भारतेंदु-नाटकावली/७–नीलदेवी (तीसरा दृश्य)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र

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तीसरा दृश्य
स्थान––पहाड़ की तराई
(राजा सूर्य्यदेव, रानी नीलदेवी और चार राजपूत बैठे हैं)

सूर्य्य॰––कहो भाइयो! इन मुसलमानों ने तो अब बड़ा उपद्रव मचाया है।

प॰ रा॰––तो महाराज! जब तक प्राण है तब तक लड़ेंगे।

दू॰ रा॰––महाराज! जय-पराजय तो परमेश्वर के हाथ है परंतु हम अपना धर्म तो प्राण रहे तक निबाहेंगे ही।

सूर्य्य॰––हाँ हाँ, इसमें क्या संदेह है। मेरा कहने का मतलब यह है कि सब लोग सावधान रहें।

ती॰ रा॰––महाराज! सब सावधान हैं। धर्म-युद्ध में तो हमको जीतनेवाला कोई पृथ्वी पर नहीं है।

नीलदेवी––पर सुना है कि ये दुष्ट अधर्म से बहुत लड़ते हैं।

सूर्य्य॰––हे प्यारी! वे अधर्म से लड़ें, हम तो अधर्म नहीं कर सकते। हम आर्यवंशी लोग धर्म छोड़कर लड़ना क्या जानैं? यहाँ तो सामने लड़ना जानते हैं। जीते तो निज भूमि का उद्धार और मरे तो स्वर्ग। हमारे तो दोनों हाथ लड्डू है; और यश तो जीतें तो भी हमारे साथ है और मरें तो भी।


चौ॰रा॰––महाराज! इसमें क्या संदेह है, और हम लोगों को एकाएकी अधर्म से भी जीतना कुछ दाल-भात का गस्सा नहीं है।

नीलदेवी––तो भी इन दुष्टों से सदा सावधान ही रहना चाहिए। आप लोग सब तरह चतुर हो, मैं इसमें विशेष क्या कहूँ। स्नेह कुछ कहलाए बिना नहीं रहता।

सूर्य्य॰––(आदर से) प्यारी! कुछ चिंता नहीं है, अब तो जो कुछ होगा देखा ही जायगा न। (राजपूतों से)

सावधान सब लोग रहहु सब भाँति सदा हीं।
जागत ही सब रहै रैन हूँ सोअहिं नाहीं॥
कसे रहैं कटि रात-दिवस सब बीर हमारे।
अस्वपीठ सों होंहिं चारजामें जिनि न्यारे॥
तोड़ा सुलगत चढ़े रहै घोड़ा बंदूकन।
रहैं खुली ही म्यान प्रतंचे नहिं उतरें छन॥
देखि लेहिंगे कैसे पामर यवन बहादुर।
आवहिं तो चढ़ि सनमुख कायर कूर सबै जुर॥
दैहै रन को स्वाद तुरंतहि तिनहिं चखाई।
जो पै इक छन हू सनमुख ह्वै करहिं लराई॥

(जवनिका पतन)