माधवराव सप्रे की कहानियाँ/आजम
आजम
(Goldsmith's Miscellaneous Essays के आधार पर
रची हुई शिक्षा-विधायक एक कहानी)
वह पुरुष पहिले बहुत धनवान था। वह प्राणिमात्र से प्रीति और नम्रतापूर्वक बरताव रखता था। भूखों को अन्न, प्यासे को पानी और नंगे को वस्त्र देना, दुखित जनों के क्लेश निवारण करना और परोपकार के प्रत्येक सत्कर्मों में लगे रहना उसका स्वाभाविक काम था। इसी में उसने अपनी बहुमोल आयु और सब सम्पत्ति व्यय कर दी। जब वह इन धर्मकृत्यों को किया करता तो अपने मन में ऐसा कहता था कि––आज मैं जैसे इन लोगों को सहायता दे रहा हूँ, वैसे ही ये भी प्रसंग आने पर मुझको सहायभूत होंगे। परन्तु परमात्मा की इच्छा कौन जान सकता है? दैववशात् आजम प्रतिकूल काल के चक्कर में आन पड़ा, तब तो उसको अच्छी तरह अनुभव मिल गया कि यह संसार कैसा है। उसकी दीन दशा देख अब उसकी ओर कोई निहारता भी न था। जो लोग उसकी अच्छी अवस्था में निरन्त स्तुति करते थे, वे ही अब निन्दा करने लगे।
जो डरते थे, वे ही उपहास करने लगे; जो उसको सत्यवादी और सुशील कहते थे, वे ही ढोंगी और उड़ाऊ कहने लगे; जो उसके मित्र थे, वे केवल पराये और शत्रु-तुल्य हो गए। सारांश, उसकी सब स्थिति उलट-पलट हो गई और जब उसको यह मालूम हुआ कि अब मुझ पर कोई भी दया नहीं करता, तो उसके खेद और पाश्चात्ताप की परमावधि हो चुकी। फिर वह किसी एकान्त स्थान में बैठकर विचार करने लगा कि जिनके हृदय में पाप का भय, धर्म की श्रद्धा और नीति में पूज्य भाव नहीं है, उनके साथ क्षणमात्र भी रहना अच्छा नहीं। इनकी अपेक्षा बनचरों का समागम श्रेष्ठ है। परन्तु ऐसे खल, नीच, दुराचारियों का संग ठीक नहीं है। महात्माओं ने भी यही उपदेश किया है। कहा है कि 'वरं वनं व्याघ्रगजादि सेवितं' इसीलिए अब इन दुष्ट, पापी, कृतघ्न पुरुषों का साथ छोड़कर ऐसे निर्जन स्थान में रहना और शेष आयु अपनी आत्मा में संलग्न करना चाहिये जिससे अधर्मियों का स्पर्श भी न हो।
ऐसा सोचकर तारस नामक पर्वत के गगनचुम्बित शिखर पर जहाँ निविड़ अरण्य था, सिंहादि हिंस्र पशुओं के भयंकर शब्द सुनाई देते थे, प्रचंड वायु बड़े वेग से बहती थी, नदियों के प्रवाह की हृदयभेदक ध्वनि चहुँ और गूँज रही थी, अपनी जाति (मनुष्य) से द्वेष करने वाला आजम आ पहुँचा। वहाँ एक छोटी-सी गुहा थी। उसमें वह रहने लगा। उसमें हवा और पानी से बहुत बचाव होता था। दिन के समय बाहर इधर-उधर घूमकर बड़े कष्ट से कंद-मूल-फल इकट्ठा करता और किसी झरने के किनारे बैठकर अपनी प्यास बुझाया करता था। इस तरह अपना जीव बचाने के हेतु आवश्यक उपायों की रचना करके शरीर को सुख देने के लिए आनंद से सोता था। शेष समय इस बात के विचार और आनंद में बिताता था कि दुष्ट, कृतघ्न और अनुपकारी आदमियों से अब कुछ भी संबन्ध न रहा।
उस पर्वत-शिखर के नीचे एक बृहत् सरोवर था। उसमें पर्वत, वृक्ष, लता आदिक हर्षप्रद दृश्यों का प्रतिबिम्ब गिरने से अतीव रमणीय और शोभायमान दिखाई देता था। प्रकृति की यह अपूर्व शोभा देखने के लिए वह कभी-कभी वहाँ जाया करता था। जब वह ऊपर से नीचे उतरता तो चारों ओर विलक्षण सृष्टि-सौन्दर्य देखकर उसके मन में जो आनंद होता था, उसका वर्णन लेखनी से क्यों कर हो सकता है! उसके मन में ईश्वर की सर्वव्यापकता आदि के संबंध में उदात्त विचार आने लगते और ऐसे उद्गार निकलते थे कि अहाह! परमेश्वर की लीला कैसी अदभुत है! यह अरण्य स्वभावतः भयानक होता है, परंतु इस समय यह कितना मनोहर मालूम होता है। धन्य है प्रभु, धन्य है तुम्हारी कृति! कई लोग मन में समझते होंगे कि इस अरण्य से क्या लाभ है? परन्तु वास्तव में उसकी सुन्दरता और रमणीयता में उतना महत्व नहीं है जितना उसकी उपयोगिता में है। सैकड़ों नदियाँ यहाँ से उत्पन्न होकर नीचे बहती हैं जिनसे प्राणियों को केवल पानी ही का लाभ होता है, किन्तु उनके द्वारा कई देशों की फसल पकती है और मनुष्यों का व्यापार चलता है। यह अरण्य असंख्य प्राणियों का आश्रय-स्थान और अन्न-भंडार है। विविध वनस्पतियों से संयुक्त होकर मनुष्यों की व्याधि दूर करता है। सारांश, यह सब तरह से अच्छा और परोपकारी जान पड़ता है। परन्तु खेद का विषय है कि मनुष्य-जैसा दुष्ट, अधम, अनाचारी प्राणी इस जगत में कोई भी न होगा। जितने दुर्गुण हैं, वे सब उसी में भरे हैं। नदियों की उद्दाम बाढ़, विद्युल्लता, भूकंप और प्रचंड वायु तथा ज्वालामुखी पर्वत से एक बार जगत् का हित होना संभावित है, परन्तु मनुष्यों से नहीं हो सकता। हाय! हाय! जिसके दृष्ट कृत्यों से न्यायस्वरूप परमात्मा के कार्य को कलंक-सा लग जाता है, ऐसे मनुष्य-वर्ग में क्यों कर मैंने जन्म पाया। यदि मनुष्य में ये दुर्गुण न होते तो निःसंदेह यह संसार निष्कलंक हो जाता। परमेश्वर जैसा परम दयालु और न्यायी है, उसी प्रकार उसका बनाया जगत् भी होना चाहिये। हे सर्वसाक्षी! दयालय! जगदीश! मुझ दीन को ऐसे अज्ञान और नैराश्य सागर के संशय-रूपी भँवर में क्योंकर डाल रक्खा है? मेरी ओर तनिक कृपा की दृष्टि से देखो––ऐसा कहते-कहते एक समय आजम उस सुन्दर सरोवर के तट पर पहुँचा और यह सोचकर कि अब जीव धारण करने का कुछ अर्थ नहीं है, जलसमाधि लेने के निश्चय से आगे बढ़ा। ज्योंही वह उस अगाध जल में कूदने लगा, त्योंही एक वृद्ध मनुष्य जो गंभीर, विवेकशील और तेजस्वी दिखाई देता था, जल के पृष्ठ भाग पर से चलते-चलते उसी की ओर आता हुआ दीख पड़ा। उस समय वह इतना चकित हो गया कि जल में कूदने का अपना विचार बिलकुल भूल गया, और यह कोई प्रभावशाली दैवी पुरुष अपना दर्शन देने के लिये इधर आ रहा है––ऐसा समझ कर वहीं खड़ा हो गया।
वह दिव्य पुरुष आजम के पास आकर कहने लगा कि––"ये भाई! जरा धीरज धर, ऐसा अविचार मत कर, सर्वसाक्षी जगद्रक्षक परमेश्वर ने तेरा सदाचरण देख लिया है और तुझे समझाने के लिए मुझे यहाँ भेजा है। ले मेरा हाथ पकड़ और जिधर मैं जाऊँ, उधर मेरे साथ चला आ। डरने का कुछ प्रयोजन नहीं, तेरे समस्त संशयों को मैं दूर कर दूँगा। यह सुनते ही आजम उसके साथ चलने लगा। जब वे उस तड़ाग के मध्य भाग में पहुँचे तो देवदूत पानी के भीतर घुसा। आजम ने भी वैसा ही किया। इस तरह नीचे ही नीचे बहुत दूर तक चले जाने पर उनको एक नई सृष्टि दिखलाई दी। उसे देखते ही हमारे आजम को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि देखने में इस सृष्टि की रचना ठीक उसी के समान थी जिसे कि वह ऊपर छोड़ आया था।
आजम का चित्त अचम्भे में डूबा देख उस देवदूत ने कहा––"ऐ मित्र! किसी समय एक भक्त को तेरे ही समान मनुष्य के स्वभाव के विषय में शंका हुई थी। उसका निवारण करने के लिये जगदीश्वर ने यह नई सृष्टि निर्माण की है। यहाँ जैसे तू चाहता है, वैसे ही दुर्गुण-रहित मनुष्य रहते हैं। यह जगत तेरे ही जगत के समान है। भेद इतना ही है कि ये लोग अनीति अथवा पापाचरण कभी नहीं करते। तुझे यहाँ रहना हो तो खुशी से रह सकता है। परन्तु इस दुनिया का पूरा-पूरा हाल समझने में तुझे जो कठिनाई पड़ेगी, उसको दूर करने के लिये मैं सदैव तेरे साथ ही रहूँगा।" आजम यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ कि यह जगत दुर्गुणरहित है। "वाह! परमेश्वर ने मुझ पर बड़ी भारी कृपा की, मेरी इच्छानुसार रहने के लिये मुझे ऐसा रमणीय स्थान उसने दिया है। धन्य है! परमेश्वर धन्य है तेरी..."
"बस-बस" देवदूत ने बीच ही में कहा––"पहिले अपने चारों ओर अवलोकन करके जो कुछ पूछना है, सो पूछ ले और फिर धन्यवाद देने में निमग्न होना।"
इस प्रकार बातें करते-करते वे दोनों एक गाँव में पहुँचे। वहाँ देखते हैं तो मार्ग अत्यन्त संकीर्ण, उसमें भी घास जमी हुई है। घर तीन-तीन हाथ के ऊँचे और झोंपड़ी पान-पत्ते से बनी हुई। न तो वहाँ खेत, न खलियान, न बाग है, न बाजार। लोगों में परस्पर हेल-मेल भी नहीं है। हिंस्र पशु बस्ती में इधर-उधर घूम रहे हैं। आनंद या उत्सव का एक शब्द भी सुनाई नहीं देता। यह चमत्कार देखकर आजम ने कहा कि "मेरी पहली सृष्टि और इसमें इतना ही अंतर मालूम देता है कि वह बहुत सुधरी, उत्तम और उन्नत दशा को पहुँची हुई है और यह तो अभी केवल बाल्यदशा, अर्थात् जंगली अवस्था में है। वहाँ जैसे बलवान जीव दुर्बलों पर आक्रमण कर अन्याय करते हैं, वैसे ही यहाँ भी करते हैं न। छिः-छिः क्या करना? यदि परमेश्वर मेरा कहना मानता तो उपद्रव करने वाले प्राणियों को मैं यहाँ से निर्मूल ही करा देता। इन दुखी-दुर्बलों पर मुझे बड़ी दया आती है। पर क्या करूँ? कोई किसी को त्रास न दे और इस जगत में सबल और दुर्बल जीव अपनी-अपनी जगह खुशी से रहें तो कितने आनंद की बात होगी। उसका यह प्रस्ताव सुनकर देवदूत ने कहा कि "ऐ आजम! तू बड़ा दयावान है। परंतु विचार का स्थान है कि केवल वनस्पति, कंद, मूल और फल से सब प्राणियों का निर्वाह कैसे हो सकेगा। संपूर्ण जीव-सृष्टि के लिए यही आधार बस न होगा। इसीलिये परमेश्वर ने योजना की है कि कई एक पशु जीव-जन्तुओं पर ही अपनी गुजर करते हैं। यदि यह नियम न रहता और सब प्राणियों के लिए केवल अन्न ही का सहारा होता तो मनुष्य का जीवन कठिन हो जाता।"
ऐसी बातें हो रही थी कि इतने में आजम ने देखा कि दो-तीन बिल्लियाँ किसी आदमी के पीछे लगी हुई हैं और पीछे से खूब धूल उड़ रही है। आजम आश्चर्ययुक्त हो देवदूत से पूछने लगा कि, "महाराज! यह आदमी इन क्षुद्र प्राणियों का भय मानकर क्यों भाग रहा है?" उसी समय आजम ने एक और चमत्कार देखा। एक कुत्ता किसी आदमी के पीछे दौड़ रहा है और वह अपने प्राण बचाने के लिए बड़ी व्याकुलता से आश्रय ढूँढ़ रहा है। यह अद्भुत प्रकार के दृश्य देखते ही आजम की बुद्धि कुंठित हो गई। तब देवदूत की ओर झुक कर कहने लगा कि "महाराज! यह है भी तो क्या? मेरी समझ में कुछ नहीं आता। कृपा करके मुझे समझाइये।" देवदूत ने कहा, "ऐ आजम! इसमें कोई विशेष चमत्कार नहीं है। यहाँ सब लोग तेरे ही समान बड़े दयावान हैं। कहते हैं कि इन छोटे प्राणियों का मान तोड़कर उनको कष्ट देना ठीक नहीं है। उन्हें उनकी इच्छानुसार चलने देना चाहिए। किसी को थोड़ा-सा भी क्लेश देना बड़ा पाप है। इसीलिये यहाँ के सब जीव-जन्तु इतने प्रबल हो गये हैं और उनका कुल भी इतना बढ़ गया है कि वे किसी की कुछ परवाह नहीं करते और मनुष्य को सदैव त्रास दिया करते हैं।"
आजम ने जवाब दिया, "नहीं महाराज! नहीं!! इन प्राणियों को इतने प्रबल न होने दीजिये। इनको मारना ही उचित है। नहीं तो इसका परिणाम क्या होगा, आप प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं।" यह सुन देवदूत ने किंचित् मुसकराकर कहा––"क्यों भाई आजम! क्षुद्र जीवों पर तुम्हारे हृदय में जो करुणा आया करती थी, वह इस समय कहाँ चली गई? क्या तुम्हारी वह न्यायबुद्धि इतने ही में भाग गई? प्राणियों को दुःख देना अन्याय है न?" तुरन्त ही आजम के मन में बोध उत्पन्न हुआ। सिर हिलाकर कहने लगा, "नहीं-नहीं, हे गुरु महाराज! मैं भूल गया। मैंने जो कुछ कहा, वह व्यर्थ समझिये। यदि इस संसार में हम लोगों को रहना है तो अपने नीचे के वर्ग के प्राणियों पर अन्याय करने का पातक लेना ही होगा।" तब देवदूत ने कहा कि, "अन्य प्राणी और मनुष्यों में चाहे जो सम्बन्ध हो, अब मनुष्यों ही में परस्पर क्या सम्बन्ध है, सो देखना चाहिए।"