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भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ६६७ से – ६६९ तक

 


सतीप्रताप







नाटक






संवत् १९४०

सतीप्रताप

(एक गीतिरूपक)

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पहला दृश्य

स्थान--हिमालय का अधोभाग

(तृण-लता-वेष्टित एक टीले पर बैठी हुई तीन अप्सरा गाती हैं

प० अप्सरा--

(राग झिझौटी)


जय जय श्री रुकमिन महरानी।
निज पति त्रिभुवन-पति हरिपद में छाया सी लपटानी॥
सती-सिरोमनि रूपरासि करुनामय सब गुनखानी।

आदिशक्ति जगकारनि पालनि निज भक्तन सुखदानी॥

दू० अप्सरा--

(राग जगला या पीलू)


जग में पतिव्रत सम नहिं आन।
नारि हेतु कोउ धर्म न दूजो जग में यातु समान॥
अनसूया सीता सावित्री इनके चरित प्रमान।

पति-देवता तीय जगधन--धन गावत बेद-पुरान॥

धन्य देस कुल जहॅ निबसत हैं नारी सती सुजान।
धन्य समय सब जन्म लेत ये धन्य ब्याह असथान॥
सब समर्थ पतिबरता नारी इन सम और न आन।

याही ते स्वर्गहु में इनको करत सबै गुन-गान॥

ती० अप्सरा--

(रागिनी बहार)


नवल बन फूली द्रुम-बेली।
लहलह लहकहिं महमह महकहिं मधुर सुगंधहि रेली॥
प्रकृति नवोढा सजे खरी मनु भूषन बसन बनाई।
आँचर उड़त बात-बस फहरत प्रेम-धुजा लहराई॥
गँजहि भॅवर बिहंगम डोलहिं बोलहिं प्रकृति बधाई।
पुतली सी जित-तित तितली-गन फिरहिं सुगंध लुभाई॥
लहरहिं जल लहकहिं सरोजगन हिलहिं पात तरु डारी।

लखि रितुपति आगम सगरे जग मनहुँ कुलाहल भारी॥

(जवनिका गिरती है)