मानसरोवर २/२२ क़ानूनी कुमार

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

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कानूनी कुमार

मि° कानूनी कुमार, एम्. एल. ए. अपने आफिस मे समाचार-पत्रो, पत्रि- काओं, रिपोर्टों का एक ढेर लिए बैठे हैं। देश की चिन्ताओं से उनकी देह स्थूल हो गई है , सदैव देशोद्धार की फिक्र में पड़े रहते हैं । सामने पार्क है । उसमे कई लड़के खेल रहे हैं। कुछ परदेवाली स्त्रियाँ भी है, फेसिग के सामने बहुत-से भिखमंगे बैठे हुए हैं, एक चायवाला एक वृक्ष के नीचे चाय बेच रहा है।

कानूनी कुमार-(आप-ही-आप) देश की दशा कितनी खराब होती चली जाती है । गवर्नमेट कुछ नहीं करती। बस, दावत खाना और मौज उड़ाना उसका काम है। (पार्क की ओर देखकर) आह ! यह कोमल कुमार सिगरेट पी रहे हैं । शोक, महा- शोक । कोई कुछ नहीं कहता, कोई इसके रोकने की कोशिश नहीं करता। तम्बाकू कितनी जहरीली चीज़ है । वालको को इससे कितनी हानि होती है, यह कोई नहीं जानता । ( तम्बाकू की रिपोर्ट देखकर ) ओफ । रोगटे खड़े हो जाते हैं। जितने बालक अपराधी होते है, उनमें ७५ प्रति सैकड़े सिगरेटबाज होते हैं। बड़ी भयंकर दशा है । हम क्या करें ! लाख स्पीचें दो, कोई सुनता ही नहीं। इसको कानून से रोकना चाहिए, नहीं तो अनर्थ हो जायगा । ( कागज़ पर नोट करता है ) तम्बाकू बहि- ष्कार-बिल पेश करूँगा। कौंसिल खुलते ही यह बिल पेश कर देना चाहिए। (एक क्षण के बाद फिर पार्क की और ताकता है, और परदेदार महिलाओं को घास पर बैठे देखकर लम्बी साँस लेता है । )

राजब है, कितना घोर अन्याय ! कितना पाशविक व्यवहार ! यह कोमलांगी सुन्द- रियां चादर में लिपटी हुई कितनी भद्दी, कितनी फूहड़ मालूम होती हैं । अभी तो देश का यह हाल हो रहा है । ( रिपोर्ट देखकर ) स्त्रियों की मृत्यु-संख्या बढ रही है। तपेदिक उछलता चला आता है, प्रसूति की बीमारी आंधी की तरह चढी आती है, और हम हैं कि आँखें बन्द किये पड़े हैं । वहुत जल्द ऋषियों की
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यह भूमि, यह वीर-प्रसविनी जननी रसातल को चली जायगी, इसका कहीं निशान भी न रहेगा। गवर्नमेंट को क्या फिक्र! लोग कितने पाषाण हो गये हैं । आँखों के -सामने यह अत्याचार देखते हैं, और ज़रा भी नहीं चौंकते। यह मृत्यु का शैथिल्य है। यहाँ भी कानून की ज़रूरत है। एक ऐसा कानून बनना चाहिए, जिससे कोई स्त्री परदे मे न रह सके। अब समय आ गया है कि इस विषय में सरकार कदम बढ़ावे । कानून की मदद के बगैर कोई सुधार नहीं हो सकता, और यहाँ कानूनी मदद की जितनी जरूरत है उतनी और कहाँ हो सकती है। माताओं पर देश का भविष्य अवलम्बित है । परदा-हटान-बिल पेश होना चाहिये। जानता हूँ बड़ा विरोध होगा; लेकिन गवर्नमेंट को साहस से काम लेना चाहिए, ऐसे नपुंँसक विरोध के भय से उद्धार के कार्य में बाधा नहीं पड़नी चाहिए। ( कागज पर नोट करता है ) यह बिल भी असेम्बली मे खुलते ही पेश कर देना होगा। बहुत विलम्ब हो चुका, अब 'दिलब की गुजाइश नहीं है । वरना मरीज़ का अन्त हो जायगा।

( मसौदा बनाने लगता है--हेतु और उद्देश्य-....

सहसा एक भिक्षुक सामने आकर पुकारता है- जय हो सरकार की, लक्ष्मी फूले फले,.....

कानूनी-~-हट जाओ, यू सुअर, कोई काम क्यों नहीं करता ?

भिक्षुक - बड़ा धर्म होगा सरकार, मारे भूख के आँखों-तले अँधेरा......)

कानूनी-चुप रहो सूअर, हट जाओ सामने से, अभी निकल जाओ, बहुत दूर निकल जाओ।

( मसौदा छोड़कर फिर आप-ही-आप )

यह ऋषियो की भूमि आज भिक्षुकों की भूमि हो रही है, जहाँ देखिए, यहाँ रेवड़-के-रेवड़ और दल-के-दल भिखारी ! यह गवर्नमेंट की लापरवाही की वरकत है। इङ्गलेंड मे कोई भिक्षुक भीख नही माँग सकता ! पुलिस पकड़कर काल-कोठरी में बन्द कर दे । किसी सभ्य देश में इतने भिखमगे नहीं हैं । यह पराधीन, गुलाम भारत है, जहाँ ऐसी बातें इन बीसवीं सदी में भी सम्भव है। उफ । कितना शक्ति का अपव्यय हो रहा है । ( रिपोर्ट निकालकर ) ओह ! ५० लाख ! ५० लाख आदमी केवल भिक्षा मागकर गुज़र करते हैं और क्या ठीक है कि संख्या इसकी दुगुनी न हो। यह पिशा लिखाना कौन पसन्द करता है। एक करोड़ से कम भिखारी इस देश में नही
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हैं। यह तो भिखारियो को बात हुई, जो द्वार-द्वार झोली लिए घूमते हैं। इसके उपरान्त टोकाधारी, कोपीनधारी और जटाधारी समुदाय भी तो है, जिसको संख्या कम से कम दो करोड़ होगी। जिस देश मे इतने हरामखोर, मुफ्त का माल उड़ाने- वाले, दूसरो को कमाई पर मोटे होनेवाले प्राणी हों, उनकी दशा क्यों न इतनी हीन हो । आश्चर्य यही है कि अबतक यह देश जीवित कैसे है ! ( नोट करता है) एक बिल को सख्त जरुरत है, तुरन्त पेश करना चाहिए -नाम हो 'भिखमंगा-बहिष्कार बिल !' खूब जूतियां चलेंगी, धर्म के सूत्रधार खूब नाचेंगे, खूब गालियां देंगे, गवर्नमेंट भी कन्नी काटेगी , मगर सुवार का मार्ग तो कटकाकीणं है ही। तीनों बिल मेरे ही नाम से हो, फिर देखिए कैसी खलबली मचती है।

(आवाज़ आती है ...चाय गरम ! चाय गरम !! मगर ग्राहकों की संख्या बहुत कम है। कानूनी कुमार का ध्यान चायवाले की ओर आकर्षित हो जाता है । )

कानूनी-( आप-ही-आप ) चायवाले की दूकान पर एक भी ग्राहक नहीं, क्या मूर्ख देश है। इतनी बलवर्द्धक वस्तु और ग्राहक कोई नहीं । सभ्य देशो में पानी की जगह चाय पी जाती है । ( रिपोर्ट देखकर ) इङ्गलैड मे पाँच करोड़ पौण्ड की चाय जाती है। इङ्गलैंडवाले मूर्ख नहीं हैं। उनका आज संसार पर आधिपत्य है, इसमें चाय का कितना बड़ा भाग है, कौन इसका अनुमान कर सकता है। और यहां वेचारा चायवाला खड़ा है, और कोई उसके पास नहीं फटकता। चीनवाले चाय पी-पीकर स्वाधीन हो गये , मगर हम चाय न पीयेंगे। क्या अकल है। गवर्नमेट का सारा दोष है। कीटो से भरे हुए दूध के लिए इतना शोर मचता है , भगर चाय को कोई नहीं पूछता, जो कीटों से खाली, उत्तेजक और पुष्टिकारक है ! सारे देश की मति मारी गई है । ( नोट करता है ) गवर्नमेट से प्रश्न करना चाहिए। असेम्बली खुलते- ही प्रश्नों का तांता बांध दूंगा।

प्रश्न-क्या गवर्नमेट बताएगी कि गत पांच सालों मे भारतवर्ष में चाय की खपत कितनी बढ़ी है, और उसका सर्वसाधारण में प्रचार करने के लिए गवर्नमेंट ने क्या कदम लिये हैं।

(एक रमणी का प्रवेश । कटे हुए केश, आड़ी मांग, पारसी रेशमी साड़ी, कलाई पर घड़ी, आँखों पर ऐनक, पाँव मे ऊँची एड़ी की लेडी शू, हाथ मे एक वटुवा लटकाये हुए, साड़ी में ब्रूच है, गले में मोतियों का हार ।) [ २५९ ]कानूनी--( हाथ बढाकर ) हल्लो मिसेज़ बोस ! आप खूब आई', कहिए, किधर की सैर हो रही है। अबक्री तो 'आलोक' में आपको कविता बड़ी सुन्दर थी। मैं तो पढकर मस्त हो गया। इस नन्हें-से हृदय में इतने भाव कहाँ से आ जाते हैं, मुझे आश्चर्य होता है। शब्द-विन्यास की तो आप रानी हैं। ऐसे-ऐसे चोट करनेवाले भाव आपको कैसे सुझ जाते हैं ?

मिसेज़ बोस--दिल जलता है, तो उसमें आप-से-आप धुएँ के बादल निकलते जव तक स्त्री-समाज पर पुरुषों का यह अत्याचार रहेगा, ऐसे भावों को कमी न रहेगी।

कानूनी-क्या इधर कोई नयी बात हो गई।

बोस-रोज़ ही होती रहती है। मेरे लिए डाक्टर बोस की आज्ञा नहीं कि किसी से मिलने जाओ, या कहीं सैर करने जाओ। अबको कैसी गरमी पड़ी है कि सारा रक्त जल गया; पर मैं पहाड़ों पर न जा सकी। मुझसे यह अत्याचार, यह गुलामी नहीं सही जाती।

कानूनी---डाक्टर बोस खुद भी तो पहाड़ों पर नहीं गये।

बोस-वह न जायें, उन्हें धन की हाय-हाय पड़ी है। मुझे क्यों अपने साथ लिये मरते हैं ? वह क्लब नहीं जाना चाहते, उनका समय रुपये उगलता है, मुझे क्यों रोकते हैं ? वह खद्दर पहनें, मुझे क्या अपने पसन्द के कपड़े पहनने से रोकते हैं ? वह अपनी माता और भाइयों के गुलाम बने रहे, मुझे क्यों उनके साथ रो- रोकर दिन काटने पर मजबूर करते हैं ? मुझसे यह बरदाश्त नहीं हो सकता । अमे- रिका में एक कटु वचन कहने पर सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। पुरुष जरा देर से घर आया और स्त्री ने तलाक दिया। वह स्वाधीनता का देश है, वहाँ लोगों के विचार स्वाधीन हैं। यह गुलामों का देश है, यहाँ हरएक बात में उसी गुलामी की छाप है । मैं अब डाक्टर बोस के साथ नहीं रह सकती । नाकों दम आ गया। इसका उत्तरदायित्व उन्हीं लोगों पर है, जो समाज के नेता और व्यवस्थापक बनते हैं। अगर आप चाहते हैं कि स्त्रियों को गुलाम बनाकर स्वाधीन हो जायें, तो यह अनहोनी बात है। जब तक तलाक का कानून न जारी होगा, आपका स्वराज्य आकाश-कुसुम ही रहेगा। डाक्टर बोस को आप जानते हैं, धर्म में उनकी कितनी श्रद्धा है। खब्त कहिए। मुझे धर्म के नाम से घृणा है। इसी धर्म ने स्त्री-जाति को पुरुष की दासी
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बना दिया है। मेरा बस चले, तो मैं सारे धर्म की पोथियो को उठाकर परनाले में फेक हूँ।

(मिसेज ऐयर का प्रवेश । गोरा रग, ऊँचा कद, ऊँचा गाउन, गोल हाँडी की- सी टोपी, आँखो पर ऐनक, चेहरे पर पाउडर, गालों और ओठों पर सुर्ख पेंट, रेशमी जुर्राबें और ऊँची एड़ी के जूते । )

कानूनी-( हाथ वढाकर ) हल्लो मिसेज ऐयर, आप खूब आई , कहिए, किधर की सैर हो रही है ? 'आलोक' मे अबको आपका लेख अत्यन्त सुन्दर था, मैं तो पढकर दंग रह गया।

मिसेज ऐयर-( मिसेज़ बोस की ओर मुसकिराकर ) दग ही तो रह गये, या कुछ किया भी ? हम स्त्रियां अपना कलेजा निकालकर रख दें; लेकिन पुरुषों का दिल न पसीजेगा।

बोस-- सत्य | बिलकुल सत्य ।

ऐयर-मगर इस पुरुष राज का बहुत जल्द अन्त हुआ जाता है। स्त्रियाँ अब कैद मे नहीं रह सकतीं । मि० ऐयर की सूरत में नहीं देखना चाहती।

(मिसेज बोस मुंह फेर लेती हैं। )

कानूनो-(मुसकिराकर ) मि० ऐयर तो खूबसूरत आदमी हैं।

लेडी ऐयर-उनकी सूरत उन्हे मुबारक रहे। मैं खूबसूरत पराधीनता नहीं चाहती, बदसूरत स्वाधीनता चाहती हूँ। वह मुझे अबकी जबरदस्ती पहाड़ पर ले गये। वहाँ की शीत मुझसे नहीं सही जाती, कितना कहा कि मुझे मत ले जाओ , मगर किसी तरह न माना। मैं किसी के पीछे-पीछे कुतिया की तरह नहीं चलना चाहती।

(मिसेज़ बोस उठकर खिड़की के पास चली जाती हैं।)

कानूनी-अब मुझे मालूम हो गया कि तलाक का विल असेम्बली में पेश करना पड़ेगा।

ऐयर- खैर, आपको मालूम तो हुआ , मगर शायद कयामत में ?

कानूनी- नहीं मिसेज़ ऐयर, अवकी छुट्टियों के बाद ही यह विल पेश होगा; और धूमधाम के साथ पेश होगा। बेशक पुरुषों का अत्याचार बढ़ रहा है। जिस प्रथा का विरोध आप दोनो महिलाएं कर रही हों, वह अवश्य हिन्दू-समाज के लिए
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घातक है। अगर हमे सभ्य बनना है, तो सभ्य देशों के पद-चिन्हों पर चलना पड़ेगा। धर्म के ठीकेदार चिल्ल-पो मचायेगे, कोई परवाह नहीं। उनकी खबर लेना आप दोनों महिलाओं का काम होगा। ऐसा बनाना कि मुंह न दिखा सकें।

लेडी ऐयर-पेशगी धन्यवाद देती हूँ। ( हाथ मिलाकर चली जाती है।)

मीसेज़ बोस-(खिड़की के पास से आकर ) आज इसके घर में घी का चिराग जलेगा । यहाँ से सीधे बोस के पास गई होगी। मैं भी जाती हूँ।

(चली जाती है।)

कानूनी कुमार एक कानून की किताब उठाकर उसमे तलाक की व्यवस्था देखने लगता है, कि मि आचार्या आते हैं । मुंह साफ, एक आंख पर ऐनक, खाकी आधे बांह का शर्ट, निकर, ऊनी मोजे, लम्बे बूट। पीछे एक छोटा टेरियर कुत्ता भी है।

कानूनी-हल्लो मि० आचार्य, आप खूब आये, आज किधर की सैर हो रही है ? होटल का क्या हाल है ?

आचार्या-कुत्ते की मौत मर रहा है। इतना बढिया भोजन, इतना साफ-सुथरा मकान, ऐसी रोशनी, इतना आराम, फिर भी मेहमानों का दुर्भिक्ष । समझ मे नहीं आता, अब कितना निर्ख घटाऊँ। इन दामों अलग घर मे मोटा खाना भी नसीब नहीं हो सकता। उस पर सारे ज़माने की झंझट, कभी नौकर का रोना, कभी दूध वाले का रोना, कभी धोबी का रोना, कभी मेहतर का रोना ; यहां सारे जंजाल से मुक्ति हो जाती है। फिर भी आधे कमरे खाली पड़े हैं।

कानूनी- यह तो आपने बुरी खबर सुनाई ।

आचार्या-पच्छिम में क्यो इतना सुख और शान्ति है, क्यों इतना प्रकाश और धन है, क्यों इतनी स्वाधीनता और बल है। इन्हीं होटलो के प्रसाद से ! होटल पश्चिमी गौरव का मुख्य अंग है, पश्चिमी सभ्यता का प्राण है , अगर आप भारत को उन्नति के शिखर पर देखना चाहते हैं, तो होटल जीवन का प्रचार कीजिए। इसके सिवाय दूसरा उपाय नहीं है। जब तक छोटी-छोटी घरेलू चिन्ताओ से मुक्त न हो जायेंगे, आप उन्नति कर ही नहीं सकते। राजा, रईसो को अलग घरो मे रहने दीजिए, वह एक की जगह दस खर्च कर सकते हैं। मध्यम श्रेणीवालों के लिए होटल के प्रचार में हो सब कुछ है। हम अपने सारे मेहमानों की फिक्र अपने सिर
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लेने को तैयार हैं, फिर भी जनता की आँखें नहीं खुलती। इन मूर्खों की आँखें उस वक्त तक न खुलेंगी, जब तक कानून न बन जायगा।

कानूनी-( गम्भीर भाव से) हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ। ज़रूर कानून से मदद लेनी चाहिए । एक ऐसा कानून बन जाय, कि जिन लोगों की आय ५००) से कम हो, वह होटलो में रहे। क्यो ?

आचार्या-आप अगर यह कानून बनवा दें, तो आनेवाली सन्तान आपको अपना मुक्तिदाता समझेगी। आप एक कदम मे देश को ५०० वर्ष की मंजिल तय करा देंगे।

कानूनी--तो लो, अबकी यह कानून झो असेम्बली खुलते ही पेश कर देगा। बड़ा शोर मचेगा। लोग देश-द्रोही और जाने क्या-क्या कहेगे, पर इसके लिए तैयार हूँ। कितना दु ख होता है, जब लोगेा को अहीर के द्वार पर लुटिया लिये खड़ा देखता हूँ। स्त्रियो का जीवन तो नरक-तुल्य हो रहा है। सुबह से दस-बारह बजे रात तक घर के धन्धों से फुरसत नहीं। कभी बरतन मांजो, कभी भोजन वनाओ, कभी झाड़ू लगाओ। फिर स्वास्थ्य कैसे बने, जीवन कैसे सुखो हो, सैर कैसे करें, जीवन के आमोद-प्रमोद का आनन्द कैसे उठावे, अध्ययन कैसे करें। आपने खूब कहा, एक कदम में ५०० सालो की मंजिल पूरी हुई जाती है

आचार्या-तो अबकी विल पेश कर दीजिएगा ?

कानूनी-अवश्य !

( आचार्या हाथ मिलाकर चला जाता है)

कानूनी कुमार खिड़की के सामने खड़ा होकर 'होटल-प्रचार-विल' का मसविदा सोच रहा है । सहसा पार्क में एक स्त्री सामने से गुजरती है। उसकी गोद में एक बच्चा है, दो बच्चे पीछे-पीछे चल रहे हैं, और उदर के उभार से मालूम होता है कि गर्भवती भी है। उसका कृश शरीर, पीला मुख और मन्द गति देखकर अनुमान होता है कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ है, और इस भार का वहन करना उसे कष्टप्रद है।

कानूनी कुमार-( आप ही-आप ) इस समाज का, इस देश का और इस जीवन का सत्यानाश हो, जहाँ रमणियों को केवल बच्चा जनने की मशीन समझा जाता है। इस बेचारी को जीवन का क्या सुख ! कितनी ही ऐसी बहनें इसी जंजाल

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में फंसकर ३०, ३५ की अवस्था मे, जब कि वास्तव में जीवन को सुखी होना चाहिए, रुग्ण होकर संसार-यात्रा समाप्त कर देती हैं। हा भारत ! यह विपत्ति तेरे से कब टलेगी ! संसार में ऐसे-ऐसे पाषाण-हृदय मनुध्य पड़े हुए हैं, जिन्हें इन दुखिया- रियों पर जरा भी दया नहीं आती। ऐसे अन्धे, ऐसे पाषाण, ऐसे पाखंडी समाज को, जो स्त्री को अपने वासनाओ की वेदी पर बलिदान करता है, कानून के सिवा और किस विधि से सचेत किया जाय। और कोई उपाय नहीं है। नर-हत्या का जो दण्ड है, वही दंड ऐसे मनुष्यों को मिलना चाहिए । मुबारक होगा वह दिन, जब भारत मे इस नाशिनी प्रथा का अन्त हो जायगा --स्त्री का मरण, बच्चो का मरण और जिस समाज का जीवन ऐसी संतानों पर आधारित हो उसका मरण ! ऐसे लदमाशो को क्यों न दण्ड दिया जाय ? कितने अन्धे लोग हैं। बेकारी का यह हाल कि आधी जन संख्या मक्खियां मार रही हैं, आमदनी का यह हाल कि सर-पेट किसीको रोटियाँ नहीं मिलती, बच्चों को दुध स्वप्न मे भी नहीं मिलता, और यह अन्धे हैं कि बच्चे-पर-बच्चे पैदा करते जाते हैं। 'सतान-निग्रह-बिल' की जितनी ज़रूरत है, इस समय देश को उतनी और किसी कानून की नहीं। असेंबली खुलते हो यह बिल पेश करुंगा। प्रलय हो जायगा, यह जानता हूँ; पर और उपाय ही क्या है। दो बच्चों से ज्यादा जिसके हो, उसे कम-से-कम पाँच वर्ष की कैद, उसमे पांच महीने से कम काल-कोठरी न हो । जिसकी आमदनी सौ रुपये से कम हो, उसे संतानोत्पत्ति का अधिकार ही न हो (मन में उस चिल के बाद की अवस्था का आनन्द लेकर ) कितना सुखमय जीवन हो जायगा ! हां, एक दफा यह भी रहे कि एक संतान के बाद कम-से-कम सात वर्ष तक दूसरी सतान न आने पावे। तब इस देश में सुख और सतोष का साम्राज्य होगा, तब स्त्रियों और बच्चों के मुंह पर खून की सुखी नज़र आयेगी, तब मजबूत हाथ-पाँव और मजबूत दिल और जिगर के पुरुष उत्पन्न होंगे।

(मिसेज़ कानूनी कुमार का प्रवेश)

कानूनी कुमार जल्दी से रिपोर्टों और पत्रों को समेट देता है, और एक उपन्यास खोलकर बैठ जाता है।

मिसेज़-क्या कर रहे हो ? वही धुन !

कानूनी--एक उपन्यास पढ रहा हूँ।

मिसेज़-तुम सारी दुनिया के लिए कानून बनाते हो, एक कानून मेरे लिए भी
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बना दो, इससे देश का जितना बड़ा उपकार होगा, उतना और किसी कानून से न होगा । तुम्हारा नाम अमर हो जायगा और घर-घर तुम्हारी पूजा होगी!

कानूनी-- अगर तुम्हारा ख्याल है कि मैं नाम और यश के लिए देश की सेवा कर रहा हूँ, तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने मुझे रत्ती भर भी नहीं समझा।

मिसेज---नाम के लिए कोई बुरा काम नहीं है, और तुम्हे यश की आकांक्षा हो, तो मैं उसकी निन्दा न करूँगो, भूलकर भी नहीं। मैं तुम्हे एक ही ऐसौ तदबीर बता दूंगी, जिससे तुम्हे इतना यश मिलेगा कि तुम ऊब जाओगे। फूलों की इतनी वर्षा होगी कि तुम उसके नीचे दब जाओगे। गले में इतने हार पड़ेंगे कि तुम सीधा न कर सकोगे।

कानूनी--(उत्सुकता को छिपाकर)--कोई मज़ाक की बात होगी। देखो मिन्नी कास करनेवाले आदमी के लिए इससे बड़ी दूसरी बाधा नहीं है कि उसके घरवाले उसके काम को निन्दा करते हों । मैं तुम्हारे इस व्यवहार से निराश हो जाता हूँ।

मिसेज--तलाक का कानून तो बनाने जा रहे हो, अव क्या डर है।

कानूनी-फिर वही मज़ाक ! मैचाहता हूँ, तुम इन प्रश्नो पर गम्भीर विचार करो।

मिसेज़ -मैं बहुत गम्भीर विचार करता हूँ। सच मानो । मुझे इसका दुःख है कि तुम मेरे भावों को नहीं समझते । मैं इस वक्त तुमसे जो बात कहने जा रही हूँ, उसे मैं देश को उन्नति के लिए आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक समझती हूँ। मुझे इसका पक्का विश्वास है।

कानूनी--पूछने की हिम्मत तो नहीं पड़ती। ( अपनी झेप मिटाने के लिए हँसता है।)

मिसेज- मैं तो खुद हो कहने आई हूँ। हमारा वैवाहिक जीवन कितना लज्जा- स्पद है, तुम खूब जानते हो । रात-दिन रगड़ा-झगड़ा मचा रहता है। कहीं पुरुष स्त्री पर हाथ साफ कर लेता है, कहीं स्त्री पुरुष की मूँछो के बाल नोचती है। हमेशा एक-न-एक गुल खिला ही करता है । कहीं एक मुँह फुलाये बैठा है, कहीं दूसरा घर छोड़कर भाग जाने की धमकी दे रहा है। कारण जानते हो क्या है ? कभी सोचा है ? पुरुषों की रसिकता और कृपणता ! यही दोनों ऐब मनुष्यों के जीवन को नरक- तुल्य बनाये हुए हैं। जिधर देखो, अशान्ति है, विद्रोह है, बाधा है। साल में लाख
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हत्याएँ इन्हीं बुराइयों के कारण हो जाती हैं, लाखो स्त्रियाँ पतित हो जाती हैं, पुरुष मद्य-सेवन करने लगते हैं, यह वात है या नहीं ?

कानूनी--बहुत-सी बुराइयाँ ऐसी हैं, जिन्हे कानून नहीं रोक सकता ।

मिसेज़-(कहकहा मारकर ) अच्छा, क्या आप भी कानून को अक्षमता स्वीकार करते हैं ? मैं यह न समझती थी। मैं तो कानून को ईश्वर से ज्यादा सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् समझती हूँ।

कानूनी-फिर तुमने मज़ाक शुरू किया ।

मिसेज़--अच्छा, लो कान पकड़ती हूँ। अब न हँसूँगी । मैंने उन बुराइयों को रोकने का एक कानून सोचा है। उसका नाम होगा--'दम्पति-सुख-शान्ति-बिलं'। उसकी दो मुख्य धाराएँ होंगी और कानूनी बारीकियाँ तुम ठीक कर लेना । एक धारा होगी कि पुरुष अपनी आमदनी का आधा बिना कान-पूछ हिलाये स्त्री को दे दे। अगर न दे, तो पांच साल कठिन कारावास और पांच महीने काल-कोठरी । दूसरी धारा होगी, पन्द्रह से पचास तक के पुरुष घर से बाहर न निकलने पावें ; अगर कोई निकले, तो दस साल कारावास और दस महीने कालकोठरी । बोलो, मजूर है ?

कानूनी--( गम्भीर होकर ) असम्भव, तुम प्रकृति को पलट देना चाहती हो। कोई पुरुष घर में कैदी बनकर रहना स्वीकार न करेगा।

मिसेज़--वह करेगा और उसका बाप करेगा । पुलिस डडे के ज़ोर से करायेगी। न करेगा, तो चक्की पीसनी पड़ेगी। करेगा कैसे नहीं ? अपनी स्त्री को घर की मुर्गी समझना, और दूसरी स्त्रियों के पीछे दौड़ना क्या खालाजी का घर है ? तुम अभी इस कानून को अस्वाभाविक समझते हो । मत धबड़ाओ, स्त्रियो का अधिकार होने दो। यह पहला कानून न बन जाय, तो कहना, कोई कहता था। स्त्री एक-एक पैसे के लिए तरसे, और आप गुलछर्रे उड़ायें। दिल्लगी है । आधी आमदनी स्त्री को दे देनी पड़ेगी, जिसका उससे कोई हिसाब न पूछा जा सकेगा।

कानूनी--तुम मानव-समाज को मिट्टी का खिलौना समझती हो।

मिसेज़--कदापि नहीं । मैं यही समझती हूँ, कि कानून सब कुछ कर सकता है। मनुष्य का स्वभाव भी बदल सकता है।

कानूनी-कानून यह नहीं कर सकता ।

मिसेज़— कर सकता है। [ २६६ ]कानूनी-नहीं कर सकता।

मिसेज़ कर सकता है , अगर वह ज़बरदस्ती लड़को को स्कूल भेज सकता है। अगर वह जबरदस्ती विवाह की उम्र नियत कर सकता है , अगर वह ज़बरदस्ती बच्चों को टीका लगवा सकता है, तो वह जबरदस्ती पुरुषो को घर में बन्द भी कर सकता है, उनकी आमदनी का आधा स्त्रियों को दिला भी सकता है । तुम कहोगे, पुरुष को कष्ट होगा । जबरदस्ती जो काम कराया जाता है, उसमे करनेवाले को कष्ट होता है। तुम उस कष्ट का अनुभव नहीं करते, इसीलिए वह तुम्हें नहीं अखरता। मैं यह नहीं कहती कि सुधार ज़रूरी नहीं है। मैं भी शिक्षा का प्रचार चाहती हूँ, मैं भी बाल-विवाह बंद करना चाहती हूँ, मैं भी चाहती हूँ, बीमारियों न फैले , लेकिन कानून बनाकर ; ज़बरदस्ती यह सुधार नहीं करना चाहती। लोगो मे शिक्षा और जागृति फैलाओ, जिसमें कानूनी भय के बगैर यह सुधार हो जाय । आपसे कुरसी तो छोड़ी जाती नहीं, घर से निकला जाता नही , शहरो की विलासिता को एक दिन के लिए भी नहीं त्याग सकते और सुधार करने चले हैं आप देश का । इस तरह सुधार न होगा , हाँ, पराधीनता की बेड़ी और कठोर हो जायगी।

(मिसेज़ कुमार चली जाती है, और कानूनी कुमार अव्यवस्थित-चित्त-सा कमरे में टहलने लगता है।)


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