होय कै यह बात फोड़ि कै उलटी आग लगावै, अब तो पहिलै याहि समझावनो परयो, चलूँ।

[ जाती है

भेद प्रकाशन नामक अङ्कावतार

भा० ना०---१५