भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/उपसंहार-क

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ५३७ ]

उपसंहार---( क )

इस नाटक में आदि, अंत तथा अंकों के विश्रामस्थल में रंगशाला में ये गीत गाने चाहिएँ। यथा----

सबके पूर्व मंगलाचरण में।

( ध्रुवपद चौताला )

जय जय जगदीस राम, श्याम-धाम पूर्ण-काम,
आनँदघन ब्रह्म विष्णु, सत्-चित-सुखकारी।
कंस-रावनादि-काल, सतत-प्रन्त भक्त-पाल,
सोभित - गल - मुक्तमाल, दीनतापहारी॥
प्रेमभरन पापहरन, असरन-जन-सरन-चरन,
सुखहि-करन दुखहि-दरन, वृंदावनचारी।
रमावास जगनिवास, राम रमन समनवास,
विनवत 'हरिचंद' दास, जयजय गिरिधारी॥

( प्रस्तावना के अंत में प्रथम अंक के आरंभ में। चाल लखनऊ की ठुमरी "शाहजादे आलम तेरे लिये" इस चाल की )

जिनके हितकारक पंडित हैं तिनकों कहा सत्रुन को डर है।
समुझैं जग मैं सब नीतिन्ह जो तिन्हैं दुर्ग विदेस मनो घर है।

[ ५३८ ]

जिन मित्रता राखी है लायक सों तिनको तिनकाहू महा सर है।
जिनकी परतिज्ञा टरै न कबौं तिनकी जय ही सब ही थर है॥

( पहले अंक की समाप्ति और दूसरे अंक के आरंभ में )

जग मैं घर की फूट बुरी।
घर के फूटहि सो बिनसाई सुबरन लंकपुरी॥
फूटहि सों सब कौरव नासे भारत जुद्ध भयो।
जाको घाटो या भारत मैं अबलौं नहिं पुजयो॥
फूटहि सो जयचंद बुलायो जवनन भारत धाम।
जाको फल अबलौं भोगत सब आरज होइ गुलाम॥
फूटहि सों नव नंद बिनासे गयो मगध को राज।
चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ आपु नसे सह साज॥
जो जग मैं धन मान और बल अपुनो राखन होय।
तो अपने घर मैं भूलेहू फूट करौ मति कोय॥

( दूसरे अंक की समाप्ति और तीसरे अक के आरंभ में )

जग मैं तेई चतुर कहावै।
जे सब बिधि अपने कारज को नीकी भाँति बनावै॥
पढ्यौ लिख्यौ किन होइ जु पै नहिं कारज साधन जानै।
ताही को मूरख या जग मैं सब कोऊ अनुमानै॥
छल मैं पातक होत जदपि यह शास्त्रन मैं बहु गायो।
पै अरि सों छल किए दोष नहि मुनियन यहै बतायो॥


भा० ना०---२८ [ ५३९ ]

( तीसरे अंक की समाप्ति और चौथे अंक के आरंभ में )

ठुमरी

तिनको न कछू कबहूँ बिगरै, गुरु लोगन को कहनो जे करैं।
जिनको गुरु पंथ दिखावत हैं ते कुपंथ पै भूलि न पाँव धरैं॥
जिनकों गुरु रच्छत आप रहैं ते बिगारे न बैरिन के बिगरैं।
गुरु को उपदेस सुनौ सब ही, जग कारज जासों सबै सँभरै॥

( चौथे अंक की समाप्ति और पाँचवें अंक के आरभ में )

पूरबी

करि मूरख मित्र मिताई, फिर पछितैहौ रे भाई।
अंत दगा खैहौ सिर धुनिहौ रहिहौ सबै गँवाई॥
मूरख जो कछु हितहु करै तो तामैं अंत बुराई।
उलटो उलटो काज करत सब दैहै अंत नसाई॥
लाख करौ हित मूरख सों पैताहि न कछु समुझाई।
अंत बुराई सिर पै पेहै रहि जैहो मुँह बाई॥

फिर पछितैहो रे भाई॥

( पाँचवे अक की समाप्ति और छठे अक के आरंभ में )

[ काफी ताल होली का ]

छलियन सों रहो सावधान नहिं तो पछताओगे।
इनकी बातन मैं फँसि रहिहौ सबहि गँवाओगे॥
स्वारथ लोभी जन सो आखिर दगा उठाओगे।
तब सुख पैहौ जब सॉचन सों नेह बढ़ायोगे॥

छलियन सो०॥

[ ५४० ]

(छठे अंक की समाति और सातवें अंक के आरंभ में)

['जिनके मन में सिय राम बसें' इस धुन की]

जग सूरज चंद टरै तो टरै पै न सज्जन-नेहु कबौं बिचले।
धन संपति सर्बस गेह नसौ नहिं प्रेम की मेड़ सो एड़ टलै॥
सतवादिन को तिनका सम प्रान रहै तो रहै वा ढलै तो ढलै।
निज मीत की प्रीत प्रतीत रहौ इक और सबै जग जाउ भलै॥

(अंत में गाने को)

[विहाग—श्लोक के अर्थ के अनुसार]

हरौ हरि-रूप सबै जग-बाधा।
जा सरूप सों धरनि उधारी निज जन कारज साधा॥
जिमि तव दाढ़ अग्र लै राखी महि हति असुर गिरायो।
कनक-दृष्टि म्लेच्छन हूँ तिमि किन अब लौं मारि नसायो॥
आरज राज रूप तुम तासों मॉगत यह बरदाना।
प्रजा कुमुद्गन चंद्र नृपति को करहु सकुल कल्याना॥

[बिहाग ठुमरी]

पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओ सदा विकटोरिया रानी।
सूरज चंद प्रकास करै जब लौं रहै सात हू सिंधु मैं पानी॥
राज करौ सुख सों तब लौं निज पुत्र औ पौत्र समेत सयानी।
पालौ प्रजागन कों सुख सों जग कीरति-गान करैं गुन गानी॥

[कलिंगड़ा]

लहौ सुख सब बिधि भारतवासी।
विद्या कला जगत की सीखौ तजि आलस की फाँसी॥

[ ५४१ ]

अपनो देस धरम कुल समुझहु छोड़ि वृत्ति निज दासी।
उद्यम करिकै होहु एकमति निज बल बुद्धि प्रकासी॥
पंचपीर की भगति छोड़ि के ह्वै हरिचरन उपासी।
जग के और नरन सम येऊ होउ सबै गुनरासी॥