भारतेंदु-नाटकावली/७–नीलदेवी (सातवाँ दृश्य)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र

[ ६२१ ]

सातवाँ दृश्य
स्थान––कैदखाना
(महाराज सूर्य्यदेव एक लोहे के पिंजड़े में मूर्छित पड़े हैं।
एक देवता सामने खड़ा होकर गाता है)

देवता––

(लावनी)

सब भाँति दैव प्रतिकूल होइ एहि नासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
अब सुख-सूरज को उदय नहीं इत ह्वैहै।
सो दिन फिर इत अब सपनेहूँ नहिं ऐहै॥
स्वाधीनपनो बल धीरज सबहि नसैहै।
मंगलमय भारत भुव मसान ह्वै जैहै॥
दुख ही दुख करिहै चारहु और प्रकासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
इत कलह विरोध सबन के हिय घर करिहै।
मूरखता को तम चारहु ओर पसरिहै॥
वीरता एकता ममता दूर सिधरिहै।
तजि उद्यम सब ही दासवृत्ति अनुसरिहै॥
ह्वै जैहैं चारहु बरन शूद्र बनि दासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥

[ ६२२ ]

ह्वैहैं इतके सब भूत-पिशाच-उपासी।
कोऊ बनि जैहैं आपुहि स्वयं प्रकासी॥
नसि जैहैं सगरे सत्य धर्म अविनासी।
निज हरि सों ह्वैहैं बिमुख भरत-भुवबासी॥
तजि सुपथ सबहि जन करिहैं कुपथ बिलासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
अपनी वस्तुन कहँ लखिहैं सबहि पराई।
निज चाल छोड़ि गहिहैं औरन की धाई॥
तुरकन हित करिहैं हिंदू संग लराई।
यवनन के चरनहिं रहिहैं सीस चढ़ाई॥
तजि निज-कुल करिहैं नीचन संग निवासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आर्य बलधारी।
यह दैहैं जिय सो सब ही बात बिसारी॥
हरि-बिमुख, धरम बिनु, धन-बलहीन दुखारी।
आलसी मंद तन छीन छुधित संसारी॥
सुख सों सहिहैं सिर यवनपादुका त्रासा।
अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा॥

(जाता है)

सूर्य्य॰––(सिर उठाकर) यह कौन था? इस मरते शरीर पर इसने अमृत और विष दोनों एक साथ [ ६२३ ]बरसाया? अरे अभी तो यहाँ खड़ा गा रहा था अभी कहाँ चला गया? निस्संदेह यह कोई देवता था। नहीं तो इस कठिन पहरे में कौन आ सकता है। ऐसा सुंदर रूप और ऐसा मधुर सुर और किसका हो सकता है। क्या कहता था? 'अब तजहु बीर-बर भारत की सब आसा'। ऐं! यह देववाक्य क्या सचमुच सिद्ध होगा? क्या अब भारत का स्वाधीनता-सूर्य फिर न उदय होगा? क्या हम क्षत्रिय राजकुमारों को भी अब दासवृत्ति करनी पड़ेगी? हाय! क्या मरते-मरते भी हमको यह वज्र शब्द सुनना पड़ा? और क्या कहा, 'सुख सों सहिहैं सिर यवनपादुका त्रासा।' हाय! क्या अब यहाँ यही दिन आवेंगे? क्या भारतजननी अब एक भी वीर पुत्र न प्रसव करेगी? क्या दैव को अब इस उत्तम भूमि की यही नीच गति करनी है? हा! मैं यह सुनकर क्यों नहीं मरा कि आर्यकुल की जय हुई और यवन सब भारतवर्ष से निकाल दिए गए। हाय!

(हाय-हाय करता और रोता हुआ मूर्छित हो जाता है)
(जवनिका पतन)