सामग्री पर जाएँ

भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (चौथा दृश्य)

विकिस्रोत से
भारतेंदु-नाटकावली
भारतेन्दु हरिश्चंद्र, संपादक ब्रजरत्नदास

इलाहाबाद: रामनारायणलाल पब्लिशर एंड बुकसेलर, पृष्ठ ६८४ से – ६८८ तक

 

चौथा दृश्य

स्थान--तपोवन। द्युमत्सेन का आश्रम

(द्युमत्सेन, उनकी स्त्री और ऋषि बैठे हैं।)

द्युमत्सेन--ऐसे ही अनेक प्रकार के कष्ट उठाए है, कहाँ तक वर्णन किया जाय।

पहला ऋषि--यह आपकी सजनता का फल है।

(छापय)

क्यौं उपज्यौ नरलोक? ग्राम के निकट भयो क्यौं?

सघन पात सों सीतल छाया दान दयो क्यौं?
मीठे फल क्यौं फल्यो? फल्यौ तो नम्र भयो कित?
नम्र भयो तो सहु सिर पै बहु बिपति लोक -कृत।
तोहि तोरि मरोरि उपारिहैं पाथर हनिहै सबहि नित।

जे सज्जन ह्वै नै कै चलहिं तिनकी यह दुरगति उचित॥

दूसरा ऋषि--ऐसा मत कहिए। वरंच यों कहिए--

चातक को दुख दूर कियो पुनि दीनो सबै जग जीवन भारी।

पूरे नदी-नद ताल-तलैया किए सब भॉति किसान सुखारी॥
सूखेहू रूखन कीने हरे जग पूरयौ महामुद दै निज बारी।

हे घन आसिन लौं इतनो करि रीते भए हूँ बड़ाई तिहारी॥

द्युमत्सेन--मोहि न धन को सोच भाग्य-बस होत जात धन।
पुनि निरधन सा दोस न होत यहौ गुन गुनि मन॥
मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहि त्याग्यौ।
बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥
सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ।
जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥


प० ऋषि--तो इसमें आपकी क्या हानि है? ऐसे लोगों से न मिलना ही अच्छा है।


द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी सहायता करता।


दू० ऋषि--आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक पुण्य आपको हो चुका। और आपकी मनोवृत्ति ऐसी है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी।


प० ऋषि--सज्जनगण स्वयं दुर्दशाग्रस्त रहते है, तब भी उनसे जगत में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं।


द्युमत्सेन--अब मुझसे किसी का क्या कल्याण होगा! बुढ़ापे से शरीर में पौरुष हई नहीं। एक आँख थी सो भी गई। तीर्थभ्रमण और देवदर्शन से भी रहित हुए।


प० ऋषि--आपके नेत्रो के इतने निर्बल हो जाने का क्या कारण है? अभी कुछ आपकी अवस्था अति वृद्ध नहीं हुई है।


धुमत्सेन--वही कारण जो हमने कहा था। (उदास होकर) पुत्रशोक से बढ़कर जगत में कोई शोक नहीं है। गणक लोगो ने यह कहकर कि तुम्हारा पुत्र अल्पायु है, मेरा चित्त और भी तोड़ रखा है। इसी से न मैं ऐसा घर, ऐसी लक्ष्मी सी बहू पाकर भी अभी विवाह-संबंध नहीं स्थिर करता।


दू० ऋषि--अहा! तभी महाराज अश्वपति और उनकी रानी इस संबंध से इतने उदास है। केवल कन्या के अनुरोध से संबंध करने कहते हैं।

(हरिनाम गान करते हुए नारदजी का आगमन)


नारद--(नाचते और वीणा बजाते हुए)

(चाल नामकीर्तन महाराष्ट्री कटाव)

जय केशव करुणा-कंदा। जय नारायण गोविंद॥

जय गोपीपति राधा-नायक। कृष्ण कमल-लोचन सुखदायक॥
माधव सुरपति रावण-हंता। सीतापति जदुपति श्रीकंता॥
बुद्ध नृसिंह परशुधर बावन। मच्छ-कच्छ-बपुधर गज-पावन॥

कल्कि बराह मुकुंदा। जय केशव करुणा कंदा॥
जयजय विष्णुभक्तभयहारी। बृंदावन - बैकुंठ - बिहारी॥

जसुदा-सुअन देवकीनंदन। जगबंदन प्रभु कंसनिकंदन॥
शंख-चक्र-कौमोदकि - धारी। वंशीधर बकबदन-बिदारी॥
जय बृदाबन - चंदा। जय केशव करुणा-कंदा॥

जय नारायण गोविंदा।

(सब लोग प्रणाम करके बैठाते हैं)


द्युमत्सेन--हमारे धन्य भाग कि इस दीनावस्था में आपके दर्शन हुए।


नारद--राजन्! तुम्हारे पास सत्यधन, तपोधन, धैर्यधन अनेक धन हैं, तुम क्यों दीन हौ? और आज हम तुमको एक अति शुभ संदेश देने को आए है। तुम्हारे पुत्र का विवाह-संबंध हम अभी स्थिर किए आते हैं। सावित्री के पिता को भी समझा आए हैं कि उनकी कन्या सावित्री अपने उज्ज्वल पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से सब आपत्तियों को उल्लंघन करके सुखपूर्वक कालयापन करेगी और अपने पवित्र चरित्र से दोनो कुल का मान बढ़ावेगी। तुमसे भी यही कहने आए हैं कि सब संदेह छोड़कर विवाह का संबंध पक्का करो।


द्युमत्सेन--मुझको आपकी आज्ञा कभी उल्लंघनीय नहीं है। किंतु--


नारद--किंतु फिंतु कुछ नहीं। विशेष हम इस समय नहीं कह सकते। इतना मात्र निश्चय जानो कि अंत में सब कल्याण है।


द्युमत्सेन--जो आज्ञा।


नारद--अब हम जाते हैं।

(गान चाल भैरव, ताल इकताला वा बाउल भजन की चाल पर ताल आड़ा)

बोलो कृष्ण कृष्ण-राम राम परम मधुर नाम।

गोविंद गोविंद केशव केशव गोपाल गोपाल माधव माधव।
हरि हरि हरि वंशीधर वंशीधर श्याम।
नारायण वासुदेव नंदनंदन जगबंदन।
वृंदावन चारु चंद्र गरे गुंजदाम॥
'हरीचंद्' जन-रंजन सरन सुखद मधुर मूर्ति

राधापति पूर्ण करन सतत भक्त काम॥

(नृत्य और गीत)

(जवनिका गिरती है)



——————



भा० ना०-३८