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मानसरोवर १

विकिस्रोत से
मानसरोवर १  (1947) 
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ — से – ९ तक

 

मानसरोवर
[ भाग : १ ]




लेखक

प्रेमचन्द





प्रकाशक

सरस्वती प्रेस बनारस

पाँचवाँ संस्करण : सितम्बर, १९४५

छठयाँ संस्करण : अप्रैल, १९४७

मूल्य ३)











मुद्रक-श्रीपतराय, सरस्वती प्रेस, बनारस



हमारे सामने आ जाता है। और जहाँ वह हमारी मानवी न्याय-बुद्धि, यो अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार जाते हैं। कथा में अगर किसी को सुख प्राप्त होता है, तो इसका कारण बताना होग, दुख भी मिलता है, तो इसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक मानव न्याय-बुद्धि उसकी मौत न मांगे। स्रष्टा को जनता की अदालत में अपनी हरएक कृति के लिए जवाब देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है ; घर दह' भ्रांन्ति जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो।

हमें यह स्वीकार कर लेने में संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासो ही की तरह आख्यायिका की झला भी हमने पच्छिम से ली है। कम-से-कस इसका जल का विकसित रूप तो पच्छिम का ही है। अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराओं की तरह ही साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गई और हमने प्राचीन से जौ-भर इधर-उधर हटना भी निषिद्ध समझ लिया। साहित्य के लिए प्राचीनों ने जो मर्यादाएँ बाँध दी थीं, इनका उल्लघन करना वर्जित था, अतएव काव्य, नाटक, कथा, किसी में भी हस आगे कदम न बढ़ा सके। कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमें कुछ नवीनता न लाई जाय। एक ही तरह के नाटक, एक ही तरह के काव्य पढ़ते-पढ़ते आदमी ऊब जाता है, और वह कोई नई चीज़ चाहता है, चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो। इमारे यहाँ तो यह इच्छा उठी ही नहीं, या हमने उसे इतना कुचला कि वह जड़ीभूत हो गई। पश्चिम प्रगति करता रहा, उसे नवीनता की भूख थी, मर्यादाओं की बेड़ियों से चिढ़। जीवन के हरएक विभाग में उसकी इस अस्थिरता को, असन्तोष की, बेड़ियों से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है। साहित्य में भी उसने क्रान्ति मचा दी। शेक्सपियर के नाटक अनुपम हैं , पर आज उन नाटकों का जनता के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं।आज के नाटक का उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है। कथा-साहित्य में भी विकास हुआ और उसके विषय में चाहे उतना बड़ा परिवर्तन न हुआ हो, पर शैली तो बिलकुल ही बदल गई। अलिफ़लैला उस वक्त का आदर्श था, उसमें बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कुतूहल था, रोमांच भी ; पर उसमें जीवन की समस्याएँ न थी, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन अपने सत्य रूप में इतना स्पष्ट न था। उसका रूपान्तर हुआ

और उपन्यास का उदय हुआ, जो कथा और ड्रामा के बीच की वस्तु है। पुराने दृष्टान्त भी रूपान्तरित होकर गल्प बन गये।

मगर सौ वर्ष पहले यूरोप भी इस कला से अनभिज्ञ था। बड़े-बड़े उच्चकोटि के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक या सामाजिक उपन्यास लिखे जाते थे ; लेकिन छोटी कहानियों की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हाँ, परियों और भूत की कहानियाँ लिखी जाती थी ; किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर, या उससे भी कम समझिए, छौटौ छहानिर्यों ने साहित्य के और सभी अंग पर विजय प्राप्त कर ली है, और यह कहना गलत न होगा कि जैसे किसी जमाने में कवित्त ही साहित्यिक अभिव्यक्ति का व्यापक रूप था, वैसे ही आज कहानी है। और उसे यह गौरव प्राप्त हुआ है। यूरोप के कितने ही महान् कलाकारों की प्रतिभा से, जिनमें वालज़क, मोपास, घेखाफ, टालस्टाय, मैधिसम गोर्की आदि मुख्य हैं। हिन्दी में तो पच्चीस-तीस साल पहले तक गल्प का जन्म न हुआ था। आज तो कोई ऐसी पत्रिका नहीं, जिसमें दो-चार कहानियाँ न हाँ, यहाँ तक कि कई पत्रिकाओं में केवल कहानियाँ ही दी जाती हैं।

'कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवन-संग्राम और समयाभाव है, अब वह ज़माना नहीं रहा, कि हम ‘दोस्तानेख़याल’ लेकर बैठ जायें और सारे दिन उसी के कुञ्जों में विचरते रहें। अब तो हम सुग्राम में इतने तन्मय हो गये हैं कि हमें मनोरजन के लिए समय नहीं मिलता ; अगर कुछ मनोरजन स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना अट्ठारह घण्टे काम कर सकते, तो शायद हा मनोरजन का नाम भी न लेते; लेकिन प्रकृति ने हमें विवश कर दिया है । इसलिए हम चाहते हैं कि थोड़े-से-थोड़े समय में अधिक-से-अधिक मनोरंजन हो जायें; इसीलिए सिनेमागृहों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है। जिसे उपन्यास के पढ़ने में महीनें लगते, उसको आनन्द हम दो घण्टे में उठा लेते हैं। कहानी के लिए पन्द्रह-बीस मिनट ही काफी है; अतएव हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोड़े-से-थोड़े शब्दों में कहीं जाय, उसमें एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाये, उसका पहला ही वाक्य मन को आकर्षित कर ले और अन्त तक उसे मुग्ध किये रहे, उसमें कुछ चटपटापन हो, कुछ विकास हो, और इसके साथ ही कुछ तत्व भी हो। तत्त्व-हीन कहानी से चाहे मनोरजन भले हो जाय,

मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेशनबुहते लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भादों को जात करने के लिए, कुछ-न-कुछ अवश्य चाहते हैं। वह कहानो सफल होती है, जिसमें इन दोनों में से एक अवश्य उपलब्ध हो।

सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो। साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र को दशा से दुखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस आवेग में पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारों को प्रदर्शित करना, कहानी को आकर्षक बना सकता है। बुरी आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमें कहीं-न कहाँ देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका का काम है। विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है, यहाँ तक कि वह बड़े-से-बड़े संकट का सामना करने के लिए ताल कर तैयार हो जाता है। उसकी सारी दुर्वासना भाग जाती है। उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपे हुए जौहर निकल आते हैं और हमें चकित कर देते हैं। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्य को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करतो है। हम कहानी में इसको सफलता के साथ दिखा सकें, तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी। किसी समस्या का समावेश हानो को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है। ज्दावन में ऐसी समस्याएँ नित्य हो उपस्थित होती इहती हैं और उनसे पैदा होनेवाला द्वन्द्व आख्यायिका को चमका देता है। सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है। वह उसे न्याय को वेदो पर बलिदान कर दे, या अपने जीवन-सिद्धान्तों की हत्या कर डाले ! कितना भोषण द्वन्द्व है। पश्चात्ताप ऐसे द्वन्द्व का अखड स्रोत है। एक भाई ने दूसरे भाई की सम्पत्ति छल-कपट से अपहरण कर ली है, उसे भिक्षा माँगते देखकर क्या छलो भाई को ज़रा भी पश्चात्ताप न होगा ? अगर ऐसा न हो, तो वह मनुष्य नहीं है।

उपन्यासों को भांति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रवान होती हैं, कुछ चरित्रप्रधान। चरित्र-प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है ; मगर कहानी में बहुत विस्तृत वि३३षण की गुञ्जायश नहीं होतो। यहाँ हमारा उद्देश्य सपूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उपके चरित्र की एक अग दिखाना है। यह परमावश्यक है

कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्त्व निकले, चह सर्वमान्य हो, और उस कुछ बारीको हो। यह एक साधारण नियम है कि मैं उसी बात में आनन्द आता है, जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो। जुवा खेलनेवालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्श को छदादि न हो सकता। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक अपने छौ उसके स्थान पर समझ लेता है, तभी उसे कहानी में आनन्द प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दो, तो वह अपने लद्देश्य में असफल है।

पाठकों से यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन थोड़े ही दिनों में हिन्दो शल्पकला ने कितनी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है। पहले हमारे सामने केवल बँगली कहानियों का नमूना था। अब हम सखार के सभी प्रमुख गल्प-लेखकों की रचनाएँ पढ़ते हैं, उन पर विचार और वस्त्र करते हैं, उनके गुण-दोष निकालते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। अव हिन्दी-गलप-लेखकों में विषय और दृष्टकोण और शैली का अल-अलग झिाल होने लगा है, कहानी इन के बहुत निकट आ गई है। उचक्कों जोन अब उतनी लरकी-चौड़ी नहीं हैं। इसमें कई रस, इई चरित्र और छई घटनाओं के लिए स्थान नहीं रहा। य? वह केवल एक प्रसंग का, आत्मा की एक झलक का सजीव, रूप चित्रण है। इस ए तथ्यता ने उसमें प्रभाव, आकस्मिकता और तीव्रता भर दी है। अब उसमें व्याख्या का अश कम, सवेदना का अंश अधिक रहता है। उसकी शैली भी अब प्रवाहमी हो गई है। लेखक को जो कुछ बृहना है, वह कम-से-कम शब्दों में छह डालना चाहता है। वह अपने चरित्र के मनोभावों की व्याख्या करने नहीं बैठता, केवल उनकी तरफ़ इशारा कर देता है। कभीकभी तो संभाषणों में एक-दो शब्झ से हो म निकाल लेता है। ऐसे कितने ही अवसर होते हैं, जब पात्र के मुंह से एछ शब्द सुनकर हम उसके मनोभावों का पूरा अनुमाई कर लेते हैं। पूरे वाक्य को ज़रूरत ही नहीं रहती। अब हम इहानी का मूल्य उसके घटना-विन्यास से नहीं लगाते। हम चाहते हैं,-पात्रों को मनोगति स्वय घटनाओं की सृष्टि करै। घटनाओं को स्वतन्त्र कोई महत्व ही नहीं रहा। उनका महत् केवल पात्रों के मनोभार्थों को व्यक्त करने की दृष्टि से ही है। उसी तरह जैसे शालिग्राम स्वतंत्र रूप से केवल पत्थर का एक गोल टुकड़ा है; लेकिन उपासक की श्रद्धा से प्रतिष्ठित होकर देवता बन जाता है। खुलासा यह कि गल्प का आधार अब घटना

नहीं, मनोविज्ञान की अनुभूति है। आज लेखक केवल ई चेक-श्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठ जाती। उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नहीं। वह तो कोई ऐसी प्रेरणा चाहता है, जिसमे सौन्दर्य की झलक हो, और इसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श छर सके।

———प्रेमचन्द





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