भारतेंदु-नाटकावली/६–भारत दुर्दशा (दूसरा अंक)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ५६२ ]

दूसरा अंक

स्थान-–श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर

कौआ, कुत्ता, स्यार घूमते हुए, अस्थि इधर-उधर पड़ी है।

(भारत *[१] का प्रवेश)


भारत-हा! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण-चंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था "शूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव" और ‌आज हम उसी भूमि को देखते हैं कि श्मशान हो रही है। अरे यहाँ की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढचित्तता, सत्य सब कहाँ गए ? अरे पामर जयचंद्र ! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय ! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं। (रोता है) मातः, राजराजेश्वरि, विजयिनि ! मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय ! मैंने जाना था कि अँगरेजो के हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म


[ ५६३ ]

बितावेंगे पर दैव से वह भी न सहा गया। हाय ! कोई बचानेवाला नहीं।

(गीत)

कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ।
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ॥
जाकी सरन गहत सोइ मारत सुनत न कोउ दुखगाथ।
दीन बन्यौ इत सों उत डोलत टकरावत निज माथ॥
दिन-दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊ नहिं साथ।
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाइ उबारौ नाथ॥

(नेपथ्य में गभीर और कठोर स्वर से)

अब भी तुझको अपने नाथ का भरोसा है ! खड़ा तो रह। अभी मैंने तेरी आशा की जड़ न खोद डाली तो मेरा नाम नहीं।


भारत--(डरता और काँपता हुआ रोकर) अरे यह विकराल-वदन कौन मुँह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है? हाय-हाय इससे कैसे बचेंगे? अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायगा। हाय ! परमेश्वर वैकुंठ में और राज-राजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा? अब कोई उपाय नहीं। अब मरा, अब मरा। (मूर्छा खाकर गिरता है) [ ५६४ ]

(निर्लज्जता *[२] आती है)


निर्लज्जता--मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छिः छिः !' जीओगे तो भीख माँग खाओगे। प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धन-मान सब गया “एक ज़िंदगी हज़ार नेआमत है।" (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चले। नहीं-नहीं, मुझसे अकेले न उठेगा। (नेपथ्य की ओर) आशा ! आशा ! जल्दी आओ।

(आशा †[३] आती है)


निर्लज्जता--यह देखो भारत मरता है, जल्दी इसे घर उठा ले चलो।


आशा--मेरे आछत किसी ने भी प्राण दिया है? ले चलो, अभी जिलाती हूँ।

(दोनों उठाकर भारत को ले जाती हैं)

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  1. * फटे कपड़े पहिने, सिर पर अर्द्ध किरीट, हाथ मे टेकने की छड़ी, शिथिल अंग
  2. *जाँघिया--सिर खुला--ऊँची चोली--दुपट्टा ऐसा गिरता पड़ता कि अंग खुले, सिर खुला, खानगियों का सा वेष।
  3. †लड़की के वेष में।