भारतेंदु-नाटकावली/८–अंधेर नगरी (तीसरा अंक)

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ६५२ ]

तीसरा अंक

स्थान-जंगल

(महंतजी और नारायणदास एक ओर से "राम
भनो" इत्यादि गाते हुए आते हैं और दूसरी
ओर से गोबरधनदास 'अधेरनगरी'
गाते हुए पाते हैं)

महंत––बच्चा गोबरधनदास! कह, क्या भिक्षा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।

गोबरधन०-बाबाजी महाराज! बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।

महंत––देखू बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोलकर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?

गोबरधन०––गुरुजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।

महंत––बच्चा! नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन सी नगरी है और इसका कौन सा राजा है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है? [ ६५३ ]गोबरधन०––अंधेरनगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।

महंत––तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हों।

दोहा

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास॥
कोकिल बायस एकसम, पंडित मूरख एक।
इंद्रायन दाडिम विषय जहाँ न नेकु बिबेक॥
बसिए ऐसे देस नहि, कनक-वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय॥

से बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अंधेरनगरी में हजार मन मिठाई मुरू को मिले तो किस काम की? यहाँ एक छन नहीं रहना।

गोबरधन०––गुरुजी, ऐसा तो संसार भर में कोई देस ही नहीं है। दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मॉगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे-बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यहीं रहूँगा।

महंत––देख बच्चा, पीछे पछतायगा। [ ६५४ ]गोबरधन०––आपकी कृपा से कोई दुख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

महंत––मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूँगा। देख, मेरी बात मान, नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो हमारा स्मरण करना।

गोबरधन०––प्रणाम गुरुजी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

(महंतनी नारायणदास के साथ जाते हैं, गोबरधनदास बैठकर मिठाई। खाता है)

(जवनिका गिरती है)

_____