महात्मा शेख़सादी/८ चरित्र

विकिस्रोत से
महात्मा शेख़सादी  (1917) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ८० ]

आठवां अध्याय
चरित्र।

सादी उन कवियों में हैं जिनके चरित्र का प्रतिबिम्ब उनके काव्य रूपी दर्पण में स्पष्ट दिखाई देता है। उन के उपदेश उनके हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उपदेशकों की भांति वह परमार्थ-ज्ञान का मार्ग दूसरों को दिखाकर स्वयं स्वार्थ पर जान न देते थे। दूसरों को न्याय, धर्म, और कर्तव्यपालन की शिक्षा देकर स्वयं विलासिता में लिप्त न रहते थे। उन की वृत्ति स्वभावतः सात्विक थी और कभी वासनाओं से उनका मन विचलित नहीं हुआ। अन्य कवियों की भांति उन्होंने किसी राज दरबार का आश्रय नहीं लिया। लोभ को कभी अपने पास नहीं आने दिया। यश और ऐश्वर्य्य दोनों ही सत्कर्म के फल हैं। यश दैविक है, ऐश्वर्य्य मानुविक। सादी ने दैविक फल पर सन्तोष किया, मानुविक के लिए हाथ नहीं फैलाया। धन की देवी जो बलिदान चाहती हैं उसकी सामर्थ्य सादी में नहीं थी। [ ८१ ]वह अपनी आत्मा का अल्पांश भी उसे भेंट न कर सक्ते थे। यही उनकी निभीकता का अवलम्ब है। राजाओं को उपदेश करना साँप के बिल में उँगली डालने के समान है। यहां एक पांव अगर फलों पर रहता है तो दूसरा कांटों में। विशेष करके सादी के समय में तो राजनीति का उपदेश और भी जोखिम का काम था। ईरान और बग़दाद दोनों ही देशों में अरबों का पतन हो रहा था और तातारी बादशाह प्रजा को पैरों तले कुचले डालते थे। लेकिन सादी ने उस कठिन समय में भी अपनी टेक न छोड़ी। जब वह शीराज़ से दूसरी बार बग़दाद गये तो वहाँ हलाकूख़ाँ मुग़ल का बेटा अवाक़ाख़ाँ बादशाह था। हलाकूख़ाँ के घोर अत्याचार चंगीज़ और तैमूर की पैशाचिक क्रूरताओं को भी लज्जित करते थे। अवाक़ाख़ाँ यद्यपि ऐसा अत्याचारी न था तथापि उसके भय से प्रजा थर थर कांपती थी। उसके दो प्रधान कर्मचारी सादी के भक्त थे। एक दिन सादी बाज़ार में घूम रहे थे कि बादशाह की सवारी धूम धाम से उनके सामने से निकली। उनके दोनों कर्मचारी उनके साथ थे। उन्होंने सादी को देखा तो घोड़ा से उतर पड़े और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह को अपने वज़ीरों की यह श्रद्धा देखकर बड़ा कुतूहल हुआ। उसने पूछा यह कौन आदमी है। वजीरों ने सादी का नाम और गुण बताया। बादशाह के हृदय में भी सादी की परीक्षा करने का विचार पैदा हुआ। बोला [ ८२ ]कुछ उपदेश मुझे भी कीजिये। संभवतः उसने सादी से अपनी प्रशंसा करानी चाही होगी। लेकिन सादी ने बड़ी निर्भयता से यह उपदेश-पूर्ण शेर पढ़े:

शहे कि पासे रऐयत निगाह मीदारद,
हलाल बाद ख़िराजश कि मुदे चौपानीस्त।
वगर न राइये ख़ल्क़स्त ज़हरमारश वाद,
कि हरचे मीखुरद अज़ जज़ियए मुसलमानीस्त।

भावार्थ—वह बादशाह जो प्रजापालन का ध्यान रखता है एक चरवाहे के समान है। यह प्रजा से जो कर लेता है वह उसकी मज़दूरी है। और यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह हराम का धन खाता है।

अबाक़ाखां यह उपदेश सुन कर चकित हो गया। सादी की निर्भयता ने उसे भी सादी का भक्त बना दिया। उसने सादी को बड़े सम्मान के साथ विदा किया।

सादी में आत्मगौरव की मात्रा भी कम न थी। वह आन पर जान देने वाले मनुष्यों में थे। नीचता से उन्हें घृणा थी। एक बार इस्कनदरिया में बड़ा अकाल पड़ा। लोग इधर उधर भागने लगे। वहां एक बड़ा सम्पत्तिशाली ख़ोजा था। वह ग़रीबों को खाना खिलाता और अभ्यागतों की अच्छी सेवा सम्मान करता। सादी भी वहीं थे। लोगों ने कहा आप भी [ ८३ ]उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइये। इसपर सादी ने उत्तर दिया—

"शेर कभी कुत्ते का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखा भले मर ही जाय।"

सादी को धर्मध्वजी-पन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फन्दे में पड़ते देख कर जलजाते थे। उन्होंने काशी, मथुरा, वृन्दावन या प्रयाग के पाखण्डी पण्डों की पोप लीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी अवश्य कुछ और तीव्र हो जाती। छत्रधारी और हाथी पर बैठने वाले महन्त, पाल्कियों में चंवर डुलाते चलने वाले पुजारी, घन्टों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पण्डित, और राजा रईसों के दर्बार में खिलौना बननेवाले महात्मा उनकी समालोचना को कितना रोचक और हृदयग्राही बना देते? एक अवसर पर लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेल गाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेण्ट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेन्टों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृद्ध यात्री खड़े खड़े थक कर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग्य शक्ति ने प्रचण्ड रूप धारण किया, बुड्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आया, स्टेशन मास्टर के पास जा [ ८४ ]कर फ़रियाद की कि बाबा, यह बूढ़ा यात्री साधुओं को बैठने नहीं देता। मास्टर साहब ने साधुओं की डिगरी कर दी। भस्म और जटा की यह चमत्कारिक शक्ति देख कर सारे यात्री रोब में आ गये और फिर किसी को उनकी उस गाड़ी को अपवित्र करने का साहस नहीं हुआ। इसी तरह रीवां में लेखक की मुलाक़ात एक सन्यासी से हुई। वह स्वयं अपने गेरुवे बाने पर लज्जित थे। लेखक ने कहा आप कोई और उद्यम क्यों नहीं करते? बोले, अब उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं, और करें भी तो कौन सा उद्यम करें। मेहनत मजूरी होती नहीं, विद्या कुछ पढ़ी नहीं, अब तो जीवन इसी भांति कटेगा। हां ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि दूसरे जन्म में मुझे सद्‌बुद्धि दे और इस पाखण्ड में न फँसावे। सादी ने ऐसी हज़ारों घटनायें देखी होंगी, और कोई आश्चर्य नहीं कि इन्हीं बातों से उनका दयालु हृदय पाखण्डियों के प्रति ऐसा कठोर हो गया हो।

सादी मुसलमानी धर्मशास्त्र के पूर्ण पण्डित थे। लेकिन दर्शन में उनकी गति बहुत कम थी। उनकी नीति शिक्षा स्वर्ग और नर्क, तथा भय पर ही अवलम्बित है। उपयोगवाद तथा परमार्थवाद की उनके यहां कोई चर्चा नहीं है। सच तो यह कि सर्वसाधारण में नीति का उपदेश करने के लिए इनकी आवश्यकता ही क्या थी। वह सदाचार जिसकी नीति दर्शन के सिद्धान्तों पर होती है धार्मिक सदाचार से कितने ही [ ८५ ]विषयों में विरोध करता है और यदि उसका पूरा पूरा पालन किया जाय तो संभव है कि समाज में घोर विप्लव मच जाय।

लेकिन सादी कोरे नीतोपदेशक ही न थे, वह बड़े सभाचतुर, और विनोदशील पुरुष थे। उच्च विचार के मनुष्यों में विनोद एक गुण है। कोई पक्षी आठों पहर आकाश में नहीं उड़ सकता। शेख़ सादी के हास्य के संबन्ध में बहुत सी कथायें प्रचलित हैं, और एक अश्लील काव्य ग्रन्थ है जो उनका लिखा हुआ बतलाया जाता है। यदि इन कथाओं पर विश्वास करें और इस काव्य को सादी का रचा हुआ मान लें तो सादी को नीतोपदेश का अधिकार ही न रहे। सादी चतुर अवश्य थे और जिस तरह राजा बीरबल की चतुराई को प्रदर्शित करने में लोगों ने कितनी ही गन्दी कथायें उनके गले मढ़ दी हैं, उसी तरह सादी के विवेकहीन प्रशंसकों ने भी उनके नाम को कलंकित कर दिया है। वास्तव में वह अश्लील कवितायें उनकी नहीं होसकतीं। उन में उनकी अनूठी रचनाशैली का बिलकुल पता नहीं।

सादी ने सन्तोष पर बड़ा ज़ोर दिया है। जो उनके सदाचार शिक्षा का एकमात्र मूलाधार है। वह स्वयं बड़े सन्तोषी मनुष्य थे। एक बार उनके पैरों में जूते नहीं थे, रास्ता चलने में कष्ट होता था। आर्थिक दशा भी ऐसी नहीं थी कि जूता मोल लेते। चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। इसी विकलता में कूफ़ा की मस्जिद [ ८६ ]में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिस के पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देख कर सादी की आंखें खुल गईं। मस्जिद से चले आये और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वञ्चित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दि में कुछ अनुपयुक्त सी प्रतीत होती है। यह असन्तोष का समय है। आजकल सन्तोष और उदासीनता में कोई अन्तर नहीं समझा जाता। और समाज की उन्नति असन्तोष की ऋणी समझी जाती है। लेकिन सादी की सन्तोषशिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।

यद्यपि सादी की भाषा लालित्य का हिन्दी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। निस्संदेह वह समस्त साहित्यसंसार के एक समुज्ज्वल रत्न हैं, और मनुष्यसमाज के एक सच्चे पथप्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वाले, और भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सादी का सुयश जीवित रहेगा, और उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे।

समाप्त