भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र/1

विकिस्रोत से
भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र  (1904) 
द्वारा राधाकृष्ण दास

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र पिता और पूर्व पुरुष रमेश्वर नास्तिको का मुह बन्द करने और अपना अस्तित्व प्रमाणित करने ही के लिये कभी कभी पृथ्वी पर ऐसे लोगो को जन्माता है जिनकी अद्भुत प्रतिभा देखकर लोग पाश्चय मे पा जाते है। हमारे चरित्रनायक भी वैसे ही एक पुरुषरत्न थे कि जिनके चरित्र मे ईश्वर की ईश्वरता का साक्षात प्रमाण मिलता है। ऐसे लोगो के जीवनचरित्र को पढने से लोग बहुत कुछ लाम उठा सकते है, क्योकि उनका चरित्र लोगो को एक अच्छा रास्ता दिखलाता और ससार मे यश कमाने का अच्छा उपदेश देता है। जगत् प्रसिद्ध कविश्रेष्ठ गिरिधरदास, प्रसिद्ध नाम बाबू गोपालचन्द्र, का जन्म काशी मे मिती पौष कृष्ण १५ स० १८६० को हुआ था और मृत्यु मिती वैशाख सु०७ स० १९१७ को। उन्होने इस २६ वर्ष ४ महीने और ७ दिन की ऐसी छोटी अवस्था मे कितने बड़े काम किए हैं यह देख कर पाश्चय होता है। हिन्दुस्तान में जिस अवस्था मे धनवानो के लडको को पूरी तरह पर बात करने का भी ज्ञान नहीं होता और जिस भयानक अवस्था के वणन मे उचित रूप से कहा गया है कि-- "यौवन धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥" उस अवस्था मे इस प्रान्त के प्रसिद्ध सेठ हर्षचन्द्र के एकमात्र पुत्र गोपालचन्द्र [ २१ ]________________

(२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र ने बचपन में ही पितहीन होकर भी विद्वत्ता और सच्चरित्रता का ऐसा उदाहरण छोडा है कि जिसे देखकर ईश्वर की महिमा स्मरण पाती है। इसके पहिले कि हम इनका कुछ चरित्र लिखें, इनके सुप्रसिद्ध वश का बहुत ही सक्षेप से वर्णन कर देना उचित समझते हैं, जिसमे हमारे पाठको को इनका और इनके पुत्र हिन्दीप्रेमियो के एकमात्र प्रेमाराध्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का पूरा परिचय मिल जाय । भारतेन्दु जी स्वरचित "उत्तरार्द्ध भक्तमाल" मे निज वश परम्परा यो वर्णन करते हैं -- "बैश्यअन-कुल मैं प्रगट बालकृष्ण कुल पाल । ता सुत गिरिधरचरनरत, वर गिरधारीलाल ॥१॥ अमीचद तिनके तनय, फतेचद ता नद । हरखचद जिन के भए, निज कुल सागर चद ॥२॥ श्री गिरिधर गुरु सेइके, घर सेवा पधराइ । तारे निज कुल जीव सब, हरि पद भक्ति दृढाइ ॥ ३ ॥ तिनके सुत गोपाल शसि, प्रगटित गिरिधरदास । कठिन करम गति मेटि जिन, कीनो भक्ति प्रकास ॥४॥ मेटि देव देवी सकल, छोडि कठिन कुल रीति । थाप्यो गृह मै प्रेम जिन, प्रगटि कृष्ण पद प्रीति ॥५॥ पारवती की कूख सौ, तिन सो प्रगट अमन्द । गोकुलचन्दाग्रज भयो, भक्त दास हरिचन्द ॥ ६॥" [ २२ ]________________

ख वश वृक्ष। रायबालकृष्ण फकीरचन्द लक्ष्मीराम दलपतराय गिरिधारी लाल खिरोधर लाल हरिबिलास सूरत सिंह सेठ अमीचन्द चन्द्र विलास भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र रूपचन्द अनूपचन्द शोभाचन्द राय राजा राय राजा गोविन्दचन्द रत्नचन्द बहादुर डालचन्द मोहनचन्द | विष्णुचन्द हुकुमचन्द सीतलचन्द आनन्दचन्द पूर्णचन्द बाबू रायचन्द नान्हकचन्द गोपीचन्द (३) [ २३ ]________________

बाबू फतहचन्द्र बाबू हषचन्द्र यमुना बीबी गङ्गा बीबी राय प्रह्लाद दास श्रीराधाकृष्ण दास बाबू गोपालचन्द्र उपनाम गिरिधरदास मुकुन्दी बीबी भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र बाबू गोकुलचन्द्र भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र गोविन्दी बीबी विद्यावती सरस्वती | राय गोपीकृष्ण कृष्णावती बाबू कृष्णचन्द्र बाबू व्रजचन्द्र वजरमनदास रेवती रमनदास वजजीवन दास मोहन दास प्रजभूषण दास जीवनचन्द्र छोटा बच्चा [ २४ ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (५) दिल्ली के शाही घराने से इनके प्रतिष्ठित पूर्वजो का बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध था। जब शाहजहाँ का बेटा शाह शुजा सन् १६५० के लगभग विशाल बङ्गाल का सूबेदार होकर पाया, तो इनके पूर्वज भी उसके साथ दिल्ली छोड बङ्गाल में चले पाए, और जैसे जसे मुसलमानी राजधानी बङ्गाल में बदलती गई वैसे वैसे ये लोग भी अपना प्रवासस्थान परिवतन करते गए। राजमहल और मुर्शिदाबाद में अब तक इनके पूर्वजो के उच्च प्रासादो के अवशिष्ट चिह्न पाए जाते है । इसी विशाल वश के सेठ बालकृष्ण के पौत्र तथा सेठ गिरिधारी लाल के पुत्र सेठ अमीचन्द के समय में इस देश में अगरेजो का राजत्वकाल प्रारम्भ हुआ। उस समय अगरेजो के सहायको मे से ये भी एक प्रधान सहायक थे। उस समय इनका इतना मान था कि इनके नौ बेटो मे से तीन को "राजा" और एक को "रायबहादुर" की पदवी प्राप्त थी। इन पुत्रो मे से वश केवल बाबू फतहचन्द्र का चला। सेठ प्रमीच द्र का वृत्तान्त इतिहासो मे इस प्रकार से प्रसिद्ध है। सेठ अमीचन्द सेठ प्रमीचन्द का चार लाख रुपया कलकत्ते मे लुट गया था, और भी बहुत कुछ हानि हो गई थी, परन्तु नव्वाब की ओर से उसकी कुछ भी रक्षा न हुई। निदान यो ही देश को दुखित देख जब लोगो ने अङ्गरेजो की शरण ली तो ये भी उनमे एक प्रधान पुरुष थे। इनसे अगरेजो से यह दृढ प्रतिज्ञा हो गई थी कि सिराजुद्दौला के कोष से जो द्रव्य प्राप्त होगा उसमे से पॉध रुपया सैकडा तुम्हें मिलेगा, और दो प्रतिज्ञापत्र लिखे गए। लाल काग्रज पर जो लिखा गया उस पर सेठ अमीचन्द को ५) रुपया सैकडा देने को लिखा गया था, परन्तु सफेद काग्रज पर जो लिखा गया उस पर इनका नाम तक न लिखा । जब हस्ताक्षर होने के हेतु कौंसिल में ये पत्र उपस्थित हुए तो 'एडमिरल' ने लाल काराज पर हस्ताक्षर करना सर्वथा अस्वीकार किया पर कौंसिल वालो ने उनका हस्ताक्षर बना लिया। बङ्गाल विजय के पश्चात् जब खजाना सहेजा गया तो डेढ़ करोड रुपया निकला। सेठ अमीचन्द ने तीस पैतीस लाख रुपया मिलने का हिसाब जोड रक्खा था। जब प्रतिज्ञापत्र पढ़ा गया और इनका नाम तक न निकला तो इन्होने उस षडचक्र [ २५ ]________________

(६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र से घबडा कर कहा "साहब, वह लाल कागज पर था"। लार्ड क्लाइव ने उत्तर दिया "यह आपको सब्जबाग दिखाने को था। असिल यही सफेद है"। सेठ अमीचन्द इस वाक्य के व्याघात से मूछित होकर गिर पडे। लोग उन्हें पालकी मे डालकर घर लाए। इसी प्रबल पीडा से डेड वर्ष के पश्चात् वे परमधाम सिधारे । राजा शिवप्रसाद लिखते हैं कि "अफसोस है, क्लाइव ऐसे आदमी से ऐसी बात चहर मे पावे, पर क्या करे, ईश्वर को मञ्जूर है कि आदमी का कोई काम बऐब न रहे। इस मुल्क मे अग्रेजी अमल्दारी की सचाई मे, जो मानो धोबी की धोई हुई सफेद चादर रही है, केवल उसी अमीचन्द ने उसमे एक छोटा सा धब्बा लगा दिया है। सेठ अमीचन्द उस समय कलकत्ते के प्रधान महाजनो मे थे। इनका इतिहास बाबू अक्षयकुमार मैन ने "सिराजुद्दौला" नामक नथ मे लिखा है, हम उसी को यहाँ उद्धृत करते है। "हिन्दू वणिको मे उमाचरण का नाम अग्रेजो के इतिहास मे उमीचाँद (अमीचन्द) कह कर प्रसिद्ध है । अग्रेज ऐतिहासिको ने इन्हें लोक समाज मे - - - - -- १ मीर जाफर, अमीचन्द (अमियचन्द्र) ("A man of vast wealth") और खोजा वजीद ये तीन जन थे कि जिन की सहायता से पलासी युद्ध मे अंगरेज विजयी हुए। मीरजाफर (सेनापति) को नवाब बनाने की लालच दी गई और सेठ अमीचन्द को उनका बहुत रुपया, जिसे सिराजुद्दौला ने अन्याय से ले लिया था, युद्ध जीतने और कोष पाने पर देने का वादा किया गया। पीछे रुपया देख क्लाइव लोभमे आगया। इसी लोभ ने हेष्टिङ्गस् का नाम चिरस्मरणीय बनाया और इसीसे यह हत्या करा कल्पान्त के लिये उनके और शुभ्र अँगरेजी राज्य के नाम मे कलङ्क लगा दिया। कितने अगरेज इतिहास लेखको ने यद्यपि एक स्वजाति की करनी को बडी बडी बातें बना गोपन रखना चाहा है तथापि कितने न्यायशीलो ने क्लाइव को साफ दोषी ठहराया है। अधम सभी स्थल और सभी समय अधम है। राज सेक्रेटरी T Talboys wheeler कहते है-But the action of Clive, although it did not put a penny in his pocket, has been codemned to this day as a stain upon his character as an English gentleman" [ २६ ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (७) धूतता की मूर्ति कह कर प्रसिद्ध करने मे कोई बात उठा नहीं रक्खी है और लार्ड मेकाले ने तो इन्हें "धूर्त बङ्गाली" कहने मे कुछ भी पागा पीछा नहीं किया है, परन्तु ये बङ्गाली नही थे, ये पश्चिम देशीय हिन्दू वणिक थे। केवल बङ्गाल बिहार मे वाणिज्य करने के लिये बङ्गाल में रहते थे। इन्हें केवल बणिक कहने से इनका पूरा परिचय नहीं होता। इनकी नाना विधि सामानो से सुसज्जित राजपुरी, इनका कुसुमदाम सज्जित प्रसिद्ध पुष्पोद्यान (बाग) इनका मणिमाणिक्य से भरा इतिहास में प्रसिद्ध राज भण्डार, इनका हथियार बन्द सैनिको से घिरा हुआ सुन्दर सिंहद्वार देखकर दूसरे की कौन कहे अग्रेज लोग भी इहें एक बडा राजा कह कर मानते थे । सेठो मे जैसे जगतसेठ थे वणिको मे वैसे ही इनका मान्य और पद गौरव नवाब के दर्बार में था। अग्रेज वणिक जब विपद मे पडते तभी इन के शरणापन्न होते थे, और कई बार केवल इही की कृपा से इनको लज्जा रक्षा होने का कुछ कुछ प्रमाण पाया जाता है। अग्रेज लोग केवल इन्हीं की सहायता पाकर बङ्गाल देश में अपना वाणिज्य फैला सके थे। इन्हीं की सहायता से गाव गाँव में अमेज़ लोग दादनी देकर रई मौर कपडे लेकर बहुत कुछ धन उपाजन करते थे। यह सुविधा न मिलती तो इस अपरिचित विदेश मे अग्रेजो को अपनी शक्ति फैलाने का अवसर मिलता कि नहीं इसमे सन्देह होता है। परन्तु देशी लोगो के साथ जान पहिचान हो जाने पर देव कोप से अग्रेज लोग इनकी उपेक्षा करने लगे। जिस समय सिराजुद्दौला 1 The extent of his habitation, divided into various departments, the number of his servants continually ema. ployed on various occupations and a retinue of armed men in constant pay, resembled more the state of a prince than the condition of a merchant --Orme, Vol II 50 2 He had acquired so much influence with the Bengal Government, that the Presidency, in times of difficulty, used to employ his mediation with thc Nowab --Orme, Vol II, 50 [ २७ ]________________

(८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र गद्दी पर बैठे उस समय अग्रेज लोग अमीचन्द का उतना विश्वास नहीं करते थे। इन दोनो के मन मे जो मैल आ गई थी वह धीरे धीरे बहुत ही दृढ़ हो गई। उस समय इस देश के लोगो की प्रकृति ऐसी सरल थी कि वे अग्रेजो का अध्यवसाय, अकुतोभयता और विद्या बुद्धि देख कर बेखटके विश्वास करके उनके पक्षपाती हो गए थे। इसी से अंग्रेजो का रास्ता इस देश मे सुगम हो गया था। अग्रेजो के उद्धतपने से चिढकर नवाब सिराजुद्दौला ने यद्यपि यह निश्चय कर लिया था कि एक न एक दिन इन को दबाने का उपाय करना होगा, परन्तु एक बेर और दूत भेज कर समझाना उचित जान कर चर देश के राजा रायरामसिंह पर दूत भेजने का भार दिया। अग्रेज लोग नवाब से ऐसे सशडित थे कि इनका कोई मनुष्य कलकत्ता में घुसने नहीं पाता था, इस लिये रायरामसिंह ने अपने भाई को फेरी वाले के छमवेष मे एक डोगी पर बैठा कर कलकत्ता भेजा । वह सेठ अमीचन्द के यहाँ ठहरे और उन्हीं के द्वारा अग्रेजो के पास नवाब का सदेसा लेकर उपस्थित हुए, पर अग्रेजो ने उनकी कुछ बात न मानकर बडे अनादर से निकाल दिया। यद्यपि बाहरी बनाव सेठ अमीचन्द का अग्रेजो से था, परन्तु भीतर से अग्रेज लोग इन से बहुत ही चिढ़े हुए थे। इस घटना के विषय मे उन लोगो ने लिखा है कि "एक राज दूत पाया तो था पर वह नवाब सिराजुद्दौला का भेजा दूत है यह हम लोग कैसे समझ सकते थे? वह एक साधारण फेरी वाले के छप्रवेष मे पाकर हम लोगो के सदा के शनु अमीचन्द के यहाँ क्यों ठहरा था। प्रमीचन्द के साथ हम लोगो का झगड़ा था इससे हम लोगो ने समझा था कि अपनी बात बढाने के लिये ही इन्हो ने यह कौशल जाल फैलाया है, इसी लिये राजदूत की उपेक्षा की गई थी, जो कहीं तनिक भी हम लोग जानते कि स्वय नवाब सिराजुद्दौला ने दूत भेजा है तो हम लोग क्या पागल थे कि उसका ऐसा अपमान करते ?" निदान अग्रेज लोग हर एक बात मे सब दोष इन पर डाल कर अपने बचाव का रास्ता निकाल लेते थे, परन्तु वास्तविक बात और ही थी, यदि उन्हें यह निश्चय था कि यह कौशल जाल अमीचन्द का है तो कासिम बाजार मे वाट्स साहब को क्यो लिखते कि वहाँ सावधान रहैं और देखे कि दूत को निकाल देने का क्या फल नवाब बर्वार में होता है 1 The Governor returning next day summoned a coun [ २८ ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६) अग्रेजो के इन उद्धत व्यवहारो से चिढकर सिराजुद्दौला ने कलकत्ते पर चढाई की। अमीचन्द के मित्र राजा राय रामसिंह ने गुप्त पत्र लिखकर एक दूत के हाथ अमीचन्द के पास भेजा कि वह तुरन्त कलकत्ते से हट जायं जिसमे उन पर कोई आपत्ति न पावै परन्तु वह पत्र बीच ही मे दूत को धमकाकर अग्रेजो ने ले लिया, इसका कुछ भी समाचार अमीचन्द को न विदित हुना। अग्रेजो ने तुरन्त सेना भेजकर इन्हें बन्दी किया और कारागार को ले चले।सारे नगर के लोग हाहाकार करने लगे। "अमीचन्द के यहाँ उनके एक सम्बन्धी हजारीमल्ल कार्याध्यक्ष थे। उन्होने डरकर धन, रत्न और परिवार के लोगो को लेकर भागने का विचार किया। अग्रेजो से यह न देखा गया, श्रेणी की श्रेणी अप्रेजी सेना आने और अमीचन्द के घर को घेरने लगी। इनका जमादार एक सद्वश जात क्षत्रिय था, वह इनके नौकर बरन दाजो और और नौकरो को इकट्ठे करके रक्षा का उपाय करने लगा। फिरङ्गियो ने प्राकर सिंहद्वार पर हाथाबाही प्रारम्भ की। लहू की नदी बहने लगी। अन्त मे इनके बर्कन्दाज न ठहर सके, एक एक करके बहुतेरे भूतलशायी हो गए। जहाँ तक मनुष्य का साध्य था इन लोगो ने किया। फिरङ्गियो की सेना महा कोलाहल के साथ जनाने मे घुसने लगी, अब तो जमादार का रक्त उबलने लगा। हैं | जिस आर्यमहिला के अन्त पुर मे भगवान सूर्यनारायण प्रत्यत आदर के साथ प्रवेश करते हैं वहाँ म्लेच्छ सेना का पदस्पर्श होगा? जिस मालिक के परिवार के निष्कलङ्क कुल की, अवगुठनवती कुल कामिनियो को पर पुरुष की छाया भी नहीं छू सकी है उनका पवित्र देह म्लेच्छो के हाथ से कलङ्कित होगा? इससे तो हिन्दू बालाओ को मौत की गोद ही कोमल फूल की सेज है, यह प्राचीन हिन्दू गौरव-नीति तुरन्त जमादार के हृदय मे उदय हुई, उसने कुछ भी आगा पीछा न cıl of which the majority being prepossessed against Omichand concluded that the messenger was an engine prepared by himself to alarm them and restore his importance but letters were despatched to Mr Watts, instructing him to guard against and evil consequences from this proceeding --Orme Vol II 54 [ २९ ]________________

(१०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र सोचकर चट एक बडी चिता जला दी और फिर क्या किया-फिर एक एक करके प्रभु परिवार की १३ स्त्रियो का सिर धड़ से अलग कर चिता मे डालता गया और अन्त मे उसी सती-शोणित-से भरी तलवार को अपने कलेजे में घुसाकर आप भी वहीं लोट गया। अनुकूल वायु पाकर उस चिता ज्वाल ने चारो ओर अपनी लोल जिह्वा से लपलपाकर उस राजपुरी को सिंहद्वार तक अपने पेट में डाल लिया ! फिरनी लोग उठाकर जमादार को बाहर लाए, परन्तु घर के भीतर न घुस सके, अमीचन्द का इन्द्र भवन स्मशान भस्म से भर गया । केवल इस शोक समाचार को आमरण कीतन करने के लिये ही उस बूढे जमादार की प्राण वायु न निकली। अग्रेजो की प्रत मे हार हुई। नवाब की सेना ने कलकत्ता पर अधिकार किया। सेनापति हालवेल साहब अग्रेजो के किला की रक्षा के उपाय करने लगे पर कोई उपाय चलता न देखकर अन्त मे फिर अग्रेजो के गाढे समय के मीत अमीचन्द के शरण मे गए, बहुत कुछ रोए गाए। दयाद चित्त प्रमीचन्द ने अग्रेजो के दुष्ट व्यवहार का विचार न करके उन्हें आश्वासन दिया और नवाब के सेनापति राजा मानिकचन्द के नाम पत्र लिखकर हालवेल साहब को दिया। पत्र मे लिखा कि "बस अब बहुत शिक्षा हो चुकी, अब जो प्राज्ञा नवाब देंगे अग्रेज लोग वही करेगे" प्रादि । हालवेल साहब ने उस पत्र को किले के बाहर गिरा दिया। किसी ने उसे ले लिया पर कुछ उत्तर न पाया (कदाचित् राजा तक, नहीं पहुँचा) । सध्या को अग्रेजो की सेना ने पश्चिम का फाटक खोल दिया।नवाब की सेना किला मे घुस आई और बिना युद्ध जितने अग्नेज थे सब पकडे गए। नवाब 1 The head of the peons, who was an Indian of a high caste, set fire to this house, and in order to save the women of the family from the dishonour of being exposed to strangers, entered their apartments, and killed it is said, thirteen of them with his own hand, after which he stabbed himself but contrary to his intention not mortally --Orme VI 60. 2 Halwell's India Tracts, page 330 [ ३० ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (११) ने किले मे दर्बार किया प्रमीचन्द और कृष्णवल्लभ को ढूंढने की आज्ञा दी। दोनो साम्हने लाए गए। नवाब ने कुछ क्रोध प्रकाश न करके दोनो का यथोचित मादर किया और बैठाया। जो अग्नेज़ बन्दी हुए थे वह एक कोठरी मे रात को रक्खे गए। १४६ अप्रेष थे और १८ फुट की कोठरी मे रक्खे गए थे। इन में से १२३ रात भर मे दम घुट कर मर गए। यह घटना अप्रेजो मे अन्धकूप हत्या के नाम से प्रसिद्ध है, इस कोठरी का नाम ब्लैक होल (Black-hole) प्रसिद्ध है । यह सब बात सिवाय हालवेल साहब के किसी अनेज या मुसल्मान ऐतिहासिक ने नहीं लिखा है इस लिये अक्षय बाबू इसकी सत्यता मे बडा सन्देह करते है। हालवेल साहब अनुमान करते है कि जो निर्दय व्यवहार अमीचन्द के साथ किया गया था उसी के बदला लेने के लिये उन्होने राजा मानिकचन्द से कहकर अग्रेजो की यह दुगति कराई थी, परन्तु धन, कुटुम्ब सब नाश होने पर भी सिफारशी चिट्ठी प्रमीचन्द ने राजा मानिकचन्द के नाम लिख दी थी उसकी बात हालवेल साहब भूल गए। परन्तु अमीचन्द के साथ जो अन्याय बर्ताव किया गया था उसे हालवेल को भी मानना पडा है। हारने पर भी अग्रेजो ने कलकत्ता की आशा नहीं छोडी। पलता मे डेरा डाला। मद्रास से सहायता मांगी। वहाँ से सहायता पाने का समाचार मिला। इधर सिराजुद्दौला ने भी फिर शान्तरूप धारण किया। जहाज तर कौन्सिल बैठी, उसी समय प्रारमनी वणिक के द्वारा अमीचन्द का पत्र अग्रेजो को मिला जिसमे लिखा था "मैं जैसा सदा से था वैसा ही अग्रेजो का भला चाहने वाला अब भी हूँ। आप लोग राजा राज वल्लभ, राजा मानिकचन्द, जगतसेठ, स्वाजा वजीद प्रादि जिससे पत्र व्यवहार करना चाहैं उसका मै प्रबध कर दूंगा। और ____1 But that the hard treatment, I met with, may truly be attributed in a great measure to Omichand's suggestion and insinuations I am well assured from the whole of his subsequent conduct, and this further confirmed me in the three gentlemen selected to be my companions, against each of whom he had conceived particular resentment and you know Omichand can never forgive --Halwell's letter [ ३१ ]________________

(१२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र पाप के पास उत्तर ला दूंगा।"१ अग्रेज लोग इतिहास लिखने के समय अमीचन्द के सिर चाहे जैसी कटुक्ति कर वा दोषी ठहरावै परन्तु ऐसे कठिन समयो मे उनकी सहायता बड़े हर्ष से लेते रहे है और केवल सन्देह ही सन्देह पर अपना काम निकल जाने पर उनके साथ असद्व्यवहार करते रहे हैं। यदि इनकी सहायता न मिलती तो नवाब दर्बार या राजा मानिकचन्द प्रभृति तक उनके पत्र तक नहीं पहुँच सकते थे। जो राजा मानिकचन्द अग्रेजो के खून के प्यासे थे वह केवल अमीचन्द के उद्योग से अग्रेजो का दम भरने लगे। जगतसेठ और अमीचन्द हर एक प्रकार से अग्रेजो की मङ्गल कामना नवाब दर्बार मे करने लगे। अमीचन्द ने लिखा कि "नवाब के डर से कोई बोल नहीं सकता है पर खवाजा बजीद प्रादि प्रसिद्ध सौदागर लोग अग्रेजो के फिर आने के लिये उत्सुक हैं।" निदान फिर अग्रेजों का कलकत्ते में प्रवेश हुआ। अब नवाब की इच्छा अग्रेजो से सन्धि कर लेने की हुई। वह स्वय कलकत्ता पाए और अमीचन्द के बारा में दर्बार हुमा । अग्रेजो के दो प्रतिनिधि पाए और सन्धि की बातें निश्चित हुई। परन्तु कुचक्रियो ने अग्रेजो को भडका दिया, अनायास रात को अग्रेजो 1 Consultations on board the Rhomaa Schooner, Fulta, August 22, 1756 2 Omichand and Manik Chand were at this time in friendly correspondenc with the English they negotiated at this time between the Nawab and the English understanding how to run with the bore and keep with the bound -Revd Long 3 Omichand writes from Chunsura that Coja Wafid and other merchants would be glad to see the English return were it not for the fear of the Nabab --Revd Long 4 February 4, 1757 at seven in the evcning the Subah gave them audience in Omichand's garden, where he affected to appear in great state, attended by the best looking [ ३२ ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१३) की तोप छूटने लगी। नवाब पहिले तो घबड़ाए पर अन्त मे अपने मन्त्रियो तथा सेनापति मीर जाफर की चाल समझ गए। ऐसे विश्वासघाती लोगो के भरोसे अग्रेजो से लडना उचित न समझ कर वहाँ से पीछे लौट आए और दूसरे स्थान पर डेरा डालकर अग्रेजो से सन्धि की बात करने लगे। अन्त मे सन्धि हो गई। इस सन्धि के द्वारा वाणिज्य का अधिकार मिला, कलकत्ता मे किला बनाने और टेकसाल खोलने की आज्ञा मिली और कलकत्ता की लूट मे जो हानि अग्रेजो की हुई थी वह नवाब ने देना स्वीकार किया। सन्धि के विरुद्ध सिराजुद्दौला के प्रादेश के विपरीत अग्रेजो ने फरासीसियो के किला चन्दननगर पर चढाई की। एक तो फरासीसी भी दृढ थे दूसरे महाराज नन्दकुमार भारी सेना लिए पास ही डेरा डाले थे, सामने पहुंच कर अग्रेजो को महा कठिनाई हुई परन्तु उस समय भी सेठ अमीचन्द ही काम पाए । उन्होने जाकर नन्दकुमार को समझाया और वह वहाँ से हट गए। अग्रेजो की जय सिराजुद्दौला अग्नेजो की इस धृष्टता पर बहुत ही चिढ गए। फिर अग्रेजो को दण्ड देने के लिये तयारिऍ होने लगी, परन्तु इस समय तक सारा देश सिराजुहौला के अत्याचार से दुखित था, नवाब के सभी मन्त्री विरुद्ध हो रहे थे। गुप्त मन्त्रणा होकर एक गुप्त सन्धिपत्र लिखा गया । इसमे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक करोड, कलकत्ते के अग्रेज और प्रारमनी वणिको को ७० लाख और सेठ अमीचन्द को ३० लाख रुपया मिलने की बात थी इनके सिवाय और जिनको जो मिलना था वह अलग फद पर लिखा गया। सन्धि पत्र का मसौदा भेजने के समय वाटसन साहब ने लिखा था कि 'अमीचन्द जो चाहते हैं उसको देने मे आगा पीछा men amongst his Officers, hoping to intimate them by so warlıke an assembly --Strafton's Reflections 1 Nuncoomer had been brought by Omichand for this English and on their approach the troops of Sirajuddaulah were withdrawn from Chandannagar --Thomson's History of the British Empire, Vol I, p 223 [ ३३ ]________________

(१४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न करने से काम न बनेगा वह सहज मनुष्य नहीं है सब भेद नवाब से खोल देगा तो कोई काम भी न होगा।' बस इसी पर अग्रेज लोग अमीचन्द से चिढ गए, और । उनके सारे उपकारो को भुलाकर जाली सन्धि पत्र बनाया और अमीचन्द को धोखा दिया। पलासी को लडाई, अग्नेजो की विजय और सेठ अमीचन्द को प्रतारित करने का इतिवृत्त इतिहासो में प्रसिद्ध ही है। अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये अग्रेज ऐतिहासिको ने सारा दोष अमीचन्द पर थोपकर यथेष्ट गालि प्रदान की उदारता दिखलाई है परन्तु विचार कर देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये प्रादि से अन्त तक अग्रेजो के सहायक रहे और उनके हाथ से अनेक अन्याय बर्ताव होने पर भी उनके हित साधन से मुंह न मोडा और अग्नेज लोग केवल । सन्देह कर करके सदा इनका अनिष्ट करते रहे, परन्तु यह सन्देह केवल अपने को दोष मुक्त करने के लिये था वास्तव में इनके भरोसे और विश्वास पर ही इनका सब काम चलता था। कसम खाकर मीर जाफर ने सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर किया परन्तु अग्रेजो को विश्वास नहीं हुआ, जब जगतसेठ और सेठ अमीचन्द ने जमानत किया तब अग्रेजो को विश्वास हुमा । बाबू फतह चन्द्र सेठ श्रमीचन्द के पुत्र सुयोग्य सेठ फतहचन्द इस घटना से अत्यन्त उदास होकर काशी चले पाए। इनका विवाह काशी के परम प्रसिद्ध नगरसेठ गोकुलचन्द साहू की कन्या से हुआ । सेठ गोकुलचन्द के पूर्वजो ने काशी के वर्तमान राज्यवश को काशी का राज्य, भीर रुस्तमनली को पदच्युत कराके, अवध के नव्वाब से प्राप्त कराने में बहुत कुछ उद्योग किया था और तभी से वह उस राज्य के महाजन नियत हुए, तथा प्रतिष्ठापूर्वक "नौपति" की पदवी प्राप्त हुई। जिन नौ महाजनो ने उस समय काशीराज के मूल पुरुष राजा मनसाराम को राज्य दिलाने मे सर्व प्रकार सहायता दी थी, उन्हें नौपति की उपाधि दी गई थी। यह "नौपति" पदवी अब तक प्रसिद्ध है, परन्तु अब उन नवो वश में केवल १ 'जामिन उसके वही दोनो महाजनान मजकूर हुए'-मुताखरीन का उर्दू अनुवाद । [ ३४ ]________________

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (१५) इसी एक वश का पता लगता है। और उसी समय से इनके यहाँ विवाहादि शुभ कम्मों, तथा शोकसमय शोकसम्मिलन तथा पगडी बंधवाने के हेतु, स्वयम् काशीराज उपस्थित होते हैं। यह मान इस वश को अब तक प्रतिष्ठापूर्वक प्राप्त है। सेठ गोकुलचन्द के और कोई सन्तान न होने के कारण बाबू फतहचन्द उनके भी उत्तराधिकारी हुए। फारसी मे एक ग्रन्थ ता २८ सफर सन् १२५४ हिजी का लिखा है जिसमे गवर्नरजेनरल की ओर से प्रधान राजा महाराजा और रईसो को जैसे कागज और जिस प्रशस्ति से पत्र लिखा जाता था उस का संग्रह है उस मे इनकी प्रशस्ति यो लिखी है -- دارو صاحب مهرداں دو سدا سلامت چند ماه دادو در حاتمی - اعد اوشان مهر د رد अर्थात् प्रादि बाबू साहब मेहबान दोस्तान सलामत अन्त-विशेष क्या लिखा जाय कागज सोनहल छिडकाव का छोटी मोहर-- बाबू फतहचन्द ने अगरेजो को राज्यादि के प्रबन्ध करने में बहुत कुछ सहायता दी थी। सुप्रसिद्ध "दवामी बन्दोबस्त" के समय डडून साहब ने इनकी सहायता का पूर्ण धन्यबाद दिया है । इनके काशी या बसने के कुछ काल उपरान्त उनके बड़े भाई राय रत्नचन्द्र बहादुर भी मुर्शिदाबाद से यहाँ ही चले पाए । १ ये हनुमान जी के बड़े भक्त थे। प्रति मङ्गलवार को काशी भदैनी हनुमानघाट वाले बडे हनुमान जी के दशन को जाया करते थे। काशी मे बडे हनुमान जी का मन्दिर परम प्राचीन और प्रसिद्ध है। यहाँ केवल एक विशाल प्रस्तरमूर्ति हनुमान जी की है। एक दिन उन्हे जो प्रसाद मे माला मिली वह पहिरे हुए घर चले आए। यहा आकर जो माला उतारी तो उस मे से एक हनुमान जी की स्वर्णप्रतिमा छोटी सी अगुष्ठ प्रमाण गिर पड़ी। उसी समय से इस प्रतिमा की सेवा बडी भक्ति से होने लगी और अब तक इस वश मे कुलदेव यही महावीर जी हैं। यह मूर्ति साधारण हनुमान जी की भाँति नहीं है, वरञ्च बिलकुल बानराकृति है और एक हाथ मे लड्डू लिए हुए हैं। ।

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