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भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र

विकिस्रोत से
भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र  (1904) 
राधाकृष्ण दास

लखनऊ: हिंदी समिति, उत्तर प्रदेश सरकार, पृष्ठ १ से – १० तक

 

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हिन्दी समिति ग्रन्थमाला-२३६ भारतेन्दु बाब हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र लेखक राधाकृष्ण दास VBRSITY LIEN FRASES Lvivere 1.JUL1978 -95 SEARCH हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश शासन 'राजर्ष पुरुषोत्तमदास टण्डन हिन्दी भवन', महात्मा गाधी मार्ग, लखनऊ २२६००१ भारतेदु बाबू हरिश्चद्र का जीवन चरित्र

नवीन सस्करण

जनवरी, १९७६





मूल्य


चार रुपये




प्रकाशक हिंदी समिति, उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ


मुद्रक शभुनाथ वाजपेयी, नागरी मुद्रण, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी ________________

प्रकाशक की ओर से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिदी के उन्नयन और प्रसार के लिए जो कुछ किया है, उसके लिए हमारा साहित्य-समाज सदैव कृतज्ञ रहेगा। कुछ दिन पूर्व विगत १० सितम्बर को हमने उस साहित्यकार के १२५वें जन्मदिन का महोत्सव सम्पन्न किया है। उस अवसर पर समिति की ओर से घोषणा की गयी थी कि बाबू शिवनदन सहाय तथा उनके परिवार के अभिन्न श्री राधाकृष्ण दास द्वारा लिखी गयी जीवनिया हम हिदीजगत् को पुन उपलब्ध करायेगे। ये दोनो ही ग्रन्थ आज से ७-८ दशक पूर्व प्रकाशित हुए और दोनों का उनके साहित्य तथा उनकी जीवनी की दृष्टि से महत्व है। इन दोनो ही लेखको ने उस व्यक्ति के गुणावगुणो तथा उनके साहित्य को समर्पित जीवन की साधना को अभिव्यक्ति देने के निमित्त इनकी रचना की है। बाबू शिवनन्दन सहाय जी की कृति हम आफसेट पद्धति से मुद्रित कर हिदी जगत् को पिछले वष ही भेट कर चुके हैं। उसी क्रम मे यह ग्रन्थ भी है। हमने इसे भी अविकल रूप में प्रकाशित करने की चेष्टा की है, ताकि पाठको को लेखक की शैली और भाषा का भी परिचय मिले। समिति के अध्यक्ष, आदरणीय नागर जी ने ग्रन्थ की प्रस्तावना के रूप में इस सन्दर्भ मे जो निवेदन किया है, वही हमारा वक्तव्य है। भारतेन्दु के प्रति यही सच्ची श्रद्धाजलि होगी कि हम उनके जीवन की यथार्थता को हार्दिकता के साथ अध्ययन करे और अनुभव करे कि किसी भी कार्य के लिए आत्मार्पण जरूरी है। भारतेन्दु जी के जीवन का यही सन्देश है। हमारे इस आयोजन को सम्बल मिला है, समिति के शुभचिन्तको और साहित्य के उन्नायको से । हम उनके कृतज्ञ है। हम अशोक जी तथा डॉक्टर धीरेन्द्रनाथ सिंह के प्रति भी अनुगृहीत हैं, जिहोने इसके प्रकाशन मे रुचि दर्शित की। डॉक्टर धीरेन्द्रनाथ सिंह ने अपना ही काय समझकर ________________

न केवल इस ग्रन्थ के लिए, बल्कि पूर्व प्रकाशित ग्रन्थ बाबू शिवनन्दन सहाय द्वारा लिखित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी के प्रकाशन में उल्लेखनीय सहयोग किया है। इस ग्रन्थ के अन्त मे उही के यत्न से सन १८८५ में मुद्रित 'चद्रास्त' के भी पृष्ठ जोड दिये गये ह । इससे ग्रन्थ मे पूर्णता आ गयी है और बाबू हरिश्चन्द्र की एक और सक्षिप्त जीवनी, उनकी लोकप्रियता का सकेत करती है। ___ हमे विश्वास है, भारतेन्दु जी की अमर साहित्य-साधना के प्रति श्रद्धाजलि स्वरूप समिति द्वारा प्रकाशित ये ग्रन्य न केवल लोकप्रिय, अपितु प्रेरक भी सिद्ध हागे। हिन्दी भवन, काशीनाथ उपाध्याय 'भ्रमर' लखनऊ, सचिव, हिन्दी समिति २२ जनवरी, १९७६ उत्तर प्रदेश शासन आइये, उनका ऋण-भार उतारें!

अनेक आचार्यों का यह मत है कि साहित्य को समय की जलक्ष्मणलीक से नहीं बाधा जा सकता। साहित्य मानवीय तत्वो पर आधारित है और वे शाश्वत होते हैं। उनके मतानुसार वक्त की पुकार से उपजने वाला साहित्य वक्त के साथ ही समाप्त भी हो जाता है। प्राचायगण तक देते है कि राष्ट्रीय आन्दोलन से मीधे प्रभावित होने वाला सारा साहित्य आज बेभाव हो चुका है जबकि उस आन्दोलन से अपरोक्ष रूप से प्रभावित और प्रेरित छायावादी काव्य साहित्य आज भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

प्राचार्यों के इस मत को ध्यान में रखते हुए भी मै इस बात को नजरअन्दाज नही कर पाता कि हर देश-काल अपने राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और सामाजिक प्रभावो से भी कही पर गहरी अन्तरगता के साथ जुड़ा रहता है और वह निश्चित रूप से प्राचार्यों द्वारा बखाने गये 'शाश्वत' और 'मानवीय तत्वो' से भी परोक्ष किंवा अपरोक्ष रूप से बँधा होता है। मै यह तो अनुभव करता हूँ कि साहित्य मे स्थायी मूल्यमान काल की वासनाओ से अधिकतर अप्रभावित रहते है लेकिन काल की इच्छाओ से वे कदापि अविच्छिन्न नही हो सकते । अब भी कभी-कभी ऐसे विचार पढनेसुनने में आते हैं कि कला को उपयोगिता की दृष्टि से देखना गलत है। कला केवल विशुद्ध सौन्दय की वस्तु है। लेकिन मुझे लगता है कि कला सदा विरोधाभासो से उमगती है । कभी उसमे समय के द्वद्व की छाया झलकती है, जैसे छायावादी काव्यधारा मे, और कभी ठेठ द्वद्व ही कला का रूप धारण कर लेता है, जैसे प्रेमचद कृत 'गोदान' या 'रंगभूमि' मे। व्यक्ति के निजी और ________________

सामाजिक तथा इसी तरह किसी देश-समाज के निजी और सावभौमिक व्यक्तित्वो मे जो विरोधाभास हमे झलकता है, वह प्राय. उसके भीतर टकराते हुए वा-सघष के कारण ही होता है। यदि समाज पर जड पुरोहितवाद और मुर्दा कमकाण्ड का बेपनाह बोझ न पडा होता तो किसी प्रौद्दालक आरुणि के मन में यह सत्य भी प्रकट न हुआ होता कि प्राग मे व्यथ ही घी, जौ, धान आदि फूक कर ब्राह्मणो को मोटी-मोटी दक्षिणाएँ देने के काम का नाम यज्ञ नही है। मोक्ष के लिए विचार-यज्ञ आवश्यक है। बुद्ध और महावीर के समय मे एक ओर जहाँ इने गिने जनपदीय नगरो मे लक्ष्मी का समस्त वैभव-विलास अपने भीतर समेटकर नागर सभ्यता अपनी 'अति' की परेशानियो से उलझी थी, वही दूसरी ओर अनेक मानव जातियाँ जगलो मे पिछडा-दर-पिछडा जीवन बिताने के लिए बाध्य थी। इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि बुद्ध और. महावीर जसे धनकुबेरो के राजदुलारे बेटे अनुपम त्याग का आदश उपस्थित करे । इसान के दद ने ही उनके दिलो मे पैठ कर दुनिया को सदा नयी दृष्टि दी है । तानाशाह सामन्तो के क्षणिक सुख की शिकार सरल ग्राम्यबालाओ की करुणा ने ही कविकुलगुरु कालिदास के अन्तर मे उपज कर उनसे 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' जैसे अनूठे नाटक की रचना करायी। कबीर तुलसी की रामरूपी आस्था अपने देश काल के मानसिक बिखराव और घोर अनास्था से ही उपजी थी। भारतेन्दु रचित "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल", हमारी चेतना मे नक्षत्रवत् आज तक चमकनेवाला मन, अपने देश, समाज और काल के मनोद्वन्द्व से ही उदय हुआ था । सक्रान्ति काल स्वय ही अपने भले-बुरे भाग्य के अनुसार अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए एक या कुछ व्यक्ति चुन लेता है। भारतेन्दु का समस्त अतर्बाह्य व्यक्तित्व ही ऐसे देश काल मे निखर सकता था जो एक कठिन सक्रान्ति से गुजर कर नयी चेतना के तट से प्रा लगा हो । नये पूंजीगदी साम्राज्यवाद से अनु ________________

शासित अच्छाइयो और बुराइयो की सही छाप एक ऐसे ही कलाकार के हृदय पर पड सकती थी, जो स्वय महाजनी सभ्यता मे पला हो। काशी नरेश की शुभचिन्तना पर कोई कवि कलाकार ही यह कह सकता था कि जिस दौलत ने मेरे बाप-दाशे को खाया है उसे मैं खा डालंगा। यह विद्रोही वाक्य उसी हृदय से फूट सकता है जो अपने समाज की विसगतियो से घुट रहा हो और उसे नयी व्यवस्था देने के लिए आग्रहशील हो। हरिश्चन्द्र जी ने अपने इतिहास-प्रसिद्ध वृद्ध प्रपितामह सेठ अमीचन्द और ईस्ट इडिया कम्पनी का सारा दुखद काण्ड अपने घरवालो से अवश्य सुना होगा। उन्होने अपने धनकुबेर कवि पिता गोपालचन्द्र जी के दरबार में भारत की दिनोदिन आर्थिक अवनति के सबध मे वे सब बाते भी अवश्य सुनी होगी, जो ईस्ट इडिया कम्पनी के द्वारा भेजी गई एक प्रश्नावली के उत्तर मे उनके पितामह बाबू हषचन्द्र जी ने लिख भेजी थी। सत्तावनी गदर इनकी सात वष की अवस्था में पाया था। उ. दिनो सैकडो नईपुरानी बातो के साथ-साथ बालक हरिश्चन्द्र को अंग्रेजी नीतियो और चालबाजियो का जो आभास बडो की बातो से मिला होगा, वह उन पर स्थायी छाप छोड गया। उस छाप ने एक ओर जहाँ उन्हे स्वदेशी आन्दोलन का आदि नेता बनाया वही दूसरी ओर धन और महाजनी सभ्यता से उन्हें वितृष्णा भी हो गयी । वैष्णवी मानवतावादी सस्कार और भक्त हृदय की भावुकता भी इन्हें अपने वशपरपरागत पेशे के प्रति एक ओर जहा उदासीन बना रही थी वही दूसरी ओर उसी पेशे से अर्जित खानदानी धनराशि का लोकोपकारी कार्यों में अधिकाधिक उपयोग करने की उनकी इच्छा और प्राग्रह को भी बढावा देती थी। जब इससे धन बचता तो फिर उसे अपनी मनमानियो मे फ्कते थे। महाजन के वशधर को अपनी कमाई से अधिक अपने देश की आर्थिक कमाई की चिन्ता थी। वे अपने सोते हुए जन-समाज मे उसी की चेतना जगाने के लिए अपने ________________

पुरखो का धन फूक रहे थे । पैसे के महत्व को पूणतया जानते हुए भी उन्हें मानो पैसे से चिढ थी। भारतेन्दु की अग्रेज भक्ति या राजभक्ति के सबध मे अक्सर कुछ बाते उठायी गयी है । जहा तक मै समभता हूँ, भारतेन्दु के मन मे किसी राजाविहीन समाज की कल्पना तक नहीं आई होगी। यद्यपि भारत 'निज स्वत्व गहे' की कामना उनके मन मे अवश्य उदय हो चुकी थी, फिर भी राजभक्ति का सस्कार उनके मन मे दह था। जिस जाति का शासन था उसके प्रति उनके मन की प्रतिक्रियाये दो प्रकार से प्रकट हुई है-- भीतर भीतर सब रस चूसें हँसि हँसि के तन-मन-धन मूसे जाहिर बातन मे अति तेज क्यो सखि साजन, नहिं अग्रेज। दूसरी ओर अग्रेज जाति की प्रौद्योगिकता, अनुशासन, अध्ययनशीलता, नारी-स्वाधीनता आदि अनेक गुणो का आदर करना भी उनका स्वभाव था। अग्रेज-शासन की आर्थिक, शैक्षिक आदि अनेक नीतिया के विरोध करने के बावजूद वे अपने राष्ट्र के हित में अग्रेजी शासन के समथक भी थे, विरोधी नही थे। अपने देशवासियो को चेताने के लिये वह यह भी कह सकते थे-- तब लौं बहु सोये वत्स तुम जागे नहि कोऊ जतन अब तौरानी विक्टोरिया जागहु सुत भय छौंडि मन। भारतेदु के बलिया के भाषण में भी यही बात है कि अग्रेजो के शासनकाल में भारतवासी अपनी उन्नति कर सकते है। अग्रेजो के समय मे पिछली कई शताब्दियो के बाद शान्ति और व्यवस्था के सुदिन आए थे। उस समय का लाभ उठाते हुए भारतेन्दु अपने देश, समाज को सशक्त बनाना चाहते थे। उस समय की मनोभूमि दर्शाते हुए गुरदेव रवीद्रनाथ भी यह कहते है कि-"तखन आमा ________________

स्वजातिर स्वाधीनतार साधना आरम्भ करेछिलुम, किंतु अतरेअतरे छिल इग्रेज जातिर औदार्येर प्रति विश्वास ।" भारते दु को अपने तत्कालीन समाज से कही पर बडी गहरी चिढ और शिकायते भी थी। अपने देश के पतना मुखी निष्क्रिय रूढिग्रस्त समाज से उन्हे बेहद चिढ थी, वे उसे बदलने के लिये व्यग्न रहते थे। __उन्हें उम्र देने में नियति ने पूरी कजूसी से काम लिया था। काम के लिए मुश्किल से १६-१७ वर्ष ही उन्हें मिल पाये होगे। मगर क्या दीवानी तडप यी उनमे कि आप तो बहुत कुछ कर ही गये, सम्पूण हिन्दी-भाषी विशाल क्षेत्र में अपने समानधर्मा लोगो से भी काम करा लिया। सच पूछा जाय तो भारतेन्दु स्वय ही हिन्दी का प्रथम मच थे। भारतेन्दु ने अपने समाज को समय की धारा मे बेबस बहने के बजाय तैर कर पार करना सिखलाया। डा० रामविलास शर्मा ने अपन क्सिी लेख या पुस्तक मे एक बडे मार्के की बात लिखी है। वह कहते है कि राजभाषा होने के कारण यो तो फारसी ने भारत की सभी भाषाओ को किसी न किसी हद तक प्रभावित किया पर खड़ी बोली जब फारसी शब्दावली का सिगार सज कर साहित्य के क्षेत्र मे आई तो केवल कुछ नगरो और ऊँचे वग के लोगा को ही आकर्षित कर सकी, किन्तु विशाल हिंदी भाषी क्षेत्र की अन+ वोनिया के बावजूद जो साहित्यिक परम्परा सवत्र वतमान थी वह जायसी, कबीर, तुलसी, रसखान, रहीम, देव, मतिराम, विहारी आदि की थी। फारसी मिश्रित खडी बोली मे यह परपरा अँटती न थी। इसलिए भारतेन्दु ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ क्यिा, सभाएं की, प्रेस मे लिखा लिखाया, पटीशन भेजे परन्तु शिक्षा विभाग के निदेशक कैम्पसन साहब पर राजा शिवप्रसाद का जादू चढा हुआ था। राजा साहब को "क्ल के छोकरें" हरिश्चन्द्र की लोकप्रियता और बढते प्रभाव से चिढ थी। हिन्दी के पेटीशन नामजूर हुए। राधाकृष्णदास जी के अनुसार, बाबू साहब का हृदय 'हाकिमी' अन्याय से कुढ गया था । ________________

दूसरा एक कारण इनके विरोध का यह हुआ कि राजामाहब ने फारसी आदि मिश्रित खिचडी हिन्दी की सृष्टि करके उसे चलाना चाहा। यह भारतेन्दु के ही जौहर थे जो हिन्दी को “नयी चाल मे ढाल" कर केवल एक पुरानी सशक्त साहित्य-परपरा को ही जीवित नही रखा वरन् खडी बोली को भारत की अन्य भाषाओ के सन्निकट भी ला दिया। सच पूछा जाय तो हिन्दी तो भारतेन्दु का जीवन्त स्मारक है। सही भाषा-नीति अपनाने के कारण ही करोडो हिन्दी-भाषियो ने ब्रिटिश सरकार के बनाये हुए 'सितारेहिद' के मुकाबले मे हरिश्चन्द्र को 'भारतेन्दु' मान कर प्रेम और आदर सहित अपने दिलो मे जगह दी, और आज भी दे रहे है। यहा पर यह बात भी ध्यान देने लायक है कि हिंदी के इस युगानुकूल और उचित आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए उन्होने उसे साम्प्रदायिक रुख कदापि न अपनाने दिया। वह उर्दू के दुश्मन न थे, उर्दू में अखबार निकालने का विचार भी उनके मन में था और उसकी घोषणा भी वे कर चुके थे। अपने घर मे कविगोष्ठियो के अलावा वे मुशायरे भी कराते थे। 'रसा' उपनाम से गज़लें भी कहते थे। भाषा के सबध में भारतेन्दु ने सही नीति निर्धारित करके न केवल अपने समय मे बल्कि भविष्य के लिए भी हिन्दी को एक सुनिश्चित दिशा प्रदान कर दी। ___ हिन्दी भाषा को आधुनिक रूप देने में ही नही वरन हिंदी साहित्य को भी आधुनिक काल की आवश्यकताओं के अनुकूल ढालने में भी उनके प्रयत्न चिरस्मरणीय रहेंगे। उन्होने नाटक, कविता, निबन्ध आदि विधामो को तो बढावा दिया ही, उपन्यास लेखन की दिशा मे भी गति दी, "कुछ आप बीती, कुछ जग बीती" इस बात का प्रमाण है। काव्यशास्त्र के अतिरिक्त उन्हें इतिहास, पुरातत्व और सामाजिक समस्यानो के प्रति भी गहरी रुचि थी। उनकी साहित्य-रचना कोरी सुन्दरता के लिए नही, बल्कि पूरे समाज को सुन्दर बनाने के लिए होती थी ।

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