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भारत का संविधान/भाग ३

विकिस्रोत से
भारत का संविधान
अनुवादक
राजेन्द्र प्रसाद

पृष्ठ ६ से – १८ तक

 

 

भाग ३
मूल अधिकार
साधारण

परिभाषा १२. यदि प्रसंग से दूसरा अर्थ अपेक्षित न हो तो इस भाग में "राज्य" के अन्तर्गत भारत की सरकार और संसद्, तथा राज्यों में से प्रत्येक की सरकार और विधानमंडल, तथा भारत राज्य-क्षेत्र के भीतर अथवा भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सब स्थानीय और अन्य प्राधिकारी, भी हैं।

मूल अधिकारों से
असंगत अथवा
उनका अल्पीकरण
करने वाली
विधियां
[]१३. (१) इस संविधान के प्रारंभ होने से ठीक पहिले भारत राज्य-क्षेत्र में सब प्रवृत्त विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक कि वे इस भाग के उपबंधों से असंगत हैं।

(२) राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो इस भाग द्वारा दिये अधिकारों को छीनती या न्यून करती हो और इस खंड के उल्लंघन में बनी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

(३) यदि प्रसंग से दूसरा अर्थ अपेक्षित न हो तो इस अनुच्छेद में—

(क) भारत राज्य-क्षेत्र में विधि के समान प्रभावी कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि अथवा प्रथा "विधि" के अन्तर्गत होगी;
(ख) भारत राज्य-क्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य क्षमताशाली प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारम्भ से पूर्व पारित अथवा निर्मित विधि, जो पहिले ही निरसित न हो गई हो, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशेष क्षेत्रों में प्रवर्त्तन में न भी हो, "प्रवृत्त विधियों" के अन्तर्गत होगी।

समता-अधिकार

विधिके समक्ष
समता
१४. भारत राज्य-क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा।

धर्म, मूलवंश,
जाति, लिंग या
जन्म-स्थान के
आधारपर विभेद
का प्रतिषेध
१५. (१) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

(२) केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई नागरिक—

(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों तथा सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश के, अथवा
 

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ १५-१७

(ख) पूर्ण या आंशिक रूप में राज्य-निधि से पोषित अथवा साधारण जनता के उपयोग के लिये समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों तथा सार्वजनिक समागम स्थानों के उपयोग के बारे में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन अथवा शर्त के अधीन न होगा।

(३) इस अनुच्छेद की किसी बात से राज्य की स्त्रियों और बालकों के लिये कोई विशेष उपबन्ध बनाने में बाधा न होगी।

[][(४) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद २९ के खंड (२) की किसी बात से राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए किन्हीं नागरिक वर्गों की उन्नति के लिये या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित आदिमजातियों के लिये कोई विशेष उपबन्ध करने में बाधा न होगी][]

राज्याधीन नौकरी
के विषय में
अवसर-समता
१६. (१) राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों के लिये अवसर की समता होगी।

(२) केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास अथवा इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के लिये राज्याधीन किसी नौकरी या पद के विषय में न अपात्रता होगी और न विभेद किया जायेगा।

[](३) इस अनुच्छेद की किसी बात से संसद् को कोई ऐसी विधि बनाने में बाधा न होगी जो [][किसी राज्य या संघ राज्य-क्षेत्र की सरकार के या उसमें के किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन किसी प्रकार की नौकरी या पद पर नियुक्ति के विषय में वैसी नौकरी या नियुक्ति के पूर्व उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के अंदर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती हो।]

(४) इस अनुच्छेद की किसी बात से राज्य के पिछड़े हुये किसी नागरिक वर्ग के पक्ष में, जिन का प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्याधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के रक्षण के लिये उपबन्ध करने में कोई बाधा न होगी।

(५) इस अनुच्छेद की किसी बात का किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर कोई प्रभाव न होगा जो उपबन्ध करती हो कि किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्था के कार्य से सम्बद्ध कोई पदधारी अथवा उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का अनुयायी अथवा किसी विशिष्ट सम्प्रदाय का ही हो। अस्पृश्यता का अन्त

१७. "अस्पृश्यता" का अन्त किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। "अस्पृश्यता" से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ १८-१९

खिताबों का अन्त १८. (१) सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय और कोई खिताब राज्य प्रदान नहीं करेगा।

(२) भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य में कोई खिताब स्वीकार नहीं करेगा।

(३) कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हए किसी विदेशी राज्य से कोई खिताब राष्ट्रपति की सम्मति के बिना स्वीकार न करेगा।

(४) राज्य के अधीन लाभ-पद या विश्वास-पद पर आसीन कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या के अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सम्मति के बिना स्वीकार न करेगा।

स्वातंत्र्य-अधिकार

[]१९. (१) सब नागरिकों को— वाक्-स्वातन्त्र्य आदि
विषयक कुछ अधि-
कारों का संरक्षण

(क) वाक्-स्वातन्त्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य का,
(ख) शान्ति पूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
(ग) संस्था या संघ बनाने का,
(घ) भारत राज्य-क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
(ङ) भारत राज्य-क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का,
(च) सम्पत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का, तथा
(छ) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने का, अधिकार होगा।

[][(२) खंड (१) के उपखंड (क) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिये गये अधिकारों के प्रयोग पर राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में या न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये कोई रुकावट, न डालेगी।]  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ १९–२१

(३) उक्त खंड के उपखंड (ख) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिये गये अधिकार क प्रयोग पर सार्वजनिक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी।

(४) उक्त खंड के उपखंड (ग) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिये गये अधिकार के प्रयोग पर सार्वजनिक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनानेमें राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी।

(५) उक्त खंड के उपखंड (घ), (ङ) और (च) की कोई बात उक्त उपखंडों द्वारा दिये गये अधिकारों के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों के अथवा किसी अनुसूचित आदिमजाति के हितों के संरक्षण के लिये युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालगी।

(६) उक्त खंड के उपखंड (छ) की कोई बात उक्त खंड द्वारा दिये गये अधिकार के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी; तथा विशषतः [][उक्त उपखंड की कोई बात—

(१) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने के लिये आवश्यक वृत्तिक या शिल्पिक अर्हताओं से, या
(२) राज्य के द्वारा अथवा राज्य के स्वाभित्वाधीन या नियंत्रणाधीन बाल निगम द्वारा कोई व्यापार, कारबार, उद्योग या सेवा नागरिकों का पूर्णतः या आंशिक अपवर्जन कारक या अन्यथा चलाने से,

जहां तक कोई वर्तमान विधि संबंध रखती है वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा सम्बन्ध रखने वाली किसी विधि को बनाने में राज्य के लिए रुकावट, न डालेगी] अपराधों के लिये
दोषसिद्धि के
विषय में सरक्षण
२०. (१) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये सिद्ध-दोष नहीं ठहराया जायेगा, जब तक कि उसने अपराधारोपित क्रिया करने के समय किसी प्रवृत्त विधि श का अतिक्रमण न किया हो, और न वह उससे अधिक दंड का पात्र होगा जो उस अपराध के करने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन दिया जा सकता था।

(२) कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिये एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित न किया जायेगा।

(३) किसी अपराध में अभियुक्त कोई व्यक्ति स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य न किया जायेगा।

प्राण और दैहिक
स्वाधीनता का
संरक्षण

२१. किसी व्यक्ति को अपने प्राण अथवा दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़ कर अन्य प्रकार वंचित न किया जायेगा।  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ २२

कुछ अवस्थाओं में
बन्दीकरण और
निरोध से संरक्षण
२२. (१) कोई व्यक्ति, जो बन्दी किया गया है, ऐसे बन्दीकरण के कारणों से यथाशक्य शीघ्र अवगत कराये गये बिना हवालात में निरुद्ध नहीं किया जायेगा और न अपनी रुचि के विधि-व्यवसायी से परामर्श करने तथा प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित रखा जायेगा।

(२) प्रत्येक व्यक्ति, जो बन्दी किया गया है और हवालात में निरुद्ध किया गया है, बन्दीकरण के स्थान से दण्डाधिकारी के न्यायालय तक यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़ कर ऐसे बन्दीकरण से चौबीस घंटे की कालावधि में निकटतम दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा, तथा ऐसा कोई व्यक्ति उक्त कालावधि से आगे दंडाधिकारी के प्राधिकार के बिना हवालात में निरुद्ध नहीं रखा जायेगा।

(३) खंड (१) और (२) में की कोई बात—

(क) जो व्यक्ति तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है उसको, अथवा
(ख) जो व्यक्ति निवारक निरोध उपबन्धित करने वाली किसी विधि के अधीन बन्दी या निरुद्ध किया गया है उसको, लागू न होगी।

(४) निवारक निरोध उपबन्धित करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति को तीन महीने से अधिक कालावधि के लिये निरुद्ध किया जाना प्राधिकृत तब तक न करेगी जब तक कि—

(क) ऐसे व्यक्तियों से, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं, रह चुके अंर्हता रखते हैं, मिल कर बनी की उक्त कालावधि की समाप्ति कि ऐसे निरोध के लिये उसकी हैं अथवा नियुक्त होने की मंत्रणा मंडली ने तीन महीने के पूर्व प्रतिवेदित नहीं किया है राय में पर्याप्त कारण हैं :
परन्तु इस उपखंड की कोई बात किसी व्यक्ति के, उस अधिकतम कालावधि से आगे, निरोध को प्राधिकृत न करेगी जो खंड (७) के उपखंड (ख) के अधीन संसद्-निर्मित किसी विधि द्वारा विहित की गई है; अथवा
(ख) ऐसा व्यक्ति खंड (७) के उपखंड (क) संसद्-निर्मित किसी विधि के उपबन्धों के और (ख) के अधीन अनुसार निरुद्ध नहीं है।

(५) निवारक निरोध उपबन्धित करने वाली किसी विधि के अधीन दिये गये आदेश के अनुसरण में जब कोई व्यक्ति निरुद्ध किया जाता है तब आदेश देने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को जिन आधारों पर वह आदेश दिया गया है उन को बतायेगा तथा उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिये उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा।

(६) खंड (५) की किसी बात से ऐसा आदेश, जैसा कि उस खंड में निर्दिष्ट है, देने वाले प्राधिकारी के लिये ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जिन का कि प्रकट करना ऐसा प्राधिकारी लोकहित के विरुद्ध समझता है।

[](७) संसद् विधि द्वारा विहित कर सकेगी कि—

(क) किन परिस्थितियों के अधीन तथा किस प्रकार या प्रकारों के मामलों में किसी व्यक्ति को निवारक निरोध को उपबन्धित करने वाली किसी विधि के अधीन तीन महीने से अधिक कालावधि के लिये खंड (४) के उपखंड (क) के उपबन्धों के अनुसार मंत्रणा-मंडली की राय प्राप्त किये बिना निरुद्ध किया जा सकेगा;
 

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ २२–२६

(ख) किस प्रकार या प्रकारों के मामलों में कितनी अधिकतम कालावधि के लिये कोई व्यक्ति निवारक निरोध उपबन्धित करने वाली किसी विधि के अधीन निरुद्ध किया जा सकेगा; तथा
(ग) खंड (४) के उपखंड (क) के अधीन की जाने वाली जांच में मंत्रणामंडली द्वारा अनुसरणीय प्रक्रिया क्या होगी।

शोषण के विरुद्ध अधिकार

मानव के पण्य और
बलातश्रम का प्रतिषेध
२३. (१) मानव का पण्य और बेट बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य जबर्दस्ती लिया हुआ श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबन्ध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।

(२) इस अनुच्छेद की किसी बात से राज्य को सार्वजनिक प्रयोजन के लिये बाध्य सेवा लागू करने में रुकावट न होगी। ऐसी सेवा लागू करने में केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इन में से किसी के आधार पर राज्य कोई विभेद नहीं करेगा। कारखानों आदि में
बच्चों को नौकर
रखने का प्रतिषेध

२४. चौदह वर्ष से कम आयु वाले किसी बालक को किसी कारखाने अथवा खान में नौकर न रखा जायेगा और न किसी दूसरी संकटमय नौकरी में लगाया जायेगा।

धर्म-स्वातंत्र्य का अधिकार

अन्तःकरण की तथा
धर्म के अबाध
मानने, आचरण
और प्रचार करने
की स्वतंत्रता
२५. (१) सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के दूसरे उपबन्धों के अधीन रहते हुए, सब व्यक्तियों की, अन्तःकरण की स्वतंत्रता का तथा धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक्क होगा।

(२) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी वर्तमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा राज्य के लिये किसी ऐसी विधि के बनाने में रुकावट, न डालेगी जो—

(क) धार्मिक आचरण से सम्बद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक अथवा अन्य किसी प्रकार की लौकिक क्रियाओं का विनियमन अथवा निर्बन्धन करती हो;
(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार उपबन्धित करती हो, अथवा हिन्दुओं की सार्वजनिक प्रकार की धर्म-संस्थाओं को हिन्दुओं के सब वर्गों और विभागों के लिये खोलती हो।

व्याख्या १.—कृपाण धारण करना तथा लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जायेगा।

व्याख्या २.—खंड (२) के उपखंड (ख) में हिन्दुओं के प्रति निर्देश में सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों का भी निर्देश अन्तर्गत है तथा हिन्दू धर्म-संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ भी तदनुकूल ही किया जायेगा।

धार्मिक कार्यों के
प्रबन्ध की स्वतंत्रता
२६. सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय अथवा उस के किसी विभाग को—

(क) धार्मिक और पूर्त-प्रयोजनों के लिये संस्थाओं की स्थापना और पोषण का,
(ख) अपने धार्मिक कार्यों सम्बन्धी विषयों का प्रबन्ध करने का,
(ग) जंगम और स्थावर सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, तथा
(घ) ऐसी सम्पत्ति के विधि अनुसार प्रशासन करने का, अधिकार होगा।
 

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ २७—३१

किसी विशेष धर्म की
उन्नति के लिए करों
के देने के बारे में
स्वतंत्रता
२७. कोई भी व्यक्ति ऐसे करों को देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा जिनके आगे में किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिये विशेष रूप से विनियुक्त कर दिये गये हों।

 

कुछ शिक्षा संस्थाओं
में धार्मिक शिक्षा
अथवा धार्मिक
उपासना में उप-
उपस्थित होने के विषय
स्वतंत्रता
२८. (१) राज्य निधि से पूरी तरह से पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा न दी जायेगी।

(२) खंड (१) की कोई बात ऐसी शिक्षा संस्था पर लागू न होगी जिसका प्रशासन राज्य करता हो किन्तु जो किसी ऐसे धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित हुई जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है।

(३) राज्य से अभिज्ञात अथवा राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा- संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिये अथवा ऐसी संस्था में या उस से संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में के लिये बाध्य न किया जायेगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क तो उस के संरक्षक ने इसके लिये अपनी सम्मति न दे दी हो।

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार

अल्पसंख्यकों के हितों
का संरक्षण
२९. (१) भारत के राज्य क्षेत्र अथवा उसक किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी विभाग को, जिस की अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा।

(२) राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा-संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा अथवा इन में से किसी के आधार पर वंचित न रखा जायेगा। शिक्षा संस्थानों की
स्थापना और प्रशा-
सन करने का
अल्पसंख्यकों का
अधिकार

३०. (१) धर्म या भाषा पर आधारित सब अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।

(२) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरुद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबन्ध में है।

सम्पत्ति का अधिकार

सम्पत्ति का अनिवार्य
अर्जन
[१०]३१. (१) कोई व्यक्ति विधि के अधिकार के बिना अपनी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा।  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ ३१

[११][(२) कोई सम्पत्ति, सार्वजनिक प्रयोजन के सिवाय, और ऐसी किसी विधि के, जो इस प्रकार अर्जित या अधिग्रहीत सम्पत्ति के लिये प्रतिकर के लिये उपबन्ध करती है और या तो प्रतिकर की राशि को नियत करती है या उन सिद्धांतों और रीति का उल्लेख करती है जिन से प्रतिकर निर्धारित होना है और दिया जाना है, प्राधिकार के सिवाय अनिवार्यतः अर्जित या अधिग्रहीत न की जाएगी; और किसी ऐसी विधि पर किसी न्यायालय में इस आधार पर आपत्ति नहीं की जायेगी कि उस विधि द्वारा उपबन्धित प्रतिकर पर्याप्त नहीं है।

(२) जहां किसी सम्पत्ति के स्वामित्व के या कब्ज़ा रखने के अधिकार का हस्तान्तरण राज्य या ऐसे किसी निगम को, जो कि राज्य के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन है, करने के लिये उपबन्ध विधि नहीं करती है वहां इस बात के होते हुए भी कि वह किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से वंचित करती है उसकी बाबत यह न समझा जायेगा कि वह सम्पत्ति के अनिवार्य अर्जन या अधिग्रहण के लिये उपबन्ध करती है।]

(३) राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई कोई ऐसी विधि, जैसी कि खंड (२) में निर्दिष्ट है, तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक कि ऐसी विधि को, राष्ट्रपति के विचार के लिये रक्षित किये जाने के पश्चात्, उस की अनुमति न मिल गई हो।

(४) यदि इस संविधान के प्रारम्भ पर किसी राज्य के विधान-मंडल के सामने किसी लम्बित-विधेयक को, ऐसे विधान मंडल द्वारा पारित किये जाने के पश्चात्, राष्ट्रपति के विचार के लिये रक्षित किया जाता है तथा उस की अनुमति मिल जाती है तो इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी इस प्रकार अनुमत विधि पर किसी न्यायालय में इस आधार पर आपत्ति नहीं की जायेगी कि वह खंड (२) के उपबन्धों का उल्लंघन करती है।

(५) खंड (२) की किसी बात से—
(क) ऐसी किसी विधि को छोड़ कर, जिस पर कि खंड (६) के उपबन्ध लागू होते हैं, किसी अन्य वर्त्तमान विधि के उपबन्धों पर, अथवा
(ख) एतत्पश्चात् राज्य जो कोई विधि—
(१) किसी कर या अर्थ-दण्ड के आरोपण या उद्ग्रहण के प्रयोग जन के लिये बनाये उस के उपबन्धों पर, अथवा
(२) सार्वजनिक स्वास्थ्य की उन्नति के अथवा प्राण या सम्पत्ति के संकट-निवारण के लिये बनाये गये उस के उपबन्धों पर, अथवा
(३) भारत डोमीनियन की अथवा भारत की सरकार और अन्य देश की सरकार के बीच किये गये करार के अनुसरण में, अथवा अन्यथा, उस सम्पत्ति के लिये बनाये जो विधि द्वारा निष्क्राम्य सम्पत्ति घोषित की गई है उस के उपबन्धों पर, भाव नहीं होगा।
 

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ ३१–३१

(६) राज्य की कोई विधि, जो इस संविधान के प्रारम्भ से अठारह महीने से अनधिक पहिले अधिनियमित हुई हो, ऐसे प्रारम्भ से तीन महीने के अन्दर राष्ट्रपति के समक्ष उस के प्रमाणन के लिये रखी जा सकेगी, तथा ऐसा होने पर यदि लोक अधिसूचना द्वारा राष्ट्रपति ऐसा प्रमाणन देता है तो किसी न्यायालय में उस पर इस आधार पर आपत्ति नहीं की जायेगी कि वह खंड (२) के उपबन्धों का उल्लंघन करती है अथवा भारत-शासन अधिनियम, १९३५ की धारा २९९ की उपधारा (२) के उपबन्धों का उल्लंघन कर चुकी है।

सम्पदाओं आदि के
अर्जन के लिये उप
बन्ध करने वाली
विधियों की व्यावृत्ति
[१२][३१क.[१३][(१) अनुच्छेद १३ में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी—

(क) किसी सम्पदा के या उसमें किन्हीं अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन के लिए या किन्हीं ऐसे अधिकारों के निर्वाचन या रूपभेदन के लिए, या
(ख) किसी सम्पत्ति का प्रबन्ध या तो लोक हित में या उस सम्पत्ति का उचित प्रबन्ध सुनिश्चित करने के उद्देश्य से राज्य द्वारा मर्यादित कालावधि के लिये ले लिये जाने के लिये, या
(ग) दो या अधिक निगमों को या तो लोक हित में या उन निगमों में से किसी का उचित प्रबन्ध सुनिश्चित करने की दृष्टि से समामेलित करने के लिए, या
(घ) निगमों के प्रबन्ध अभिकर्ताओं, सचिवों और कोषाध्यक्षों, प्रबन्ध निदेशकों, निदेशकों या प्रबन्धकों के किन्हीं अधिकारों के या अंशधारियों के किन्हीं मतदान अधिकारों के निर्वाचन या रूपभेदन के लिए, या
(ङ) किसी खनिज या खनिज तैल को खोजने या लब्ध करने के प्रयोजन के लिए किसी करार, पट्टे या अनज्ञप्ति के बल पर प्रोद्भूत होने वाले किन्हीं अधिकारों के निर्वाचन या रूपभेदन के लिए या किसी ऐसे करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति को समय से पूर्व पर्यवस्त करने या प्रतिसंहृत करने के लिए,

उपबन्ध करने वाली विधि की बाबत इस कारण कि वह अनुच्छेद १४, अनुच्छेद १९ या अनुच्छेद ३१ द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसको छीनती या न्यून करती है यह न समझा जायेगा कि वह शून्य है; परन्तु जहां कि ऐसी विधि किसी राज्य के विधान मंडल द्वारा निर्मित विधि‌ है वहां जब तक कि ऐसी विधि को, राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त न हो गई हो, इस अनुच्छेद के उपबन्ध उस विधि के संबंध लागू नहीं होंगे।]  

भाग ३—मूल अधिकार अनु॰ ३१—३२

(२) इस अनुच्छेद में—
[१४][(क) "सम्पदा" पद का किसी स्थानीय क्षेत्र के संबंध में वही अर्थ है जो कि उस या उसकी स्थानीय समतुल्य अभिव्यक्ति का उस क्षेत्र में प्रवृत्त भूधृतियों से सम्बद्ध वर्त्तमान विधि में है और उसके अन्तर्गत कोई जागीर, इनाम या मुआाफी अथवा अन्य समान प्रकार का अनुदान [१५][और मद्रास और [१६][केरल] राज्यों में कोई जन्म में अधिकार भी होगा]
(ख) "अधिकार" पद के अन्तर्गत किसी सम्पदा के संबंध में, किसी स्वत्वधारी, उपस्वत्वधारी, अपर स्वत्वधारी भूधृतिधारी, रय्यत, अवर रय्यत या अन्य मध्यवर्ती में निहित कोई अधिकार और भू-राजस्व के बारे में कोई अधिकार या विशेषाधिकार भी होंगे।]

कुछ अधिनियमों
और विनियमों का
मान्यकरण
[१७][३१ अनुच्छेद ३१ क में अन्तविष्ट उपबन्धों की व्यापकता पर प्रतिकूल कुछ अधिनियमों प्रभाव डाले बिना न तो नवम अनुसूची में उल्लिखित अधिनियमों और विनियमों का और विनियमों में से और न उनके उपबन्धों में से किसी की बाबत इस मान्यकरण कारण कि ऐसा अधिनियम, विनियम या उपबन्ध इस भाग के किन्हीं उपबन्धों द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसको छीन लेता है या न्यून करता है यह न समझा जायेगा कि वह शून्य है या कभी शून्य गया था और किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी प्रतिकूल निर्णय, आज्ञप्ति या आदेश के होते हुए भी उक्त अधिनियमों और विनियमों में से प्रत्येक, उसे निरसित या संशोधित करने की किसी सक्षम विधान-मंडल की शक्ति के अधीन रहते हुए, निरन्तर प्रवृत्त रहेगा।]  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ ३२-३४
सांविधानिक उपचारों के अधिकार

इस भाग द्वारा
दिये गये अधि
कारों को प्रवर्तित
करने के उपचार
३२. (१) इस भाग द्वारा दिये गये अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये उच्चतमन्यायालय को समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचालित करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।

(२) इस भाग द्वारा दिये गये अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये उच्चतमन्यायालय को ऐसे निर्देश या आदेश या लेख, जिन के अन्तर्गत बन्दी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार इच्छा और उत्प्रेषण के प्रकार के लेख भी हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।

[१८](३) उच्चतमन्यायालय को खंड (१) और (२) द्वारा दी गई शक्तियों पर बिना प्रतिकूल प्रभाव डाले, संसद् विधि द्वारा किसी दूसरे न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के भीतर उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (२) के अधीन प्रयोग की जाने वाली सब अथवा किन्हीं शक्तियों का प्रयोग करने की शक्ति दे सकेगी।

(४) इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबन्धित अवस्था को छोड़ कर इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलम्बित न किया जायेगा। इस भाग द्वारा
प्रदत्त अधिकारों
का बलों के लिये
प्रयुक्ति की
अवस्था में, रूप-
भेद करने की
संसद् की शक्ति

३३. संसद् विधि द्वारा निर्धारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा दिये गये अधिकारों में से किसी को सशस्त्र बलों अथवा सार्वजनिक व्यवस्था-भार वाले बलों के सदस्यों के लिये प्रयोग होने की अवस्था में किस मात्रा तक निर्बन्धित या निराकृत किया जाये ताकि उनके कर्तव्यों का उचित पालन तथा उनमें अनुशासन बना रहना सुनिश्चित रहे।

जब किसी क्षेत्र
में सेनावधि
प्रवृत्त है तब ईस
भाग द्वारा दिये
गये अधिकारों
पर निर्बन्धन
३४. इस भाग के पूर्ववर्ती उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी संसद् विधि द्वारा संघ या राज्य की सेवा में के किसी व्यक्ति को, अथवा किसी अन्य व्यक्ति को, किसी ऐसे कार्य के विषय में तारण दे सकेगी जो उसने भारत राज्य क्षेत्र के भीतर किसी ऐसे क्षेत्र में, जहां सेना-विधि प्रवृत्त थी, व्यवस्था के बनाये रखने या पुनःस्थापन के संबंध में किया है अथवा ऐसे क्षेत्र में सेना विधि के अधीन किसी दिये गये दंडादेश, किये गये दंड, आदेश की हुई जब्ती, अथवा किये गये अन्य कार्य को मान्य कर सकेगी।  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰—३५

इस भाग के उप-
बन्धों को प्रभावी
करने के लिये
विधान
[१९]३३५. इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी—

(क) संसद् को शक्ति होगी तथा किसी राज्य के विधान-मंडल को शक्ति न होगी कि वह—
(i) जिन विषयों के लिये अनुच्छेद १६ के खंड (३) अनुच्छेद ३२ के खंड (३), अनुच्छेद ३३ और अनुच्छेद ३४ के, अधीन संसद् विधि द्वारा उपबन्ध कर सकेगी, उनमें से किसी के लिये, तथा
(ii) इस भाग में अपराध घोषित कार्यों के दंड विहित करने के लिये, विधि बनाये तथा संसद् इस संविधान के प्रारम्भ के पश्चात्य यथाशीघ्र ऐसे कार्यों के लिये, जो उपखंड (ii) में निर्दिष्ट हैं, दंड विहित करने के लिये विधि बनायेगी।
(ख) खंड (क) के उपखंड (i) में निर्दिष्ट विषयों में से किसी से सम्बन्ध रखने वाली, अथवा उस खंड के उपखंड (ii) में निर्दिष्ट किसी कार्य के लिये दंड का उपबन्ध करने वाली, कोई प्रवृत्त विधि, जो भारत राज्य-क्षेत्र में इस संविधान के आरम्भ होने से ठीक पहिले लागू थी, उस में दिये हुए निबन्धनों के तथा अनुच्छेद ३७२ के अधीन उस में किये गये किन्हीं अनुकूलनों और रूपभेदों के अधीन रह कर तब तक प्रवृत्त रहेगी, जब तक कि वह संसद् द्वारा परिवर्तित या निरसित या संशोधित न की जाये।  

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰—३५.

व्याख्या.—"प्रवृत्त विधि" पदावलि का जो अर्थ इस संविधान के अनुच्छेद ३७२ में है वही इस अनुच्छेद में भी होगा।[२०]

  1. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद १३ में संविधान के प्रारंभ के प्रति निर्देशों का ऐसे अर्थ किया जायेगा मानो कि वे संविधान (जम्मू और कश्मीर को लागू होना) आदेश १९५. के प्रारंभ अर्थात् १४ मई, १९५४ के प्रति निर्देश हैं।
  2. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा २, द्वारा अन्तःस्थापित।
  3. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद १५ के खंड (४) में अनुसूचित आदिमजातियों के प्रति निर्देश लुप्त कर दिया जायेगा।
  4. अनुच्छेद १६ के खंड (३) में राज्य के प्रति निर्देश का ऐसे अर्थ किया जायेगा मानो कि उसके अन्तर्गत जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रति निर्देश न हो।
  5. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा "प्रथम अनुसूची" में उल्लिखित किसी राज्य के अथवा उसके राज्य क्षेत्र में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन किसी प्रकार की नौकरी में या पद पर नियुक्ति के विषय में वैसी नौकरी या नियुक्ति के पूर्व उस राज्य के अंदर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती हो" शब्दों के स्थान पर रखे गये।
  6. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में १४ मई, १९५४ से पांच वर्ष की कालावधि के लिये अनुच्छेद १९ निम्नलिखित रूपभेदों के अध्यधीन होगा, अर्थात्—
    (१) खंड (३) और (४) में, "अधिकार के प्रयोग पर" शब्दों के पश्चात् "राज्य की सुरक्षा या" शब्द अन्तःस्थापित किये जायेंगे,
    (२) खंड (५) में, "के अथवा किसी अनुसूचित आदिमजाति के हितों के संरक्षण के लिये" शब्दों के स्थान पर "अथवा राज्य की सुरक्षा के हितों में" शब्द रख दिये जायेंगे, और
    (३) निम्नलिखित नया खंड जोड़ दिया जायेगा, अर्थात्—
    (७) खंड (२), (३), (४) और (५) में आने वाले "युक्तियुक्त निर्बन्धन" शब्दों का अर्थ ऐसे किया जायेगा कि वे ऐसे निर्बन्धन हैं जैसे कि समुचित विधान-मंडल युक्तियुक्त समझता है।"
  7. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ३ द्वारा मूल खंड (२) के स्थान पर (भूतलक्षी प्रभाव से) रखा गया।
  8. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ३ द्वारा कुछ मूल शब्दों के स्थान पर रखा गया।
  9. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद २२ के खंड (४) में "संसद्" शब्द के स्थान पर "राज्य विधान-मंडल" शब्द रख दीजिये।,
  10. जम्मू और काश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३१ में खंड (३), (४) और (६) लुप्त कर दिये जाएंगे और खंड (५) के स्थान पर निम्नलिखित खंड रख दिया जाएगा, अर्थात्—
    "(५) खंड (२) की किसी बात से—
    (क) किसी वर्तमान विधि के उपबन्धों पर, या
    (ख) एतत्पश्चात् राज्य जो कोई विधि—
    (१) किसी कर या अर्थदण्ड के उद्ग्रहण या आरोपण के प्रयोजन के लिए, या
    (२) सार्वजनिक स्वास्थ्य की उन्नति या प्राण या सम्पत्ति के संकट निवारण के लिए,
    (३) उस सम्पत्ति के लिए, जो विधि द्वारा निष्काम्य सम्पत्ति घोषित की गई है बनाए उसके उपबन्धों पर, प्रभाव नहीं होगा।"
  11. संविधान (चतुर्थ संशोधन) अधिनियम, १९५५, धारा २ द्वारा प्रस्थापित किया गया।
  12. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ४ द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से अन्तःस्थापित किया गया।
  13. संविधान (चतुर्थ संशोधन) अधिनियम, १९५५, धारा ३ द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) प्रतिस्थापित किया गया।
  14. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३१ क के खंड (१) का परन्तुक लुप्त कर दिया जाएगा; और उसके खंड (२) के उपखंड (क) के स्थान पर निम्नलिखित उपखंड रख दिया जाएगा, अर्थात्—
    (क) "सम्पदा" से ऐसी भूमि अभिप्रेत होगी जो कृषिक प्रयोजनों के लिये या, कृषि साध्य प्रयोजनों के लिए या चरागाह के लिए पट्टे पर दी गयी है या दखलकृत है और इसके अन्तर्गत निम्नलिखित भी हैं, अर्थात्—
    (१) भवनों के आस्थान और ऐसी भूमि पर अन्य निर्माण,
    (२) ऐसी भूमि पर खड़े वृक्ष,
    (३) वन भूमि और वन्य बंजर भूमि,
    (४) जलाच्छादित क्षेत्र और जल पर तैरते हुए खेत,
    (५) जंडेर और घरात स्थान,
    (६) कोई जागीर, इनाम, मुआफी या मुकर्ररी या इसी प्रकार का अन्य अनुदान, किन्तु—
    (१) किसी नगर, या नगर क्षेत्र या ग्राम आबादी में कोई भवन प्रास्थान या किसी ऐसे भवन या आस्थान से अनुलग्न कोई भूमि,
    (२) कोई भूमि जो किसी नगर या ग्राम के लिए आस्थान के रूप में दखलकृत है, या
    (३) किसी नगरपालिका या अधिसूचित क्षेत्र या कटक या नगरक्षेत्र में या किसी भी क्षेत्र में, जिसके लिए कोई नगर रचना योजना मंजूर है, भवन निर्माण प्रयोजनों के लिये रक्षित कोई भूमि, इसके अन्तर्गत नहीं है।
  15. संविधान (चतुर्थ संशोधन) अधिनियम, १९५५, धारा ३ द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अन्तःस्थापित किया गया।
  16. संविधान (सप्तम संशोधन) अधिनियम, १९५६, धारा २९ और अनुसूची द्वारा "तिरुवांकुर कोचीन" के स्थान पर रखा गया।
  17. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ५ द्वारा अन्तःस्थापित किया गया।
  18. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३२ का खंड (३) लुप्त कर दिया जाएगा; और खंड (२) के पश्चात् निम्नलिखित नया खंड अन्तःस्थापित किया जाएगा, अर्थात्—
    "(२) खंड (१) और (२) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना उच्चन्यायालय को ऐसे राज्य-क्षेत्रों में जिन के संबंध में वह क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है, किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को समुचित अवस्थाओं में, जिसके अन्तर्गत उन राज्य-क्षेत्रों के अन्दर कोई सरकार भी है, इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किन्हीं के प्रवर्तित कराने के लिए, निदेश या आदेश या लेख, जिनके अन्तर्गत बन्दी, प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण लेख के समान लेख भी है या उनमें से कोई निकालने की शक्ति होगी।"
  19. जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होने में अनुच्छेद ३५ में—
    (१) संविधान के प्रारम्भ के प्रति निर्देशों का ऐसे अर्थ किया जाएगा मानो कि वे संविधान (जम्मू और कश्मीर को लागू होना) प्रदेश १९५४ के प्रारम्भ (१४ मई, १९५४) के प्रति निर्देश हैं,
    (२) खंड (क) (i) में "अनुच्छेद १६ के खंड (३), अनुच्छेद ३२ के खंड (३)" शब्द, अंक और कोष्ठक लुप्त कर दिये जायेंगे, और
    (३) खंड (ख) के पश्चात् निम्नलिखित खंड जोड़ दिया जाएगा, अर्थात्—
    (ग) जम्मू और कश्मीर के विधान-मंडल द्वारा चाहे संविधान (जम्मू और कश्मीर को लागू होना) आदेश १९५४ के पूर्व या पश्चात् निर्मित निवारक निरोध के बारे में कोई विधि केवल इस कारण कि वह इस भाग के उपबन्धों में से किसी से असंगत है शून्य नहीं होगी, किन्तु ऐसी कोई विधि ऐसी असंगति की सीमा तक, उक्त आदेश के प्रारम्भ से पांच वर्ष के अवसान पर अपने अवसान से पूर्व की गयी या न की गयी बातों के संबंध में के सिवाय प्रभाव न रखेगी।"
  20. स्थायी निवासियों
    और उनके अधि-
    कारों विषयक
    विधियों की व्यावृत्ति
    जम्मू और कश्मीर राज्य को इसके लागू होने में अनुच्छेद ३५ के पश्चात् निम्नलिखित नया अनुच्छेद अन्तःस्थापित किया जायेगा, अर्थात्—
    "३५क. इस संविधान में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी जम्मू और कश्मीर राज्य में—
    (क) उन व्यक्तियों के वर्गों को परिभाषित करने वाली, जो कि जम्मू और कश्मीर राज्य के स्थायी निवासी हैं, या होंगे, या
    (ख) (i) राज्य सरकार के अधीन नौकरी,
    (ii) राज्य में स्थावर सम्पत्ति के अर्जन,
    (iii) राज्य में बस जाने, या
    (iv) छात्र वृत्तियों और ऐसे अन्य रूपों की सहायता के, जैसे कि राज्य सरकार उपबन्धित करे, अधिकार
    विषयक कोई विशेष अधिकार और विशेषाधिकार ऐसे स्थायी निवासियों को प्रदत्त करने या कोई निर्बन्धन अन्य व्यक्तियों पर अधिरोपित करने वाली,
    कोई वर्त्तमान प्रवृत्त विधि या राज्य के विधान मंडल द्वारा एतत्पश्चात् अधनियमित कोई विधि इस आधार पर शून्य न होगी कि जो कोई अधिकारी भारत के अन्य नागरिकों को इस भाग के किसी उपबन्ध द्वारा प्रदत्त हैं, वह उन से असंगत है या उन को छीनती है या न्यून करती है।"