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भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/षष्ठ अंक

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भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ५१० से – ५२३ तक

 

षष्ठ अंक

स्थान---नगर के बाहर सड़क

( कपडा, गहिना पहिने हुए सिद्धार्थक आता है )

सिद्धार्थक---

जलद-नील-तन जयति जय, केशव केशी-काल।
जयति सुजन-जन-दृष्टि-ससि, चंद्रगुप्त नरपाल॥
जयति आर्य चाणक्य की नीति सहज बल-भौन।
बिनही साजे सैन नित, जीतत अरि-कुल जौन॥
चलो, आज पुराने मित्र समिद्धार्थक से भेंट करे।
( घूमकर ) अरे! मित्र सिद्धार्थक आप ही इधर आता है।

( समिद्धार्थक आता है )

समिद्धार्थक---

मिटत ताप नहिं पान सो, होत उछाह बिनास।
बिना मीत के सुख सबै, औरहु करत उदास॥

सुना है कि मलयकेतु के कटक से मित्र सिद्धार्थक आ गया है। उसी को खोजने को हम भी निकले हैं कि मिले तो बड़ा आनंद हो। ( आगे बढ़कर ) अहा! सिद्धार्थक तो यहीं है। कहो मित्र! अच्छे तो हो? सिद्धा०---अहा! मित्र समिद्धार्थक आप ही आ गए। ( बढकर ) कहो मित्र! क्षेम कुशल तो है?

( दोनों गले से मिलते हैं )

समि०---भला! यहाँ कुशल कहाँ कि तुम्हारे ऐसा मित्र बहुत दिन पीछे घर भी आया तो बिना मिले फिर चला गया!

सिद्धा०---मित्र! क्षमा करो। मुझको देखते ही आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी कि इस प्रिय वृत्तांत को अभी चंद्रमा सदृश प्रकाशित शोभावाले परम प्रिय महाराज प्रियदर्शन से जाकर कहो। मैं उसी समय महाराज के पास चला गया और उनसे निवेदन करके यह सब पुरस्कार पाकर तुमसे मिलने को तुम्हारे घर अभी जाता ही था।

समि०---मित्र! जो सुनने के योग्य हो तो महाराज प्रियदर्शन से जो प्रिय वृत्तांत कहा है वह हम भी सुनें।

सिद्धा०---मित्र! तुमसे भी कोई बात छिपी है! सुनो। आर्य चाणक्य की नीति से मोहित-मति होकर उस नष्ट मलयकेतु ने राक्षस को दूर कर दिया और चित्रवर्मादिक पाँचो प्रबल राजों को मरवा डाला। यह देखते ही और सब राजे अपने प्राण और राज्य का संशय समझकर उसको छोड़कर सेना-सहित अपने-अपने देश चले गए। जब शत्रु ऐसी निर्बल अवस्था में हुआ, तो भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुरात, बलगुप्त, राजसेन, भागुरायण, रोहिताक्ष, विजयवर्मा इत्यादि लोगों ने मलयकेतु को कैद कर लिया।

समि०---मित्र! लोग तो यह जानते हैं कि भद्रभट इत्यादि लोग महाराज चंद्रश्री को छोड़कर मलयकेतु से मिल गए; तो क्या कुकवियों के नाटक की भाँति इसके मुख में और तथा निवर्हण में और बात है?

सिद्धा०---वयस्य! सुनो, जैसे देव की गति नहीं जानी जाती वैसे ही आर्य चाणक्य की जिस नीति की भी गति नहीं जानी जाती उसको नमस्कार है।

समि०---हाँ! कहो, तब क्या हुआ?

सिद्धा०---तब इधर से सब सामग्री लेकर आर्य चाणक्य बाहर निकले और विपक्ष के शेष राजाओं को निःशेष करके बर्बर लोगों की सब सामग्री लूट ली।

समि०---तो वह सब अब कहाँ हैं?

सिद्धा०---वह देखो।

स्त्रवत गंडमद गरब गज, नदत मेघ अनुहार।
चाबुक भय चितवत चपल, खड़े अस्व बहु द्वार॥

समि०--अच्छा, यह सब जाने दो। यह कहो कि सब लोगों के सामने इतना अनादर पाकर फिर भी आर्य चाणक्य उसी मंत्री के काम को क्यों करते हैं? सिद्धा०---मित्र! तुम अब तक निरे सीधे साधे बने हो। अरे, अमात्य राक्षस भी आर्य चाणक्य की जिन चालों को नहीं समझ सकते उनको हम-तुम क्या समझेंगे!

समि०---वयस्य! अमात्य राक्षस अब कहाँ है?

सिद्धा०---उस प्रलय कोलाहल के बढ़ने के समय मलयकेतु की सेना से निकलकर उंदुर नामक चर के साथ कुसुमपुर ही की ओर वह आते हैं, यह आर्य चाणक्य को समाचार मिला है।

समि०---मित्र! नंदराज्य के फिर स्थापन की प्रतिज्ञा करके स्वनाम-तुल्य-पराक्रम अमात्य राक्षस, उस काम को पूरा किए बिना फिर कैसे कुसुमपुर आते हैं?

सिद्धा०---हम सोचते है कि चंदनदास के स्नेह से।

समि०---ठीक है, चंदनदास के स्नेह ही से। किंतु तुम सोचते हो कि चंदनदास के प्राण बचेंगे?

सिद्धा०---कहाँ उस दीन के प्राण बचेंगे? हमीं दोनो को वध- स्थान में ले जाकर उसको मारना पड़ेगा।

समि०---( क्रोध से ) क्या आर्य चाणक्य के पास कोई घातक नहीं है कि ऐसा नीच काम हम लोग करें?

सिद्धा०---मित्र! ऐसा कौन है जिसको इस जीवलोक में रहना हो और वह आर्य चाणक्य की आज्ञा न माने? चलो, हम लोग चांडाल का वेष बनाकर चन्दनदास को वधस्थान में ले चलें।

( दोनों जाते हैं )

इति प्रवेशक

स्थान---बाहरी प्रांत में प्राचीन बारी

( फाँसी हाथ में लिए हुए एक पुरुष आता है )

पुरुष--

षट गुन सुदूढ गुथी मुख फॉसी।
उपाय परिपाटी गॉसी॥
रिपु-बंधन मैं पटु प्रति पोरी।
जय चाणक्य नीति की डोरी॥

आर्य चाणक्य के चर उंदुर ने इसी स्थान में मुझको अमात्य राक्षस से मिलने को कहा है। ( देखकर ) यह अमात्य राक्षस सब अंग छिपाए हुए आते हैं। तब तक इस पुरानी बारी में छिपकर हम देखे कि यह कहाँ ठहरते हैं। ( छिपकर बैठता है )

( सब अंग छिपाए हुए राक्षस आता है )

राक्षस---( आँखो में ऑसू भर के ) हाय! बड़े कष्ट की बात है

आश्रय बिनसे और पै जिमि कुलटा तिय जाय।
तजि तिमि नंदहि चञ्चला चंद्रहि लपटी धाय॥
देखादेखी प्रजहु सब कीनो ता अनुगौन।
तजि कै निज नृप-नेह सब कियो कुसुमपुर भौन॥

होइ बिफल उद्योग मैं, तजि के कारज-भार।
आप्त मित्रहू थकि रहे, सिर बिनु जिमि अहि छार॥
तजि कै निज पति भुवन-पति सुकुल-जात नृप नंद।
श्री वृषली गइ वृषल ढिग सील त्यागि करि छंद॥
जाइ तहाँ थिर है रही निज गुन सहज बिसारि।
बस न चलत जब बाम बिधि सब कछु देत बिगारि॥
नंद मरे सैलेश्वरहि देन चह्यौ हम राज।
सोऊ बिनसे तब कियो ता सुत हित सो साज॥
बिगयौ तौन प्रबंध हू, मिट्यौ मनोरथ-मूल।
दोस कहा चाणक्य को देवहि भो प्रतिकूल॥

वाह रे म्लेच्छ मलयकेतु की मूर्खता! जिसने इतना नहीं समझा कि---

मरे स्वामिह नहिं तज्यौ जिन निज-नृप-अनुराग।
लोभ छाँड़ि दै प्रान जिन करी सत्रु सों लाग॥
सोई राक्षस शत्रु सो मिलिहै यह अंधेर।
इतनो सूझ्यौ वाहि नहिं दई दैव मति फेर॥

सो अब भी शत्रु के हाथ में पड़के राक्षस नाश हो जायगा, पर चंद्रगुप्त से संधि न करेगा। लोग झूठा कहे, यह अपयश हो, पर शत्रु की बात कौन सहेगा? ( चारो ओर देखकर ) हा! इसी प्रांत में देव नंद रथ पर चढकर फिरने आते थे।

इतहि देव अभ्यास हित सर तजि धनु संघानि।
रचत रहे भुव चित्र सम रथ सुचक्र परिखानि॥
जहँ नृपगन संकित रहे इत उत थमे लखात।
सोई भुव ऊजर भई दूगन लखी नहि जात॥

हाय! यह मंदभाग्य अब कहाँ जाय? ( चारों ओर देखकर ) चलो, इस पुरानी बारी में कुछ देर ठहरकर मित्र चंदनदास का कुछ समाचार लें। ( घूमकर आप ही आप ) अहा! पुरुषो के भाग्य की उन्नति-अवनति की भी क्या-क्या गति होती है कोई नहीं जानता।

जिमि नव ससि कहँ सब लखत निज-निज करहि उठाय।
तिमि पुरजन हम को रहे लखत अनंद बढ़ाय॥
चाहत हे नृपगन सबै जासु कृपा-दूग-कोर।
सो हम इत संकित चलत मानहुँ कोऊ चोर॥

वा जिसके प्रसाद से यह सब था, जब वही नहीं है तो यह होहीगा। ( देखकर ) यह पुराना उद्यान कैसा भयानक हो रहा है।

नसे बिपुल नृप-कुल-सरिस बड़े बड़े गृह-जाल।
मित्र-नास सो साधुजन-हिय सम सूखे ताल॥
तरुवर भे फलहीन जिमि बिधि बिगरे सब नीति।
तृन सों लोपी भूमि जिमि मति लहि मूढ़ कुरीति॥

पुरुष---अब तो यह बैठे हैं तो अब आर्य चाणक्य की आज्ञा पूरी

करें। ( राक्षस की अोर न देखकर अपने गले में फॉसी लगाना चाहता है )

राक्षस---( देखकर आप ही आप ) अरे यह फॉसी क्यो लगाता है? निश्चय कोई हमारा सा दुखिया है। जो हो, पूछें तो सही। ( प्रकाश ) भद्र, यह क्या करते हो?

पुरुष---( रोकर ) मित्रो के दुःख से दुखी होकर हमारे ऐसे मंदभाग्यों का जो कर्तव्य है।

राक्षस---( आप ही आप ) पहले ही कहा था, कोई हमारा सा दुखिया है। ( प्रकाश ) भद्र, जो अति गुप्त वा किसी विशेष कार्य की बात न हो तो हमसे कहो कि तुम क्यो प्राण त्याग करते हो?

पुरुष---आर्य! न तो गुप्त ही है न कोई बड़े काम की बात है; परंतु मित्र के दुःख से मैं अब क्षण भर भी ठहर नहीं सकता।

राक्षस---( आप ही आप दुःख से ) मित्र की विपत्ति में हम पराए लोगों की भाँति उदासीन होकर जो देर करते हैं मानो उसमें शीघ्रता करने की यह अपना दुःख कहने के बहाने शिक्षा देता है। ( प्रकाश ) भद्र! जो रहस्य है तो हम सुना चाहते हैं कि तुम्हारे दुःख का क्या कारण है? पुरुष---आपको इसमें बड़ा ही हठ है तो कहना पड़ा। इस नगर में जिष्णुदास नामक एक महाजन है।

राक्षस---( आप ही आप ) वह तो चंदनदास का बड़ा मित्र है।

पुरुष---वह हमारा प्यारा मित्र है।

राक्षस---( आप ही आप ) कहता है कि वह हमारा प्यारा मित्र है। इस अति निकट संबंध से इसको चंदनदास का वृत्तांत ज्ञात होगा।

पुरुष---( रोकर ) सो दीन जनो को सब धन देकर वह अब अग्निप्रवेश करने जाता है। यह सुनकर हम यहाँ आए है कि इस दुःख-वार्ता सुनने के पूर्व ही अपने प्राण दे दें।

राक्षस---भद्र! तुम्हारे मित्र के अग्निप्रवेश का कारण क्या है?

कै तेहि रोग असाध्य भयो
कोऊ जाको न औषध नाहिं निदान है?

पुरुष---नहीं आर्य!

राक्षस---कै विष अग्निहु सो बढ़ि कै

नृपकोप महा फँसि त्यागत प्रान है?

पुरुष---राम-राम! चंद्रगुप्त के राज्य में लोगों को प्राणहिंसा का भय कहाँ?

राक्षस----कै कोउ सुंदरी पै जिय देत

लग्यो हिय मॉहि वियोग को बान है? पुरुष---राम-राम! महाजन लोगों की यह चाल नहीं, विशेष करके साधु जिष्णुदास की।

राक्षस---

तौ कहुँ मित्रहि को दुख वाहू के
नास को हेतु तुम्हारे समान है?

पुरुष---हॉ, आर्य।

राक्षस---( घबड़ाकर आप ही आप ) अरे, इसके मित्र का प्रिय मित्र तो चंदनदास ही है और यह कहता है कि सुहृदविनाश ही उसके विनाश का हेतु है इससे मित्र के स्नेह से मेरा चित्त बहुत ही घबड़ाता है। ( प्रकाश ) भद्र! तुम्हारे मित्र का चरित्र हम सविस्तर सुना चाहते हैं।

पुरुष---आर्य! अब मैं किसी प्रकार से मरने में विलंब नहीं कर सकता।

राक्षस---यह वृत्तांत तो अवश्य सुनने के योग्य है, इससे कहो।

पुरुष---क्या करें? आप ऐसा हठ करते हैं तो सुनिए।

राक्षस---हाँ! जी लगाकर सुनते हैं, कहो।

पुरुष---आपने सुना ही होगा कि इस नगर में प्रसिद्ध जौहरी सेठ चंदनदास हैं।

राक्षस---( दुःख से आप ही आप ) दैव ने हमारे विनाश का द्वार अब खोल दिया। हृदय! स्थिर हो, अभी न जाने क्या-क्या कष्ट तुमको सुनना होगा। ( प्रकाश ) भद्र! हमने भी सुना है कि वह साधु अत्यंत मित्रवत्सल है। पुरुष---वह जिष्णुदास के अत्यंत मित्र हैं।

राक्षस---( आप ही आप ) यह सब हृदय के हेतु शोक का वज्रपात है। ( प्रकाश ) हॉ, आगे।

पुरुष---सो जिष्णुदास ने मित्र की भाँति चंद्रगुप्त से बहुत विनय किया।

राक्षस---क्या-क्या?

पुरुष---कि देव! हमारे घर में जो कुछ कुटुंबपालन का द्रव्य है आप सब ले लें, पर हमारे मित्र चंदनदास को छोड़ दें।

राक्षस---( आप ही आप ) वाह जिष्णुदास! तुम धन्य हो! तुमने मित्रस्नेह का निर्वाह किया।

जा धन के हित नारि तजै पति पूत तजै पितु सीलहिं खोई।
भाई सों भाई लरै रिपु से पुनि मित्रता मित्र तजै दुख जोई॥
ता धन को बनिया है गिन्यौ न दियो दुख मीत सों आरत होई।
स्वारथ अर्थ तुम्हारोई है तुमरे सम और न या जग कोई॥

( प्रकाश ) इस बात पर मौर्य ने क्या कहा?

पुरुष---आर्य! इस पर चंद्रगुप्त ने उससे कहा कि 'जिष्णु- दास! हमने धन के हेतु चंदनदास को नहीं दंड दिया है। इसने अमात्य राक्षस का कुटुंब अपने घर में छिपाया था, और बहुत मॉगने पर भी न दिया, अब भी जो यह दे-दे तो छूट जाय, नहीं तो इसको प्राणदंड होगा। तभी हमारा क्रोध शांत होगा और दूसरे लोगों को भी इससे डर होगा'---यह कह उसको वधस्थान में भेज दिया। जिष्णुदास ने कहा कि "हम कान से अपने मित्र का अमंगल सुनने के पहिले मर जायँ तो अच्छी बात है" और अग्नि में प्रवेश करने को वन में चले गए। हमने भी इसी हेतु कि उनका मरण न सुनें यह निश्चय किया कि फॉसी लगाकर मर जायँ और इसी हेतु यहाँ आए है।

राक्षस---( घबड़ाकर ) अभी चंदनदास को मारा तो नहीं?

पुरुष---आर्य! अभी नहीं मारा है, बारंबार अब भी उनसे अमात्य राक्षस का कुटुंब मांगते हैं और वह मित्रवत्सलता से नहीं देते, इसी में इतना विलंब हुआ।

राक्षस---( सहर्ष आप ही आप ) वाह मित्र चंदनदास! वाह! धन्य! धन्य!!

मित्र---परोच्छहुँ मैं कियो सरनागत-प्रतिपाल।
निरमल जस सिबि सो लियो तुम या काल कराल॥

( प्रकाश ) भद्र! तुम शीघ्र जाकर जिष्णुदास को जलने से रोको; हम जाकर अभी चंदनदास को छुड़ाते हैं।

पुरुष---आर्य! आप किस उपाय से चंदनदास को छुड़ाइएगा?

राक्षस---( खड्ग मियान से खींचकर ) इन दुःखो में एकांत मित्र निष्कृप कृपाण से।

समर साध तन पुलकित नित साथी मम कर को।
रन महँ बारहिं बार परिछ्यौ जिन बल पर को॥

बिगत जलद नभ नील खड्ग यह रोस बढ़ावत।
मीत-कट सों दुखिहु मोहिं रनहित उमगावत॥

पुरुष---सेठ चंदनदास के प्राण बचाने का उपाय मैंने सुना किंतु ऐसे टेढ़े समय में इसका परिणाम क्या होगा, यह मैं नहीं कह सकता। ( राक्षस को देखकर पैर पर गिरता है ) आर्य! क्या सुगृहीत-नामधेय अमात्य राक्षस आप ही हैं?

यह मेरा संदेह आप दूर कीजिए।

राक्षस---भद्र! भर्तृकुल-विनाश से दुखी और मित्र के नाश का कारण यथार्थ-नामा अनार्य राक्षस मैं ही हूँ।

पुरुष---( फिरि पैर पर गिरता है ) धन्य हैं! बड़ा ही आनंद हुआ। आपने हमको आज कृतकृत्य किया।

राक्षस---भद्र! उठो। देर करने की कोई आवश्यकता नहीं। जिष्णुदास से कहो कि राक्षस चंदनदास को अभी छुड़ाता है।

( खड्ग खींचे हुए, 'समर साध' इत्यादि पढ़ता हुआ इधर-उधर टहलता है )

पुरुष---( पैर पर गिरकर ) अमात्यचरण! प्रसन्न हों। मैं यह बिनती करता हूँ कि चंद्रगुप्त दुष्ट ने पहले शकटदास के वध की आज्ञा दी थी। फिर न जाने कौन शकटदास को छुड़ाकर उसको कहीं परदेश में भगा ले गया। आर्य शकटदास के वध में धोखा खाने से चंद्रगुप्त ने

भा० ना०---२७ क्रोध करके प्रमादी समझकर उन वधिकों ही को मार डाला। तब से वधिक जो किसी को वधस्थान में ले जाते हैं और मार्ग में किसी को शस्त्र खींचे हुए देखते हैं तो छुड़ा ले जाने के भय से अपराधी को बीच ही में तुरंत मार डालते हैं। इससे शस्त्र खींचे हुए आपके वहाँ जाने से चंदनदास की मृत्यु में और भी शीघ्रता होगी।

[ जाता है

राक्षस---( आप ही आप ) उस चाणक्य बटु का नीतिमार्ग कुछ समझ नहीं पड़ता क्योंकि---

सकट बच्यौ जो ता कहे तो क्यों घातक-घात।
जाल भयो का खेल मैं कछु समझ्यौ नहिं जात।।
( सोचकर ) नहिं शस्त्र को यह काल यासों मीत-जीवन जाइहै।
जो नीति सोचैं या समय तो व्यर्थ समय नसाइहै।।
चुप रहनहू नहिं जोग जब मम हित विपति चंदन पयौ।
तासों बचावन प्रियहि अब हम देह निज विक्रय कयौ॥

( तलवार फेंककर जाता है )