भारतेंदु-नाटकावली/४–श्रीचंद्रावली/दूसरा अंक
दूसरा अंक
स्थान---केले का वन
समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए
( वियोगिनी बनी हुई श्रोचद्रावलीजी आती हैं )
चंद्रा०---( एक वृक्ष के नीचे बैठकर ) वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हैं; और निश्चय बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं जानता; जानें कैसे? सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। जिसने जो समझा है उसने वैसा ही मान रखा है। हा! यह तुम्हारा जा अखंड परमानंदमय प्रेम है और जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शांति देने वाला है उसका कोई स्वरूप ही नहीं जानता, सब अपने ही सुख में और अभिमान में भूले हुए हैं; कोई किसी स्त्री से वा पुरुष से उसको सुंदर देखकर चित्त लगाना और उससे मिलने के अनेक यत्न करना इसी को प्रेम कहते हैं, और कोई ईश्वर को बड़ी लंबी-चौड़ी पूजा करने को प्रेम कहते हैं---पर प्यारे! तुम्हारा प्रेम इन दोनों से विलक्षण है, क्योंकि यह अमृत तो उसीको मिलता है जिसे तुम आप देते हो। ( कुछ ठहरकर ) हाय! किससे कहूँ, और क्या कहूँ, और क्यों कहूँ, और कौन सुने और सुने भी तो कौन समझे---हा!
जग जानत कौन है प्रेम-बिथा,
केहि सों चरचा या बियोग की कीजिए।
पुनि को कही मानै कहा समुझै कोउ
क्यौं बिन बात की रारहि लीजिए॥
नित जो 'हरिचंद जू' बीतै सहै,
बकिकै जग क्यौं परतीतहि छीजिए।
सब पूछत मौन क्यौं बैठि रही,
पिय प्यारे कहा इन्है उत्तर दीजिए॥
क्योकि---
मरम की पीर न जानत कोय।
कासों कहौं कौन पुनि मानै बैठि रहीं घर रोय॥
कोऊ जरनि न जाननहारी बे-महरम सब लोय।
अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी केहि समुझाऊँ सोय॥
लोक-लाज कुल की मरजादा दीनी है सब खोय।
'हरीचंद' ऐसेहि निबहैगी होनी होय सो होय॥
पहिले मुसुकाइ लजाइ कछु
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाइ बढाइकै प्रीति
निबाहन को क्यौं कलाम कियो।
'हरिचंद' भए निरमोही इते निज
नेह को यो परिनाम कियो।
मन मॉहि जो तोरन ही की हुती,
अपनाइकै क्यों बदनाम कियो॥
प्यारे, तुम बड़े निरमोही हो। हा! तुम्हें मोह भी नहीं आता? ( अॉख में ऑसू भरकर ) प्यारे, इतना तो वे नहीं सताते जो पहिले सुख देते हैं, तो तुम किस नाते इतना सताते हो? क्योकि--
जिय सूधी चितौन की साधै रही,
सदा बातन मैं अनखाय रहे।
हँसिकै 'हरिचंद' न बोले कभूँ,
जिय दूरहि सो ललचाय रहे॥
नहिं नेकु दया उर आवत है,
करिके कहा ऐसे सुभाय रहे।
सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले,
जिहिके बदले यों सताय रहे।
कित को ढरिगो वह प्यार सबै,
क्यों रुखाई नई यह साजत हौ।
'हरिचंद' भए हौ कहा के कहा,
अनबोलिबे में नहिं छाजत हौ॥
नित को मिलनो तो किनारे रह्यो,
मुख देखत ही दुरि भावत हौ॥
पहिले अपनाइ बढ़ाइकै नेह
न रूसिबे में अब लाजत हौ॥
प्यारे, जो यही गति करनी थी तो पहिले सोच लेते। क्योंकि--
तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं,
तुम्हैं सा कहा प्यारे सुनात नहीं।
बिरुदावली आपुनी राखौ मिलौ,
मोहि सोचिबे की कोउ बात नहीं॥
"हरिचंद जू' होनी हुती सो भई,
इन बातन सो कछू हात नहीं।
अपनावते सोच बिचारि तबै,
जलपान कै पूछनी जात नहीं॥
प्राणनाथ!---( आँखो में ऑसू उमड़ उठे ) अरे नेत्रो! अपने किए का फल भोगो।
धाइकै आगे मिलीं पहिले तुम,
कौन सो पूछिकै सो मोहि भाखौ।
त्यौं सब लाज तजी छिन मैं,
केहिके कहे एतौ कियो अभिलाखौ॥
काज बिगारि सबै अपना
'हरिचंद जू' धीरज क्यों नहिं राखौ।
क्यौं अब रोइकै प्रान तजौ,
अपने किए को फल क्यों नहिं चाखौ॥
हा!
इन दुखियान को न सुख सपने हू मिल्यौ,
योही सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।
प्यारे 'हरिचंद जू' की बीती जानि औध जौ पैं
जैहै प्रान तऊ ये तो साथ न समायँगी॥
देख्यौ एक बार हू न नैन भरि तोहि यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहीं पछितायँगी।
कित कों ढरिगो वह प्यार सबै,
क्यो रुखाई नई यह साजत हौ।
'हरिचंद' भए हौ कहा के कहा,
अनबोलिबे में नहिं छाजत हौ।
नित को मिलनो तो किनारे रह्यो,
मुख देखत ही दुरि भाजत हौ।
पहिले अपनाइ बढ़ाइकै नेह
न रूसिबे में अब लाजत है॥
प्यारे, जो यही गति करनी थी तो पहिले सोच लेते। क्योंकि---
तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं,
तुम्हैं सा कहा प्यारे सुनात नहीं।
बिरुदावली आपुनी राखौ मिलौ,
मोहि सोचिबे की कोउ बात नहीं॥
'हरिचंद जू' होनी हुती सो भई,
इन बातन सो कछू हात नहीं।
अपनावते सोच बिचारि तबै
जलपान कै पूछनी जात नहीं॥
प्राणनाथ!---( आँखो में ऑसू उमड़ उठे ) अरे नेत्रो! अपने किए का फल भोगो।
धाइकै आगे मिलीं पहिले तुम,
कौन सों पूछिकै सो मोहि भाखौ।
त्यौं सब लाज तजी छिन मैं,
केहिके कहे एतौ किया अभिलाखौ॥
काज बिगारि सबै अपनो
'हरिचंद जू' धीरज क्यौं नहिं राखौ।
क्यौं अब रोइकै प्रान तजौ,
अपुने किए को फल क्यौं नहिं चाखौ॥
हा!
इन दुखियान को न सुख सपने हू मिल्यौ,
योही सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।
प्यारे 'हरिचंद जू' की बीती जानि औध जौ पै
जैहैं प्रान तऊ ये तो साथ न समायँगी॥
देख्यौ एक बार हू न नैन भरि तोहि यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहीं पछितायँगी।
बिना प्रानप्यारे भए दरस तुम्हारे हाय,
देखि लीजौ अॉखै ये खुली ही रहि जायँगी॥
परंतु प्यारे, अब इनको दूसरा कौन अच्छा लगेगा जिसे देखकर यह धीरज धरेंगी, क्योकि अमृत पीकर फिर छाछ कैसे पियेंगी।
बिछुरे पिय के जग सूनो भयो,
अब का करिए कहि पेखिए का।
सुख छोड़िके संगम को तुम्हरे,
इन तुच्छन को अब लेखिए का॥
'हरिचंद जू' हीरन को व्यवहार कै
कॉचन कों लै परेखिए का।
जिन आँखिन में तुव रूप बस्यो,
उन आँखिन सों अब देखिए का॥
इससे नेत्र! तुम तो अब बंद ही रहो। ( आँचल से नेत्र छिपाती है )
( बनदेवी *, संध्या और वर्षा आती हैं )
संध्या---अरी बनदेवी! यह कौन ऑखिनैं मूँदिकै अकेली या निरजन बन मैं बैठि रही है?
- हरा कपड़ा, पत्ते का किरीट, फूलों की माला।
गहिरा नारंजी कपड़ा।
रंग साँवला, लाल कपड़ा। बन०---अरी का तू याहि नॉयँ जानै? यह राजा चंद्रभानु की बेटी चंद्रावली है।
वर्षा---तौ यहाँ क्यों बैठी है?
बन०---राम जानै। ( कुछ सोचकर ) अहा जानी! अरी, यह तो सदा ह्यॉई बैठी बक्यौ करैहै और यह तो या बन के स्वामी के पीछे बावरी होय गई है।
वर्षा---तौ चलौ यासूँ कछू पूछैं।
बन०---चल।
( तीनों पास जाती हैं )
बन०---( चंद्रावली के कान के पास ) अरी मेरी बन की रानी चंद्रावली! ( कुछ ठहरकर ) राम! सुनैहू नहीं है! ( और ऊँचे सुर से ) अरी मेरी प्यारी सखी चंद्रावली! ( कुछ ठहरकर ) हाय! यह तो अपुने सों बाहर होय रही है। अब काहे को सुनैगी। ( और ऊँचे सुर से ) अरी! सुनै नॉयनै री मेरी अलख लड़ैती चंद्रावली!
चंद्रा०---( आँख बंद किए ही ) हाँ हाँ अरी क्यों चिल्लाय है? चोर भाग जायगो---
बन०---कौन सो चोर?
चंद्रा०---माखन को चोर, चीरन को चोर और मेरे चित्त को चोर।
चंद्रा०---फेर बके जाय है, अरी मैंने अपनी ऑखिन मैं मूंदि राख्यौ है सो तू चिल्लायगी तो निकसि भागैगो।
( बनदेवी चंद्रावली की पीठ पर हाथ फेरती है )
चंद्रा०---( जल्दी से उठ, बनदेवी का हाथ पकड़कर ) कहो प्राणनाथ! अब कहाँ भागोगे?
( बनदेवी हाथ छुडाकर एक ओर वर्षा-संध्या दूसरी ओर वृक्षों के पास हट जाती हैं )
चंद्र०---अच्छा क्या हुआ, योंही हृदय से भी निकल जाओ तो जानूँ, तुमने हाथ छुड़ा लिया तो क्या हुआ मैं तो हाथ नहीं छोड़ने की। हा! अच्छी प्रीति निबाही!
( बनदेवी सीटी बजाती है )
चंद्रा०---देखो दुष्ट का, मेरा तो हाथ छुड़ाकर भाग गया, अब
न जानें कहाँ खड़ा बंसी बजा रहा है। अरे छलिया कहाँ छिपा है? बोल बोल कि जीते जी न बोलेगा! ( कुछ ठहरकर ) मत बोल, मैं आप पता लगा लूँगी। ( बन के वृक्षों से पूछती है ) अरे वृक्षो, बताओ तो मेरा लुटेरा कहाँ छिपा है? क्यों रे मोरो, इस समय नहीं बोलते? नहीं तो रात को बोल-बोल के प्राण खाए जाते थे। कहो न वह कहाँ छिपा है? ( गाती है ) अहो अहो बन के रूख कहूँ देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाइ कहौ वह कितै सिधारो॥
अहो कदंब अहो अंब-निंब अहो बकुल-तमाला।
तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुंदर नँदलाला॥
अहो कुंज बन लता बिरुध तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुँ श्याम मनोहर कहहु न मोसो॥
अहो जमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि।
तुम देखे कहुँ प्रानपियारे मनमोहन हरि॥
( एक एक पेड़ से जाकर गले लगती है। बनदेवी फिर सीटी बजाती है )
चंद्रा०---अहा! देखो उधर खड़े प्राणप्यारे मुझे बुलाते हैं, तो चलो उधर ही चलें। ( अपने आभरण सँवारती है )
( वर्षा और संध्या पास आती हैं )
व०---( हाथ पकड़कर )
कहाँ चली सजि कै?---
चंद्रा०---पियारे सो मिलन काज,---
व०---कहाँ तू खड़ी है?---
चंद्रा०---प्यारे ही को यह धाम है।
व०---कहा कहै मुख सों?---
चंद्रा०---पियारे प्रान प्यारे--व०---कहा काज है?---
चंदा०---पियारे सो मिलन मोहि काम है॥
व०---मैं हूँ कौन बोल तौ?---
चंद्रा०---हमारे प्रानप्यारे हो न?---
व०---तू है कौन?---
चंद्रा०---पीतम पियारे मेरो नाम है।
संध्या---( आश्चर्य से ) पूछत सखी कै एकै उत्तर बतावति जकी सी एक रूप आज श्यामा भई श्याम है॥
( बनदेवी आकर चंद्रावली की पीछे से अँखि बंद करती है )
चंद्रा०---कौन है कौन है?
बन०---मैं हूँ।
चंद्रा०---कौन तू है?
बन०---( सामने आकर ) मैं हूँ, तेरी सखी वृंदा।
चंद्रा०---तो मैं कौन हूँ?
बन०---तू तो मेरी प्यारी सखी चंद्रावली है न? तू अपने हू को भूल गई।
चंद्रा०---तो हम लोग अकेले बन में क्या कर रही है?
बन०---तू अपने प्राणनाथै खोजि रही है न?
चंद्रा०---हा! प्राणनाथ! हा! प्यारे! प्यारे अकेले छोड़के कहाँ चले गए? नाथ! ऐसी ही बदी थी! प्यारे यह धन इसी बिरह का दुःख करने के हेतु बना है कि तुम्हारे साथ बिहार करने को? हा!
जो पै ऐसिहि करन रही।
तो फिर क्यों अपने मुख सों तुम रस की बात कही॥
हम जानी ऐसिहि बीतैगी जैसी बीति रही।
सो उलटी कीनी बिधिना ने कछू नाहिं निबही॥
हमैं बिसारि अनत रहे मोहन औरै चाल गही।
'हरीचंद' कहा को कहा वै गयो कछु नहिं जात कही॥
( रोती है )
बन०---( आँखों में आँसू भरके ) प्यारी! अरी इतनी क्यों घबराई जाय है, देख तो यह सखी खड़ी हैं सो कहा कहैंगी।
चंद्रा०---ये कौन हैं?
बन०---( वर्षा को दिखाकर ) यह मेरी सखी वर्षा है।
चंद्रा०---यह वर्षा है तो हा! मेरा वह आनंद का धन कहाँ है? हा! मेरे प्यारे! प्यारे कहाँ बरस रहै हौ? प्यारे गरजना इधर और बरसना और कहीं?
बलि सॉवरी सूरत मोहनी मूरत
ऑखिन को कबौं आइ दिखाइए।
चातक सी मरै प्यासी परीं
इन्हैं पानिप रूप सुधा कबौं प्याइए॥
पीत पटै बिजुरी से कबौं
'हरिचंद जू' धाइ इतै चमकाइए।
इतहू कबौं आइकै आनंद के धन
नेह को मेह पिया बरसाइए॥
प्यारे! चाहे गरजो चाहे लरजो, इन चातकों की तो तुम्हारे बिना और गति ही नहीं है, क्योंकि फिर यह कौन सुनेगा कि चातक ने दूसरा जल पी लिया; प्यारे! तुम तो ऐसे करुणा के समुद्र हो कि केवल हमारे एक जाचक के मॉगने पर नदी-नद भर देते हो तो चातक के इस छोटे चंचु-पुट भरने में कौन श्रम है क्योंकि प्यारे हम दूसरे पक्षी नहीं हैं कि किसी भॉति प्यास बुझा लेंगे हमारे तो हे श्याम घन, तुम्ही अवलंब हौ; हा!
( नेत्रों में जल भर लेती है और तीनों परस्पर चकित होकर देखती हैं )
बन०---सखी, देखि तौ कछू इनकी हू सुन कछू इनकी हू लाज कर। अरी, यह तो नई आई हैं ये कहा कहैंगी?
संध्या---सखी, यह कहा कहैहै हम तो याको प्रेम देखि बिन मोल की दासी होय रही हैं और तू पंडिताइन बनिकै ज्ञान छॉटि रही है।
चंद्रा०---प्यारे! देखो ये सब हँसती हैं---तो हँसें, तुम आओ, कहाँ बन में छिपे हो? तुम मुँह दिखलायो, इनको हँसने दो। धोरन दीजिए धीर हिए कुलकानि को आजु बिगारन दीजिए।
मार दीजिए लाज सबै 'हरिचंद' कलंक पसारन दीजिए॥
चार चवाइन कों चहुँ ओर सों सोर मचाइ पुकारन दीजिए।
छॉडि सँकोचन चंद-मुखै भरि लोचन आजु निहारन दीजिए॥
क्योंकि---
ये दुखियों सदा रोयो करै बिधना इनको कबहूँ न दियो सुख।
झूठहीं चार चवाइन के डर देख्यौ कियो उनहीं को लिये रुख॥
छॉड़यौ सबै 'हरिचंद' तऊ न गयो जिय सों यह हाय महा दुख।
प्रान बचै केहि भॉतिन सो तरसै जब दूर सों देखिबे कों मुख॥
( रोती है )
बन०---( ऑसू अपने आँचल से पोछकर ) तौ ये यहाँ नाँय रहिबे की, सखी एक घड़ी धीरज धर जब हम चली जाँय तब जो चाहियो सो करियो।
चंद्रा०---अरी सखियो मोहि छमा करियो, अरी देखौ तो तुम मेरे पास आईं और हमने तुमारो कछू सिस्टाचार न कियो। ( नेत्रों में ऑसू भरकर हाथ जोड़कर ) सखी, माहि छमा करियो और जानियो कि जहाँ मेरी बहुत सखी हैं उनमैं एक ऐसी कुलच्छिनी हू है।
संध्या और वर्षा---नहीं नहीं सखी, तू तो मेरी प्रानन सों हू प्यारी है, सखी हम सच कहैं तेरी सी सॉची प्रेमिन एक हू न देखी, ऐसे तो सबी प्रेम करै पर तू सखी धन्य है। चंद्रा०---हाँ सखी, और ( संध्या को दिखाकर ) या सखी को नाम का है?
बन०---याको नाम संध्या है।
चंद्रा०---( घबड़ाकर ) संध्यावली आई? क्या कुछ सँदेसा लाई? कहो कहो प्राणप्यारे ने क्या कहा? सखी बड़ी देर लगाई। ( कुछ ठहर कर ) संध्या हुई? संध्या हुई? तो वह बन से आते होंगे। सखियो, चलो झरोखों में बैठें, यहाँ क्यों बैठी हौ।
( नेपथ्य में चंद्रोदय होता है; चंद्रमा को देखकर )
अरे अरे वह देखो आया
( उँगली से दिखाकर )
देख सखी देख अनमेख ऐसो भेख यह
जाहि पेख तेज रबिहू को मंद ह्वै गयो।
'हरीचंद' ताप सब जिय को नसाइ चित
आनँद बढाइ भाइ अति छबि सों छयो॥
ग्वाल-उडुगन बीच बेनु को बजाइ सुधा---
रस बरखाइ मान-कमल लजा दयो।
गोरज-समूह-घन-पटल उघारि वह
गोप-कुल-कुमुद-निसाकर उदै भयो।
चलो चलो उधर चलो। ( उधर दौड़ती है ) बन०---( हाथ पकड़कर ) अरी बावरी भई है, चंद्रमा निकस्यो है कै वह बन सों आवै है? चद्रा०---( घबड़ाकर ) का सूरज निकस्यो? भोर भयो। हाय! हाय! हाय! या गरमी में या दुष्ट सूरज की तपन कैसें सही जायगी। अरे भोर भयो, हाय भोर भयो! सब रात ऐसे ही बीत गई, हाय फेर वही घर के ब्यौहार चलेंगे, फेर वही नहानो, वही खानो, वेई बातें, हाय!
केहि पाप सो पापी न प्रान चलै,
अटके कित कौन बिचार लयो।
नहिं जानि परै 'हरिचंद' कछू
बिधि ने हम सों हठ कौन ठयो॥
निसि आजहू की गई हाय बिहाय
पिया बिनु कैसे न जीव गयो।
हत-भागिनी आँखिन को नित के
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो।
तो चलो घर चलें। हाय हाय! मॉ सो कौन बहाना करूँगी, क्योंकि वह जात ही पूछैगी कि सब रात अकेली बन मैं कहा करती रही। ( कुछ ठहर कर ) पर प्यारे! भला यह तो बताओ कि तुम आज की रात कहाँ रहे? क्यों देखो तुम हमसे झूठ बोले न! बड़े झूठे हौ, हा! अपनों से तो झूठ मत बोला करो, आओ आओ अब तो आओ। आओ मेरे झूठन के सिरताज।
छल के रूप कपट की मूरत मिथ्याबाद-जहाज॥ क्यौं परतिज्ञा करी रह्यौ जो ऐसो उलटो काज।
पहिले तो अपनाइ न आवत तजिबे में अब लाज॥
चलो हटो बड़े झूठे हो।
आओ मेरे मोहन प्यारे झूठे।
अपनी टारि प्रतिज्ञा कपटी उलटे हम सो रूठे॥
मति परसौ तन रँगे और के रंग अधर तुव जूठे।
ताहू पै तनिकौ नहिं लाजत निरलज अहो अनूठे॥
पर प्यारे बताओ तो तुम्हारे बिना रात क्यो इतनी बढ़ जाती है?
काम कछु नहिं यासों हमैं,
सुख सों जहाँ चाहिए रैन बिताइए।
पै जो करें बिनती 'हरिचन्द जू'
उत्तर ताको कृपा कै सुनाइए॥
एक मतो उनसों क्यों कियो तुम
सोऊ न आवै जो आप न आइए।
रूसिबे सों पिय प्यारे तिहारे
दिवाकर रूसत है क्यों बताइए॥
जाओ जाओ मैं नहीं बोलती। ( एक वृक्ष की आड़ में दौड़ जाती है)
तीनों---भई यह तो बावरी सी डोले, चलो हम सब वृक्ष की छाया में बैठें। ( किनारे एक पास ही तीनों बैठ जाती हैं ) हे कोकिल-कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी।
क्यौं नहिं बोलहु तहीं जाय जहँ हरि बड़भागी॥
हे पपिहा तुम पिउ पिउपिय पिय रटत सदाई।
अाजहु क्यौं नहिं रटि रटि के पिय लेहु बुलाई॥
अहे भानु तुम तो घर-घर में किरिन प्रकासो।
क्यौं नहिं पियहिं मिलाइ हमारो दुख-तम नासा॥
हाय!
कोउ नहिं उत्तर देत भए सबही निरमोही।
प्रानपियारे अब बोलौ कहाँ खोजौं तोही॥
( चंद्रमा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते हैं )
( स्मरण करके ) हाय! मैं ऐसी भूली हुई थी कि रात को दिन बतलाती थी, अरे मैं किसको ढूँढ़ती थी? हा! मेरी इस मूर्खता पर उन तीनों सखियो ने क्या कहा होगा। अरे यह तो चंद्रमा था जो बदली की ओट में छिप गया। हा! यह हत्यारिन बरषा रितु है, मैं तो भूल ही गई थी। इस अँधेरे में मार्ग तो दिखाता ही नहीं, चलूँगी कहाँ और घर कैसे पहुँचूँगी? प्यारे देखो, जो-जो तुम्हारे मिलने में सुहावने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गए। हा! जो बन आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। देखो सब कुछ है एक तुम्हीं नहीं हौ। ( नेत्रों से आँसू गिरते हैं ) प्यारे! छोड़ के कहाँ चले गए? नाथ! ऑखें बहुत प्यासी हो रही हैं इनको रूप-सुधा कब पिलाओगे? प्यारे, बेनी की लट बँध गई है इन्हें कब सुलझाओगे? ( रोती है ) नाथ, इन आँसुत्रों को तुम्हारे बिना और कोई पोछनेवाला भी नहीं है। हा! यह गत तो अनाथ की भी नहीं होती। अरे बिधिना! मुझे कौन सा सुख दिया था जिसके बदले इतना दुःख देता है, सुख का तो मैं नाम सुनके चौंक उठती थी और धीरज धर के कहती थी कि कभी तो दिन फिरेंगे सेा अच्छे दिन फिरे। प्यारे, बस बहुत भई अब नहीं सही जाती। मिलना हो तो जीते जी मिल जाओ। हाय! जो भर ऑखों देख भी लिया होता तो जी का उमाह निकल गया होता। मिलना दूर रहे, मैं तो मुंह देखने को तरसती थी, कभी सपने में भी गले न लगाया, जब सपने में देखा तभी घबड़ा कर चौंक उठी। हाय! इन घरवालों और बाहरवालो के पीछे कभी उनसे रो-रोकर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर जाता। लो घरवालो और बाहरवालो! व्रज को सम्हालो मैं तो अब यहीं....( कंठ गद्गद होकर रोने लगती है ) हाय रे निठुर! मैं ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन बादलो की ओर देख के तो मिलता। इस ऋतु में तो परदेसी भी अपने घर आ जाते हैं पर तू न मिला। हा! मैं इसी दुख को देखने को जीती हूँ कि बरषा आवे और तुम न आओ। हाय! फेरे बरषा आई, फेर पत्ते हरे हुए, फेर कोइल बोली, पर प्यारे तुम न मिले। हाय! सब सखियाँ हिंडोले झूलती होंगी, पर मैं किसके संग भूलूँ, क्योकि हिंडोला मुलाने वाले मिलेंगे, पर आप भींजकर मुझे बचाने वाला और प्यारी कहनेवाला कौन मिलेगा? ( रोती है ) हा! मैं बड़ी निर्लज हूँ। अरे प्रेम! मैंने प्रेमिन बनकर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूँ, इन प्रानो को अब न जाने कौन लाहे लूटने हैं कि नहीं निकलते। अरे कोई देखो, मेरी छाती वज्र की तो नहीं है कि अब तक ( इतना कहते ही मूर्छा खाकर ज्योही गिरा चाहती है उसी समय तीनो सखियाँ आकर सम्हालती हैं )
( जवनिका गिरती है )
प्रियान्वेषण नामक दूसरा अंक समाप्त