भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप
सतीप्रताप
नाटक
संवत् १९४०
सतीप्रताप
(एक गीतिरूपक)
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पहला दृश्य
स्थान--हिमालय का अधोभाग
(तृण-लता-वेष्टित एक टीले पर बैठी हुई तीन अप्सरा गाती हैं
प० अप्सरा--
(राग झिझौटी)
जय जय श्री रुकमिन महरानी।
निज पति त्रिभुवन-पति हरिपद में छाया सी लपटानी॥
सती-सिरोमनि रूपरासि करुनामय सब गुनखानी।
दू० अप्सरा--
(राग जगला या पीलू)
जग में पतिव्रत सम नहिं आन।
नारि हेतु कोउ धर्म न दूजो जग में यातु समान॥
अनसूया सीता सावित्री इनके चरित प्रमान।
धन्य देस कुल जहॅ निबसत हैं नारी सती सुजान।
धन्य समय सब जन्म लेत ये धन्य ब्याह असथान॥
सब समर्थ पतिबरता नारी इन सम और न आन।
ती० अप्सरा--
(रागिनी बहार)
नवल बन फूली द्रुम-बेली।
लहलह लहकहिं महमह महकहिं मधुर सुगंधहि रेली॥
प्रकृति नवोढा सजे खरी मनु भूषन बसन बनाई।
आँचर उड़त बात-बस फहरत प्रेम-धुजा लहराई॥
गँजहि भॅवर बिहंगम डोलहिं बोलहिं प्रकृति बधाई।
पुतली सी जित-तित तितली-गन फिरहिं सुगंध लुभाई॥
लहरहिं जल लहकहिं सरोजगन हिलहिं पात तरु डारी।
(जवनिका गिरती है)