भारतेंदु-नाटकावली/७–नीलदेवी (आठवाँ दृश्य)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र

[ ६२४ ]

आठवाँ दृश्य
स्थान––मैदान, वृक्ष
(एक पागल आता है)

पागल––मार मार मार––काट काट काट––ले ले ले––ईबी––सीबी––बीबी––तुरक तुरक तुरक––अरे आया आया आया––भागो भागो भागो। (दौड़ता है) मार मार मार––और मार दे मार––जाय न जाय न––दुष्ट चांडाल गोभक्षी जवन––अरे हाँ रे जवन लाल डाढ़ी का जवन––बिना चोटी का जवन––हमारा सत्यानाश कर डाला। हमारा हमारा हमारा। इसी ने इसी ने––लेना, जाने न पावे। दुष्ट म्लेच्छ––हुँ! हम को राजा बनावेगा। छत्र चँवर मुरछल सिंहासन सब––पर जवन का दिया––मार मार मार––शस्त्र न हो तो मंत्र से मार। मार मार मार। ह्रां ह्रीं ह्रूं फट चट पट––जवन पट––चट––छट पट अ ई ऊँ आकास बाँध पाताल––चोटी कटा निकाल। फः––हां हीं हौं––जवन जवन मारय मारय उच्चाटय उच्चाटय...बेधय बेधय...नाशय नाशय...फाँसय फाँसय––त्रासय त्रासय...स्वाहा फूः सब जवन स्वाहा फूः अब भी नहीं गया? मार मार मार। हमारा देश––हम राजा हम रानी। हम [ ६२५ ]मंत्री। हम प्रजा। और कौन? मार मार मार। तलवार तलवार। टूट गई टूटी। टूटी से मार। ढेले से मार। हाथ से मार। मुक्का जूता लात लाठी सोटा ईंटा पत्थर-पानी सबसे मार। हम राजा हमारा देश हमारा भेस हमारा पेड़-पत्ता कपड़ा-लत्ता छाता-जूता सब हमारा। ले चला ले चला। मार मार मार––जाय न जाय न––सूरज में जाय चंद्रमा में जाय तारा में जाय उतारा में जाय पारा में जाय जहाँ जाय वहीं पकड़––मार मार मार। मींयाँ मींयाँ मींयाँ चींयाँ चींयाँ चींयाँ। अल्ला अल्ला अल्ला हल्ला हल्ला हल्ला। मार मार मार। लोहे के नाती की दुम से मार। पहाड़ की स्त्री के दीए से मार––मार मार––अंड का बंड का संड का खंड––धूप छाँह चना मोती अगहन पूस माघ कपड़ा लत्ता डोम चमार मार मार। ईंट की आँख में हाथी का बान––बंदर की थैली में चूने की कमान––मार मार मार––एक एक एक मिल मिल मिल छिप छिप छिप––खुल खुल खुल––मार मार मार––

(एक मियाँ को आता देखकर)

मार मार मार––मुसल मुसल मुसल––मान मान मान––सलाम सलाम सलाम कि मार मार मार––नबी नबी नबी––सबी सबी सबी––ऊँट के अंडे की चरबी का खर। कागज के धप्पे कर सप्पे की सर––मार मार मार। [ ६२६ ]

(मियाँ के पास जाकर)

तुरुक तुरुक तुरुक––घुरुक घुरुक घुरुक––मुरुक मुरुक मुरुक––फुरुक फुरुक फुरुक––याम शाम लीम लाम ढाम––

(मियाँ को पकड़ने दौड़ता है)

मियाँ––(आप ही आप) यह तो बड़ी हत्या लगी। इससे कैसे पिंड छुटेगा। (प्रगट) दूर दूर।

पागल––दूर दूर दूर––चूर चूर चूर––मियाँ की डाढ़ी में दोजख की हूर––दन तड़ाक छू मियाँ की माईं में मोयीं की मूँ––मार मार मार––मियाँ छार खार––

(मियाँ के पास जाकर अट्टहास करके)

रावण का साला दुर्योधन का भाई अमरूत के पेड़ की पसेरी बनाता है––अच्छा अच्छा––नहीं नहीं तैने तो हमको उस दिन मारा था न! हाँ हाँ यही है यही––जाने न पावे। मार मार––

(मियाँ की गरदन पकड़कर पटक देता है और छाती पर चढ़ कर बैठता है)

रावण का साला दिल्ली का नवाब वेद की किताब––बोल हम राजा कि तू राजा––(मियाँ की डाढ़ी पकड़कर खींचने से कृत्रिम डाढ़ी निकल आती है। विष्णुशर्मा को पहिचानकर अलग हो जाता है) रावण का साला मियाँ का भेस विष्णु के कान में सरमा का केस। मेरी शक्ति [ ६२७ ]गुरु की भक्ति फुरो मंत्र ईश्वरोवाच डाढ़ी जगावे तो मियाँ साँच।

(आँख से इगित करता है)

मियाँ––(फिर डाढ़ी लगाकर) लाहौल वला कूवत क्या बेखबर पागल है। इसके घर के लोग इसके लौटने के मुन्तजिर हैं यह यहीं पड़ा है।

पागल––पड़ा घड़ा सड़ा––घूम घाम जड़ा––एक एक बात––जात सात धात––नास नास नास––घास छास फास।

मियाँ––क्या सचमुच––दरहकीकत––यह बड़ा भारी पागल है। पागल––सचमुच नास––राजा अकास––ढाल बे ढाल मियाँ मतवाल।

(आँख से दूर जाने को इंगित करता है। मियाँ आगे बढ़ते हैं––यह पीछे धूल फेकता दौड़ता है)

मार मार मार। बरसा की धार। लेना जाने न पावे। मियाँ का खच्चर। (दोनों एकांत में जाकर खड़े होते हैं)

मियाँ––(चारों ओर देखकर) अरे वसंत! क्या सचमुच सर्वनाश हो गया?

पागल––पंडितजी! कल सबेरी रात ही महाराज ने प्राण त्याग किए। (रोता है)

मियाँ––हाय! महाराज, हम लोगों को आप किसके भरोसे छोड़ गए! अब हमको इन नीचों का दासत्व भोगना [ ६२८ ]पड़ैगा! हाय हाय! (चारों ओर देखकर) हाँ, समाचार तो कहो क्या हुआ।

पागल––कल उन दुष्ट यवनों ने महाराज से कहा कि तुम जो मुसलमान हो जाओ तो हम तुमको अब भी छोड़ दें। इस समय वह दुष्ट अमीर भी वहीं खड़ा था। महाराज ने लोहे के पिंजड़े में से उसके मुँह पर थूक दिया, और क्रोध कर के कहा कि दुष्ट! हमको पिंजड़े में बंद और परवश जानकर ऐसी बात कहता है। छत्री कहीं प्राण के भय से दीनता स्वीकार करते हैं। तुझपर थू और तेरे मत पर थू।

मियाँ––(घबड़ाकर) तब तब।

पागल––इसपर सब यवन बहुत बिगड़े। चारों ओर से पिंजड़े के भीतर शस्त्र फेंकने लगे। महाराज ने कहा इस बंधन में मरना अच्छा नहीं। बड़े बल से लोहे के पिंजड़े का डंडा खींचकर उखाड़ लिया और पिंजड़े से बाहर निकल उसी लोहे के डंडे से सत्ताईस यवनों को मारकर उन दुष्टों के हाथ से प्राण त्याग किए। हाय! (रोता है)

मियाँ––(चारों ओर देखकर) और अब क्या होता है? महाराज का शरीर कहाँ है? तुमने यह सब कैसे जाना?

पागल––सब इन्हीं दुष्टों के मुख से सुना। इसी भेष में घूमते हैं। महाराज का शरीर अभी पिंजड़े में रक्खा है। कल[१] जशन होगा। कल सब शराब पीकर मस्त होंगे। (चारों ओर देखकर) कल ही अवसर है।

मियाँ––तो कुमार सोमदेव और महारानी से हम जाकर यह वृत्त कह देते हैं, तुम इन्हीं लोगों में रहना।

पागल––हाँ, हम तो यहीं हई है। (रोकर) हम अब स्वामी के बिना वहाँ जाकर ही क्या करेंगे!

मियाँ––हाय! अब भारतवर्ष की कौन गति होगी? अब त्रैलोक्य-ललाम सुता भारत-कमलिनी को यह दुष्ट यवन यथासुख दलन करेंगे। अब स्वाधीनता का सूर्य हम लोगों में फिर न प्रकाश करेगा। हाय! परमेश्वर तू कहाँ सो रहा है। हाय! धार्मिक वीर पुरुष की यह गति!

(उदास स्वर से गाता है)
(विहाग)

कहाँ करुनानिधि केसव सोए!
जागत नेक न जदपि बहुत बिधि भारतवासी रोए॥
इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारतहित बिसराए।
इतके पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए॥
इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहि तुम रछ्‌यौ तुरतहि धाई॥
प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर-प्रानसंहारी।
ताकी धार भई अब कुंठित हमारी बेर मुरारी॥

[ ६२९ ]

दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटैं।
एक-एक दिन सहस-सहस नर-सीस काटि भुव पाटै॥
ह्वै अनाथ आरत कुल-विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।
बल करि दासी तिनहिं बनावहिं तुम नहिं लजत खरारी॥
कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई।
भक्तबछल करुनानिधि तुम कहँ गायो बहुत बनाई॥
हाय सुनत नहिं निठुर भए क्यों परम दयाल कहाई।
सब बिधि बूड़त लखि निज देसहि लेहु न अबहुँ बचाई॥

(दोनों रोते हैं)
(जवनिका पतन)

 

  1. यहाँ तक का पाठ, इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या ५२८, मूल पाठ से गायब है। इसे भारतेन्दु समग्र का स्रोत देखकर शोधित किया गया है।