मानसरोवर १/माँ

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मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
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माँ

आज बंदी छुटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन वर्षों में उसने कठिन तपस्या करके जो दस-पाँच रुपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सत्कार और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिये। पति के लिए धोतियों का नया जोड़ा लाई थी, नये कुरते बनवाये थे, बच्चे के लिए नये फोट और टोपी की योजना की थी। बार-बार बच्चे को गले लगाती, और प्रसन्न होती। अगर इस बच्चे ने सूर्य की भाँति उदय होकर उसके अँधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर दिया होता तो कदाचित् ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता। पति के कारावासदंड के तीने ही महोने बाद इस बालक का जन्म हुआ। उसी का मुँह देख-देखकर करुणा ने यह तीन साल काट दिये थे। वह सोचती-जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊँगी, तो वह कितने प्रसन्न होंगे! उसे देखकर पहले तो चकित हो जायँगे, फिर गोद में उठा लेंगे, और कहेंगे-करुणा, तुमने यह रत्न देकर मुझे निहाल कर दिया। कैद के सारे कष्ट बालक की तोतली बात में भूल जायँगे, उसकी एक सरल, पवित्र, मोहक दृष्टि हृदय की सारी व्यथाओं को धो डालेगी। इस कल्पना का आनन्द लेकर वह फूली न समाती थी। वह सोच रही थी-आदित्य के साथ बहुत-से आदमी होंगे। जिस समय वह द्वार पर पहुँचेंगे, 'जय-जयकार' की ध्वनि से आकाश गूँज उठेगा। वह कितना स्वर्गीय दृश्य होगा। उन आदमियों के बैठने के लिए करुणा ने एक फटा-सा टाट बिछा दिया था, कुछ पान बना लिये थे और बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की ओर ताकती थी। पति की वइ सुदृढ़, उदार, तेज-पूर्ण मुद्रा बार-बार आँखों में फिर जाती थी, उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीं, जो चलते समय उनके मुख से निकली थीं, उनका वह धैर्य, वह आत्मबल, जो पुलिस के प्रहारों के सामने भी अटल रहा था; वह मुसकिराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेल रही थी, वह आत्माभिमान जो उस समय भी उनके मुख से टपक रहा था, क्या करुणा के हृदय से कभी विस्मृत हो सकता था? उसका स्मरण आते ही करुणा के निस्तेज मुख पर आत्मगौरव की लालिमा छा गई। यही वह अवलंब था, जिसने इन तीन वर्षों की घोर यातनाओं में भी उसके हृदय को [ ४२ ]
आश्वासन दिया था। कितनी ही राते फाकी से गुजरी, बहुधा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी ; पर दीनता के आँसू भी उसकी आँखों से न धिरे। आज उन सारी विपत्तियों का अन्त हो जायगा। पति के प्रगाढ़ आलिंगन मैं वह स६६ कुछ हँसकर सेल लेगी। वह अनन्त निधि पाझर फिर उसे कोई अभिलाषा में रहेगी।

गगन-पथ का चिरगामी पथिक लपका हुआ विश्राम की और चला जाता था, जहाँ सन्ध्या ने सुनहरा फ़श सजाया था और उज्ज्वल पुष्र्यों की सेज बिछा रखी थी। उसी समय करुणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मान किसी जीर्ण मनुष्य की वेदना-ध्वनि हो। पग-पग पर रुककर खराने लगता था। उसका सिर झुका हुआ था, करुणा उसका चेहरा न देख सकती थी ; लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी भालूम होता था; पर एक क्षण में जब वह समीय आ गया, तो करुणा उसे पहचान गई । वह उसका प्यारा पति ही था ; किन्तु शौक ! उसकी सूरत कितनी बदल गई थी। वह जवानी, चह तेज, वह चपलता, वह सुगठन सर्व प्रस्थान कर चुका था। केवल इडिहयों का एक ढाँचा रह गया था। न कोई सगी, न साथी, न यार, न दोस्त करुणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आई। पर आलिंगन की कामना हृदय में दबकर रह गईं। सारे मसूबे धूल में मिल गये। सारा भनौलास आँसुओं के प्रवाई में बह गया, विलीन हो गया है।

आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुसकिराकर करुणा को देखा। पर उस मुसक्यान में वेदना का एक ससार भरा हुआ था। करुणा ऐसी शिथिल हो गई, मानें हृदय का स्पन्दन रुक गया हो। वह फटी हुईं औखों से स्वामी की और टकटकी धे खड़ी थी, मानें उसे अपनी आँखों पर अब भी विश्वास न आता हो। स्वागत या दुःख का एक शब्द भी उसकै मुँह से न निकला। बालक भी उसकी गोद में धै हुआ सहमो आँखों से इस काल को देख रहा था और माता की गोद में चिपळ, जाता था।

आखिर उसने कातर स्वर में कहा----यह तुम्हारी क्या दशा है ? बिलकुल पहचाने नहीं जाते।

आदित्य ने उसकी चिता को शान्त करने के लिए सुसकिराने को चेष्टा कर कहा--- कुछ नहीं, ज़रा दुमला हो गया हूँ। तुम्हारे हाथ का भोजन पाकर 'फिर स्वस्थ हो जाऊँगा। [ ४३ ]

करुणा---छी। सुखकर काँटा हो गये। क्या वहाँ भर पेट भोजन भी नहीं मिलता ! तुम तो कहते थे, राजनैतिक आदमियों के साथ चढ़ा अच्छा व्यवहार किया जाता है; और वह तुम्हारे साथ क्या हो गये, जो तुम्हें आर्यों पर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे ?

आदित्य की त्योरियों पर बल पड़ गये। बोले---यह बड़ा हो कटु अनुभव है। करुणा। मुझे न मालूम था कि मेरे कैद होते ही लोग मेरो ओर से य आँखें फेर लेंगे, कोई बात भी न पूछेगा। राष्ट्र के नाम पर मिटनेवालों का यह पुरस्कार हैं, यह मुझे न झालूम था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भूल जाती है, यह तो मैं जानता था। लेकिन अपने सहयोगी और सहायक इतने बेवफ़ा होते हैं, इसका मुझे यह पहला ही अनुभव हुआ। लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं। सेवा स्वयं अपना पुरस्कार है। मेरी भूल थी कि मैं इसके लिए यश और नाम चाहता था।

करुणा --- तो क्या वहाँ भोजन भी न मिलता था ?

आदित्य -यह न पूछो करुणा, बढ़ी करुण इथा है। बस, यही गनीमत समझ किं जीता लौट आया। तुम्हारे दर्शन बदे थे, नहीं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाये कि अब तक मुझे प्रस्थान कर जाना चाहिए था। मैं जरा लेगा। खड़ा नहीं रहा जाता। दिन-भर में इतनी दूर आया हूँ।

करुणा --- चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। ( बालक को गोद में उठाकर ) बाबूजी हैं बेटा, तुम्हारे बाबू जो। इनको गोद में जाओ, तुम्हें प्यार करेंगे।

आदित्य नै आँसू-भरी आँखों से चालक को देखा, और उनका एक-एक रोम उनका तिरस्कार करने लगा। अपनी जीर्ण दशा पर उन्हें कभी इतना दुःख न हुआ था। ईश्वर की असीम दया से यदि उनकी दशा सँभल जाती, तो वह फिर कभी राष्ट्रीय आन्दोलन के समीप ने जाते हैं इस फूल-से बच्चे को यो ससार में लाकर -दरिद्रता की आग में झोंकने का उन्हें क्या अधिकार था ? वह अब लक्ष्मी को उपासना करेंगे, और अपना क्षुद जीवन बच्चे के लालन-पालन के लिए अर्पित कर देंगे। उन्हें उस समय ऐसा ज्ञात हुआ कि बालक उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है, मानें कइ रहा है-'मेरे साथ अपना कौन-सा कर्तव्य पालन किया ?' उनकी सारी कामना, सारा प्यार चालक को हृदय से लगा लेने के लिए अधीर हो उठा, पर हाथ न फैल सके। हार्थों में शक्ति ही न थी। [ ४४ ]करुणा बालक को लिये हुए उठी, और थालो में कुछ भोजन निकालकर लाई। आदित्य ने क्षुधा-पूर्ण नेत्रों से थाली को ओर देखा, मान आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने को चीज़ सामने आई है। जानता था कि कई दिनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरो दशा में उसे ड़ावात को काबू में रखना चाहिए ; पर सब्र ने कार सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते-देखते धालो साफ कर दो। करुणा सशक हो गईं। उसने दोबारा किसी चीज़ के लिए ने पूछ। थालो उठाकर चली गई, पर उसका दिल बह रह था--इतना तो यह भी न खाते थे। करुणा बच्चे को कुछ खिला रही थी कि एकाएक कानों में आवाज़ आईं-- करुणा !

करुणा ने आकर पूछा---क्या तुमने मुझे पुकारा है ?

आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था, और साँस ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी। हार्थों के सहारे वहीं शाट पर लेट गये थे। करुणा उनको यह हालत देखकर घबड़ा गई। बोली-जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ ?

आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे सनई कारकै अहा-व्यर्थ है करुणा ! अम तुमसे छिंपानी व्यर्थ हैं, मुझे तपेदिक हो गया है। कई बार मरते-मरते बच गया हैं। तुम लोगों के दर्शन दे थे। इसी लिए प्राण न निकलते थे। देखो प्रिये, रौओ सत।

करुणा ने सिसकियों को दवाते हुए कहा---मैं वैद्य नो को लेकर अभी आती हूँ।

आदित्य ने फिर सिर हिलाया-नहीं करुणा, केवल मेरे पास बैठी रहौ । अब किसी से कोई आशा नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मुझे तो यही आश्चर्य है कि यहाँ पहुँच कैसे गया । न जाने कौन-सी दवो शक्ति मुझे वहाँ से खींच लाई। कदाचित् यह इस बुकाते हुए दीपछ छी अन्तिम झक थी। आह ! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दुःख रहेगा। मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। केवल सोहाग का दाग लगाकर और एकबालक के पालन का भार छोड़कर चला जा रहा हूँ। आह।

अरुण ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं हो रहा है ? आग चना लाऊँ। कुछ बताते थें नहीं।

आदित्य ने करवट बदलकर कहा---कुछ करने की ज़रूरत नहीं प्रिये ! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा है कि दिल बैठा जाता है, जै? पानी में डूबा जाता
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हूँ। जीवन की लीला समाप्त हो रही है। दीपक को बुझते हुए देख रहा हूँ। छह नहीं सकता, कब आवाज़ छन्द हो जाये। जो कुछ कहना है, वह कह डालना चाहता हूँ। बर्थों वह लालसा है जाऊँ ? मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूर्छ ?

करुणा के मन को सारी दुर्बलता, सारी शोक, सारी वेदना मान लुप्त हो गई, और उनकी जगह उसे आत्मबल का उदय हुआ, जो मृत्यु पर हँसता है, और विपत्ति कै साँप से खेलता है। रत्न-उदित मखमली भ्यान में जैसे तेज तलवार छिपी रहती है, ' जल के कोमल प्रवाह में जैसे असीम शक्ति छिप रहती है, वैसे ही रमणी झा कोमल हृदय साहस और धैर्य को अपनी गोद में छिपाये रहता है। क्रोध जैसे तलवार को बाहर खींच लेता है, विज्ञान जैसे जल शक्ति का उद्घाटन कर लेता है, वैसे ही प्रेम रमण के साहस और धैर्य को प्रदीप्त कर देता है।

अरुणा ने पति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा---पूछते क्यों नहीं प्यारे।

आदित्य ने करुणा के हार्थों के कोमल स्पर्श छा अनुभव करते हुए कहातुम्हारे विचार में मेरा जीवन केसा था ? बधाई के योग्य ? देखो, तुमने मुझसे कभी परदा नहीं रखा । इस समय भी स्पष्ट ही कहना। तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवळ पर हँसनी चाहिए या होना चाहिए ?

करुणा ने उल्लास के साथ कहा---यह प्रश्न क्यों करते हो प्रियतम ? क्या मैंने तुम्हारी उपेक्षा भी की है ? तुम्हारा जीवन देवताओं का-सा जीवन था, निःस्वार्थ, निर्लिप्त और आदर्श । विन-बाधाओं से तग आकर मैंने तुम्हें कितनी ही वार संसार की ओर खींचने की चेष्टा की है; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी कि मैं तुम्हें ऊँचे आसन से गिरा रही हैं। अकार तुम माया-मोह में फँसे होते, त कदाचित मेरे मन को अधिक सन्तोष होता ; लेकिन मेरी आत्मा को वह गईं और उल्लास ने होता, जो इस समय हो रहा है। मैं अगर किसी को बड़े-से-बड़ा आशीर्वाद दे सकती हैं, तो वह यही होगा कि उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।

यह कहते-कहते करुणा का आभाहीन मुखमण्डल ज्योतिर्मय हो गया, मान उसकी आत्मा दिव्य हो गई हो। आदित्य ने सगर्व नेत्रों से करुणा को देखकर कहा---बस, अब मुझे सन्तोष हो गया करुणा, इस बच्चे की और मुझे अब कोई शक नहीं है। में उसे इससे अधिक कुशल हाथ में नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि जीवन का यह ऊँचा और पवित्र आदर्श सदैव तुम्हारे सामने रहेगा। अब मैं मरने को तैयार हैं। [ ४६ ]

( २ )

सात वर्ष बीत गये।

बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान्, बलिछ, प्रसन्नमुख कुमार था, बला की तेज, साहसी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीं गया था। करुण का सतप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता। संसार करुणा को अभागिन और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उन आभूषणों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे प्राणों से प्रिय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोल ले लो। वह कृषक की बेटी थी, और गो-पालन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया। विशुद्ध दूध कहाँ मयस्सर होता है ? सम दुध हाथों हाथ बिक जाता। करुणा को पहर रात से पहर रात तक काम में लगा रद्द पड़ता , पर वह प्रसन्न थी। उसके मुख पर निराशा या दोनता की छाया नहीं, सकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अग से आरम-गौरव झी ज्योति-सी निकल रही है ; आँखों में एक दिव्य प्रकाश है, भीर, अथाह और असम। सारी वेद नाएँ-वैधव्य का शौक और विधि का निर्मम प्रहार --सब उस प्रकाश की गहराई में विलीन हो गया है। प्रकाश पर वह जान देती है। उसका आनन्द, उसकी अभिलाषा, उसका ससार, उसका स्वर्ग, सब प्रकाश पर न्यौछावर है; पर यह मजाल नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे, और करुणा आँखें बन्द कर ले। नहीं, वह जमुके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है। वह प्रकाश की माँ ही नहीं, माँ-बाप दोनों है। उसके पुत्र-स्नेह में माता की ममता के साथ पिता की कठोरत्ता भी मिली हुई है। पति के अन्तिम शब्द अभी तक उसके कार्यों में गूंज रहे हैं। वह आत्मोल्लास जो उनके चेहरे पर झलकने लगा था, वह गर्नमय लालो जो उनकी आँखों में छा गई थी, अभी तक उसकी आँखों में फिर रही है। निरन्तर पतिचिंतन ने आदित्य छौ उसकी आँखें में प्रत्यक्ष कर दिया है। वह सदैव उनकी उपस्थिति का अनुभव किया करता है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि आदित्य की आत्मा सदैव उसकी रक्षा करती रहती है। उसकी यही हार्दिक अभिलाषा है कि प्रकाश जवान होकर पिता का पदनामी हो।

सध्या हो गई थी। एक भिखारिन द्वार पर आकर भोख माँगने लगा। करुण उस समस गउओं को सानो दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बालक ही तो ! शरारत सूझी। घर में गया, और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला। [ ४७ ]
भिखारिन ने अपनी झोली फैला हो। प्रकाश ने भूसा उसकी झोली में डाल दिया और जोर-जोर से तालियाँ बजाता हुआ भागा।

भिखारिन ने अग्निभय नेत्रों से देखकर कहा- वाह रे लाड़ले ! मुझसे हँसी करने चला है। यही माँ-बाप ने सिखाया है। तब तो खूब कुल का नाम जगाओगे !

करुणा उसकी बोलो सुनकर बाहर निकल आई, और पूछा-क्या है माता ? किसे कह रही हो ?

भिखारिन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा---वह तुम्हारा लड़का है न। देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी कोलो में डाल गया है। चुटकी-भर आटा था, वह भी मिट्टी में मिल गया । कोई इस तरह दुखियों को सताता है ? सबके दिन एकसे नहीं रहते। आदमी को घमण्ड न करना चाहिए।

करुणा ने कठौर स्वर में पुकारा---प्रकाश।

प्रकाश लज्जित न हुआ। अभिमान से सिर उठाये हुए आया और बोला--- यह शुमारे घर भीख माँगने क्यों हैं हैं है कुछ काम क्यों नहीं करती है।

करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके कहा--- शर्म तो नहीं आती, उलटे और आँखें दिखाते हो।

प्रकाश शर्म क्यों आये है यह क्यों रोज भीख मांगने आती है ? हमारे यहाँ या कोई चीज़ मुफ्त आती है !

करुणा --- तुम्हें कुछ न देना था तो सीधे से कह देते, जाओ। तुमने यह शराएल क्यों की ?

प्रकाश--- उसकी आदत कैसे छूटती है।

करुणा ने बिगड़कर कहा--- तुस अब पिटोगे मेरे हार्थो।

प्रकाश---पिहँगा क्यो, अप जबरदस्ती पीटेंगी ? दूसरे मुल्कों में अगर कोई भीख योगे, तो ॐद कर दिया जाय। यह नहीं कि उलटे भिखमंग को और शह दिया जाय। करुणा--जो अपग है, वह कैसे काम करे ?

प्रकाश---तो जाकर डूब सरे, ज़िन्दा क्यों रहती है।

‘करुणा निरुतर हो गई। बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया ; एफन्तु प्रकाश वा कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा। इसने यह धृष्टता, यह अविनय कहाँ सीखा। रात को भी उसे बार-बार यही खयाल सताता रहा है। [ ४८ ]

आधी रात के समीम एकाएक प्रकाश को नीद स्ट, लालटेन जल रही है, और अरुणा बैठी हो रही है। उठ बैठा और बोला---अम्माँ, अभी तुम सोई नहीं ?

करुणा ने मुंह फेरकर कहा---नींद नहीं आई। तुम कैसे जाग गये ? प्यास तो नहीं लगी है ?

प्रकाश ---नहीं अम्माँ, न जाने क्यों आँख खुल गई–मुझसे आज बड़ा अपराध हुआ अम्माँ

करुणा ने उसकै मुख को और स्नेह के नेत्रों से देखा है

प्रकाश ---मैंने आज बुढिया के साथ बड़ी नटखटी की। मुझे क्षमा करो। फिर कभी ऐसी शरारत ने करूँगा।

यह कहकर रोने लगा। करुगा ने स्नेहाद्र होकर उसे गले लगा लिया, और उपके अपोलों का चुम्बन करके बोलो-बेटा, मुझे खुश करने के लिए यह छह रहे हो, या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है ?

प्रकाश ने सिसकते हुए कहा---नहीं अम्माँ, मुझे दिल से अफसोस हो रहा है। की वह बुढ़िया आयेगी, तो मैं उपे बहुत से पैसे देंगा।

करुणा का हृदय मतवाला हो गया। ऐसा जान पहा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को अशोर्वाद दे रहे हैं और कह रहे हैं, करुणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने पिता घा नाम रोशन करेगा। देरी से पूर्व मनाएँ पूरी हो जायेंगी।

( ३ )

लेकिन प्रकाश के कर्म और वचन में मेल न था, और दिन के साथ उसके चरित्र का यह अंग प्रत्यक्ष होता जाता था। जहीन था ही, विश्वविद्यालय से उसे वज़ीफे मिलते थे, करुणा भी उसकी यथेष्ट सहायता करती थी, फिर भी उसका खर्च पूर ने पता था। वडू मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकती धा; पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जी-भर घटकर न था। प्रदर्शन की धुन उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बुद्धि में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता था। मन जाति की ओर था, चुदि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाये रखती थी। इसके सामने मन की एक न चलतो थी। जाति-सेवा ऊसर की खेती है, वह बड़े-से-खड़ा रहार जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश, पर वह भो स्थायी नहीं, इतना अपर कि क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी कि
[ ४९ ]सकता है। अतएव उसका अतःकरण अनिवार्य वेग के साथ विलासमय जीवन की ओर झुकता था। यहाँ तक कि धीरे-धीरे उसे त्याग और निग्रह से घृणा होने लगे। वह दुरवस्था और दरिद्रता को हेय समझता था। उसके हृदय में था, भाव न थे, केवल मस्तिष्क था। मस्तिष्क में दर्द छहाँ, दया कहाँ है वहीं तो तर्क है, हौसला है, मसूबे हैं।

सिंध में अढ़ आईं। हजारों आदमी तबाह हो गये। विद्यालय ने ची एङ सेवासमिति भेजी। प्रकाश के मन में द्वन्द्व होने लगा-- जाऊँ या न जाऊँ। इतने दिनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करे, तो प्रथम श्रेणी में पास हो। चुलते समय उसने बीमारी का बहाना कर दिया। करुणा ने लिखा, हुम सिध च गये, इसका मुझे खेद है। तुम बीमार रहते हुए भी वहाँ जा सकते थे। समिति में चिकित्सक भी तो थे ! प्रकाश ने पत्र का कोई उत्तर न दिया।

उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मक्खियों की तरह मरने लगी। कांग्रेस ने पीड़ित के लिए एक मिशन तैयार किया। उन्हीं दिन विद्यालय ने इतिहास के छात्रों को ऐतिहासिक खोज के लिए लंका भेजने का निश्चय किया। करुणा ने प्रकाश को लिखा-- तुम उड़ीसा जाओ, किन्तु प्रकाश ला जाने को लालायित था। वह कई दिन इसी दुविधा में रहा। अंत को सीलोन ने उड़ीसा पर विजय पाई। अरुणा ने अबकी उसे कुछ न लिखा। चुपचाप रोती रही है।

सीलोन से लौटकर प्रकाश छुट्टियों में घर गया। करुणा उससे खिंची-खिची रही। प्रकाश मन में लज्जित हुआ और सङ्कल्प किया कि अबकी कोई अवसर आया, तो अम्म ॐ अवश्य प्रसन्न करूंगा। यह निश्चय करके वह विद्यालय लौटा। लेकिन यहाँ आते ही फिर परीक्षा की फिक्र सवार हो गई। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन आ गये ; मगर इम्तहान से फुरस्त पाझर भी प्रकाश घर् न गया। विद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीं के साथ काश्मीर चल खड़ा हुआ। जब परीक्षा-फल निकले, और प्रकाश प्रथम आया, तब उसे घर की याद आईं। उसने तुरत करुणा को पत्र लिखा, और अपने आने की सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के लिए उसने दो-चार शब्द जाति-सेवा के द्दिषय में भी लिखे- अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूँ। मैंने शिक्षा-सम्बन्ध कार्य करने का निश्चय किया है।

इसी विचार से मैंने यह विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। हमारे नेता भी तो विद्यालय के आचार्यों ही का सम्मान करते हैं। अभी तक इन उपाधियों के मोह से वे मुक्त
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नहीं हुए हैं। यह उपाधि लेकर वास्तव में मैंने अपने सेवा-मार्ग से एक वाधा हटा दो है। हमारे नेता भी योग्यता, सदुत्साह, लगन का उतना सम्मान नहीं करते जितना उपाधियों छ । अब सब मेरी इज्जत करेंगे, और ज़िम्मेदारी का काम सौंपेंगे, जो पहले मांगे भी न मिलता।

करुणा की आस फिर बंधी।

( ४ )

विद्यालय खुलते ही प्रकाश के नाम रजिस्ट्रार का पत्र पहुँचा। उन्होंने प्रकाश ॐ इगलैंड जाकर विद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वज़ीफे की मंजूरी की सूचना दीं थो। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हर्ष के उन्माद में जाकर माँ से बोला----अम्माँ, मुझे इगलैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वज़ीफा मिल गया।

करुणा ने उदासीन भाव से पूछा --- तो तुम्हारा क्या इरादा हैं ?

प्रकाश --- मेरा इरादा ? ऐसा अवसर पाकर भला कौन छौड़ता है ।

करुणा --- तुम तो स्वयसेवकों में भरती होने जा रहे थे ?

प्रकाश --- तो क्या आप समझती हैं, स्वयं सेवक बन जाना ही जाति सेवा है ? मैं इगलैड से आकर भो तो सेवा कार्य कर सकता हूँ, और अम्माँ, सच पूछो, तो एक मैजिस्ट्रेट अपने देश का जितना उपकार कर सकता है, उतना एक हजार वयखेदङ मिलकर भी नहीं कर सकते। मैं तो सिविल सर्विस की परीक्षा में बैटू गा, और मुझे विश्वास है कि सफल हो जाऊँगा।

करुणा ने चकित होकर पूछा---तो क्या तुम मैजिस्ट्रेट हो जाओगे ?

प्रकाश---सेवा-भाव रखनेवाला एक मैजिस्ट्रेट काग्रेस के एक हज़ार सभापतियों से ज्य दा उपकार कर सकता है। अखबारों में उसकी लव-लची तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तृताओं पर तालियों ने बजेगी, जनता उसके जुलूस को गाड़ी न खींचेगी, और न विद्यालय के छात्र उसको अभिनंदन-पत्र देंगे ; पर सच्ची सेवा मैजिस्ट्रेट ही कर सकता है।

करुणा ने आपत्ति के भाव से कहा-लेकिन यही मैजिस्ट्रेट तो जाति के सेवक को सज़ाएँ देते हैं, उन पर गोलियां चलाते हैं ?

प्रकाश---अगर मैजिस्ट्रेट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है, जो दूसरे गोलियाँ चलाकर भी नहीं कर सकते । [ ५१ ]

करुणा--मैं यह न मानूंगी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीं देती। वह एक नीति बना देती है, और इर एक सरकारी नौकर को उसका पालन करना पड़ता है। सरकार को पहली यह है कि वह दिन-दिन अधिक संगठित और दृढ़ हो। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना ज़रूरी है। अगर कोई मैजिस्ट्रेट इस नीति के विरुद्ध काम करता है, तो वह मैजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी मैजिस्ट्रेट था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को ज़रा-सी बात पर तीन साल की सज़ा दे दी। इसी सज़ा ने उनके प्रण लिये। बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न गिरो। मुझे यह मजूर है कि तुम मटा खादर और मोटा पहनकर अपने देश की कुछ सेवा झो, इसके बदले कि तुम हाकिम बन जाओ, और शान से जीवन बिता। यह समझ लो कि जिस दिन तुम हाकिम की कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमास हाकिमों का-सी हो कायदा। तुम यही चाहोगे कि अफसरों में तुम्हारी नेकनासो और तरक्को हो। एक गंवारू मिसाल लो। लड़की जब तक मैले में क्वाँरी रहती है, वह अपने को उसी घर का समझती है ; देकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरों को घर समझने लगती है। माँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं। लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। यही दुनिया का

प्रकाश ने खीम्झकर कहा--- तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं ज़िन्दगी-भर चारों तरफ ठौरे खाता फिरू ?

करुणा ठौर नेत्रों से देखेर बोली--- अगर ठीकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सती है, मैं तो कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है ।।

प्रकाश ने निश्चयात्मक भाव से पूछा---तो आपकी यही इच्छा है ?

करुणा ने उसी स्वर से उत्तर दिया--- हो, मेरी यही इच्छा है।

प्रकाश ने कुछ जवाब न दियो। अठर बाहर चला गया, और तुरन्त रजिस्ट्रार को इनकारी पत्र लिख भेजा ; मगर उसी क्षण से मानो उसके सिर पर विपत्ति ने आसन जमा लिया। विरक्त और दिसन अपने कायरे में पड़ा रहता, न ६हीं घूमने जाता, न झिसी से मिलता। मुँह लटकाये तर आता, और फिर बाहर चला जाता, यहाँ तक कि एक महीना गुज़र गया। के चेहरे पर वह वली रही, वह अज, , आँखें अनार्थों के मुख की भाँति याचना से भरी हुई, ओठ हँसना भूल गये, माने? [ ५२ ]
उस इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, सारी चपलता, सारी सरसता बिदा हो गई। करुणा उसके मनोभाव समझती थी, और उसके शोक छौ भुलाने की चेष्टा करती थी ; पर रूठे देवता प्रसन्न न होते थे !

आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा---बेटा, अगर तुमने विलायत जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मैं मन न गी। सुके खेद है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर मैं जानती कि तुम्हें इतना आघात पहुंचे, तो थी न रोती। मैंने तो केवल इस विचार से रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में अन्न देणार तुम्हारे बाबूजी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चलते समय यही वसीयत की थी।

प्रकाश ने रुखाई से जवाब दिया--अब क्या जाऊँगा। इलमारी से लिख चुका। मेरे लिए कोई अड़े तक पैठा थोड़े ही होगा। झोई दूसरा स्ला जुन रिय} गया होगा।

और फिर करना ही क्या है। ये आपकी मर्जी के श्चि पद की अनला फिरू, तो वह सही।

करुणा का गर्व चूर-चूर हो गया । इस अनुमति से उसने ना वा वास ना चाहा था; पर सफल न हुई। पोलो---अभी कोई न चुना गया है। दिल दो, में जाने को तैयार हैं।

प्रकाश ने झुंझलाकर कहा---अन कुछ नहीं हो सकता। लोग जो डायेंगे। मैंने तय कर लिया है कि जीवन को आपकी इच्छा के अनकूल धागा ।

करुणा---तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मुझसे सत्याग्रह कर रहे हो ; अगर मन को दबार, मुझे अपनी राह छ। समझकर, मने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या। मैं तो ज६ जनतो कि तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा भाव उत्पन्न होता। तुम्न आज ही रजिष्ट्रार साह को पत्र लिख दो।

प्रकाश---अन नहीं लिख सती।

‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे ?’

‘लाचारी हैं।'

करुणा ने और कुछ न कहा। ज़र। देर में प्रकाश ने देखा कि वह ही जा रही है; मगर वह कुछ बोल नहीं। करुणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असारण
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बात न थी ; लेकिन जब सध्या हो गई, और करुणा न आई, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगी। अम्मू कहाँ गईं ? यह प्रश्ने बार-बार उसके मन में उठने लगा।

प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भाँति-भाँति को शकाएँ मन में उठने लगीं। उसे अब याद आया, चलते समय करुणा कितनी उदास थी, उसकी आँखें कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नज़र आईं ! वह क्यों स्वार्थ मैं अन्धा हो गया था।

हाँ, अब प्रकाश को याद आया--माता ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनकै हाथ में छतरी भी थो, तो क्या वह कहीं बहुत दूर गई हैं ? किससे पूछे ? एक अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा।

श्रावण की अंधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाएँ, भीषण स्वप्न की भाँति छाई हुई थी, प्रकाश रह-रहकर आकाश की ओर देखता धा, मानें करुणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी है। उसने निश्चय किया, सबेरा होते ही स को खोजने चलें गा और अगर •••

किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खौला, तो देखा, करुणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करुण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अव उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबता देख रही है, और कुछ कर नहीं सकती।

प्रकाश ने अधीर होकर पूछा---अम्माँ, कहीं चली गई थीं ? बहुत देर लगाई ?

करुणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया --- एक काम से गई थी। देर हो गई।

यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक वद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त लिफाफा खौलङ्कर पढ़ा। हलको-सो लालिमा चेहरे पर दौड़ गई। पूछा-यह तुम्हें कहाँ मिल बाया अम्म ?

करुणा---तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हैं।

‘क्या तुम वहाँ चली गई थी ?'

‘और क्या करती।’

‘कल तो गाड़ी का समय न था ? ’

‘भोटर ले ली थी।’ [ ५४ ]

प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा। फिर कुण्ठित स्वर में बोला--- जब तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो क्यों मुझे भेज रहो हो ?

करुणा ने विरक्त भाव से कहा ---इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलित वेष नहीं देखा जाता। अपने जोवन के वीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिये ; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है।

करुणा का कण्ठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।

( ५ )

प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियाँ करने लगा। करुणा के पास जो कुछ था, वह सब खर्च हो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नथे सूट बने, सूटकेस लिये गये। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। भी किसी चीज़ की फरमाइश लेकर आता, कभी किसी चीज़ की‌।

करुणा इस एक सप्ताह में कितनी दुर्वल हो गई है, उसके वालों पर कितनी सफेदी आ गई है, चेहरे पर कितनो झुर्रियां पड़ गई हैं, यई उसे कुछ न नज़र आता। उसकी अखि में इलैंड के दृश्य समाये हुए थे। महत्वाकांक्षा अखिों पर परदा डाल देती है।

प्रस्थान का दिन आया। आज कई दिनों के बाद धूर निकली थी। करुण स्वामी के पुराने कपड़ों को बाहर निकाल रही थी। उनको गाढे से चादरे, खद्दर के कुरते और पाजासे और लिहाफ अभी तक सदूक में भवित थे। प्रतिवर्ष वे धूप में सुखाये जाते, और झाड़-छकर रख दिये जाते थे। करुणा ने आज फिर इन कपड़ों को निकाला , मगर सुखकर रखने के लिए नहीं, अब छ बाँट देने के झिए। वह आज पति से नाराज़ है। वह लुटया, ढोर और घड़ी जो आदित्य की चिरसगिनी थीं और जिनकी आज बीस वर्ष से करुणा ने उपासना की थी, आज निकालकर आँगन में फेंक दो गई , वह झोली जो बरसों आदित्य के कत्रों पर अरूढ़ रह चुकी थो, आज कुई में डाल दो गई ; वह चिन्न जिसके सामने आज वीस वर्ष से रुग! विर झुकाती थो, आज वही निर्दयता से भूमि पर डाल दिया गया। पति का कोई स्मृति-चिह्न; वह अध अपने घर में नहीं रखना चाहती। उसको अन्तकरण शोक और निराशा से विदीर्ण हो गया है और पति के सिवा चह किस पर क्रोव उतारे ! कौन उसका अपना है? [ ५५ ]
किससे अपनी व्यथा छ है ? किसे अपनी छाती चीरकर दिखाये ? वह होते तो क्या आज प्रकाश दासता की कृञ्जीर गले में डालकर फूला ने समाता है उसे कौन समझाये कि आदित्य भी इस अवसर पर पछताने के सिवा और कुछ न कर सकते।

प्रकाश के मित्रों ने आज उसे विदाई का भोज दिया था। वहीं से वह सन्ध्या समय कई मित्र के साथ मेंटर पर लौटा। सफर का सामान गटर पर रख दिया आयो। तब वह अन्दर जाकर माँ से बोला--- अम्माँ, राता हूँ। चम्बई पहुँचकर पत्र लिखेंगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत, और मेरे खता का जनाब बरावर देंना।

जैसे किसी लाश छौ बाहर निकालते समय सम्वन्धिर्यों का धैर्य छूट जाता है, रुके हुए असू निकल पड़ते हैं और शोक की तरगें उठने लगती हैं, वहीं दशा करुणा की हुई। कलेजे में एक हाहाकार हुआ जिसने उसको दुर्वल आत्मा के एक-एक अणु। कैंप दिया, मालूम हुआ, पाँव पानी में फिसल गया है, और मैं लहरों में वही जा रही हैं। इसके मुख से शोक या शिवदि का एक शब्द भी न निकला। प्रकाश ने उसके चरण छुए, अश्रुजल से माता के चरणों को पतारा, फिर बाहर चला गया है। करुणा पाषाण-मूर्ति की भाँति खड़ी थी।

सहसा ग्वाले ने आकर कहा--- बहुजी, भइया चले गये ! बहुत रोते थे।

तब करुणा की समाधि टुटी। देखा, सामने कोई नहीं है। घर में मृत्यु का-सा सुन्नाटा छाया हुआ है, और न हृदय की गति बन्द हो गई है।

गृहसा करुणा की दृष्टि ऊपर उठ गई। उसने देखा कि आदित्य अपनी गोद में प्रकाश की निर्जीव देह लिये खड़े हो रहे हैं। करुणा पछाड़ खार गिर पड़ी।

( ६ )

करुणा जीवित थी ; पर ससार से उसदा छोई नाता ने था। उसका छोटा-सा ससार, जिसे उसने अपनी कल्पना के हृदय में रचा था, स्वप्न की भाँति अनन्त में विलीन हो गया था। जिस प्रकाश को सासने देखर वह जीवन की अंधेरी रात में भी हृदय में आशाओं की सम्पत्ति लिये जा रही थी, वह बुझ गया और सन्पत्ति लुट गई। अब न कोई आश्रय था, और न उसकी छालत जिन गउओं को वह दोनों वक अपने हाथ से दाना-चार देती और सहलाती थी, अब खूँटे पर बैवी निराश नेत्र से द्वार की और ताकतों रहती थीं। बछ को गले लगाकर चुमकारनेवाला अब
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कोई न था। किसके लिए दूध दुहे, मस्का निकाले ? खानेवाला कौन था ? करुणा ने अपने छोटे-से संसार को अपने ही अन्दर समेट लिया था।

किन्तु एक हो सप्ताह में अरुणा के जोवन ने फिर रङ्ग बदला। उसका छोटा-सा संसार फैलते-फैलते विश्वव्यापी हो गया। जिस लगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर बाँध रखा था, वह उखड़ गया। अब नौ सागर कै आशष विस्तार में भ्रमण करेगी, चाहे वह उद्दाम तर गे के वक्ष में ही वयों ने विलीन हो जाय !

करुणा द्वार पर आ बैठती, और महरले भर के लड़कों को जमा करके दूध पिलाती। दोपहर तक मक्खन निकालती, और वह मक्खन सङ्घले के लड़के खावें। फिर भाँति भाँति के पकवान बनाती, और कुत्तों को लियत। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। चिड़ियो, कुत्ते, बिल्लियाँ, चींटे-चीटियाँ सद अपने हो गये। प्रेम का वह द्वार अब किसी के लिए चन्द ने था। इस अगुल-भर जगह में, जो प्रकाश के लिए भी काफी न थी, अब समस्त ससार समा गया था।

एक दिन प्राश का पत्र आया। करुणा ने उसे उठाझर पक दिया। फिर थोड़ी देर के बाद उसे उठाकर फाड़ डाला, और चिड़ियो ) दाना चुगने लगी ; मगर ज निशा-यौगिनी ने अपनी धूनी जलाईं, और वेदनाएँ उससे वरदान मांगने के लिए विफल हो-होकर चली, तो करुणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी-- प्रकाश का पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है ? मेर उससे वया प्रयोजन ? हाँ, प्रकाश मेरा द्रौन है ? हृदय ने उत्तर दिया, प्रकाश तेरा सर्वस्व है, वह तेरे उस अमर प्रेम की निशानी है, जिससे तू सदैव के लिए वचित हो गई। वह तेरे प्राणों का प्राण है, तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी वचित म्झामना छ। माधुर्य, तेरे अश्रु-जल में बिहार करने वाला हास। करुण उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, मानों उसके प्राण बिखर गये हैं। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक-एई पदचिह्न सा मालूम है तो था। जग सारे पुर जमा हो गये, तो करुणा दीपक के सामने बैठकर उन्हें जोड़ने लगी, जैसे कोई वियोगी हृदय प्रेम के टुटे हुए तारों को जोड़ रहा हो‌ हाय री ममता वह अभागिनी सार। रात उन पुरजों जोदने में लगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा हुआ था, इसलिए पुरज की ठीक स्थान पर रखना और भी दिन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में
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गायब हो जाता है उस एक टुकड़े को वह फिर खोजने लगती। सारी रात औत गई। पर पत्र अभी तक अपूर्ण था।

दिन चढ़ आया, मुहल्ले के लौंडे सक्खन और दूध की चाट में एकत्र हो गये, कुत्तों और बिल्लियों का आगमन हुआ, चिड़ियाँ आ-आकर आँगन में फुदकने लगीं, कोई ओखलौ पर बैठी, कोई तुलसी के चौतरे पर ; पर अरुणा को सिर उठाने की फुरसत नहीं।

दोपहर हुआ। करुणा ने सिर ने उठाया। न भूख थी, न प्यास। फिर सन्ध्या हो गई, एई वह पत्र अभी तज्ञ अधूरा था। पत्र का आशय समझ में आ रहा था--- प्रकाश का जहाज़ कहीं-से कहीं जा रहा है। उसके हृदय में कुछ उठा हुआ है। क्या उठा हुआ है। वह करुणा न सोच सकी । प्यास से तड़ते हुए आदमी की प्यास क्या औस से बुझ सकती है। करुणा पुत्र की लेखनी से निकले हुए एक-एक शब्द को पढ़ना और उसे अपने हृदय पर अकित कर लेना चाहती थी।

इस भाँति तीन दिन गुज़र गये। सन्ध्या हो गई थी। तीन दिन को जागो आँखें ज़रा झपक गई। करुणा ने देखा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा है, उपमें भेजें और कुर्सियाँ लगी हुई हैं, कोच में एक ऊंचे सच पर कोई आदमो बैठा हुआ है। करुणा ने ध्यान से देखा, वह प्रकाश था।

एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके हाथ-पाँव में ज़ोर थी, कमर झुकी हुई। यह आदित्य थे।

करुणा की आँखें खुल गई। आँसू बहने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उखे जलाकर राख कर डाला। राख को एक चुटकी के सिवा वहाँ कुछ न रहा। यही उस ममता की चिता थी, जो उसके हृदय को विदीर्ण किये डालती थी। इसी एक चुटको राख में उसका गुड़ियोंवाला बचान, उसका सतप्त यौवन और उसका तृष्णामय वैधव्य सर्व समा गया है।

प्रातःकाल लोगों ने देखा, तो पक्षी पिंजड़े से उड़ चुका था। अदित्य का चित्र अब भी उसके शून्य हृदय से चिपटा हुआ था। वह भग्न हृदय पति को स्नेह-स्मृति में विश्राम कर रहा था और प्रकाश का जहाज़ योरप चला जा रहा था।