भारतेंदु-नाटकावली/९–सतीप्रताप (तीसरा दृश्य)

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भारतेंदु-नाटकावली  (1935) 
द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र
[ ६७७ ]

तीसरा दृश्य

स्थान--जयंती नगर का गृहोद्यान

(जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है)

(नेपथ्य मे बैतालिक गान)

प्र० वै०-नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि,
फूल-माल गरें बन झालरि सी लाई है।
भँवर-गुँजार हरि-नाम को उचार तिमि,
कोकिला सौ कुहुकि बियोग राग गाई है॥
'हरिचंद' तजि पतझार घर-बार सबै,
बौरी बनि दौरी चारु पौन ऐसी धाई है।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिमंत अंत,
तेरी प्रेम-जोगिनी बसंत बनि आई है॥

द्वि० वै०--पीरो तन पस्यौ फूली सरसो सरस सोई,
मन मुरझान्यौ पतझार मनो लाई है।
सीरी स्वास त्रिविध समीर सी बहति सदा,
अँखियाँ बरसि मधुझरि सी लगाई है॥
'हरिचंद' फूले मन मैन के मसूसन सों,
ताही सों रसाल बाल बदि कै बौराई है।

[ ६७८ ]

तेरे बिछुरे ते प्रान कंत कै हिमंत अंत,
तेरी प्रेम-जोगिनी बसंत बनि आई है॥

प्र० वै०--"बरुनी बघंबर मैं गुदरी पलक दोऊ,
कोए राते बसन भगाहैं भेख रखियाँ।
बूड़ी जल ही मैं दिन जामिनी हूँ जागैं भौंह,
धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ॥
ऑसू ज्यौं फटिक-माल काजर की सेली पैन्हि,
भई हैं अकेली तजि चेली संग सखियाँ।
दीजिए दरस 'देव' कीजिए सँजोगिन, ये,
जोगिन ह्वै बैठी हैं बियोगिन की अँखियाँ॥"

द्वि० वै०-एकै ध्यान एकै ज्ञान एकै मन एकै प्रान,
दसों दिसि अबिचल एकै तान तानो है।
जग मैं बसत हूँ मनहुँ जग बाहिर सी,
हियौ तन दोऊ निसि दिवस तपानो है॥
'हरीचंद' जोग की जुगति रिद्धि सिद्धि सब,
तजि तिनका सी एक नेह को निभानो है।
बिना फल आस सीस सहनी सहस्त्र त्रास,
जोगिन सो कठिन बियोगिन को बानो है॥

(सावित्री ध्यान से आँख खोलती है)

सावित्री--अहा! एक पहर दिन आ गया। सखीगण अब तक नहीं आई। इसी से ध्यान भी निर्विघ्न हुआ। हमारी [ ६७९ ] वासना सत्य है तो अंतर्गति जाननेवाली सतीकुल-सरोजिनी भगवती भवानी हमारी भावना अवश्य पूर्ण करेगी। मन बच कर्म से जो हमारी भक्ति पति के चरणारविंद में है तो वे हमको अवश्य ही मिलेंगे। अथवा न भी मिलें तो इस जन्म में तो दूसरा पति हो नहीं सकता। स्त्रीधर्म बड़ा कठिन है। जिसको एक बेर मन से पति कहकर वरण किया उसको छोड़कर स्त्री-शरीर की अब इस जगत् में कौन गति है। पिता-माता बड़े धार्मिक हैं। सखियों के मुख से यह संवाद सुन कर वह अवश्य उचित ही करेंगे। वा न करेंगे तो भी इस जन्म में अन्य पुरुष अब मेरे हेतु कोई है नहीं। (अपना वेष देखकर) अहा ! यह वेष मुझको कैसा प्रिय बोध होता है। जो वेष हमारे जीवितेश्वर धारण करें वह क्यों न प्रिय हो। इसके आगे बहुमूल्य हीरो के हार और चमत्कार-दर्शक वस्त्र सब तुच्छ हैं। वही वस्तु प्यारी है जो प्यारे को प्यारी हो। नहीं तो सर्वसंपत्ति की मूल-कारण-स्वरूपा देवी पार्वती भगवान् भूतनाथ की परिचर्या इस वेष से क्यों करतीं? सतीकुलतिलका देवी जनक-नंदिनी को अयोध्या के बड़े-बड़े स्वर्ग-विनिंदक प्रासाद और शचीदुर्लभ गृह-सामग्री से भी वन की पर्णकुटी और पर्वतशिला अति प्रिय थीं, क्योंकि सुख तो केवल प्राणनाथ की चरणपरिचर्या में है। जब तक अपना स्वतंत्र सुख है तब [ ६८० ] तक प्रेम नहीं। पत्नी का सुख एक-मात्र पति की सेवा है। जिस बात में प्रियतम की रुचि उसी में सहधर्मिणी की रुचि। अहा! वह भी कोई धन्य दिन आवेगा जब हम भी अपने प्राणाराध्य देवता प्रियतम पति की चरणसेवा में नियुक्त होगी। बृद्ध श्वशुर और सास के हेतु पाक आदि निर्माण करके उनका परितोष करेंगी। कुसुम, दुर्वा, तुलसी समिधा इत्यादि बीनने को पति के साथ वन में घूमेंगी। परिश्रम से थकित प्राणनायक के स्वेद-सीकर अपने अंचल से पोंछकर मंद-मंद वनपत्र के व्यजनवायु से उनका श्रीअंग शीतल और चरण-संवाहनादि से श्रमगत करेंगी। (नेत्र से आँसू गिरते हैं)

(गान करते हुए सखीगण का आगमन)

(ठुमरी)

सखीत्रय--
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो--जोगी पिय मन भाई हो।
खुले केस गोरे मुख सोहत जोहत दूग सुखदाई हो॥
नव छाती गाती कसि बाँधी कर जप माल सुहाई हो।
तन कंचन दुति बसन गेरुआ दूनी छवि उपजाई हो॥
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो।

(सावित्री के पास जाकर)

[ ६८१ ]

(लावनी)
लवंगी--
सखि! बाले जोबन महा कठिन ब्रत कीनो।
यह जोग भेख कोमल अंगन पर लीनो॥
अबहीं दिन तुमरे खेल-कूद के प्यारी।
पितु मातु चाव सों भवन बसो सुकुमारी॥
औढौ पहिरौ लखि सुख पावै महतारी।
बिलसौ गृह संपति सखी गई बलिहारी॥
तजि देहु स्वॉग जो सबही बिधि सो हीनो।
यह जोग-भेष जो कोमल अँग पर लीनो॥
मधु०--सखि! यही जगत की चाल जिती हैं क्वारी।
उनके सबही बिधि मात-पिता अधिकारी॥
जेहि चाहैं ताकहॅ दान करै निज बारी।
यामैं कछु कहनो तजनो लाज दुलारी॥
बिनती मानहु हठ मॉहि बृथा चित दीनो।
यह जोग-भेष जो कोमल अँग पर लीनो॥
सुर--सखि! औरहु राजकुमार बहुत जग मॉहीं।
विद्या-बुधि-गुन-बल-रूप-समूह लखाहीं॥
चिरजीवी प्रेमी धनी अनेक सुनाहीं।
का उन सम कोऊ और जगत में नाहीं॥

[ ६८२ ]
जाके हित तुम तजि राजभेष सुख-भीनो।
यह जोग-भेष निज कोमल अँग पर लीनो॥

सावित्री--(ईषत् क्रोध से)

बस-बस! रसना रोको ऐसी मति भाखो।

कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो॥
कुल-कामिनि ह्वै गनिका-धरमहि अभिलाखो।
तजि अमृतफल क्यो विषमय विषयहि चाखो॥
सब समुझि-बूझि क्यो निंदहु मूरख तीनों।

यह जोग-भेष जो कोमल अँग पर लीनो॥

लवंगी--सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है?

सावित्री--अनुचित बात सुनकर किसको क्रोध न आवेगा?

सुर०--सखी! हम लोगों ने जो वचन दिया था वह पूरा किया।

सावित्री--वचन कैसा?

सुर०--सखी, तुम्हारे माता-पिता ने हम लोगों से वचन लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग तुमको इस मनोरथ से निवृत्त करेंगे।

सावित्री--निवृत्त करोगी? धर्मपथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में?

सुर०--सखी, शांत भाव धारण करो। हम लोग तुम्हारी सखी हैं, कोई अन्य नहीं हैं। जिसमें तुमको सुख मिले वही हम [ ६८३ ]लोगो को करना है। यह सब जो कुछ कहा-सुना गया, केवल ऊपरी जी से।

सावित्री--तब कुछ चिंता नहीं। चलो, अब हम लोग माता के पास चले। किंतु वहाँ मेरे सामने इन बातों को मत छेड़ना।

सखीगण--अच्छा, चलो।

(जवनिका गिरती है)