मानसरोवर २/२० नेउर

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद
[ २३२ ]

नेउर

आकाश में चाँदी के पहाड़ भाग रहे थे, टकरा रहे थे, गले मिल रहे थे, जैसे सूर्य-मेघ संग्राम छिड़ा हो। कभी छाया हो जाती थी, कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के दिन थे, उमस हो रही थी। हवा बन्द हो गई थी।

गाँव के बाहर कई मजूर एक खेत को मेंड़ बांध रहे थे। नंगे बदन, पसीने में तर, कछनी कसे हुए, सब-के-सब फावड़े से मिट्टी खोदकर मेंड़ पर रखते जाते थे। पानी से मिट्टी नरम हो गई थी।

गोबर ने अपनी कानी आंख मटकाकर कहा—अब तो हाथ नहीं चलता भाई। गोला भी छूट गया होगा, चबेना कर लें।

नेउर ने हँसकर कहा—यह मेंड़ तो पूरी कर लो, फिर चबेना कर लेना। मैं तो तुमसे पहले आया।

दोनों ने सिर पर झौवा उठाते हुए कहा—तुमने अपनी जवानी में जितना भी खाया होगा नेउर दादा, उतना तो अब हमें पानी भी नहीं मिलता।

नेउर छोटे डील का, गठीला, काला, फुर्तीला आदमी था। उम्र पचास से ऊपर थी, मगर अच्छे-अच्छे नौजवान उसके बराबर मेहनत न कर सकते थे। अभी दो-तीन साल पहले तक कुश्ती लड़ता था । जबसे गाय मर गई, कुश्ती लड़ना छोड़ दिया था।

गोबर—तुमसे बे तमाखू पिये केसे रहा जाता है नेउर दादा ! यहाँ तो चाहे रोटी न मिले , लेकिन तमाखू के बिना नहीं रहा जाता।

दीना—तो यहाँ से जाकर रोटो बनाओगे दादा ? बुढिया कुछ नहीं करती । हमसे तो दादा ऐसी मेहरिया से एक दिन न पटे।

नेउर के पिचके, खिचड़ी मूंछों से ढके मुख पर हास्य को स्मित रेखा चमक उठी, जिसने उसकी कुरुपता को भी सुन्दर बना दिया। बोला-जवानी तो उसीके साथ कटी है बेटा, अव उससे कोई काम नहीं होता, तो क्या करूँ। [ २३३ ]गोबर-तुमने उसे सिर चढा रखा है, नहीं काम क्यो न करती । मजे से खाट पर बैठी चिलम पीती रहती है और सारे गाँव से लड़ा करती है। तुम बूढे हो गये, लेकिन वह तो अब भी जवान बनी है।

दीना--जवान औरत उसकी क्या बरावरी करेगी। सेंदुर, टिकली, काजल, मेंहदी मे तो उसका मन बसता है। बिना किनारदार रंगीन धोती के उसे कभी देखा ही नहीं, उस पर गहनो से भी जी नहीं भरता । तुम गऊ हो, इससे निबाह हो जाता है, नहीं तो अब तक गली-गली ठोकरें खाती होती।

गोबर-मुझे तो उसके वनाव-सिंगार पर गुस्सा आता है। काम कुछ न करेगी; पर खाने-पहनने को अच्छा ही चाहिए।

नेउर-तुम क्या जानो बेटा, जब वह आई थी, तो मेरे घर में सात हल की खेती होती थी। रानी बनी बैठी रहती थी। जमाना बदल गया, तो क्या हुआ, उसका मन तो वही है । घड़ी-भर चूल्हे के सामने बैठ जाती है, तो आँखें लाल हो जाती हैं और मूड़ थामकर पड़ जाती है। मुझसे तो यह नहीं देखा जाता। इसी दिन-रात के लिए तो आदमी शादी-ब्याह करता है, और इसमें क्या रखा है। यहाँ से जाकर रोटी बनाऊँगा, पानी लाऊँगा, तब दो कौर खायगी, नहीं मुझे क्या था, तुम्हारी तरह चार फकी मारकर एक लोटा पानी पी लेता। जबसे बिटिया मर गई, तबसे तो वह और भी लस्त हो गई। यह बड़ा भारी धक्का लगा। मां की ममता हम-तुम क्या समझेंगे बेटा ! पहले तो कभी-कभी डाँट भी देता था। अब किस मुह से डाटूँ?

दीना-तुम कल पेड़ पर काहे को चढे थे, अभी गूलर कौन पकी है ?

नेउर-उस बकरी के लिए थोड़ी पत्ती तोड़ रहा था। विटिया को दूध पिलाने को बकरी ली थी । अव बुढ़िया हो गई है, लेकिन थोड़ा दूध दे देती है। उसीका दूध और रोटी तो बुढिया का आधार है।

घर पहुंचकर नेउर ने लोटा और डोर उठया और नहाने चला कि स्त्री ने खाट पर लेटे-लेटे कहा- इतनी देर क्यों कर दिया करते हो ? आदमी काम के पीछे परान थोड़े ही दे देता है। जब मजूरी सबके बराबर मिलती है, तो क्यों काम के पीछे मरते हो?

नेउर का अन्तःकरण एक माधुर्य से सराबोर हो गया। उसके आत्म-समर्पण [ २३४ ]
से भरे हुए प्रेम में 'मैं' की गन्ध भी तो नहीं थी। कितना स्नेह है। और किसे उसके आराम को, उसके मरने-जीने की चिन्ता है। फिर वह क्यों न अपनी बुढ़िया के लिए मरे । वोला -तू उस जनम मे कोई देची रही होगी बुधिया, सच ।

'अच्छा रहने दो यह चापलूसी। हमारे आगे अब कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए इतना हाय-हाय करते हो ?'

नेउर गज-भर की छाती किये स्नान करने चला गया। लोटकर उसने मोटी-मोटी रोटियां बनाई । आलू चूल्हे में डाल दिये थे। उनका भुरता बनाया ; फिर बुधिया और वह दोनों साथ खाने बैठे।

बुधिया-मेरो जात से तुम्हे कोई सुख न मिला । पढे-पढे खाती हूँ और तुम्हे तंग करती हूँ। इससे तो कहीं अच्छा था कि भगवान् मुझे उठा लेते।

'भगवान् आयेंगे तो मैं कहूँगा, पहले मुझे ले चलो। तब इस सूनो झोपड़ी में कोन रहेगा।'

'तुम न रहोगे, तो मेरी क्या दसा होगी, यह सोचकर मेरी आँखों में अंधेरा आ जाता है। मैंने कोई बढ़ा पुन किया था कि तुम्हें पाया। किसी और के साथ मेरा भला क्या निबाह होता।'

ऐसे मोठे संतोष के लिए नेउर क्या नहीं कर डालना चाहता था । आलसिन, लोभिन, स्वार्थिन बुधिया अपनी जीभ पर केवल मिठास रखकर नेउर को नचाती रहती थी, जैसे कोई शिकारी कँटिये में चारा लगाकर मछली को खेलाता है।

पहले कौन मरे, इस विषय पर आज यह पहली बार बातचीत न हुई थी। इसके पहले भी स्तिनी हो बार यह प्रश्न उठा था और यों ही छोड़ दिया गया था, लेकिन न-जाने क्यो नेउर ने अपनी डिग्री कर ली थी और उसे निश्चय था कि पहले मैं जाऊँगा। उसके पीछे भी बुधिया जब तक रहे, आराम से रहे, किसीके सामने हाथ न फैलाये, इसी लिए वह मरता रहता था, जिसमें हाथ में चार पैसे जमा हो जायें। कठिन-से-कठिन काम, जिसे कोई न कर सके, नेउर करता । दिन-भर फावड़े-कुदाल का काम करने के बाद रात को वह ऊख के दिनों में किसी को ऊख पेरता, या खेतों की रखवाली करता; लेक्नि दिन निकलते जाने थे और जो कुछ कमाता था, वह भी निकलता जाता था। बुधिया के बगैर यह जीवन..... नहीं, इसकी यह कल्पना हो न कर सकता था। [ २३५ ]लेकिन आज की बातो ने नेउर को सशंक कर दिया । जल में एक बूंद रग की भाँति यह शंका उसके मन मे समाकर अतिरंजित होने लगी।

( २ )

गांव में नेउर को काम की कमी न थी; पर मजूरी तो वही मिलती थी, जो अब तक मिलती आई थी। इस मन्दी में वह मजूरी भी नहीं रह गई थी। एकाएक गांव में एक साधु कहीं से घूमते-फिरते आ निकले और नेउर के घर के सामने ही पीपल की छाँह में उनकी धूनी जल गई । गांववालों ने अपना धन्य भाग्य समझा । बाबाजी का सेवा-सत्कार करने के लिए सभी जमा हो गये। कहीं से लकड़ी आ गई, कहीं से बिछाने को कम्बल, कहीं से आटा-दाल । नेउर के पास क्या था ? बावाजी के लिए भोजन बनाने की सेवा उसने ली। चरस आ गई, दम लगने लगा।

दो-तीन दिन में ही बावाजी की कीर्ति फैलने लगी । वह आत्मदर्शी हैं, भूत- भविष्य सब बता देते हैं। लोभ तो छू नहीं गया। पैसा हाथ से नहीं छूते, और भोजन भी क्या करते हैं ! आठ पहर मे एक-दो बाटियां खा ली , लेकिन मुख दीपक की तरह दमक रहा है। कितनी मीठी बानी है ! सरल हृदय नेउर बावाजी का सबसे बड़ा भक्त था। उस पर कहीं बाबाजी की दया हो गई, तो पारस ही हो जायगा । सारा दुख-दलिद्दर मिट जायगा ।

भक्तजन एक-एक करके चले गये थे। खूब कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। केवल नेउर बैठा बावाजी के पाँव दबा रहा था ।

बाबाजी ने कहा-बच्चा, संसार माया है, इसमे क्यो फँसे हो ?

नेउर ने नत-मस्तक होकर कहा -अज्ञानी हूँ महाराज, क्या करूँ ? स्त्री है, उसे किस पर छोडूं ।

'तू समझता है, तू स्त्री का पालन करता है ?'

'और कौन सहारा है उसे बाबाजी ?'

'ईश्वर कुछ नहीं है, तू ही सब कुछ है ?'

नेउर के मन में जैसे ज्ञान उदय हो गया 1 तू इतना अभिमानी हो गया है ! तेरा इतना दिमाग । मजूरी करते-करते जान जाती है और तू समझता है, मैं ही बुधिया का सब कुछ हूँ। प्रभु, जो सारे संसार का पालन करते हैं, तू उनके काम में
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दखल देने का दावा करता है। उसके सरल, ग्रामीण हृदय मे आस्था की एक ध्वनि- सी उठकर उसे धिकारने लगी। बोला-अज्ञानी हूँ, महाराज !

इससे ज्यादा वह और कुछ न कह सका। आँखों से दोन विषाद के आंसू गिरने लगे।

बाबाजी ने तेजस्विता से कहा-देखना चाहता है ईश्वर का चमत्कार । वह चाहे तो क्षण-भर मे तुझे लखपती कर दे। क्षण-भर में तेरी सारी चिन्ताएँ हर ले ! मैं उसका एक तुच्छ भक्त हूँ काकविष्ठा ; लेकिन मुझमें भी इतनी शक्ति है कि तुझे पारस बना दूं। तू साफ दिल का, सञ्चा, ईमानदार आदमी है। मुझे तुझ पर दया आती है। मैंने इस गांव मे सबको ध्यान से देखा । किसीमें भक्ति नहीं, विश्वास नहीं । तुझमें मैंने भक्त का हृदय पाया । तेरे पास कुछ चाँदी है ?

नेउर को जान पड़ रहा था सामने स्वर्ग का द्वार है।

'दस-पांच रुपये होगे महाराज !'

'कुछ चाँदी के टूटे-फूटे गहने नहीं हैं ?'

'घरवाली के पास कुछ गहने हैं।'

'कल रात को जितनी चाँदी मिल सके, यहां ला और ईश्वर की प्रभुता देख । तेरे सामने मैं चांदी को हाँड़ी में रखकर इसी धूनो मे रख दूँगा। प्रात काल आकर हाँड़ी निकाल लेना , मगर इतना याद रखना कि उन अशर्फियों को अगर शराब पीने में, जुआ खेलने में या किसी दूसरे बुरे काम में खर्च किया, तो कोढी हो जायगा । अब जा, सो रह । ही, इतना और सुन ले , इसकी चर्चा किसी से मत करना । घर- वाली से भी नहीं।'

नेउर घर चला, तो ऐसा प्रसन्न था, मानो ईश्वर का हाथ उसके सिर पर है। रात-भर उसे नींद नहीं आई। सबेरे उसने कई आदमियो से दो-दो, चार-चार रुपये उधार लेकर पचास रुपये जोड़े। लोग उसका विश्वास करते थे। कभी किसीका एक पैसा भी न दबाता था। वादे का पक्का, नीयत का साफ । रुपये मिलने मे दिवकत न हुई। पचीस रुपये उसके पास थे। बुधिया से गहने कैसे ले ? चाल चली। तेरे गहने बहुत मैले हो गये हैं। खटाई से साफ कर ले। रात-भर सटाई में रहने से नये हो जायेंगे। बुधिया चकमे में आ गई। हॉडी में खटाई ढालकर गहने भिगो दिये। जब रात को वह सो गई, तो नेउर ने रुपये भी उसी हांडी में डाल दिये और
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बाबा के पास पहुँचा ! बाबाजी ने कुछ मन्त्र पढा। हाँड़ी को धूनी को राख में रखा और नेउर को आशीर्वाद देकर विदा किया।

रात-भर करवटें बदलने के बाद नेउर मुंह-अँधेरे बाबा के दर्शन करने गया ; मगर बाबा का वहां पता न था। अधीर होकर उसने धूनी की जलती हुई राख टटोली । हाँडी गायब थी। छाती धक-धक करने लगी। बदहवास होकर बाबा को खोजने लगा। हार की तरफ गया। तालाब की ओर पहुंचा। दस मिनट, बीस मिनट, आध घण्टा ! बाबा का कहीं निशान नहीं । भक्त आने लगे। बाबा कहां गये ? कम्बल भी नहीं, बरतन भी नहीं ।

एक भक्त ने कहा-रमते साधुओं का क्या ठिकाना ! आज यहाँ, कल वहाँ, एक जगह रहे, तो साधु कैसे ! लोगों से हेल-मेल हो जाय, बन्धन में पड़ जायँ ।

'सिद्ध थे।'

'लोभ तो छू नहीं गया था।'

नेउर कहाँ है ? उस पर बड़ी दया करते थे। उससे कह गये होंगे।'

नेउर की तलाश होने लगी, कहीं पता नहीं। इतने मे बुधिया नेउर को पुकारती हुई घर में से निकली! फिर कोलाहल मच गया। बुधिया रोती थी और नेउर को गालियां देती थी।

नेउर खेतों की मेड़ों से बेतहाशा भागता चला जाता था, मानो इस पापी संसार से निकल जायगा।

एक आदमी ने कहा-नेउर ने कल मुझसे पांच रुपये लिये थे । को देने कहा था ।

दूसरा-हमसे भी दो रुपये आज ही के वादे पर लिये थे।

बुधिया रोई-डाढ़ीजार मेरे सारे गहने ले गया। पचीस रुपये रखे थे, वह भी उठा ले गया।

लोग समझ गये, बावा कोई धूर्त था। नेउर को झांसा दे गया । ऐसे-ऐसे ठग पड़े हैं ससार में | नेउर के बारे मे किसीको ऐसा सन्देह नहीं था। बेचारा सीधा आदमी, आ गया पट्टी में। मारे लाज के कहीं छिपा बैठा होगा।

(३)

तीन महीने गुजर गये।

झाँसी जिले में धसान नदी के किनारे, एक छोटा-सा गांव है काशीपुर । नदी के
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किनारे एक पहाड़ी टोला है। उसी पर कई दिन से एक साधु ने अपना आसन जमाया है । नाटे कद का आदमी है, काले तवे का सा रंग, देह गठी हुई है। यह नेउर है, जो साधु-वेश मे दुनिया को धोखा दे रहा है-वही सरल, निष्कपट नेउर, जिसने कभी पराये माल की ओर आंख नहीं उठाई, जो पसीना की रोटी खाकर मगन था। घर और गांव की और बुधिया की याद एक क्षण भी उसे नहीं भूलती, इस जीवन में फिर कोई दिन आयेगा कि वह अपने घर पहुंचेगा और फिर उस संसार मे हँसता-खेलता अपनी छोटी-छोटी चिन्ताओं और छोटी-छोटी आशाओं के चोच आनन्द से रहेगा ! वह जीवन कितना सुखमय था | जितने थे, सब अपने थे, सभी आदर करते थे, सहानुभूति रखते थे। दिन भर की मजूरी थोड़ा-सा अनाज या थोड़े-से पैसे लेकर घर आता था, तो बुधिया कितने मोठे स्नेह से उसका स्वागत करती थी। वह सारी मेहनत, सारी थकावट जैसे उस मिठास मे सनकर और मीठी हो जाती थी । हाय ! वह दिन फिर कब आयेंगे ? न जाने वुधिया कैसे रहतो होगी। कौन उसे पान को तरह फेरेगा, कोन उसे पकाकर खिलायेगा। घर में पैसा भी तो नहीं छोड़ा, गहने तक डुबा दिये। तव उसे क्रोध आता कि उस बाबा को पा जाय, तो कच्चा हो खा जाय । हाय लोभ ! लोभ !

उसके अनन्य भक्तों में एक सुन्दरी युवती भी थी, जिसके पति ने उसे त्याग दिया था। उसका बाप फौजी पेंशनर था । एक पढ़े-लिखे आदमी से लड़की का विवाह किया , लेकिन लड़का माँ के कहने में था और युवती को अपनी सास से न पटती थी। वह चाहती थी, शौहर के साथ सास से अलग रहे, शौहर अपनी माँ से अलग होने पर राजी न हुआ। बहू रूठकर मैके चली आई। तबसे तीन साल हो गये थे ओर ससुराल से एक बार भी बुलावा न आया, न पतिदेव ही आये। युवती किसी तरह पति को अपने वश मे कर लेना चाहती थी। महात्माओं के लिए किसीका दिल फेर देना ऐसा क्या मुश्किल है । हाँ, उनको दया चाहिए ।

एक दिन उसने एकान्त मे बाबाजी से अपनी विपत्ति कह सुनाई। नेउर को जिस शिकार की टोह थी, वह आज मिलता हुआ जान पड़ा । गम्भीर भाव से बोला- बेटी, मैं न सिद्ध हूँ, न महात्मा, न मैं संसार के झमेले मे पड़ता हूँ, पर तेरी सरधा और परेम देखकर तुझ पर दया आती है। भगवान ने चाहा, तो तेरा मनोरथ पूरा हो जायगा। [ २३९ ]'आप समर्थ हैं और मुझे आपके ऊपर विश्वास है।'

'भगवान् की जो इच्छा होगी, वही होगा।'

'इस अभागिनी का डोगा आप ही पार लगा सकते हैं।'

'भगवान्' पर भरोसा रखो।'

'मेरे भगवान् तो आप ही हो।'

नेउर ने मानो धर्म-संकट में पड़कर कहा-लेकिन बेटी, उस काम में बड़ा अनुष्ठान करना पड़ेगा, और अनुष्ठान मे सैकड़ों-हजारो का खर्च है। उस पर भी तेरा काज सिद्ध होगा या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। हाँ, मुझसे जो कुछ हो सकेगा, वह मैं कर दूंगा , पर सब कुछ भगवान् के हाथ में है। मैं माया को हाथ से नहीं छूता; लेकिन तेरा दुख नहीं देखा जाता।

उसी रात को युवती ने अपने सोने के गहनों की पेटारी लाकर बाबाजी के चरणों पर रख दी। बावाजी ने काँपते हुए हाथो से पेटारी खोली और चन्द्रमा के उज्ज्वल प्रकाश में आभूषणों को देखा। उनकी आँखे झपक गई । यह सारी माया उनकी है । वह उनके सामने हाथ बांधे खड़ी कह रही है-- मुझे अंगीकार कीजिए । कुछ भी तो करना नहीं है ; केवल पेटारी लेकर अपने सिरहाने रख लेना है और युवती को आशीर्वाद देकर बिदा कर देना है। प्रातःकाल वह आयेगी। उस वक्त वह उतनी दूर होंगे, जहां तक उनकी टाँगे ले जायँगी। ऐसा आशातीत सौभाग्य ! जब वह रुपयों से भरी थैलियां लिये गांव में पहुंचेंगे और बुधिया के सामने रख देंगे । ओह ! इससे बड़े आनन्द की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकते ।

लेकिन न जाने क्यों इतना ज़रा-सा काम भी उससे नहीं हो सकता। वह पेटारी को उठाकर अपने सिरहाने, कंबल के नीचे दबाकर नहीं रख सकता। है कुछ नहीं पर उसके लिए असूझ है, असाध्य है। वह उस पेटारी की ओर हाथ भी नहीं बढ़ा सकता। हाथों पर उसका कोई बस नहीं। जाने दो हाथ, ज़बान से तो कह सकता है। इतना कहने में कौन-सी दुनिया उलटी जाती है कि बेटी, इसे उठाकर इस कंबल के नीचे रख दे। जबान कट तो न जायगो , मगर अब उसे मालूम होता है कि ज़बान पर भी उसका काबू नहीं है । आँखो के इशारे से भी यह काम हो सकता है, लेकिन इस समय आंखें भी बगावत कर रही हैं। मन का राजा इतने मन्त्रियों और सामन्तों के होते हुए भी अशक्त है, निरीह है। लाख रुपये की थैली सामने रखी
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हो, नगी तलवार हाथ में हो , गाय मजबूत रस्सी से सामने बँधी हो, क्या उस गाय की गरदन पर उसके हाथ उठेंगे ? कभी नहीं। कोई उसकी गरदन भले ही काट ले। वह गऊ की हत्या नहीं कर सकता। वह परित्यक्ता उसे उसी गऊ की तरह लग रही थी। जिस अवसर को वह तोन महोने से खोज रहा है, उसे पाकर आज उसकी आत्मा कांप रही है । तृष्णा किसी वन्य जन्तु की भांति अपने संस्कारों से आखेटप्रिया है, लेकिन जंजीर में बंधे-बंधे उसके नख गिर गये हैं और दाँत कमजोर हो गये हैं।

उसने रोते हुए कहा-बेटी, पेटारी को उठा ले जाओ। मैं तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। तुम्हारा मनोरथ पूरा हो जायगा ।

चांद नदी के उस पार वृक्षों की गोद में विश्राम कर चुका था। नेउर धीरे से उठा और धसान मे स्नान करके एक और चल दिया। भभूत और तिलक से उसे घृणा हो रही थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह घर से निकला ही कैसे। थोड़े-से उपहास के भय से ! उसे अपने अन्दर एक विचित्र उल्लास का अनुभव हो रहा था, मानो वह बेड़ियों से मुक्त हो गया हो, कोई बहुत बड़ी विजय प्राप्त की हो ।

(४)

आठवें दिन नेउर अपने गांव पहुँच गया। लड़कों ने दौड़कर, उछल-कूदकर, उसकी लकड़ी उसके हाथ से छीनकर, उसका स्वागत किया।

एक लड़के ने कहा--काकी तो मर गई दादा !

नेउर के पाँव जैसे बंध गये । मुंह के दोनो कोने नीचे झुक गये। दीन विषाद आँखों में चमक उठा। कुछ बोला नहीं, कुछ पूछा भी नहीं। पलभर जैसे निस्सग खड़ा रहा, फिर बड़ी तेजी से अपनी झोपड़ी की ओर चला। बालकवृन्द भी उसके पोछे दौड़े , मगर उनको शरारत और चचलता भाग गई थी।

झोपड़ी खुली पड़ी थी। बुधिया की चारपाई जहाँ-की-तहाँ थी। उसकी चिलम और नारियल ज्यों-के-त्यो धरे हुए थे। एक कोने मे दो-चार मिट्टी और पीतल के बरतन पड़े हुए थे। लड़के बाहर ही खड़े रह गये । झोपड़ी के अन्दर कैसे जायें, वहाँ बुधिया बैठी है।

गांव में भगदड़ मच गई। नेउर दादा आ गये। झोपड़ो के द्वार पर भीड़ लग गई। प्रश्नों का तांता बंध गया-तुम इतने दिन कहाँ थे दादा ? तुम्हारे जाने के बाद
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तीसरे ही दिन काकी चल बसी । रात-दिन तुम्हे गालियाँ देती थी। मरते-मरते तुम्हें गरियाती ही रही। तीसरे दिन आये, तो मरी पड़ी थी। तुम इतने दिन कहाँ रहे ?

नेउर ने कोई जवाब न दिया। केवल शून्य, निराश, करुण, आहत नेत्रों से लोगों को ओर देखता रहा, मानो उसकी वाणी हर गई है। उस दिन से किसीने उसे बोलते या रोते या हॅसते नहीं देखा

गाँव से आध मोल पर पक्को सड़क है । अच्छी आमद-रफ्त है । नेउर बड़े सबेरे जाकर सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ जाता है। किसीसे कुछ मांगता नहीं; 'पर राहगीर कुछ न कुछ दे ही देते हैं-चवेना, अनाज, पैसे ! संध्या समय वह अपनी झोपड़ी में आ जाता है, चिराग जलाता है, भोजन बनाता है, खाता है और उसी खाट पर पड़ रहता है। उसके जीवन मे जो एक सचालक-शक्ति थी, वह लुप्त हो गई है। वह अब केवल जीवधारी है। कितनी गहरी मनोव्यथा है। गांव में प्लेग आया। लोग घर छोड़ छोड़कर भागने लगे । नेउर को अब किसीको परवा न थी। न किसीको उससे भय था, न प्रेम। सारा गाँव भाग गया, नेउर ने अपनी झोपड़ी न छोड़ी, तब होली आई, सबने खुशियां मनाई, नेउर अपनी झोपड़ी से न 'निकला; और आज भी वह उसी पेड़ के नीचे, सड़क के किनारे, उसी तरह मौन बैठा हुआ नजर आता है, निश्चेष्ट, निर्जीव !



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