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भारतेंदु-नाटकावली/८–अंधेर नगरी (दूसरा अंक)

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ६४६ से – ६५१ तक

 

दूसरा अंक

स्थान—बाजार

कबाबवाला––कबाब गरमागरम मसालेदार––चौरासी मसाला बहत्तर आँच का––कबाब गरमागरम मसालेदार––खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै। कबाब लो, कबाब का ढेर––बेचा टके सेर।

घासीराम––चने जोर गरम––

चने बनावै घासीराम। जिनकी झोली में दूकान॥
चना चुरमुर चुरमुर बोले। बाबू खाने को मुंह खोलै॥
चना खाधैं तौकी, मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना॥
चना खायँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहीं कुछ सुन्ना॥
चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली॥
चना खाते मियाँ जुलाहे। डाढ़ी हिलती गाह बगाहे॥
चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दूना टिकस लगाते॥
चने जोर गरम-टके सेर।

नरंगीवाली––नरंगी ले नरंगी––सिलहट की नरंगी, बुटवल की नरंगी। रामबाग की नरंगी, आनंदबाग की नरंगी। भई नीबू से नरंगी। मैं तो पिय के रंग न रंगी। मैं तो भूली लेकर संगी। नरंगी ले नरंगी। कँवला नीबू, मीठा नीबू, रंगतरा, संगतरा। दोनों हाथों लो––नहीं पीछे हाथ ही मलते रहोगे। नरंगी ले नरंगी। टके सेर नरंगी।

हलवाई––अलेबियाँ गरमागरम। ले सेव इमरती लड्डु, गुलाब जामुन खुरमा बुंदिया बरफी समोसा पेड़ा कचौड़ी दालमोट पकौड़ी घेघर गुपचुप। हलुबा ले हलुा मोहनभोग। मोयनदार कचौड़ी कचाका हलुआ नरम चभाका। घी में गरक चीनी में तरातर चासनी में चभाचभ। ले भूर का लड्डु। जो खाय सो भी पछताय। जो न खाय सो भी पछताय। रेवड़ी कड़ाका। पापड़ पड़ाका। ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तिस कौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विलसन मंदिर के भितरिए, वैसे अंधेर-नगरी के हम। सब सामान ताजा। खाजा ले खाजा। टके सेर खाजा।

कुँजडिन––ले धनिया मेथी सोप्रा-पालक चौराई बथुषा करेमू नोनियाँ कुलफा कसारी चना सरसों का साग। मरसा ले मरसा। ले बैगन लौना कोहड़ा आलू अरुई बंडा नेनुऑ सूरन रामतरोई तरोई मुरई। ले आदी मिरचा लहसुन पियाज टिकोरा। ले फालसा खिरनी आम अमरूत निबुधा मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी। ले हिंदुस्तान का मेवा फूट और बैर। मुगल––बादाम पिस्ते अखरोट अनार बिहीदाना मुनक्का किश मिश अंजीर श्राबजोश पालूबोखारा चिलगोजा सेब नाशपाती बिही सरदा अंगूर का पिटारी। प्रामारा ऐसा मुल्क जिसमें अँगरेज का भी दॉत कट्टा औ गया। नाहक को रुपया खराब किया बेवकूफ बना*‌।हिंदोस्तान का आदमी लक-लक हमारे यहाँ का आदमी बुंबक बुंबक। लो सब मेवा टके सेर।

पाचकवाला––

चूरन अलमबेद का भारी। जिसको खाते कृष्ण मुरारी॥
मेरा पाचक है पचलोना। जिसको खाता श्याम सलोना॥
चूरन बना मसालेदार। जिसमें खट्टे की बहार॥
मेरा चूरन जो कोइ खाय। मुझको छोड़ कहीं नहिं जाय॥
हिंदू चूरन इसका नाम। बिलायत पूरन इसका काम॥
चूरन जब से हिंद में पाया। इसका धन बल सभी घटाया॥
चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा। कीना दॉत सभी का खट्टा॥
चूरन चला डाल की मंडी। इसको खाएँगी सब रंडी॥
चूरन अमले सब जो खावै। दूनी रिशवत तुरत पचावै॥
चूरन नाटकवाले खाते। इसकी नकल पचाकर लाते॥
चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते॥
चूरन खाते लाला लोग । जिनको अकिल अजीरन रोग॥

[]


चूरन खावै एडिटर जात। जिनके पेट पचै नहिं बात॥
चूरन साहेब लोग जो खाता। सारा हिंद हजम कर जाता॥
चूरन पूलिसवाले खाते। सब कानून हजम कर जाते॥
ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर।

मछलीवाली––मछरी ले मछरी।

मछरिया एक टके कै बिकाय।
लाख टका कै बाला जोबन, गॉहक सब ललचाय॥
नैन-मछरिया रूप-जाल में, देखत ही फँसि जाय।
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिले बिना अकुलाय॥

जातवाला (ब्राह्मण)––जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते है। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जायँ और धोबी को ब्राह्मण कर दें, टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य माने, टके के वास्ते नीच को भी पितामह बनायें। वेद धर्म कुल-मरदी सचाई-बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल। ले टके सेर।

बनियाँ––आटा दाल लकड़ी नमक घी चीनी मसाला चावल ले टके सेर। (बाबाजी का चेला गोबरधनदास पाता है और सब बेचनेवालों की आवाज सुन-सुनकर खाने के आनंद में बडा प्रपन्न होता है)

गोबरधन०––क्यों भाई बनिये, आटा कितने सेर?

बनियाँ––टके सेर।

गोबरधन०––औ चावल?

बनियाँ––टके सेर।

गोबरधन०––औ चीनी?

बनियाँ––टके सेर।

गोबरधन०––औ धी?

बनिया––टके सेर।

गोबरधन––सब टके सेर! सचमुच।

बनियाँ––हॉ महाराज, क्या झूठ बोलूँगा?

गोबरधन०––(कुंजड़िन के पास जाकर) क्यो माई, भाजी क्या भाव?

कुंजडिन––बाबाजी, के सेर। निनुआ मुरई धनियाँ मिरचा साग सब टके सेर।

गोबरधन०––सब भाजी टके सेर! वाह-वाह! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीज टके सेर। (हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई हलवाई! मिठाई कितने सेर?

हलवाई––बाबाजी! लडुआ हलुआ जलेबी गुलाबजामुन खाजा सब टके सेर। गोबरधन०––वाह! वाह!! बड़ा आनंद है। क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर?

हलवाई––हाँ बाबाजी, सचमुच सब टके सेर। इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर बिकती है।

गोबरधन०––क्यों बच्चा! इस नगरी का नाम क्या है? हलवाई-अंधेरनगरी।

गोबरधन०––और राजा का क्या नाम है?

हलवाई––चौपट्ट राजा।

गोबरधन०––वाह! वाह! अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा। ( यही गाता है और प्रानंद से बगल बजाता है)

हलवाई––तो बाबाजी, कुछ लेना-देना हो तो लो-दो।

गोबरधन०––बच्चा, भिक्षा मांगकर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरु-चेले सब आनंदपूर्वक इतने में छक जायँगे।

(हलवाई मिठाई तौलता है––बाबाजी मिठाई लेकर खाते हुए और अंधेरनगरी गाते हुए जाते हैं)

(जवनिका गिरती है)


  1. *चंद्रप्रभा प्रेस की प्रति में नहीं है।