भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/उपसंहार-ख

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ५४२ ]

उपसंहार----( ख )

इस नाटक के विषय में विलसन साहिब लिखते हैं कि यह नाटक और नाटकों से अति विचित्र है, क्योंकि इसमें संपूर्ण राजनीति के व्यवहारो का वर्णन है। चंद्रगुप्त ( जो यूनानी लोगो का सैद्रोकोत्तस Sandrocottus है ) और पाटलिपुत्र ( जो यूरप की पालीबोत्तरा Palibothra है ) के वर्णन का ऐतिहासिक नाटक होने के कारण यह विशेष दृष्टि देने के योग्य है।

इस नाटक का कवि विशाखदत्त, महाराज पृथु का पुत्र और सामंत वटेश्वरदत्त का पौत्र था। इस लिखने से अनुमान होता है कि दिल्ली के अंतिम हिंदूराजा पृथ्वीराज चौहान ही का पुत्र विशाखदत्त है, क्योकि अंतिम श्लोक से विदेशी शत्रु की जय की ध्वनि पाई जाती है, भेद इतना ही है कि रायसे में पृथ्वीराज के पिता का नाम सोमेश्वर और दादा का आनंद लिखा है। मैं यह अनुमान करता हूँ कि सामंत वटेश्वर इतने बड़े नाम को कोई शीघ्रता में या लघु करके कहे तो सोमेश्वर हो सकता है और संभव है कि चंद ने भाषा में सामंत वटेश्वर को ही सोमेश्वर लिखा हो। [ ५४३ ]मेजर विल्फर्ड ने मुद्राराक्षस के कवि का नाम गोदावरी-तीर-निवासी अनंत लिखा है, किंतु यह केवल भ्रममात्र है। जितनी प्राचीन पुस्तके उत्तर वा दक्षिण में मिलीं, किसी में अनंत का नाम नहीं मिला है।

इस नाटक पर वटेश्वर मैथिल पंडित की एक टीका भी है। कहते हैं कि गुहसेन नामक किसी अपर पंडित की भी एक टीका है, किंतु देखने में नहीं आई। महाराज तंजौर के पुस्तकालय में व्यासराज यज्वा की एक टीका और है।

चंद्रगुप्त * की कथा विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों में और बृहत्कथा में वर्णित है। कहते हैं कि विकटपल्ली के राजा चंद्रदास का उपाख्यान लोगों ने इन्हीं कथाओं से निकाल लिया है।

महानंद अथवा महापद्मनंद भी शूद्रा के गर्भ से था, और कहते हैं कि चंद्रगुप्त इसकी एक नाइन स्त्री के पेट से पैदा हुआ था। यह पूर्वपीठिका में लिख पाए है कि इन लोगो की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस पाटलिपुत्र ( पटने ) के विषय में यहाँ कुछ लिखना अवश्य हुआ। सूर्यवंशी सुदर्शन राजा की


  • प्रियदर्शी, प्रियदर्शन, चन्द्र, चंद्रगुप्त, श्रीचंद्र, चंद्रश्री, मौर्य यह

सब चद्रगुप्त के नाम हैं; और चाणक्य, विष्णुगुप्त, द्रोमिल वा द्रोहिण, अशुल, कौटिल्य यह सब चाणक्य के नाम हैं।

सुदर्शन, सहस्रबाहु अर्जुन का भी नामांतर था, किसी किसी ने भ्रम से पाटली को शूद्रक की कन्या लिखा है। [ ५४४ ]पुत्री पाटली ने पूर्व में इस नगर को बसाया। कहते हैं कि कन्या को वंध्यापन के दुःख और दुर्नाम से छुड़ाने को राजा ने एक नगर बसाकर उसका नाम पाटलिपुत्र रख दिया था। वायुपुराण में "जरासंध के पूर्वपुरुष वसु राजा ने बिहार प्रांत का राज्य संस्थापन किया" यह लिखा है। कोई कहते हैं कि "वेदों में जिस वसु के यज्ञों का वर्णन है वही राज्यगिरि राज्य का संस्थापक है।" जो लोग चरणाद्रि को राज्यगृह का पर्वत बतलाते हैं उनको केवल भ्रम है। इस राज्य का प्रारंभ चाहे जिस तरह हुआ हो पर जरासंध ही के समय से यह प्रख्यात हुआ। मार्टिन साहब ने जरासंध ही के विषय में एक अपूर्व कथा लिखी है। वह कहते हैं कि जरासंध दो पहाड़ियो पर दो पैर रखकर द्वारका में जब स्त्रियाँ नहाती थीं तो ऊँचा होकर उनको घूरता था। इसी अपराध पर श्रीकृष्ण ने उसको मरवा डाला।

मगध शब्द मग से बना है। कहते है कि "श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने शाकद्वीप से मग जाति के ब्राह्मणो को अनुष्ठान करने को बुलाया था और वे जिस देशमें बसे उसकी मगध संज्ञा हुई।" जिन अँगरेज विद्वानो ने 'मगध देश' शब्द को मद्ध ( मध्यदेश ) का अपभ्रंश माना है उन्हे शुद्ध भ्रम हो गया है जैसा कि मेजर विल्फर्ड पालीबोत्रा को राजमहल के पास गंगा और कोसीके संगम पर बतलाते और पटने का शुद्ध नाम पद्मावती कहते हैं। यो तो पाली इस नाम के कई शहर हिंदुस्तान में प्रसिद्ध हैं किंतु पालीबोत्रा पाटलिपुत्र [ ५४५ ]ही है। सोन के किनारे मावलीपुर एक स्थान है जिसका शुद्ध नाम महाबलीपुर है। महाबली नंद का नामांतर भी है, इसी से और वहाँ प्राचीन चिह्न मिलने से कोई-कोई शंका करते हैं कि बलीपुर वा बलीपुत्र का पालीबात्रा अपभ्रंश है, किंतु यह भी भ्रम ही है। राजाओ के नाम से अनेक ग्राम बसते हैं इसमें कोई हानि नहीं, किंतु इन लोगों की राजधानी पाटलिपुत्र ही थी।

कुछ विद्वानो का मत है कि मग लोग मिश्र से आए और यहाँ आकर Isiris और Osiris नामक देव और देवी की पूजा प्रचलित की। यह दोनो शब्द ईश और ईश्वरी के अपभ्रंश बोध होते हैं। किसी पुराण में "महाराज दशरथ ने शाक-द्वीपियों को बुलाया" यह लिखा है। इस देश में पहले कोल और चेरु ( चोल ) लोग बहुत रहते थे। शुनक और अजक इस वंश में प्रसिद्ध हुए। कहते हैं कि ब्राह्मणो ने लड़कर इन दोनों को निकाल दिया। इसी इतिहास से भुइँहार जाति का भी सूत्रपात होता है और जरासंध के यज्ञ से भुइँहारो की उत्पत्तिवाली किंवदंती इसका पोषण करती है। बहुत दिन तक ये युद्धप्रिय ब्राह्मण यहाँ राज्य करते रहे। किंतु एक जैन पंडित 'जो ८०० वर्ष ईसामसीह के पूर्व हुआ है' लिखता है कि इस देश के प्राचीन राजा को मग नामक राजा ने जीतकर निकाल दिया। कहते हैं कि बिहार के पास बारागंज में इसके किले का चिह्न भी है। यूनानी विद्वानो और वायु पुराण के मत से उद्याश्व [ ५४६ ]ने मगधराज संस्थापन किया। इसका समय ५५० ई० पू० बतलाते हैं और चंद्रगुप्त को इससे तेरहवाँ राजा मानते हैं। यूनानी लोगो ने सेान का नाम Erannobaos ( इरन्नोबाओस ) लिखा है, यह शब्द हिरण्यवाह का अपभ्रंश है। हिरण्यवाह, स्वर्णनद और शोण का अपभ्रंश सोन है। मेगास्थनीज अपने लेख में पटने के नगर को ८० स्टेडिया ( आठ मील ) लंबा और १५ चौड़ा लिखता है, जिससे स्पष्ट होता है कि पटना पूर्वकाल ही से लंबा नगर है*| उसने उस समय नगर के चारो ओर ३० फुट गहरी खाई, फिर ऊँची दीवार और उसमें ५७० बुर्ज और ६४ फाटक लिखे हैं। यूनानी लोग जो इस देश को ( Prassi ) प्रास्सि कहते हैं वह


  • जिस पटने का वर्णन उस काल के यूनानियों ने उस समय इस

धूम से किया है उपकी वर्तमान स्थिति यह है। पटने का जिला २४ ५८ से ५ ४२ लैटि० और ८४ ४४ से २६ ०५ लौंगि० पृथ्वी २१०१ मील समचतुष्कोण १५५९६३८ मनुष्य-सख्या। पटने की सीमा उत्तर गंगा, पश्चिम सोन, पूर्व मुंँगेर का जिला और दक्षिण गया का जिला। नगर की बस्ती अब सवा तीन लाख मनुष्य और बावन हजार घर हैं। साढ़े आठ लाख मन के लगभग बाहर से प्रति वर्ष यहाँ माल आता और पाँच लाख मन के लगभग जाता है। हिदुओं में छः जातियाँ यहाँ विशेष हैं। यथा एक लाख अस्सी हजार ग्वाला, एक लाख सत्तर हजार कुनबी, एक लाख सत्रह हजार भुइँहार, पचासी हजार चमार, अस्सी हजार कोइरी और आठ हजार राजपूत। अब दो लाख के आसपास मुसलमान पटने के जिले में बसते हैं। [ ५४७ ]पलाशी का अपभ्रंश बोध होता है, क्योकि जैनग्रंथों में उस भूमि के पलाशवृक्ष से आच्छादित होने का वर्णन देखा गया है।

जैन और बौद्धो से इस देश से और भी अनेक संबंध हैं। मसीह के छः सौ बरस पहले बुद्ध पहले पहल राजगृह ही में उदास होकर चले गए थे। उस समय इस देश की बड़ी समृद्धि लिखी है और राजा का नाम बिंबिसार लिखा है। ( जैन लोग अपने बीसवे तीर्थेकर सुर्बत स्वामी का राजगृह में कल्याणक भी मानते हैं )। बिंबिसार ने राजधानी के पास ही इनके रहने को कलद नामक बिहार भी बना दिया था। फिर अजातशत्रु और अशोक के समय में भी बहुत से स्तूप बने। बौद्धों के बड़े-बड़े धर्मसमाज इस देश में हुए। उस काल में हिंदू लोग इस बौद्ध धर्म के अत्यंत विद्वेषी थे। क्या आश्चर्य है कि बुद्धों के द्वेष ही से मगध देश को इन लोगो ने अपवित्र ठहराया हो और गौतम की निंदा ही के हेतु अहल्या की कथा बनाई हो।

भारत-नक्षत्र नक्षत्री राजा शिवप्रसाद साहब ने अपने इतिहास-तिमिरनाशक के तीसरे भाग में इस समय और देश के विषय में जो लिखा है वह हम पीछे प्रकाशित करते हैं। इससे बहुत सी बातें उस समय की स्पष्ट हो जायँगी।

प्रसिद्ध यात्री हिआनसॉग सन् ६३७ ई० में जब भारत[ ५४८ ]वर्ष में आया था तब मगध देश हर्षवर्धन नामक कन्नौज के राजा के अधिकार में था। किंतु दूसरे इतिहास-लेखक सन् २०० से ४०० तक बौद्ध कर्णवंशी राजाओं को मगध का राजा बतलाते हैं और अंध्रवंश का भी राज्यचिह्न संभलपुर में दिखलाते हैं।

सन् १२९२ ई० में पहले इस देश में मुसलमानो का राज्य हुआ। उस समय पटना बनारस के बंदावत राजपूत राजा इंद्रदमन के अधिकार में था। सन् १२२५ में अलतिमश ने गयासुद्दीन को मगध प्रांत का स्वतंत्र सूबेदार नियत किया। इसके थोड़े ही काल पीछे फिर हिंदू लोग स्वतंत्र हो गए। फिर मुसलमानो ने लड़कर अधिकार किया सही, किंतु झगड़ा नित्य होता रहा, यहाँ तक कि सन् १३९३ में हिंदू लोग स्वतंत्र रूप में फिर यहाँ के राजा हो गए और तीसरे महमूद की बड़ी भारी हार हुई। यह दो सौ बरस का समय भारतवर्ष का पैलेस्टाइन का समय था। इस समय में गया के उद्धार के हेतु कई महाराणा उदयपुर के देश को छोड़कर लड़ने आए*।


  • गया के भूगोल में पडित शिवनारायण त्रिवेदी भी लिखते हैं---

"औरगाबाद से तीन कोस अग्निकोण पर देव बडी भारी बस्ती है। यहाँ श्रीभगवान् सूर्यनारायण का बड़ा भारी संगीन पश्चिम रुख का मंदिर है। यह मंदिर देखने से बहुत प्राचीन जान पडता है। यहाँ कातिक और चैत की छठ को बडा मेला लगता है। दूर दूर के लोग यहाँ आते और अपने लडकों के मुंडन-छेदन आदि की मनौती उतारते हैं। मदिर [ ५४९ ]ये और पंजाब से लेकर गुजरात दक्षिण तक के हिंदू मगध देश में जाकर प्राणत्याग करना बड़ा पुण्य समझते थे। प्रजापाल नामक एक राजा ने सन् १४०० के लगभग बीस बरस मगध देश को स्वतंत्र रखा। किंतु आर्य्यमत्सरी दैव ने यह स्वतंत्रता स्थिर नहीं रखी और पुण्यधाम गया फिर मुसलमानों के अधिकार में चला गया। सन् १४७८ तक यह प्रदेश जौनपुर के बादशाह के अधिकार में रहा। फिर बहलूलवंश ने इसको जीत लिया था, किंतु १४९१ में हुसेनशाह ने फिर


से थोडी दूर दक्खिन बाजार के पूरब ओर सूर्यकुंड का तालाब है। इस तालाब से सटा हुआ और एक कच्चा तालाब है उसमें कमल बहुत फूलते हैं। देव राजधानी है। यहाँ के राजा महाराजा उदयपुर के घराने के मडियार राजपूत हैं। इस घराने के लोग सिपाहगरी के काम मे बहुत प्रसिद्ध होते आए हैं। यहाँ के महाराज श्रीजयप्रकाशसिह के० सी० एस० आई० बड़े शूर सुशील और उदार मनुष्य थे। यहाँ से दो कोस दक्खिन कंचनपुर में राजा साहिब का बाग और मकान देखने लायक बना है। देव से तीन कोस पूरब उमगा एक छोटी सी बस्ती है, उसके पास पहाड के ऊपर देव के सूर्यमंदिर के ढङ्ग का एक महादेव का मदिर है। पहाड के नीचे एक टूटा गढ़ भी देख पडता है। जान पडता है कि पहले राजा देव के घराने के लोग यहाँ ही रहते थे, पीछे देव में बसे। देव और उमगा दोनों इन्हीं की राजधानी थी, इससे दोनों नाम साथ ही बोले जाते हैं ( देवमूँगा )। तिल-सक्राति को उमगा में बडा मेला लगता है।" इससे स्पष्ट हुआ कि उदयपुर से जो राणा लोग आए उन्ही के खानदान में देव के राजपूत हैं। और बिहारदर्पण से भी यह बात पाई जाती है कि मड़ियार लोग मेवाड से आए हैं। [ ५५० ]जीत लिया। इसके पीछे बंगाल के पठानो से और जौनपुरवालों से कई लड़ाई हुईं और सन् १४९४ में दोनो राज्य में एक सुलहनामा हो गया। इसके पीछे सूर लोगो का अधिकार हुआ और शेरशाह ने बिहार छोड़कर पटने को राजधानी किया। सूरो के पीछे क्रमान्वय से ( १५७५ ई० ) यह देश मुग़लो के अधीन हुआ और अंत में जरासंघ और चंद्रगुप्त की राजधानी पवित्र पाटलिपुत्र ने आर्य वेश और प्रार्य नाम परित्याग करके औरंगजेब के पोते अजीमशाह के नाम पर अपना नाम अजीमाबाद प्रसिद्ध किया। ( १६९७ ई०) बंगाले के सूबेदारो में सबसे पहले सिराजुद्दौला ने अपने को स्वतंत्र समझा था किंतु १७५७ ई० की पलासी की लड़ाई में मीर जाफर अंगरेज़ो के बल से बिहार, बंगाला और उड़ीसा का अधिनायक हुआ। कितु अंत में जगद्विजयी अँगरेजों ने सन् १७६३ में पूर्व में पटना पर अधिकार करके दूसरे बरस बकसर की प्रसिद्ध लड़ाई जीतकर स्वतंत्र रूप से सिंहचिह्न की ध्वजा की छाया के नीचे इस देश के प्रांत मात्र को हिंदोस्तान के मानचित्र में लाल रंग से स्थापित कर दिया।

जस्टिन ( Justin ) कहता है---( १ ) संद्रकुत्तम महा- पराक्रमी था। असंख्य सैन्य संग्रह करके विरुद्ध लोगों का


( 1 ) Justin His. Phellipp. Lib XV Chap. IV. [ ५५१ ]इसने सामना किया था। डियोडोरस सिक्यूलस ( Deodorus Siculus ) कहता है---( २ ) प्राच्य देश के राजा ज़ंद्रमा के पास २०००० अश्व, २०००० पदाति, २००० रथ और ४००० हाथी थे। यद्यपि यह Xandramas शब्द चंद्रमा का अपभ्रंश है, कितु कई भ्रांत यूनानियों ने नंद को भी इसी नाम से लिखा है। क्वितस करशिअस ( Quantus Curtius ) लिखता है---( ३ ) चंद्रमा के क्षौरकार पिता ने पहले मगधराज को फिर उसके पुत्रों को नाश करके रानी के गर्भ में अपने उत्पन्न किए हुए पुत्र को गद्दी पर बैठाया। स्ट्राबो ( Strabo ) कहता है---( ४ ) सेल्यूकस ने मेगास्थनीज को संद्रकुत्तस के निकट भेजा और अपना भारतवर्षीय समस्त राज्य देकर उससे संधि कर ली। अोरियन ( Orriun ) लिखता है---( ५ ) मेगास्थनीज अनेक बार सन्द्रकुत्तम की सभा में गया था। ( ६ ) प्लूटार्क ( Plutarch ) ने चंद्रगुप्त को दो लक्ष सेना का नायक लिखा है। इन सब लेखों को पौराणिक वर्णनों से मिलाने से यद्यपि सिद्ध होता है कि सिकंदरकृत पुरु-पराजय के


( 2 ) Deodorus Siculus XVII. 93.

( 3 ) Quintus Curtius IX. 2.

( 4 ) Strabo XV. 2. 9.

( 5 ) Orriun Indica X. 5.

( 6 ) Plutarch Vita Alexandri O. 62. [ ५५२ ]पीछे मगधराज मंत्री द्वारा निहत हुए और उनके लड़के भी उसी गति को पहुँचे और उसके पीछे चंद्रगुप्त राजा हुआ; किंतु बहुत से यूनानी लेखकों ने चंद्रगुप्त को पट्टरानी के गर्भ में क्षौरकार से उत्पन्न लिखकर व्यर्थ अपने को भ्रम में डाला है। चंद्रगुप्त क्षत्रियवीर्य से दासी में उत्पन्न था यह सर्व साधारण का सिद्धांत है। ( ७ ) इस क्रम से ३२७ ई० पू० में नंद का मरण और ३१४ ई० पू० में चंद्रगुप्त का अभिषेक निश्चय होता है। पारस देश की कुमारी के गर्भ से सिल्यूकस को जो एक अति सुंदर कन्या हुई थी वही चंद्रगुप्त को दी गई। ३०२ ई० पू० में यह संधि और विवाह हुआ, इसी कारण अनेक यवनसेना चंद्रगुप्त के पास रहती थी। २९२ ई० पू० में चंद्रगुप्त २४ बरस राज्य करके मरा।

चंद्रगुप्त के इस मगधराज्य को आइनेअकबरी में मकता लिखा है। डिग्विग्नेस ( Deguignes ) कहता है कि चीनी मगध देश को मकियात कहते हैं। केंफर ( Kemfer ) लिखता है कि जापानी लोग उसको मगत् कफ कहते हैं। ( कफ शब्द जापानी में देशवाची है। ) प्राचीन फारसी लेखकों ने इस देश का नाम मावाद वा मुवाद लिखा है। मगधराज्य में अनुगांग


( ७ ) टाड आदि कई लोगों का अनुमान है कि मोरी वंश के चौहान जो बापाराव के पूर्व चित्तौर के राजा थे वे भी मौर्य थे। क्या चंद्रगुप्त चौहान था? या ये मोरा सब शूद्ध थे? [ ५५३ ]प्रदेश मिलने ही से तिब्बतवाले इस देश को अनुखेक वा अनोनखेक कहते है; और तातारवाले इस देश को एनाकाक लिखते हैं।

सिसली डिउडोरस ने लिखा है कि मगधराजधानी पाली-पुत्र भारतवर्षीय हक्र्यूलस ( हरिकुल ) देवता-द्वारा स्थापित हुई। सिसिरो ने हक्र्युलस ( हरिकुल ) देवता का नामांतर बेलस ( बलः ) लिखा है। बल शब्द बलदेवजी का बोध करता है और इन्हीं का नामांतर बली भी है। कहते हैं कि निज पुत्र अंगद के निमित्त बलदेवजी ने यह पुरी निर्माण की, इसी से बलीपुत्रपुरी इसका नाम हुआ। इसी से पालीपुत्र और फिर पाटलीपुत्र हो गया। पाली भाषा, पाली धर्म, पाली देश इत्यादि शब्द भी इसी से निकले हैं। कहते है कि बाणासुर के बसाए हुए जहाँ तीन पुर थे उन्हीं को जीतकर बलदेवजी ने अपने पुत्रों के हेतु पुर निर्माण किए। यह तीनो नगर महाबलीपुर इस नाम से एक मद्रास हाते में, एक विदर्भदेश में ( मुज़फ़्फ़रपुर वर्त्तमान नाम ) और एक ( राजमहल वर्तमान नाम से ) बंगदेश में है। कोई-कोई बालेश्वर, मैसूर, पुरनियाँ प्रभृति को भी बाणासुर की राजधानी बतलाते हैं। यहाँ एक बात बड़ी विचित्र प्रकट होती है। बाणासुर भी बलीपुत्र है। क्या आश्चर्य है कि पहले उसी के नाम से बलीपुत्र शब्द निकला हो। कोई नंद ही का नामांतर महाबली कहते है और कहते है कि पूर्व में [ ५५४ ]उसका नाम मुरा था। एक दिन राजा दोनों रानियों के साथ एक ऋषि के यहाँ गया और ऋषिकृत मार्जन के समय सुनंदा नौ और मुरा पर एक छीट पानी की पड़ी। मुरा ने ऐसी भक्ति से उस जल को ग्रहण किया कि ऋषि ने प्रसन्न होकर वरदान दिया। सुनंदा को एक मांसपिंड और मुरा को मौर्य उत्पन्न हुआ। राक्षस ने मांसपिंड काटकर नौ टुकड़े किया, जिससे नौ लड़के हुए। मौर्य को सौ लड़के थे, जिसमें चंद्रगुप्त सबसे बड़ा बुद्धिमान था। सर्वार्थसिद्धि ने नंदों को राज्य दिया और आप तपस्या करने लगा। नंदों ने ईर्षा से मौर्य और उसके लड़कों को मार डाला, किंतु चंद्रगुप्त चाणक्य ब्राह्मण के पुत्र विष्णुगुप्त की सहायता से नंदो को नाश करके राजा हुआ।

योंही भिन्न-भिन्न कवियों और विद्वानों ने भिन्न-भिन्न कथाएँ लिखी हैं। किंतु सबके मूल का सिद्धांत पास-पास एक ही आता है।

इतिहास-तिमिरनाशक में इस विषय में जो कुछ लिखा है वह नीचे प्रकाश किया जाता है।

बिंबिसार को उसके लड़के अजातशत्रु ने मार डाला। मालूम होता है कि यह फ़साद ब्राह्मणों ने उठाया। अजातशत्रु बौद्ध मत का शत्रु था। शाक्यमुनि गौतम बुद्ध श्रावस्ती में रहने लगा। यहाँ भी प्रसेनजित को उसके बेटे ने गद्दी से उठा दिया; शाक्यमुनि गौतम बुद्ध कपिलवस्तु में गया। [ ५५५ ]अजातशत्रु की दुश्मनी बौद्ध मत से धीरे-धीरे बहुत कम हो गई। शक्यमुनि गौतम बुद्ध फिर मगध में गया। पटना उस समय एक गाँव था, वहाँ हरकारों की चौकी में ठहरा। वहाँ से विशाली * में गया। विशाली की रानी एक वेश्या थी। वहाँ से पावा गया, वहाँ से कुशीनार गया। बौद्धों के लिखने बमूजिब उसी जगह सन् ईसवी ५४३ बरस पहले ८० बरस की उमर में साल के वृक्ष के नीचे बाईं करवट लेटे हुए इसका निर्वाण हुआ। काश्यप उसका जानशीन हुआ। अजातशत्रु के पीछे तीन राजा अपने बाप को मारकर मगध की गद्दी पर बैठे, यहाँ तक कि प्रजा ने घबराकर विशाला की


  • जैनी महावीर के समय विशाली अथवा विशाला का राजा चेटक बतलाते हैं। यह जगह पटने के उत्तर तिरहुत में है; उजड़ गई है।

वहाँ वाले अब उसे बसहर पुकारते हैं।

जैनी यहाँ महावीर का निर्वाण बतलाते हैं, पर जिस जगह को अब पावापुर मानते हैं असल में वह नहीं है; पावा विशाली से पश्चिम और गंगा से उत्तर होने चाहिए।

जैन अपने चौबीसवें अर्थात् सबसे पिछले तीर्थकर महावीर का निर्वाण विक्रम के संवत् से ४७०, अर्थात् सन् ईसवी से ५२७ बरस पहले बतलाते हैं और महावीर के निर्वाण से २५० बरस पहले अपने तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का निर्वाण मानते हैं।


  • कैसे प्राश्चर्य की बात है, चेटक रंडी के भड़वे को भी कहते हैं।( हरिश्चंद्र ) [ ५५६ ]वेश्या के बेटे शिशुनाग मंत्री को गद्दी पर बैठा दिया। यह बड़ा

बुद्धिमान् था। इसके बेटे काल अशोक ने, जिसका नाम ब्राह्मणो ने काकवर्ण भी लिखा है, पटना अपनी राजधानी बनाया।

जब सिकंदर का सेनापति बाबिल का बादशाह सिल्यूकस सूबेदारों के तदारुक को आया, पटने से सिंधु किनारे तक नंद के बेटे चंद्रगुप्त के अमल दखल में पाया, बड़ा बहादुर था, शेर ने इसका पसीना चाटा था और जंगली हाथी ने इसके सामने सिर झुका दिया था।

पुराणों में बिंबिसार को शिशुनाग के बेटे काकवर्ण का परपोता बतलाया है और नंदिवर्द्धन को बिंबिसार के बेटे अजातशत्रु का परपोता; और कहा है कि नंदिवर्द्धन का बेटा महानंद और महानंद का बेटा शूद्री से महापद्मनंद और इसी महापद्मनंद और उसके आठ लड़कों के बाद, जिन्हें नवनंद कहते हैं, चंद्रगुप्त मौर्य गद्दी पर बैठा। बौद्ध कहते है कि तक्षशिला के रहनेवाले चाणक्य ब्राह्मण ने घननंद को मार के चंद्रगुप्त को राजसिंहासन पर बैठाया और वह मोरिया नगर के राजा का लड़का था और उसी जाति का था जिसमें शाक्यमुनि गौतम बुद्ध पैदा हुआ।

मेगास्थनीज लिखता है कि पहाड़ो में शिव और मैदान में विष्णु पुजाते हैं। पुजारी अपने बदन रँग* कर और सिर


*चंदन इत्यादि लगा कर। [ ५५७ ]में फूलों की माला लपेटकर घंटा और झाँझ बजाते हैं। एक वर्ण का आदमी दूसरे वर्ण की स्त्री ब्याह नहीं सकता है और पेशा भी दूसरे का इख्तियार नहीं कर सकता है। हिंदू घुटने तक जामा पहनते हैं और सिर और कंधो पर कपड़ा * रखते हैं। जूते उनके रंग बरंग के चमकदार और कारचोबी के होते हैं। बदन पर अकसर गहने, भौं मिहदी से रँगते हैं और दाढ़ी मूछ पर खिजाब करते हैं। छतरी, सिवाय बड़े आदमियों के, और कोई नहीं लगा सकता। रथों में लड़ाई के समय घोड़े और मंजिल काटने के लिए बैल जोते जाते हैं। हाथियों पर भारी जर्दोजी झूल डालते हैं। सड़कों की मरम्मत होती है, पुलिस का अच्छा इंतिजाम है। चंद्रगुप्त के लशकर में औसत चोरी तीस रुपये रोज से जियादा नहीं सुनी जाती है। राजा जमीन की पैदावार से चौथाई लेता है।

चंद्रगुप्त सन् ई० के ९१ बरस पहले मरा। उसके बेटे बिंदुसार के पास यूनानी एलची दयोमेकस ( Diamachos) आया था परंतु वायुपुराण में उसका नाम भद्रसार और भागवत में बारिसार और मत्स्यपुराण में शायद बृहद्रथ लिखा है। केवल विष्णुपुराण बौद्ध ग्रंथों के साथ बिंदुसार बतलाता है। उसके १६ रानी थीं और उनसे १०१ लड़के, उनमें अशोक जो पीछे


*अर्थात् पगडी दुपट्टा।

जैनियों के ग्रथों में इसी का नाम अशोक भी लिखा है। [ ५५८ ] से "धर्मअशोक" कहलाया, बहुत तेज था, उज्जैन का नाजिमथा । वहाँ के एक सेठ * की लड़की देवी उससे ब्याही थी, उसी से महेंद्र लड़का और संघमिता ( जिसे सुमित्रा भी कहते हैं) लड़की हुई थी।