भारतेंदु-नाटकावली/५–मुद्राराक्षस/पंचम अंक

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ४८७ ]

पंचम अंक

( हाथ में मोहर, गहिने की पेटी और पत्र लेकर सिद्धार्थक आता है )

सिद्धार्थक---अहाहा!

देशकाल के कलश में सिंची बुद्धि-जल जौन।
लता-नीति चाणक्य की बहु फल दैहै तौन॥

अमात्य राक्षस की मोहर का, आर्य चाणक्य का लिखा हुआ यह लेख और मोहर की हुई यह आभूषण की पेटिका लेकर मैं पटने जाता हूँ। ( नेपथ्य की ओर देखकर ) अरे! यह क्या क्षपणक आता है? हाय हाय! यह तो बुरा असगुन हुआ। तो मैं सूरज को देखकर इसका दोष छुड़ा लूँ।

( क्षपणक आता है )

क्षप०---नमो नमो अर्हत को, जो निज बुद्धि-प्रताप।

लोकोत्तर को सिद्धि सब करत हस्तगत आप॥

सिद्धा०---भदंत! प्रणाम।

क्षप०---उपासक! धर्म लाभ हो। ( भली भॉति देखकर ) आज तो समुद्र पार होने का बड़ा भारी उद्योग कर रखा है।

सिद्धा०---भदंत! तुमने कैसे जाना?

क्षप०---इसमें छिपी कौन बात है? जैसे समुद्र में नाव पर सब [ ४८८ ]के आगे मार्ग दिखलाने वाला मॉझी रहता है, वैसे ही तेरे हाथ में यह लखौटा है।

सिद्धा---अजी भदंत! भला यह तुमने ठीक जाना कि मैं परदेश जाता हूँ, पर यह कहो कि आज दिन कैसा है?

क्षप०---( हॅसकर ) वाह श्राषक वाह! तुम मूँड़ मुँड़ाकर भी नक्षत्र पूछते हो?

सिद्धा०---भला अभी क्या बिगड़ा है? कहते क्यों नहीं? दिन अच्छा होगा जायँगे, न अच्छा होगा न जाएँगे।

क्षप०---चाहे दिन अच्छा हो या न अच्छा हो, मलयकेतु के कटक से बिना मोहर लिए कोई जाने नहीं पाता।

सिद्धा०---यह नियम कब से हुआ?

क्षप०---सुनो, पहिले तो कुछ भी रोक-टोक नहीं थी, पर जब से कुसुमपुर के पास आए हैं तब से यह नियम हुआ है कि बिना मोहर के न कोई जाय न आवे। इससे जो तुम्हारे पास भागुरायण की मोहर हो तो जाओ नहीं तो चुप बैठ रहो, क्योकि पीछे से तुम्हें हाथ-पैर न बँधवाना पड़े।

सिद्धा---क्या यह तुम नहीं जानते कि हम राक्षस के अंतरंग खेलाडी मित्र हैं? हमें कौन रोक सकता है?

क्षप०---चाहे राक्षस के मित्र हो चाहे पिशाच के, बिना मोहर के कभी न जाने पाओगे। [ ४८९ ]सिद्धा०---भदंत! क्रोध मत करो, कहो कि काम सिद्ध हो।

क्षप०---जाओ, काम सिद्ध होगा, हम भी पटने जाने के हेतु भागुरायण से मोहर लेने जाते हैं।

( दोनों जाते हैं )

इति प्रवेशक

( भागुरायण और सेवक आते हैं )

भागु०---( आप ही आप ) चाणक्य की नीति भी बड़ी विचित्र है।

कहूँ बिरल, कहुँ सघन, कहुँ विफल, कहूँ फलवान।
कहुँ कृस, कहुँ अति थूल, कछु भेद परत नहिं जान॥
कहूँ गुप्त अति ही रहत, कबहूँ प्रगट लखात।
कठिन नीति चाणक्य की, भेद न जान्यो जात॥

( प्रगट ) भासुरक! मलयकेतु से मुझे क्षण भर भी दूर रहने में दुःख होता है इससे बिछौना बिछा तो बैठे।

सेवक---जो आज्ञा। बिछौना बिछा है, विराजिए।

भागु०---( आसन पर बैठकर ) भासुरक! बाहर कोई मुझसे मिलने आवे तो आने देना।

सेवक---जो आज्ञा।

[ जाता है

भागु०---( आप ही आप करुणा से ) राम राम! मलयकेतु तो

मुझसे इतना प्रेम करता है, मैं उसका बिगाड़ किस तरह करूँगा? अथवा--[ ४९० ]

जस-कुल तजि, अपमान सहि, धन-हित परबस होय।
जिन बेच्यो निज प्रान तन, सबै सकत करि सोय॥

( आगे आगे मलयकेतु और पीछे प्रतिहारी आते है )

मलय०---( आप ही आप ) क्या करे राक्षस का चित्त मेरी ओर से कैसा है यह सोचते हैं तो अनेक प्रकार के विकल्प उठते है, कुछ निर्णय नहीं होता।

नंदवंश को जानिकै ताहि चंद्र की चाह।
के अपनायो जानि निज मेरा करत निबाह॥
को हित अनहित तासु को यह नहिं जान्यो जात।
तासो जिय संदेह अति, भेद न कछू लखात॥
( प्रगट ) विजये! भागुरायण कहाँ है देख तो?

प्रतिo---महाराज! भागुरायण वह बैठे हुए आपकी सेना के जानेवाले लोगो को राह-खर्च और परवाना बॉट रहे है।

मलय०---विजये! तुम दबे पाँव से उधर से आओ, मैं पीछे से जाकर मित्र भागुरायण की ऑखें बंद करता हूँ।

प्रति०---जो आज्ञा।

( दोनों दबे पाँव से चलते हैं और भासुरक आता है )

भासुरक---( भागुरायण से ) बाहर क्षपणक पाया है, उसको परवाना चाहिए।

भागु०---अच्छा, यहाँ भेज दो। [ ४९१ ]भासु०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( क्षपणक आता है )

क्षप०---आवक को धर्म लाभ हो!

भागु०---( छल से उसकी ओर देखकर ) यह तो राक्षस का मित्र जीवसिद्धि है। ( प्रगट ) भदंत! तुम नगर में राक्षस के किसी काम से जाते होगे।

तप०---( कान पर हाथ रखकर ) छी-छी! हमसे राक्षस वा पिशाच से क्या काम?

भागु०---आज तुमसे और मित्र से कुछ प्रेम-कलह हुआ है, पर यह तो बताओ कि राक्षस ने तुम्हारा किया है?

क्षप०---राक्षस ने कुछ अपराध नहीं किया है, अपराधी तो हम हैं।

भागु०----ह ह ह ह! भदंत! तुम्हारे इस कहने से तो मुझको सुनने की और भी उत्कंठा होती है।

मलय०---( आप ही आप ) मुझको भी।

भागु०---तो भदंत! कहते क्यों नहीं?

क्षप०---तुम सुनके क्या करोगे?

भागु०---तो जाने दो, हमें कुछ आग्रह नहीं है, गुप्त हो तो मत कहो।

भा० ना०---२५ [ ४९२ ]क्षप०---नहीं उपासक! गुप्त ऐसा नहीं है, पर वह बहुत बुरी बात है।

भागु०---तो जाओ, हम तुमको परवाना न देंगे।

क्षप०---( आप ही आप की भाँति ) जो यह इतना अाग्रह करता है तो कह दें। ( प्रगट ) श्रावक! निरुपाय होकर कहना पड़ा। सुनो। मैं पहिले कुसुमपुर में रहता था, तब संयोग से मुझसे राक्षस से मित्रता हो गई, फिर उस दुष्ट राक्षस ने चुपचाप मेरे द्वारा विषकन्या का प्रयोग कराके बिचारे पर्वतेश्वर को मार डाला।

मलय०---( अॉखों में पानी भर के ) हाय-हाय! राक्षस ने हमारे पिता को मारा, चाणक्य ने नहीं मारा। हा!

भागु०---हॉ, तो फिर क्या हुआ?

क्षप०---फिर मुझे राक्षस का मित्र जानकर उस दुष्ट चाणक्य ने मुझको नगर से निकाल दिया; तब मैं राक्षस के यहाँ आया, पर राक्षस ऐसा जालिया है कि अब मुझको ऐसा काम करने को कहता है जिससे मेरा प्राण जाय।

भागु०---भदंत! हम तो यह समझते हैं कि पहिले जो आधा राज देने को कहा था, वह न देने को चाणक्य ही ने यह दुष्ट कर्म किया, राक्षस ने नहीं किया।

तप०---( कान पर हाथ रखकर ) कभी नहीं, चाणक्य तो विष[ ४९३ ]कन्या का नाम भी नहीं जानता; यह घोर कर्म उस दुर्बुद्धि राक्षस ही ने किया है।

भागु०---हाय-हाय! बड़े कष्ट की बात है। लो, मुहर तो तुमको देते हैं, पर कुमार को भी यह बात सुना दो।

मलय०---( आगे बढ़कर )

सुन्यो मित्र, श्रुति-भेद-कर शत्रु किया जो हाल।
पिता-मरन को मोहि दुख दुगुन भयो एहि काल॥

क्षप०---( आप ही आप ) मलयकेतु दुष्ट ने यह बात सुन ली तो मेरा काम हो गया।

[ जाता है

मलय०---( दाँत पीसकर ऊपर देखकर ) अरे राक्षस!

जिन तोपै विश्वास करि सौंप्यो सब धन धाम।
ताहि मारि दुख दै सबन साँचो किय निज नाम॥

भागु०---( आप ही आप ) आर्य चाणक्य की आज्ञा है कि "अमात्य राक्षस के प्राण की सर्वथा रक्षा करना" इससे अब बात फेरें। ( प्रकाश ) कुमार! इतना आवेग मत कीजिए। आप आसन पर बैठिए तो मैं कुछ निवेदन करुँ।

मलय०---मित्र, क्या कहते हो? कहो। ( बैठ जाता है )

भागु०---कुमार! बात यह है कि अर्थशास्त्रवालों की मित्रता और शत्रुता अर्थ ही के अनुसार होती है, साधारण लोगों की भाँति इच्छानुसार नहीं होती। उस समय [ ४९४ ]सर्वार्थसिद्धि को राक्षस राजा बनाया चाहता था तब देव पर्वतेश्वर ही उस कार्य में कंटक थे तो उस कार्य की सिद्धि के हेतु यदि राक्षस ने ऐसा किया तो कुछ दोष नहीं। आप देखिए---

मित्र शत्रु कै जात हैं, शत्रु करहिं अति नेह।
अर्थ-नीति-बस लोग सब बदलहि मानहुँ देह॥

इससे राक्षस को ऐसी अवस्था में दोष नहीं देना चाहिए। और जब तक नंदराज्य न मिले तब तक उस पर प्रकट स्नेह ही रखना नीतिसिद्ध है; राज मिलने पर कुमार जो चाहेंगे करेंगे।

मलय०---मित्र! ऐसा ही होगा। तुमने बहुत ठीक सोचा है। इस समय इसके वध करने से प्रजागण उदास हो जायेंगे और ऐसा होने से जय में भी संदेह होगा।

( एक मनुष्य आता है )

मनुष्य कुमार की जय हो! कुमार के कटकद्वार के रक्षाधिकारी दीर्घचनु ने निवेदन किया है कि "मुद्रा लिए बिना एक पुरुष कुछ पत्र-सहित बाहर जाता हुआ पकडा गया है सो उसको एक बेर आप देख लें।"

भागु०---अच्छा, उसको ले आओ।

पुरुष---जो आज्ञा। [ ४९५ ]

( जाता है और हाथ बँधे हुए सिद्धार्थक को लेकर आता है )

सिद्धा०---( आप ही आप )

पै रिझवति दोस सों दूर बचावति जौन।
स्वामि-भक्ति जननी सरिस, प्रनमत नित हम तौन॥

पुरुष---( हाथ जाड़कर ) कुमार! यही मनुष्य है।

भागु०---( अच्छी तरह देखकर ) यह क्या बाहर का मनुष्य है या यहीं किसी का नौकर है?

सिद्धा०---मैं अमात्य राक्षस का पासवर्ती सेवक हूँ।

भागु०---तुम क्यो मुद्रा लिए बिना कटक के बाहर जाते थे?

सिद्धा०---आर्य! काम की जल्दी से।

भागु०---ऐसा कौन काम है जिसके आगे राजाज्ञा का भी कुछ मोल नहीं गिना?

( सिद्धार्थक भागुरायण के हाथ में लेख देता है )

भागु०---( लेख लेकर देखकर ) कुमार! इस लेख पर अमात्य राक्षस की मुहर है।

मलय०---ऐसी तरह से खोलकर दो कि मुहर न टूटे।

( भागुरायण पत्र खोलकर मलयकेतु को देता है )

मलय०---( पढ़ता है ) स्वस्ति। यथास्थान में कहीं से कोई किसी पुरुष-विशेष को कहता है। हमारे विपक्ष को निराकरण करके सच्चे मनुष्य ने सचाई दिखलाई। अब हमारे पहिले के रखे हुए हमारे हितकारी मित्रों को भी जो-जो देने को [ ४९६ ]कहा था वह देकर प्रसन्न करना। यह लोग प्रसन्न होंगे तो अपना आश्रय छूट जाने पर सब भॉति अपने उपकारी की सेवा करेंगे। सच्चे लोग कहीं नहीं भूलते तो भी हम स्मरण कराते हैं। इनमें से कोई तो शत्रु का कोष और हाथी चाहते हैं और कोई राज चाहते हैं। हमको सत्यवादी ने जो तीन अलंकार भेजे से मिले। हमने भी लेख अशून्य करने को कुछ भेजा है सो लेना। और जवानी हमारे अत्यंत प्रामाणिक सिद्धार्थक से सुन लेना।*

मलय०---मित्र भागुरायण! इस लेख का आशय क्या है?

भागु०---भद्र सिद्धार्थक! यह लेख किसका है?

सिद्धा०---आर्य! मैं नहीं जानता।

भागु०---धूर्त! लेख लेकर जाता है और यह नहीं जानता कि किसने लिखा है, और संदेसा किससे कहेगा?

सिद्धा०---( डरते हुए की भॉति ) आपसे।

भागु०---क्यों रे! हमसे?

सिद्धा०---आपने पकड़ लिया। हम कुछ नहीं जानते कि क्या बात है।

भागु०---( क्रोध से ) अब जानेगा। भद्र भासुरक! इसको बाहर


  • यह वही लेख है जिसको चाणक्य ने शकटदास से धोखा देकर

लिखवाया था और अपने हाथ से राक्षस की मुहर उस पर करके सिद्धार्थक को दिया था। [ ४९७ ]ले जाकर जब तक यह सब कुछ न बतलावे तब तक खूब मारो।

पुरुष---जो आज्ञा ( सिद्धार्थक को बाहर लेकर जाता है और हाथ में एक पेटी लिए फिर आता है ) आर्य! उसको मारने के समय उसके बगल में से यह मुहर की हुई पेटी गिर पड़ी।

भागु०---( देखकर ) कुमार! इस पर भी राक्षस की मुहर है।

मलय०---यही लेख अशून्य करने को होगी। इसकी भी मुहर बचाकर हमको दिखलायो।

( भागुरायण पेटी खोलकर दिखलाता है )

मलय०--अरे! यह तो वही सब आभरण हैं जो हमने राक्षस को भेजे थे। निश्चय यह चंद्रगुप्त को लिखा है।

भागु०---कुमार! अभी सब संशय मिट जाता है। भासुरक! उसको और मारो।

पुरुष---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आता है ) आर्य! हमने उसको बहुत मारा है। अब कहता है कि अब हम कुमार से सब कह देंगे।

मलय०---अच्छा, ले आओ।

पुरुष---जो कुमार की आज्ञा। ( बाहर जाकर सिद्धार्थक को लेकर आता है ) [ ४९८ ]सिद्धा०---( मलयकेतु के पैरों पर गिरकर ) कुमार! हमको अभय-दान दीजिए।

मलय०---भद्र! उठो, शरणागत जन यहाँ सदा अभय हैं। तुम इसका वृत्तांत कहो।

सिद्धा--( उठकर ) सुनिए। मुझको अमात्य राक्षस ने यह पत्र देकर चंद्रगुप्त के पास भेजा था।

मलय०---जबानी क्या कहने को कहा था वह कहो।

सिद्धा०---कुमार! मुझको अमात्य राक्षस ने यह कहने को कहा था कि मेरे मित्र कुलूत देश के राजा चित्रवर्मा, मलयाधिपति सिंहनाद, कश्मीरेश्वर पुष्कराक्ष, सिंधु-महाराज सिंधुसेन और पारसीक-पालक मेघाक्ष इन पाँच राजाओं से आपसे पूर्व में संधि हो चुकी है। इसमें पहिले तीन तो मलयकेतु का राज चाहते हैं और बाकी दो खजाना और हाथी चाहते हैं। जिस तरह महाराज ने चाणक्य को उखाड़कर मुझको प्रसन्न किया उसी तरह इन लोगों को भी प्रसन्न करना चाहिए। यही राजसंदेश है।

मलय०---( आप ही आप ) क्या चित्रवर्मादिक भी हमारे द्रोही हैं? तभी राक्षस में उन लोगों की ऐसी प्रीति है। ( प्रकाश ) विजये! हम अमात्य राक्षस को देखा चाहते हैं।

प्रति०---जो आज्ञा।

[ जाती है

[ ४९९ ]

( एक परदा हटना है और राक्षस आसन पर बैठा हुआ चिंता की मुद्रा में एक पुरुष के साथ दिखाई पडता है )

राक्षस---( आप ही आप ) चंद्रगुप्त की ओर के बहुत लोग हमारी सेना में भरती हो रहे हैं इससे हमारा मन शुद्ध नहीं है। क्योंकि---

रहत साध्य नै अचित अरु विलसत निज पच्छहिं।
सोई साधन साधक जो नहिं छुअत बिपच्छहिं॥
जो पुनि आपु असिद्ध सपच्छ बिपच्छडु में सम्।
कछु कहुँ नाहे निज पच्छ मॉहि जाको है संगम॥
नरपति ऐसे साधनन कों अनुचित अंगीकार करि।
सब भांति पराजित होन हैं बादी लौं बहु बिधि बिगरि॥

वा जो लोग चंद्रगुप्त से उदास हो गए हैं वही लोग इधर मिले हैं, मैं व्यर्थ सोच करता हूँ। ( प्रगट ) प्रियंबदक! कुमार के अनुयायी राजा लोगों से हमारी ओर से कह दो कि अब कुसुमपुर दिन-दिन पास आता जाता है, इससे सब लोग अपनी सेना अलग-अलग करके जो जहाँ नियुक्त हो वहाँ सावधानी से रहें।

आगे खस अफ मगध चले जयध्वजहि उड़ाए।
यवन और गंधार रहें मधि सैन जमाए॥
चेदि - हून - सकराज लोग पीछे सो धावहिं।
कौलूतादिक नृपति कुमारहि घेरे आवहिं॥

[ ५०० ]प्रियं०--अमात्य की जो आज्ञा।

[ जाता है

( प्रतिहारी आती है )

प्रति०---अमात्य की जय हो। कुमार अमात्य को देखना चाहते हैं।

राक्षस---भद्र! क्षण भर ठहरो। बाहर कौन है?

( एक मनुष्य आता है )

मनुष्य---अमात्य! क्या आज्ञा है?

राक्षस---भद्र! शकटदास से कहो कि जब से कुमार ने हमको आभरण पहराया है तब से उनके सामने नंगे अंग जाना हमको उचित नहीं है। इससे जो तीन आभरण मोल लिए हैं उनमें से एक भेज दें।

मनुष्य---जो अमात्य की आज्ञा। ( बाहर जाता है और आभरण लेकर आता है ) अमात्य! अलंकार लीजिए।

राक्षस---( अलंकार धारण करके ) भद्रे! राजकुल में जाने का मार्ग बतलाया।

प्रति०---इधर से आइए।

राक्षस---अधिकार ऐसी बुरी वस्तु है कि निर्दोष मनुष्य का भी जी डरा करता है।

सेवक प्रभु सों डरत सदाहीं। पराधीन सपने सुख नाहीं॥
जे ऊँचे पद के अधिकारी। तिनको मनहीं मन भय भारी॥
सबही द्वेष बड़न सों करहीं। अनुछिन कान स्वामि को भरहीं॥

[ ५०१ ]

जिमि जे जनमे ते मरे, मिले अवसि बिलगाहिं।
तिमि जे अति ऊँचे चढ़ें, गिरिहैं संसय नाहि॥

प्रति०---( आगे बढ़ कर ) अमात्य! कुमार यह बिराजते हैं, आप जाइए।

राक्षस---अरे, कुमार यह बैठे हैं।

लखत चरन की अोर हू, तऊ न देखत ताहि।
अचल दृष्टि इक ओर ही, रही बुद्धि अवगाहि॥
कर पै धारि कपोल निज लसत झुको अवनीस।
दुसह काज के भार सों मनहुँ नमित भो सीस॥

( आगे बढ़कर ) कुमार की जय हो!

मलय०---आर्य! प्रणाम करता हूँ। श्रासन पर बिराजिए।

( राक्षस बैठता है )

मलय०---आर्य! बहुत दिनों से हम लोगो ने आपको नहीं देखा।

राक्षस कुमार! सेना को आगे बढ़ाने के प्रबंध में फँसने के कारण हमको यह उपालंभ सुनना पड़ा।

मलय०---अमात्य! सेना के प्रयाण का आपने क्या प्रबंध किया है? मैं भी सुनना चाहता हूँ।

राक्षस---कुमार! आपके अनुयायी राजा लोगों को यह आज्ञा दी है। ('आगे खस अरु मगध' इत्यादि छंद पढ़ता है )

मलय०---( आप ही आप ) हाँ, जाना; जो हमारा नाश करने [ ५०२ ]के हेतु चंद्रगुप्त से मिले हैं वही हमको घेरे रहेंगे। ( प्रकाश ) आर्य, अब कुसुमपुर से कोई आता है या वहाँ जाता है कि नहीं?

राक्षस---अब यहाँ किसी के आने-जाने से क्या प्रयोजन। पाँच- छः दिन में हम लोग ही वहाँ पहुँचेंगे।

मलय०---( आप ही आप ) अभी सब खुल जाता है। ( प्रगट ) जो यही बात है तो इस मनुष्य को चिट्ठी लेकर आपने कुसुमपुर क्यों भेजा था?

राक्षस---( देखकर ) अरे! सिद्धार्थक है? भद्र! यह क्या?

सिद्धा०---( भय और लज्जा नाट्य करके ) अमात्य! हमको क्षमा कीजिए। अमात्य! हमारा कुछ भी दोष नहीं है, मार खाते-खाते हम अापका रहस्य छिपा न सके।

राक्षस---भद्र! वह कौन सा रहस्य है यह हमको नहीं समझ पड़ता।

सिद्धा०---निवेदन करते हैं, मार खाने से। ( इतना ही कह लज्जा से नीचा मुँह कर लेता है )

मलय०---भागुरायण! स्वामी के सामने लज्जा और भय से यह कुछ न कह सकेगा, इससे तुम सब बात आर्य से कहो।

भागु०---कुमार की जो आज्ञा। अमात्य! यह कहता है कि अमात्य राक्षस ने हमको चिट्ठी देकर और संदेश कह कर चंद्रगुप्त के पास भेजा है। [ ५०३ ]राक्षस---भद्र सिद्धार्थक! क्या यह सत्य है?

सिद्धा०---( लज्जा नाट्य करके ) बहुत मार खाने के डर से मैंने कह दिया।

राक्षस---कुमार! यह झूठ है, मार खाने से लोग क्या नहीं कह देते?

मलय०---भागुरायण! चिट्ठी दिखला दो और संदेशा वह अपने मुँह से कहेगा।

( भागुरायण चिट्ठी खोलकर 'स्वस्ति कहीं से कोई किसी को' इत्यादि पढ़ता है )

राक्षस--कुमार! कुमार! यह सब शत्रु का प्रयोग है।

मलय०---करने को आर्य ने जो आभरण भेजे हैं वह शत्रु कैसे भेजेगा? ( आभरण दिखलाता है )।

राक्षस---कुमार! यह मैने किसी को नहीं भेजा। कुमार ने यह मुझको दिया और मैंने प्रसन्न होकर सिद्धार्थक को दिया।

भागु०---आमात्य! क्या ऐसे उत्तम आभरणो का, विशेष कर क्या अपने अंग से उतारकर कुमार की दी हुई वस्तु का यह पात्र है?

मलय०---और संदेश भी बड़े प्रामाणिक सिद्धार्थक से सुनना, यह आर्य ने लिखा है।

राक्षस---कैसा संदेश और कैसी चिट्ठी? यह हमारा कुछ नहीं है! [ ५०४ ]मलय०---तो मुहर किसकी है?

राक्षस---धूर्त्त लोग कपटमुद्रा भी बना लेते हैं।

भागु०---कुमार! अमात्य सच कहते हैं! सिद्धार्थक, यह चिट्ठी किसकी लिखी है?

( सिद्धार्थक राक्षस का मुंह देखकर चुप रह जाता है )

भागु०--चुप मत रहो। जी कड़ा करके कहो।

सिद्धा०--आर्य! शकटदास ने।

राक्षस---शकटदास ने लिखा तो मानों मैंने ही लिखा।

मलय०---विजये! शकटदास को हम देखा चाहते हैं।

भागु०---( आपही आप ) आर्य चाणक्य के लोग बिना निश्चय समझे हुए कोई बात नहीं करते। जो शकटदास आकर यह चिट्ठी किस प्रकार लिखी गई है यह सब वृत्तांत कह देगा तो मलयकेतु फिर बहक जायगा। ( प्रकाश ) कुमार! शकटदास, अमात्य राक्षस के सामने लिखा होगा तो भी न स्वीकार करेंगे; इससे उनका कोई और लेख मँगाकर अक्षर मिला लिए जायँ।

मलय---विजये! ऐसा ही करो।

भागु०---और मुहर भी आवे।

मलय०---हाँ, वह भी।

कंचुकी---जो आज्ञा। ( बाहर जाती है और पत्र और मुहर लेकर आती है ) कुमार! यह शकटदास का लेख और मुहर है। [ ५०५ ]मलय०---( देखकर और अक्षर और मुहर की मिलान करके ) आर्य! अक्षर तो मिलते हैं।

राक्षस---( आप ही आप ) अक्षर निःसंदेह मिलते हैं, किंतु शकटदास हमारा मित्र है, इस हिसाब से नहीं मिलते। तो क्या शकटदास ही ने लिखा, अथवा--

पुत्र-दार की याद करि स्वामि-भक्ति तजि देत।
छोड़ि अचल जस कों करत चल धन सों जन हेत॥

या इसमें संदेह ही क्या है?

मुद्रा ताके हाथ में, सिद्धार्थक हू मित्र।
ताही के कर को लिख्यौ, पत्रहु साधन चित्र॥
मिलि के शत्रुन सों करन भेद भूलि निज धर्म।
स्वामि-विमुख शकटहि कियो, निश्चय यह खल कर्म॥

मलय०---आर्य! श्रीमान् ने तीन आभरण भेजे सो मिले, यह जो आपने लिखा है सेा उसी में का एक आभरण यह भी है? ( राक्षस के पहने हुए आभरण को देखकर आप ही आप ) क्या यह पिता के पहने हुए आभरण हैं? ( प्रकाश ) आर्य, यह आभरण आपने कहाँ से पाया?

राक्षस---जौहरी से मोल लिया था।

मलय०---विजये! तुम इन आभरणों को पहचानती हौ?

प्रति०---( देख कर आँसू भर के ) कुमार! हम सुगृहीत[ ५०६ ]नामधेय महाराज पर्वतेश्वर के पहिरने के आभरणों को न पहचानेंगी?

मलय०---( ऑखो में ऑसू भर के )

भूषण-प्रिय! भूषण सबै, कुल-भूषण! तुव अंग।
तुव मुख ढिग इमि सोहतो, जिमि ससि तारन-संग॥

राक्षस---( आप ही आप ) ये पर्वमेश्वर के पहिने हुए आभरण हैं? ( प्रकाश ) जाना, यह भी निश्चय चाणक्य के भेजे हुए जौहरियो ने ही बेंचा है।

मलय०---आर्य! पिता के पहने हुए आभरण और फिर चंद्रगुप्त के हाथ पड़े हुए जौहरी बेचे, यह कभी हो नहीं सकता। अथवा हो सकता है---

अधिक लाभ के लोभ सों कूर! त्यागि सब नेह।
बदले इन आभरन के तुम बेंच्यौ मम देह॥

राक्षस---( आप ही आप ) अरे! यह दॉव तो पूरा बैठ गया।

मम लेख नहिं यह किमि कहै मुद्रा छपी जब हाथ की।
विश्वास होत न शकट तजिहै प्रीति कबहूँ साथ की॥
पुनि बेचि हैं नृप चंद भूषण कौन यह पतियाइहै।
तासों भलो अब मौन रहनो कथन तें पति जाइहै॥

मलय०---आर्य! हम यह पूछते हैं।

राक्षस---जो आर्य हो उससे पूछो; हम अब पापकारी अनार्य

हो गए हैं। [ ५०७ ]मलय०---

स्वामि-पुत्र तुव मौर्य, हम मित्र-पुत्र सह हेत।
पैहौ उत वाको दियो, इत तुम हमको देत॥
सचिवहु भे उत दास ही, इत तुम स्वामी आप।
कौन अधिक फिर लोभ जो, तुम कीनो यह पाप॥

राक्षस---( अॉखों में आँसू भर के ) कुमार! इसका निर्णय तो आप ही ने कर दिया---

स्वामि-पुत्र मम मौर्य, तुम मित्र-पुत्र सह हेत।
पैहैं उत वाको दियो, इत हम तुमकों देत॥
सचिवहु भे उत दास ही, इत हम स्वामी आप।
कौन अधिक फिर लोभ जो, हम कीनो यह पाप॥

मलय०---( चिट्ठी, पेटी इत्यादि दिखला कर ) यह सब क्या है?

राक्षस---( ऑखो में आँसू भर के ) यह सब चाणक्य ने नहीं किया, दैव ने किया।

निज प्रभु सो करि नेह जे भृत्य समर्पत देह।
तिन सों अपने सुत सरिस सदा निबाहत नेह॥
ते गुणगाहक नृप सबै जिन मारे छन माहि।
ताही बिधि को दोस यह औरन को कछु नाहिं॥

मलय०---( क्रोधपूर्वक ) अनार्य! अब तक छल किए जाते हो कि यह सब देव ने किया।

विषकन्या दै पितु हत्यौ प्रथम प्रीति उपजाय।
अब रिपु सों मिलि हम सबन बधन चहत ललचाय॥

भा० ना०---२६
[ ५०८ ]राक्षस---( दुःख से आप ही आप ) हा! यह और जले पर नमक है। ( प्रगट कानो पर हाथ रखकर ) नारायण! देव

पर्वतेश्वर का कोई अपराध हमने नहीं किया।

मलय०---फिर पिता को किसने मारा?

राक्षस०---यह दैव से पूछो।

मलय०---दैव से पूछे, जीवसिद्धि क्षपणक से न पूछें?

राक्षस---( आप ही आप ) क्या जीवसिद्धि भी चाणक्य का गुप्तचर है! हाय! शत्रु ने हमारे हृदय पर भी अधिकार कर लिया?

मलय०---( क्रोध से ) भासुरक शिखरसेन सेनापति से कहो कि राक्षस से मिलकर चंद्रगुप्त को प्रसन्न करने को पॉच राजे जो हमारा बुरा चाहते हैं, उनमें कौलूत चित्रवर्मा, मलयाधिपति सिंहनाद और कश्मीराधीश पुष्कराक्ष ये तीन हमारी भूमि की कामना रखते हैं, सो इनको भूमि हो में गाड़ दे; और सिंधुराज सुषेण और पारसीकपति मेघाक्ष हमारी हाथी की सेना चाहते हैं सो इनको हाथी ही के पैर के नीचे पिसवा दे।

पुरुष---जो कुमार की आज्ञा।

[ जाता है

मलय०---राक्षस! हम मलयकेतु हैं, कुछ तुममे विश्वासघाती

राक्षस नहीं हैं। इससे तुम जाकर अच्छी तरह चंद्रगुप्त का आश्रय करो। [ ५०९ ]

चंद्रगुप्त-चाणक्य सों मिलिए सुख सों आप।
हम तीनहुँ को नासिहैं जिमि त्रिवर्ग कहँ पाप॥

भागु०---कुमार! व्यर्थ अब कालक्षेप मत कीजि । कुसुमपुर घेरने को हमारी सेना चढ़ चुकी है।

उड़िकै तियगन गंड जुगल कहँ मलिन बनावति।
अलिकुल से कल अलकन निज कन धवल छवावति॥
चपल तुरग-खुर-घात उठी घन घुमड़ि नवीनी।
सत्रु-सीस पै धूरि परै गजमद सों भीनी॥

( अपने भृत्यों के साथ मलयकेतु जाता है )

राक्षस---( घबड़ाकर ) हाय! हाय! चित्रधर्मादिक साधु सब व्यर्थ मारे गए। हाय! राक्षस की सब चेष्टा शत्रु को नहीं, मित्रों ही के नाश करने को होती है। अब हम मंदभाग्य क्या करें?

जाहिं तपोवन, पै न मन शांत होत सह क्रोध।
प्रान देहिं रिपु के जियत यह नारिन को बोध॥
खींचि खड्ग कर पतँग समाजहिं अनल अरि-पास।
पै या साहस होइहै चंदनदास बिनास॥

( सोचता हुआ जाता है )