भारत का संविधान/भाग २१

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भारत का संविधान  (1957) 
अनुवादक
राजेन्द्र प्रसाद

[ १४४ ] 

भाग २१
अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध

राज्य-सूची में के
कुछ विषयों के
बार मे विधि बनाने
की संसद् की इस
प्रकार अस्थायी
शक्ति मानो कि ये
विषय समवर्ती सूची
में है
[१]३६९. इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी इस संविधान के प्रारम्भ से पांच वर्ष की कालावधि में निम्नलिखित विषयों के बारे में विधि बनाने की संसद् को इस प्रकार शक्ति होगी मानो कि ये समवर्ती सूची में प्रगणित है, अर्थात्—

(क) सुती और ऊनी वस्त्रों कच्ची रूई (जिस के अन्तर्गत बनी हुई रूई और बिना धुनी कपास है) बिनौले, कागज (जिसके अन्तर्गत समाचारपत्र का कागज है), खाद्य पदार्थ (जिसके अन्तर्गत खाद्य तिलहन और तेल हैं), ढोरों के चारे (जिसके अन्तर्गत खली और अन्य संस्कृति चारे आते हैं), कोयले (जिसके अन्तर्गत कोक और पत्थर कोयला अन्य पदार्थ है), लोहे, इस्पात और अभ्रक का किसी राज्य के अन्दर व्यापार और वाणिज्य तथा उनका उत्पादन, सम्भरण और वितरण,
(ख) खंड (क) में वर्णित विषयों में से किसी से सम्बद्ध विधियों के विरुद्ध अपराध, उच्चतम न्यायालय से भिन्न सत्र न्यायालयों का उन विषयों में से किसी के बारे में क्षेत्राधिकार और शक्तियां तथा उन विषयों से किसी के सम्बन्ध में किसी न्यायालय में ली जाने वाली फीसों से अन्य फीसें;

किन्तु संसद् द्वारा निर्मित कोई विधि, जिसे इस अनुच्छेद के उपबन्धों के अभाव में बनाने के लिये संसद् सक्षम न होती, उक्त कालावधि की समाप्ति पर अक्षमता की मात्रा तक उसकी समाप्ति से पूर्व की गई या की जाने से छोड़ी गई बातों से अन्य बातों के सम्बन्ध में प्रभावहीन हो जायेगी।

जम्मू और कश्मीर
राज्य के सम्बन्ध में
अस्थायी उपबन्ध
[२]३७० (१) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,—

(क) अनुच्छेद २३८ के उपबन्ध जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में लागू न होंगे;
(ख) उक्त राज्य के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद् की शक्ति—
(१) संघ-सूची और समवर्ती सूची में के जिन विषयों को राज्य की सरकार से परामर्श करके राष्ट्रपति उन विषयों का तत्मस्थानी विषय घोषित कर दे जो भारत डोमीनियन में उस राज्य के प्रवेश को शासित करने वाली प्रवेश लिखत में उल्लिखित ऐसे विषय है जिनके बारे में डोमीनियन विधान-मंडल विधि बना सकता है उन विषयों तक, तथा
[ १४५ ] 

भाग २१—अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध—अनु॰ ३७०-३७१

(२) उक्त सूचियों में के जिन अन्य विषयों को उस राज्य की सरकार की सहमति से राष्ट्रपति आदेश द्वारा उल्लिखित करें उन विषयों तक सीमित होगी।

व्याख्या—इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिये राज्य की सरकार से अभिप्रेत है वह व्यक्ति जिसे राष्ट्रपति १९४८ की मार्च के पांचवें दिन निकाली गई महाराजा की उद्घोषणा के अधीन तत्समय पदस्थ मंत्रि-परिषद् की मंत्रणा के अनुसार कार्य करने वाला जम्मू और कश्मीर का महाराजा तत्समय अभिज्ञात करना है;

(ग) अनुच्छेद १ के और इस अनुच्छेद के उपबन्ध उस राज्य के सम्बन्ध में लागू होंगे;
(घ) इस संविधान के उपबन्धों में से ऐसे अन्य उपबन्ध ऐसे अपवादों और रूपभेदों के साथ उस राज्य के सम्बन्ध में लागू होंगे जैसे कि राष्ट्रपति [३]आदेश द्वारा उल्लिखित करे :
परन्तु ऐसा कोई आदेश, जो उपखंड (ख) की कंडिका (१) में निर्दिष्ट राज्य के प्रवेश लिखत में उल्लिखित विषयों से सम्बद्ध हो राज्य की सरकार से परामर्श किये बिना न निकाला जायेगा :
परन्तु यह और भी कि ऐसा कोई आदेश, जो अन्तिम पूर्ववर्ती परन्तुक में निर्दिष्ट विषयों से भिन्न विषयों से सम्बद्ध हो, उस सरकार की सहमति के बिना न निकाला जायेगा

(२) यदि उस राज्य की सरकार द्वारा खंड (१) के उपखंड (ख) की कंडिका (२) में अथवा उस खंड के उपखंड (घ) के दूसरे परन्तुक में निर्दिष्ट सहमति, उस राज्य के लिये संविधान बनाने के प्रयोजन वाली संविधान सभा के बुलाये जाने से पहिले दी जाये तो उसे ऐसी सभा के समक्ष ऐसे विनिश्चय के लिये रखा जायेगा जैसा कि वह उस पर ले।

(३) इस अनुच्छेद के पूर्ववर्ती उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी राष्ट्रपति लोक-अधिसूचना द्वारा घोषित कर सकेगा कि यह अनुच्छेद ऐसी तारीख में प्रवर्तनहीन, अथवा ऐसे अपवादों और रूपभेदों के सहित ही प्रवर्तन में होगा जैसे कि वह उल्लिखित करे :

परन्तु ऐसी अधिसूचना को राष्ट्रपति द्वारा निकाले जाने से पहिले खंड (२) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिपारिश आवश्यक होगी।

आंध्र प्रदेश, पंजाब
और मुम्बई राज्यों
के विषय में विशेष
उपबन्ध:
[४]३७१ (१) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति आंध्र प्रदेश या पंजाब राज्य के सम्बन्ध में किये गये आदेश द्वारा राज्य की विधान-सभा की प्रादेशिक समितियों के गठन और कृत्यों, राज्य की सरकार के कार्य सम्बन्धी नियमों में और विधान-सभा प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों में किये जाने वाले रूपभेदों के लिये तथा प्रादेशिक समितियों की उचित कृत्यकारिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से राज्यपाल के किसी विशेष उत्तरदायित्व के लिये उपबन्ध कर सकेगा। [ १४६ ] 

भाग २१—अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध—अनु॰ ३७१-३७२

(२) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी राष्ट्रपति मुम्बई राज्य के सम्बन्ध में किये गये आदेश द्वारा—

(क) विदर्भ, मराठवाड़ा, शेष महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कच्छ और शेष गुजरात के लिए पृथक् विकास मंडलियों की इस उपबन्ध के सहित, कि इन मंडलियों में से प्रत्येक के कार्यचालन पर एक प्रतिवेदन राज्य-विधान सभा के समक्ष प्रति वर्ष रखा जाएगा, स्थापना के लिए,
(ख) सारे राज्य की अपेक्षाओं के अधीन रहते हुए उक्त क्षेत्रों पर विकाग व्यय के लिए विधियों के साम्यपूर्ण बटवारे के लिए और
(ग) सारे राज्य की अपेक्षाओं के अधीन रहते हुए सब उक्त क्षेत्रों के सम्बन्ध में शिल्पिक शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त सुविधाएं और राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन सेवाओं में नौकरी के लिये पर्याप्त अवसर उपबन्धित करने वाले युक्तिपूर्ण प्रबन्ध के लिए,राज्यपाल के किसी विशेष उत्तरदायित्व के लिए उपबन्ध कर सकेगा

वर्तमान विधियों का
प्रवृत बने रहना
तथा उन का अनुकूलन
[५]३७२. (१) अनुच्छेद ३९५ में निर्दिष्ट अधिनियमितियों का निरसन होने पर भी किन्तु इस संविधान के अन्य उपबन्धों के अधीन रहत हुए इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले भारत राज्य-क्षेत्र में सब प्रवृत्त विधि उस में तब तक प्रवृत्त बनी रहेगी जब तक कि सक्षम विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा बदली, या निरासित या संशोधित न की जाये।

(२) भारत राज्य-क्षेत्र में किसी प्रवृत्त विधि के उपबन्धों को इस संविधान के उपबन्धों में संगत करने के प्रयोजन में राष्ट्रपति आदेश[६] द्वारा ऐसी विधि के ऐसे अनुकूलन और रूपभेद चाहे निरसन या चाहे संशोधन द्वारा कर सकेगा जैसे कि आवश्यक या इष्टकर हों तथा उपबन्ध कर सकेगा कि वह विधि ऐसी तारीख से लेकर, जैसी कि आदेश में उल्लिखित हो, ऐसे किये गये अनुकूलनों और रूपभेदों के अधीन रह कर ही प्रभावी होगी तथा ऐसे किसी अनुकूलन या रूपभेद पर किसी न्यायलय में आपति न की जायेगी। [ १४७ ] 

भाग २१ अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध—अनु॰ ३७२—३७२क

(३) खंड (२) की कोई बात—
(क) राष्ट्रपति को इस संविधान के प्रारम्भ से [७][तीन वर्ष] की समाप्ति के पश्चात् किसी विधि का कोई अनुकूलन या रूपभेद करने की शक्ति देने वाली, अथवा
(ख) किसी सक्षम विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी को राष्ट्रपति द्वारा उक्त खंड के अधीन अनुकूल या रूपभेद की गई किसी विधि को निरासित या संशोधित करने से रोकने वाली, न समझी जायेगी।

व्याख्या १—इस अनच्छेद में "प्रवत्त विधि" पदावलि के अन्तर्गत है कोई विधि जो इस संविधान के प्रारम्भ से पूर्व भारत-राज्य-क्षेत्र में किसी विधान-मंडल द्वारा वा अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित या निर्मित हुई हो तथा पहिले ही निरासित न कर दी गई हो चाहे फिर बढ़ या उस के कोई भाग तब पूर्णतः अथवा किन्ही विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में न हों।

व्याख्या २.—भारत राज्य क्षेत्र में के किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित या निर्मित किसी ऐसी विधि का, जिस का इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले राज्य क्षेत्रातीत प्रभाव तथा भारत राज्य क्षेत्र में भी प्रभाव था, उपरोक्त किन्हीं अनकूलनों ओर रूपभेदों के अधीन रह कर राज्य क्षेत्रातीन प्रभाव बना रहेगा।

व्याख्या ३.—इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ न किया जायेगा कि वह किसी अस्थायी प्रवृत्त विधि को उस की समाप्ति के लिये नियत तारीख से अथवा उस तारीख से, जिसको कि यदि यह संविधान प्रवृत्त न हुआ होता तो वह समाप्त हो जाती, आगे प्रवृत्त बनाये रखती है।

व्याख्या ४.—किसी प्रान्त के राज्यपाल द्वारा भारत-शासन अधिनियम, १९३५ की धारा ८८ के अधीन प्रख्यापित तथा इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले प्रवृत्त अध्यादेश, यदि तत्स्थानी राज्य के राज्यपाल द्वारा पहिले ही वापिस न ले लिये गया हो तो, ऐसे प्रारम्भ के पश्चात् अनुच्छेद ३८२ के खंड (१) के अधीन कृत्यकारिणी उस राज्य की विधान-सभा के प्रथम अधिवेशन से छः सप्ताह की समाप्ति पर प्रवर्तनहीन होगा तथा इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ न किया जायेगा कि वह ऐसे किसी अध्यादेश को उक्त कालावधि से आगे प्रवृत्त बनाये रखती है।

विधियों का अनु-
कूलन करने की
राष्ट्रपति की शक्ति
[८][३७२क. (१) संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६ के प्रारम्भ से तुरन्त पूर्व भारत में या उसके किसी भाग में किसी प्रवृत्त विधि के उपबन्धों को उस अधिनियम द्वारा यथा संशोधित इस संविधान के उपबन्धों से संगत करने के प्रयोजन से राष्ट्रपति १९५७ की नवम्बर के प्रथम दिन से पूर्व किये गये आदेश द्वारा ऐसी विधि के ऐसे अनुकूलन और रूपभेद चाहे निरसन या चाहे संशोधन द्वारा कर सकेगा जैसे कि आवश्यक या इप्टकर हों तथा उपबन्ध कर सकेंगा कि वह विधि ऐसी तारीख से लेकर, जैसी कि आदेश में उल्लिखित हो, ऐसे किये गये अनुकूलनों और रूपभेदों के अधीन रहकर ही प्रभावी होगी तथा ऐसे किसी अनुकूलन या रूपभेद पर किसी न्यायालय में आपत्ति न की जायेगी। [ १४८ ] 

भाग २१—प्रस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध—अनु॰ ३७२६-३७४

(२) खंड (१) की कोई बात किसी सक्षम विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी को राष्ट्रपति द्वारा उक्त खंड के अधीन अनुकूलन या रूपभेद की गयी किसी विधि को निरसित या संशोधित करने से रोकने वाली न समझी जाएगी।]

निवारक निरोध में
रखे गये व्यक्तियों
के सम्बन्ध में कुछ
अवस्थाओं में
आदेश देने की
राष्ट्रपति की शक्ति
[९]३७३. जब तक अनुच्छेद २२ के खंड ७ के अधीन संसद् उपबन्ध न करें, अथवा जब तक इस संविधान के प्रारम्भ के पश्चात् एक वर्ष समाप्त न हो, जो भी इनमें से पहिले हो, तब तक उक्त अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो कि उसके खंड (४) और (७) में संसद् के प्रति किसी निर्देश के स्थान में राष्ट्रपति के प्रति निर्देश, तथा उन उपखंडों में संसद् द्वारा निर्मित किसी विधि के प्रति निर्देश के स्थान में राष्ट्रपति द्वारा निकाले गये आदेश का निर्देश, रख दिया गया हो।

फेडरलन्यायालय के
न्यायाधीशों के तथा
फेडरलन्यायालय में
अथवा सपरिषद्
सम्राट के समक्ष
लंबित कार्यवाहियों
के बारे में उपबन्ध
[१०]३७४ (१) इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले फेडरलन्यायायल में पदस्थ न्यायाधीश, यदि वे अन्यथा पसन्द न कर चुके हों, ऐसे प्रारम्भ पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हो जायेंगे तथा तत्पश्चात् ऐसे वेतनों और भत्तों तथा अनुपस्थिति छुट्टी और निवृत्ति वेतन के विषय में ऐसे अधिकारों का हक्क रखेंगे जैसे कि उच्चतमन्यायालय के न्यायाधीशों के बारे में अनुच्छेद १२५ के अधीन उपबन्धित है।

(२) इस संविधान के प्रारम्भ पर फेडरलन्यायालय में लम्बित सभी व्याहार-वाद, अपीलें और कार्यवाहियां, चाहे व्यवहार सम्बन्धी चाहे दाण्डिक उच्चतम न्यायालय को चली गई रहेंगी, तथा उच्चतमन्यायालय को उनके सुनने तथा निर्धारण करने का क्षेत्राधिकार होगा तथा फेडरलन्यायालय के इस संविधान के प्रारम्भ से पहिले सुनाये या दिये गये, निर्णयों और आदेशों का ऐसा बल और प्रभाव होगा मानो‌कि वे उच्चतमन्यायालय द्वारा सुनाये या दिये गये हों।

(३) इस संविधान की कोई बात भारत राज्य क्षेत्र में के किसी न्यायालय के किसी निर्णय, आज्ञप्ति या आदेश की, या के विषय में, अपीलों या याचिकाओं को निबटाने के लिये सपरिषद् सम्राट् के क्षेत्राधिकार के प्रयोग को वहां तक अमान्य न करेगी जहां तक कि ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग विधि द्वारा प्राधिकृत है तथा ऐसी किसी अपील या याचिका पर इस संविधान के प्रारम्भ के पश्चात् दिया गया सपरिषद्सम्राट् का कोई आदेश सब प्रयोजनों के लिये ऐसे प्रभावी होगा मानो कि वह उच्चतम-न्यायालय द्वारा उस क्षेत्राधिकार के प्रयोग में, जो ऐसे न्यायालय को इस संविधान‌ द्वारा दिया गया है, दिया गया कोई आदेश या आज्ञप्ति हो।

(४) इस संविधान के प्रारम्भ पर, और से, प्रथम अनुसूची के भाग (ख) में उल्लिखित किसी राज्य में अन्तःपरिषद के रूप में कृत्यकारी प्राधिकारी का उस राज्य में के किसी न्यायालय के किसी निर्णय, आज्ञप्ति या आदेश की अपील या याचिका को ग्रहण या निबटाने का क्षेत्राधिकार समाप्त हो जायेगा तथा ऐसे प्राधिकारी के समक्ष ऐसे प्रारम्भ पर लम्बित सब अपीलें और अन्य कार्यवाहियां उच्चतमन्यायालय को भेज दी जायेंगी और उस के द्वारा निबटायी जायेंगी। [ १४९ ] 

भाग २१ अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध अनु॰ ३७४- ३७७

(५) इस अनुच्छद के उपबन्धों को प्रभावी बनाने के लिये संसद् विधि द्वारा और उपबन्ध बना सकेंगी।

संविधान के उपबंधों
के अधीन रहकर
न्यायालयों, प्राधि
कारियों और पदा
धिकारियों
का कृत्य करते रहना
[११]३७५. भारत राज्य क्षेत्र में सर्वत्र व्यवहार, दंड और राजस्व क्षेत्राधिकार वाले सब न्यायालय तथा न्यायिक, कार्यपालक और अनुसचिवीय प्राधिकारी और पदाधिकारी इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए अपने अपने कृत्यों को करते रहेंगे।

उच्च न्यायालयों के
न्यायाधीशों के बारे
में उपबन्ध
३७६ (१) अनुच्छेद २१७ के खंड (२) में किसी बात के होते हुए भी इस संविधान के प्रारम्भ में टीक पहिले किसी प्रान्त में के उच्चन्यायालय के पदस्थ न्यायाधीश, यदि वे अन्यथा पसन्द न कर चुके हों, ऐसे प्रारम्भ पर तत्स्थानी राज्य के उच्चन्यायालय के न्यायाधीश हो जायेंगे तथा तत्पश्चात् ऐसे वेतनों और भत्तों तथा अनुपस्थिति छुट्टी और निवृत्ति वेतन के विषय में ऐसे अधिकारों का हक्क रखेंगे जैसे कि उच्चन्यायालय के न्यायाधीशों के बारे में अनुच्छेद २२१ के अधीन उपबन्धित हैं।

[१२][कोई ऐमा न्यायाधीश, इस बात के होते हुए भी कि वह भारत का नागरिक नहीं है, ऐसे उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति के रूप में या किसी अन्य उच्च-न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति या अन्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र होगा]

(२) इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले प्रथम अनुसूची भाग (ख) में उल्लिखित किमी राज्य के तत्स्थानी किसी देशी राज्य में के उच्चन्यायालय के पदस्थ न्यायाधीश, यदि वे अन्यथा पसन्द न कर चुके हो, ऐसे प्रारम्भ पर वैसे उल्लिखित राज्य में के उच्चन्यायालय के न्यायाधीश हो जायेंगे तथा अनुच्छेद २१७ के खंड (१) और (२) में किसी बात के होते हुए भी किन्तु उस अनुच्छेद के खंड (१) के परन्तुक के अधीन रहते हुए ऐसी कालावधि तक पदस्थ बने रहेंगे जैसी कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा निर्धारित करे।

(३) इस अनुच्छेद में "न्यायाधीश" पद के अन्तर्गत कार्यकारी न्यायाधीश या अपर न्यायाधीश नहीं है। भारत के नियंत्रक-
महालेखापरीक्षक के
बारे में उपबन्ध
[१३]३७७. इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले पदस्थ भारत का महालेखा परीक्षक, यदि वह अन्यथा पसन्द न कर चुका हो, ऐसे प्रारम्भ पर भारत का नियन्त्रक महालेखा परीक्षक हो जायेगा तथा तत्पश्चात् ऐसे वेतनों तथा अनुपस्थिति छुट्टी और निवृत्ति वेतन के विषय में ऐसे अधिकारों का हक्क रखेगा जैसे भारत के नियन्त्रक महालेखा परीक्षक के बारे में अनुच्छेद १४८ के खंड (३) के अधीन उपबन्धित हैं, तथा अपनी उस पदावधि की, जो कि ऐसे प्रारम्भ में ठीक पहिले उसे लागू होने वाले उपबन्धों के अधीन निर्रत हो समाप्ति तक, पदस्थ बने रहने का हक्क रखेगा। [ १५० ] 

भाग २१—अस्थायी तथा अन्तर्कालीन उपबन्ध—अनु॰ ३७८-३६२

लोक-सेवा
आयोग बारे में उपबन्ध
[१४]३७८. (१) इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले भारत डोमीनियन के लोकसेवा-आयोग के पदस्थ सदस्य, जब तक कि वे अन्यथा पसन्द न कर चुके हों, के ऐसे प्रारम्भ पर संघ-लोकसेवा आयोग के सदस्य हो जायेंगे तथा अनुच्छेद ३१६ के खंड (१) और (२) में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु उस अनुच्छेद के खंड (२) के परन्तुक के अधीन रहते हुए अपनी उस पदावधि की, जो कि ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहिले ऐसे सदस्यों को लागू होने वाले नियमों के अधीन निर्धारित हो समाप्ति तक पदस्थ बने रहेंगे।

(२) इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहिले किसी प्रान्त के लोकसेवा आयोग के अथवा प्रान्तों के समूह की आवश्यकता के लिये सेवा करने वाले किसी‌ लोकसेवा-आयोग के पदस्थ सदस्य, जब तक कि वे अन्यथा पसन्द न कर चुके हों, यथास्थिति तत्स्थानी राज्य के लोकसेवा-आयोग के सदस्य अथवा तत्स्थानी राज्यों की आवश्यकताओं के लिये सेवा करने वाले संयुक्त राज्य लोकसेवा-आयोग के सदस्य हो जायेंगे तथा अनुच्छेद ३१६ के खंड (१) और (२) में किसी बात के होते हुए भी किन्तु उस अनुच्छेद के खंड (२) के परन्तुक के अधीन रहते हुए अपनी उस पदावधि की, जो कि ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहिले ऐसे सदस्यों को लागू नियमों के अधीन निर्धारित हो, समाप्ति तक पदस्थ बने रहेंगे।

आंध्र प्रदेश विधान-
सभा की प्रस्ति
त्याविधि के बारे
में विषेय उपबन्ध
[१५][३७८ क अनुच्छेद १७२ में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी राज्य पुनर्गठन अधिनियम, १९५६ की धारा २८ और २९ के उपबन्धों के अधीन यथागठित आन्ध्र प्रदेश राज्य की विधान-सभा, यदि पहिले ही विघटित न कर दी जाये तो उक्त धारा २६ में निर्दिष्ट तारीख से पांच वर्ष की कालावधि, न कि उससे अधिक के लिये‌ चालू रहेगी तथा उक्त कालावधि की समाप्ति का परिणाम उस विधान-सभा का विघटन होगा

३७९-३९१. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा निरसित।

कठिनाइयों को दूर
करने की राष्ट्रपति
की शक्ति
[१६]३९२. (१) राष्ट्रपति किन्हीं कठिनाइयों को विशेषतः भारत-शासन कठिनाइयां अधिनियम, १९३५ के उपबन्धों से इस संविधान के उपबन्धों में संक्रमण के सम्बन्ध में करने के प्रयोजन से आदेश द्वारा निर्देश दे सकेगा कि यह संविधान उस आदेश में उल्लिखित कालावधि में, ऐसे अनुकूलनों के अधीन, चाहे वे रूपभेद या जोड़ या लोप के रूप में हों, रह कर, जैसे कि वह आवश्यक या इष्टकर समझे, प्रभावी होगा :

परन्तु भाग ५ के अध्याय ३ के अधीन सम्यक् रूप से गठित संसद् के प्रथम अधिवेशन के पश्चात् ऐसा कोई आदेश न निकाला जायेगा।

(२) खंड (१) के अधीन निकाला गया प्रत्येक आदेश संसद् के समक्ष रखा जायेगा।

(३) इस अनुच्छेद अनुच्छेद ३२४ अनुच्छेद ३६७ के खंड (३) और अनुच्छेद ३९१ द्वारा राष्ट्रपति को दी गई शक्तियां इस संविधान के प्रारम्भ से पहिले भारत डोमीनियन के गवर्नर जनरल द्वारा प्रयोक्तव्य होंगी।‌

  1. अनुच्छेद ३६९ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  2. इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने जम्मू और कश्मीर राज्य की संविधान सभा की सिपारिश पर यह घोषणा की कि १७ नवम्बर, १९५२ से उक्त अनुच्छेद इस रूपभेद के साथ प्रवर्तनीय होगा कि उसके खंड (१) में की व्याख्या के स्थान पर निम्नलिखित व्याख्या रख दी गयी है, अर्थात्—
    "व्याख्या—इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिये राज्य की सरकार से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो राज्य की तत्समय पदारूढ मंत्रि-परिषद् की मंत्रणा पर कार्य करने वाले जम्मू और कश्मीर के सदरे रियासत के रूप में राज्य की विधान-सभा की सिपारिश पर राष्ट्रपति द्वारा तत्समय अभिज्ञात है।"
    (विधि मंत्रालय आदेश संख्या सी॰ ओ॰ ४४ तारीख १५ नवम्बर, १९५२)
  3. विधि-मंत्रालय आदेश संख्या सी॰ प्रो॰ ४८ तारीख १४ मई, १९५४ भारत सरकार के असाधारण गजट के साथ पृष्ठ ८२१ पर प्रकाशित संविधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होना) आदेश १९५४ देखिए।
  4. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २२ द्वारा मूल अनुच्छेद ३७१ के स्थान पर रखा गया।
  5. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३७२ में—
    (२) खंड (२) और (३) लुप्त कर दिये जायेंगे।
    (२) भारत के राज्य-क्षेत्र में प्रवृत्त विधियों के प्रति निर्देशों के अन्तर्गत हिदायतों ऐलानों, इश्तिहारों, परिपत्रों, रोबकारों, इरशादों याददास्तों राज्य-सभा राज्य-क्षेत्र में विधि का बल संविधान सभा के संकल्पों और जम्मू और कश्मीर राज्य के राज्य-क्षेत्र में विधि का बल रखने वाली अन्य लिखतों के प्रति निर्देश भी होगे; और
    (३) संविधान के प्रारम्भ के प्रति निर्देशों का ऐसे अर्थ किया जायेगा मानो कि वे संविधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होना) आदेश १९५४ के प्रारम्भ अर्थात् १४ मई, १९५४ के प्रति निर्देश हैं।
  6. देखिए, अधिसूचना संख्या एस॰ आर॰ ओप॰ ११५ तारीख ५ जून १९५० भारत का आसाधारण सूचनापत्र भाग २ अनुभाग ३ पृष्ठ ५१ द्वारा यथा संशोधित विधियों का अनुकूलन आदेश १९५० तारीख २६ जनवरी, १९५० भारत का असाधारण सूचनापत्र पृष्ठ ४४९, अधिसूचना संख्या एस॰ आर॰ ओ॰ ८७० तारीख ४ नवम्बर, १९५० भारत का असाधारण सूचनापत्र भाग २ अनुभाग ३ पृष्ठ ९०३ अधिसूचना संख्या एस॰ आर॰ ओ॰ ५०८ तारीख १९५१, भारत का असाधारण सूचनापत्र भाग २ अनुभाग ३ पृष्ठ २८७ और अधिसूचना संख्या एस॰ आर॰ ओ॰ ११४० बी, तारीख २ जुलाई, १९५२ भारत का असाधारण सूचनापत्र भाग २ अनुभाग ३ पृष्ठ ६१९।
  7. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा १२ द्वारा "दो वर्ष" के स्थान पर रखा गया।
  8. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६ धारा २३ द्वारा अन्त:स्थापित
  9. अनुच्छेद ३७३ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  10. "जम्मू और कश्मीर" राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३७४ में—
    (१) खंड (१), (२), (३) और (५) लुप्त कर दिये जाएंगे;
    (२) खंड (४) में किसी राज्य की अन्तःपरिषद् के रूप में कृत्यकारी प्राधिकारी के प्रति निर्देश का ऐसे अर्थ किया जाएगा मानो कि वह जम्मू और कश्मीर संविधान अधिनियम, १८९६ के अधीन गठित मंत्रणादाता मंडली के प्रति निर्दश है, और संविधान के आरम्भ के प्रति निर्देशों का ऐसे अर्थ किया जाएगा मानो कि व संविधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होना) आदेश १९५४ के प्रारम्भ अर्थात् १४ मई, १९५४ के प्रति निर्देश हैं।
  11. अनुच्छेद २७७ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  12. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा १३ द्वारा जोड़ दिया गया।
  13. अनुच्छेद ३७६ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  14. अनुच्छेद ३७८ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।
  15. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २४ द्वारा अन्तःस्थापित
  16. "अनुच्छेद ३९२ जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू न होगा।