सामग्री पर जाएँ

मानसरोवर २/२५ नया विवाह

विकिस्रोत से
मानसरोवर २
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २८७ से – ३०१ तक

 




नया विवाह

हमारी देह पुरानी है, लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता है। नये रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरन्तन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में, एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भांति, गूंँजता रहता है, और यह सौ साल की बुढिया आज भी नवेली दुलहन बनी हुई है।

जबसे लाला डगामल ने नया विवाह किया है, उनका यौवन नये सिरे से जाग उठा है। जब पहली स्त्री जीवित थी तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रात: से दस- ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दूकान चले नाते। वहाँ से एक बजे रात को लौटते और थके-माँदे सो जाते । यदि लीला कभी कहती, जरा और सबेरे आ जाया करो तो बिगड़ जाते और कहते--तुम्हारे लिए क्या दुकान छोड़ दूं या रोजगार बन्द कर दूं। यह वह जमाना नहीं है कि एक लोटा जल चढा- कर लक्ष्मी प्रसन्न कर ली जाय । आज-कल उनकी चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता ! लीला बेचारी चुप हो जाती।

अभी छः महीने की बात है । लीला को ज्वर चढा हुआ था। लालाजी दूकान जाने लगे तब उसने डरते-डरते कहा था- देखो मेरा जी अच्छा नहीं है । जरा सवेरे आ जाना।

डगामल ने पगड़ी उतारकर खूटी पर लटका दी और बोले-~-अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाय तो मैं दूकान न जाऊँगा।

लीला हताश होकर बोली- मैं दूकान जाने को तो नहीं मना करती। केवल ज़रा सबेरे आने को कहती हूँ।

'तो क्या मैं दूकान पर बैठा मौज किया करता हूँ ?'

लीला इसका क्या जवाब देती ! पति का यह स्नेहहीन व्यवहार उसके लिए कोई

नयी बात न थी। इधर कई साल से उसे इसका कठोर अनुभव हो रहा था कि उसकी घर में कद्र नहीं है। वह अक्सर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर अपना कोई अपराध वह न पाती। वह पति की सेवा अब पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हलका करने की बराबर चेष्टा करती रहती, बराबर प्रसन्नचित्त रहती, कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती ! अगर उसको जवानी ढल चुकी थी तो इसमें उसका क्या अपराध था ? किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती है। अगरः अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था तो इसमें उसका क्या दोष ? उसे बे कसूर क्यों दण्ड दिया जाता है।

उचित तो यह था कि २५ साल का साहचर्य अब एक गहरी मानसिक और आत्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता है, जो पक्के फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादा मीठा, ज्यादा सुन्दर हो जाता है । लेकिन लालाजी का चणिक हृदय हर एक पदार्थ को वाणिज्य को तराजू से तौलता था। बूढी गाय जब न दूध दे सक्ती है, न बच्चे, तब उसके लिए गोशाला ही सबसे अच्छी जगह है। उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि घर की मालकिन बनी रहे, आराम से खाय और पड़ी रहे। उसे अख्तियार है चाहे जितने ज़ेवर वन- वाये, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दूर रहे । मानव प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डगामल जिस आनन्द से लीला को वंचित रखना. चाहते थे, जिसकी उसके लिए कोई ज़रूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते रहते थे। लीला ४० वर्ष की होकर बूढी समझ ली गई थी, किन्तु वे पैतालीस के होकर अभी जवान ही थे, जवानी के उन्माद और उल्लास से भरे हुए लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोशन की आड़ लेती; तब लालाजी उसके बूढे नखरो से और भी घृणा करने लगते। वे कहते--- वाह री तृष्णा ! सात लड़को की तो मां हो गई, वाल खिचड़ी हो गये, चेहरा धुले हुए. फलालैन की तरह सिकुड़ गया, मगर आपको अभी महावर, सेंटुर, मेहदी और उबटन हवस बाकी ही है । औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र है। न जाने क्यों बनाव- सिगार पर इतना जान देती हैं ? पूछी, अब तुम्हे और क्या चाहिए। क्यो नहीं मन को समझा लेती कि जवानी बिदा हो गई और इन उपादानों से वह वापस नहीं बुलाई

जा सकती है लेकिन वे खुद जवानी का स्वप्न देखते रहते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शान्त न हुई थी। जाड़ों में रसों और पाकों का सेवन करते रहते थे । हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डाक्टर से संकोग्लैंड के विषय में पत्र- व्यवहार कर रहे थे।

लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर स्वर में पूछा-कुछ बतला सकते हो, के बजे आओगे।

लालाजी ने शान्तभाव से पूछा--तुम्हारा जी आज कैसा है ?

लीला क्या जवाब दे ? अगर कहती है कि बहुत खराब है तो शायद ये महाशय, वहीं बैठ जाये और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकाले । कहती है कि अच्छी हूँ तो शायद निश्चिन्त होकर दो बजे तक कहीं खबर लें। इस दुविधा में डरते-डरते बोली-अब तक तो हलकी थी, लेकिन अब कुछ भारी हो रही है। तुम जाओ, दूकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हाँ, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना । लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, जी घबराता है।

सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा-बारह बजे तक आ जाऊँगा ज़रूर 1

लीला का मुख धूमिल हो गया । उसने कहा दस बजे तक नहीं आ सकते ?

'साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।'

'नहीं साढे दस।'

'अच्छा ग्यारह बजे।'

लालाजी वादा करके चले गये, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा। इस निमन्त्रण को कैसे इनकार कर देते । जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहां की भल्मनसाहत है कि आप उसका निमन्त्रण अस्वीकार कर दें।

लालाजी मुजरा सुनने चले गये, दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में जाकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, प्रतिक्षण विकल वेदना का अनुभव करती हुई न-जाने कब सो गई थी।

अन्त को इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ा। लालाजी

को उसके मरने का बड़ा दुःख हुआ। मित्रों ने समवेदना के तार भेजे । एक दैनिक पत्र ने शोक प्रकट करते हुए लीला के मानसिक और धार्मिक सद्गुणों का खूब बढ़ा- कर वर्णन किया। लालाजी ने इन सभी मित्रों को हार्दिक धन्यवाद दिया और लोला के नाम से बालिका विद्यालय में पांच वजीफे प्रदान किये। और मृतक-भोज तो जितने समारोह से किया गया, वह नगर के इतिहास में बहुत दिनो तक याद रहेगा।

लेकिन एक महीना भी न गुजरने पाया था कि लालाजी के मित्रों ने चारा डालना शुरू कर दिया और उसका यह असर हुआ कि छ महीने को विधुरता के तप के बाद उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। आखिर बेचारे क्या करते ? जीवन में एक सहचरी को आवश्यकता तो थी ही, और इस उम्र मे तो एक तरह से अनिवार्य हो गई थी।

( २ )

जबसे नयी पत्नी आई, लालाजी के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । दूकात से सब उन्हें उतना प्रेम नहीं था। लगातार हफ्तों न जाने से भी उनके कार- वार में कोई हर्ज नहीं होता था । जीवन के उपभोग की जो शक्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, अब वह छोटे पाकर सजीव हो गई थी, सूखा पेड़ हरा हो गया था, उसमे नयी-नयो कोपलें फूटने लगी थीं। मोटर नया आ गया था, कमरे नये फर्नीचर से सजा दिये गये थे, नौकरो की भी संख्या बढ गई थी, रेडियो आ पहुँचा था, और प्रतिदिन नये-नये उपहार आते रहते थे। लालाजी की बूढ़ी जवानी जवानो की जवानी से भी प्रखर हो गयी थी, उसी तरह जैसे विजली का प्रकाश चन्द्रमा के प्रकाश से ज्यादा स्वच्छ और नेत्ररक्षक होता है। लालाजी को उनके मित्र इस रूपान्तर पर बधाइयां देते, तब वे गर्व के साथ कहते-भई, हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेगे। बुढापा यहाँ आये तो उसके मुंह मे कालिख लगाकर गधे पर उलटा सवार कराके शहर से निकाल दें। जवानी और वुढापे को न जाने क्यो लोग अवस्था से सम्बद्ध कर देते हैं । जवानी का उम्र से उतना ही सम्बन्ध है, जितना धर्म का आचार से, रुपये का ईमानदारी से, रूप का शृङ्गार से। आजकल के जवानी को आप जवान कहते हैं ? मैं उनकी एक हजार जवानियों को अपने एक घंटे से भी न बदलूंगा। मालूम होता है उनकी ज़िन्दगी में कोई उत्साह ही नहीं, कोई शोक ही नहीं । जीवन क्या है, गले मे पड़ा हुआ एक ढोल है। यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के हृदय-पटल पर अकित करते रहते थे। उससे बराबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते। लेकिन आशा को न जाने क्यों इन बातों से ज़रा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-टूल करने के बाद । एक दिन लालाजी ने आकर कहा-चलो आज बजरे पर दरिया की सैर करें ।

वर्षा के दिन थे, दरिया चढा हुआ था, मेघ मालाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं की भौति रग-बिरगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलार और बारहमासे गाते चलते थे । बागों में झूले पड़ गये थे।

आशा ने बेदिली से कहा--मेरा जी तो नहीं चाहता।

लालाजी ने मृदु प्रेरणा के साथ कहा-"तुम्हारा मन कैसा है, जो आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता ? चलो, जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ, बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।

'आप जाय । मुझे और कई काम करने हैं।'

'काम करने को आदमी हैं। तुम क्या काम करोगी?'

'महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठेगे तो योहो उठ जायेंगे।'

'लीला अपने अवकाश का बढ़ा भाग लालाजी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने मे ही लगाती थी। उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख रसना का स्वाद ही रह जाता है

लालाजी को आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे कितना प्रेम है कि वह दरिया की सैर को उनको सेवा के लिए छोड़ रही है। एक लीला थी कि मान-न-मान चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, खामखाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।

स्नेह-भरे उलहने से बोले--तुम्हारा मन भी विचित्र है। अगर एक दिन सालन फीका ही रहा, तो ऐसा क्या तूफान आ जायगा। तुम तो मुझे विलकुल निकम्मा बनाये देती हो । अगर तुम न चलोगी तो मैं भी न जाऊँगा।

आशा ने जैसे गले से फन्दा छुड़ाते हुए कहा--आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा-धुमाकर मेरा मिज़ाज़ बिगाड़े देते हैं । यह आदत पड़ जायगी तो घर का धन्धा कौन करेगा? 'मुझे घर के धन्धे को रत्ती-सर भी परवा नहीं-वाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिज़ाज़ बिगड़े और तुम इस गृहस्थी की चक्की से दूर रहो। और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो ? मैं चाहता हूँ, तुम मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियां दो, धौल जमाओ। तुम तो मुझे 'आप' कहकर जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो। मैं अपने घर में देवता नहीं, चंचल बालक बनना चाहता हूँ।

आशा ने मुसकिराने की चेष्टा करके कहा -भला मैं आपको 'तुम' कहूँगी । तुम घराबरवालों को कहा जाता है कि बड़ों को,!

मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनाई होती तो भी शायद लालाजी को इतना दुख न होता जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ । उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठढा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगिये रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तजेब का बेलदार कुर्त्ता जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे, यह सारा ठाट जैसे उन्हें हास्य-जनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मंत्र से उतर गया हो ।

निराश होकर वोले-तो तुम्हें चलना है या नहीं ?

'मेरा जी नहीं चाहता।'

'तो मैं भी न जाऊँ?'

'मैं आपको कब मना करती हूँ ।'

'फिर 'आप' कहा।

लीला ने जैसे भीतर से ज़ोर लगाकर कहा–'तुम' और उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्क हो गया।

'हां, इसी तरह 'तुम' कहा करो। तो तुम नहीं चल रहो हो ? अगर मैं कहूँ तुम्हें चलना पड़ेगा तो?'

'तब चलूंगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है ।'

लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने से लगे। खिसियाये हुए बाहर को चल पड़े। उस वक्त आशा को उन पर दया आ गई । बोलो-तो कब तक लौटोगे ?

'मैं नहीं जा रहा हूँ।' 'अच्छा, तो मैं भी चलती हूँ।'

जैसे कोई ज़िद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरों से ठुकरा देता है, उसी तरह लालाजी ने मुंह बनाकर कहा--तुम्हारा जी नहीं चाहता तो न चलो । मैं आग्रह नहीं करता।

'आप...नहीं तुम बुरा मान जाओगे।'

आशा गई लेकिन उमंग से नहीं । जिस मामूली वेष में थी, उसी तरह चल खड़ी हुई । न कोई सजौली साड़ी, जड़ाऊ गहने, न कोई सिगार, जैसे कोई विधवा हो।

ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुमला उठते थे। व्याह किया था जीवन का आनन्द उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक मे तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए । अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ तो तेल डालने से लाभ ? न जाने इसका मन क्यों इतना शुष्क और नीरस है, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो, कितना ही पानी डालो, उसमें हरी पत्तियों के दर्शन न होगे । जड़ाऊ गहनों से भरी पेटारियां खुली हुई हैं, कहाँ-कहाँ से मॅगवाये, दिल्ली से, कलकत्ते से फ्रांस से । कैसी-कैसी बहु- मूल्य साड़ियां रखी हुई हैं । एक नहीं सैकड़ों। पर केवल सन्दूक में कीड़ों का भोजन बनने के लिए। दरिद्र-घर की लड़कियों में यही ऐब होता है। उनकी दृष्टि सदैव सकीर्ण रहती है । न खा सके, न पहन सके, न दे सकें। उन्हे तो खजाना भी मिल जाय तो यही सोचती रहेगी कि इसे खर्च कैसे करें।

दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनन्द न आया ।

( ३ )

कई महीने तक आशा की मनोवृत्तियों को जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इसकी पैदाइश ही मुहर्रमी है । लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उससे अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की वणिक प्रवृत्ति को कैसे त्याग देते ? विनोद की नयी-नयो योजनाएं पैदा की जाती-ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया है, गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निक- लती, तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठाकर रख देना तो मूर्खता है ।

इधर बूढा महराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था और उसकी जगह उसका सत्रह-अठारह साल का जवान लड़का आ गया था---कुछ अजीव गवार था, बिलकुल झगड़ उजड। कोई बात ही न समझता था। जितने फुलके बनाता

उतनी तरह के। हाँ, एक बात समान होती। सब वीच में मोटे होते, किनारे पतले, दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय, कभी इतनी गाढ़ी जैसे दही। नमक कभी इतना कम कि बिलकुल फीकी, कभी इतना तेज़ कि नीबू का शाकीन । आशा मुँह- हाथ धोकर चौके में पहुँच जाती और इस ढपोरसख को भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा-तुम कितने नालायक आदमी हो जुगल । आखिर इतनी उन तक तुम घास खोदते रहे या भाड़ झोंकते रहे कि फुलके तक नहीं बना सकते । जुगल आँखों में आँसू भरकर कहता-बहुजी, अभी मेरी उम्र ही क्या है। सत्रहवां ही तो पूरा हुआ है।

आशा को उसकी बात पर हँसी आ गई। उसने कहा-~तो रोटियां पकाना क्या दस-पांच साल में आता है ?

'आप एक महीना सिखा दें बहुजी, फिर देखिए, मै आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाय । जिस दिन हमें फुलके बनाने आ जायेंगे, मैं आपसे कोई इनाम लूंगा । सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ, क्यों न ?'

आशा ने हौसला बढानेवाली मुसकराहट के साथ कहा-सालन नहीं, वह बनाने आता है । अभी कल ही नमक इतना तेज़ था कि खाया न गया। मसाले में कचाहँद आ रही थी।

'मैं जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थीं ?'

'अच्छा, तो मैं जब यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढ़िया पकेगा ?'

'आप बैठी रहती है तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है।'

आशा को जुगल की इन भोली बातों पर खूब हँसी आ रही थी। हँसी को रोकना चाहती थी, पर वह इस तरह निकल पड़ती थी, जैसे भरी बोतल उड़ेल दी गई हो।

'और मैं नहीं रहती तब?'

'तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठती है।'

'वहाँ बैठकर क्या किया करती है ?'

'वहाँ बैठकर अपनी तकदीर को रोती है।'

आशा ने हँसी को रोककर पूछा-क्यों, रोती क्यों है ?

'यह न पूछिए, बहुजी, आप इन बातों को नहीं समझेगी।

२० आशा ने उसके मुंह की ओर प्रश्न की आँखों से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गई, पर न समझने का बहाना किया।

'तुम्हारे दादा आ जायेंगे तब तुम चले जाओगे?'

'और क्या करूँगा बहूजी। यहां कोई काम दिलवा दीजिएगा तो पड़ा रहूँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूँगा। नहीं, नहीं बहुजी, आप हट जाइए मैं पतोली उतार लूंगा। ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी, कहाँ कोई दाग पड़ जाय तो क्या हो ?'

आशा पतीलो उतार रही थी । जुगल ने उनके हाथ से सॅड्सी ले लेनी चाही।

'दूर रहो। फूहड़ तो तुम हो ही । कहीं पतीली पांव पर गिरा ली तो महीनों झीकोगे।'

जुगल के मुख पर उदासी छा गई।

आशा ने मुसकराकर पूछा - क्यों, मुंह क्यों लटक गया सरकार का ?

जुगल रुआंसा होकर वोला-आप मुझे डांट देती हैं वहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता है। सरकार कितना ही घुड़के, मुझे बिलकुल ही दुख नहीं होता। आपको नज़र कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता है।

आशा ने दिलासा दिया। मैंने तुम्हें डॉटा तो नहीं, केवल यही तो कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पडे तो क्या हो ?

'हाथ ही तो आपका भी है। कहीं आपके हाथ से ही छूट पड़े तो ?'

लाला डगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा--आशा, ज़रा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुन्दर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कसरे के सामने रखे जायेंगे। तुस यहाँ धुएँ-धक्कड़ में क्यों हलाकान होती हो। इस लड़के से कह दो, जल्दी महाराज को बुलाये। नहीं मैं कोई दूसरा आदमी रख लूंगा। महाराजों की कमी नहीं है। आखिर कब तक कोई रिआयत करे गधे को जरा भी तमौज नहीं आई। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को।

चूल्हे पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इन्तजार कर रहा था। एसी हालत में भला आशा कैसे गमले देखने जाती? उसने कहा-जुगल सारी रोटियां टेढ़ी-मेढ़ी बेल डालेगा।

लालाजी ने कुछ चिढ़कर कहा-अगर रोटियां टेढो-मेढी वेलेगा, तो निकाल दिया जायगा।

आशा अनसुनी करके बोली-दस-पाँच दिन में सीख जायगा। निकालने की क्या ज़रूरत है?

'तुम आकर बतला दो, गमले कहाँ रखे जायें।'

'कहती तो हूँ, रोटियाँ बेलकर आई जाती हूँ।'

'नहीं, मैं कहता हूँ, तुम रोटियां मत वेलो।'

'आप तो खामखाह ज़िद करते हैं।'

'लालाजी सन्नाटे में आ गये। आशा ने कभी इतनी रुखाई से उन्हें जवाब न दिया था। और यह केवल रुखाई न थी । इसमे कटुता भी थी। लज्जित होकर चले गये। उन्हें ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन गमलों को तोड़कर फेंक दें और सारे पौधों को चूल्हे में डाल दें।

जुगल ने सहमे हुए स्वर में कहा-आप चली जायँ बहूजी, सरकार बिगड़ जायेंगे

'बको मत, जल्दी-जल्दी फुलके सेंको, नहीं निकाल दिये जाओगे ! और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो। भिखमंगो की-सी सूरत बनाये घूमते हो । और वाल क्यों इतने बढा रखे हैं ? तुम्हे नाई भी नहीं जुड़ता।'

जुगल ने दूर की बात सोची। बोला-कपड़े बनवा लें तो दादा को हिसाब क्या दूंगा?

'अरे पागल, मैं हिसाब में नहीं देने को कहतो । मुझसे ले जाना।'

जुगल काहिलपन की हँसो हँसा ।

'आप बनवायेंगी तो अच्छे कपड़े लूंगा। खद्दर के मलमल का कुर्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर, अच्छा-सा चप्पल ।'

आशा ने मीठी मुसकान से कहा-और अगर अपने दाम से बनवाने पड़े ?

'तम कपड़े ही क्यों बनवाऊँगा ?'

'बड़े चालाक हो तुम

जुगेल ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया-आदमी अपने घर में सूखी रोटियां

खाकर सो रहता है, लेकिन दावत मे तो अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता है। वहां भी रूखी रोटियाँ मिले तो वह दावत में जाय ही नहीं।

'यह सच मैं नहीं जानती। एक गाढे का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने पैसे ऊपर से ले लो।'

जुगल ने मान करके कहा--रहने दीजिए । मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहनकर निकलूंगा तब तो आपकी याद आवेगी । सड़ियल कपड़े पहनकर तो और जी जलेगा।

'तुम बड़े स्वार्थी हो । मुफ्त के कपड़े लोगे और उसके साथ ही बढिया भी ।'

'जब यहां से जाने लगू तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।'

'मेरा चित्र लेकर क्या करोगे?'

'अपनी कोठरी में लगाऊँगा और नित्य देखा करूँगा। बस यही साड़ी पहनकर खिचवाना जो कल पहनी थी, और मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगो-नंगी सूरत नहीं अच्छी लगती । आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं ?'

'तो तुम्हें गहने बहुत अच्छे लगते हैं ?'

'बहुत।'

लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा-अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकी ! जुगल, अगर कल से तूने अपने आप अच्छी रोटियाँ न पकाई तो मैं तुझे निकाल दूंगा।

आशा ने तुरन्त हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता का रोगन था, बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी । लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया।

उसने गमलों को लुब्ध आँखों से देखा। उसने कहा-मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूंगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब ! कितने सुन्दर पौधे हैं, वाह ! इनके हिन्दी नाम भी मुझे बतला देना।

लालाजी ने छेड़ा--सब गमले लेकर क्या करोगी? दस-पाँच पसन्द कर लो। शेष मैं बाहर रखवा दूंगा।

'जी नहीं । मैं एक भी न छोड़ूं गी । सब यहीं रखे जायेंगे।'

'बड़ी लालचिन हो तुम।'

'लालचिन सही । मैं आपको एक भी न दूंगी।' 'दो-चार तो दे दो। इतनी मेहनत से लाया हूँ।'

'जी नहीं, इनमें से एक भी न मिलेगा।'

( ४ )

दूसरे दिन आशा ने अपने को आभूषणों से खूब सजाया और फोरोजी साड़ी पहनकर निकली तव लालाजी की आंखों में ज्योति आ गई। समझे, अवश्य हो अब उनके प्रेम का जादू 'कुछ-कुछ' चल रहा है। नहीं उनके बार-बार के आग्रह करने पर भी, बार-बार याचना करने पर भी, उसने कोई आभूषण न पहना था । कभी-कभी मोतियों का हार गले मे डाल लेती थी, वह भी ऊपरी मन से । आज वह आभूषणों से अलकृत होकर फूली नहीं समाती, इतराई जाती है, मानो कहती हो, देखो, मैं कितनी सुन्दर हूँ !

पहले जो बन्द कली थी, वह आज खिल गई थी।

लालाजी पर घड़ी का नशा चढ़ा हुआ था। वे चाहते थे, उनके मित्र ओर वन्धु- वर्ग आकर इस सोने की रानी के दर्शनों से अपनी आँखे ठंडी करें। देखें कि वह कितनी सुखी, संतुष्ट और प्रसन्न है। जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थीं, वे आँखें खोलकर देखें कि डगामल कितना सुखी है। विश्वास, अनुराग और अनुभव ने क्या चमत्कार किया है।

उन्होंने प्रस्ताव किया--चलो कहीं घूम आयें। बड़ी मजेदार हवा चल रही है।

आशा इस वक्त कैसे जा सकती थी ? अभी उसे रसोई में जाना था। वहाँ से कहीं बारह-एक बजे फुर्सत मिलेगी। फिर घर के दूसरे धन्धे सिर पर 'सवार' हो जायेंगे। सैर-सपाटे के पीछे क्या घर चौपट कर दे ?

सेठजी ने उसका हाथ पकड़ लिया, कहा-नहीं, आज मैं तुम्हें रसोई में न जाने दूंँगा

महाराज के किये कुछ न होगा।'

'तो आज उसकी शामत भी आ जायगी।'

आशा के मुख पर से वह प्रफुलता जाती रही। मन भी उदास हो गया। एक सोफा पर लेटकर बोली-आज न-जाने क्यों कलेजे में मीठा-मीठा दर्द हो रहा है। ऐसा दर्द कभी नहीं होता था।

सेठजी घबरा उठे। 'यह दर्द कब से हो रहा है ?

'हो तो रहा है रात से ही लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर होने लगा है।'

'रह-रहकर चुभन हो जाती है।'

सेठजी एक बात सोचकर दिल ही-दिल में फूल उठे। अब वे गोलियां रंग ला रही हैं । राजवैद्यजी ने कहा भी था कि जरा सोच-समझकर इनका सेवन कीजिएगा। क्यों न हों ! खानदानी वैद्य हैं। इनका बाप बनारस के महाराज का चिकित्सक था। पुराने और परीक्षित नुस्खे हैं इनके पास ! उन्होंने कहा-तो रात से ही यह दर्द हो रहा है ? तुमने मुझसे कहा नहीं । नहीं वैद्यजी से कोई दवा मॅगवाता । '

मैने समझा था आप ही-आप अच्छा हो जायगा, मगर अब बढ़ रहा है।'

'कहाँ दर्द हो रहा है ? जरा देखू । कुछ सूजन तो नहीं है?'

सेठजी ने आशा के अचल की तरफ हाथ बढाया । आशा ने शर्माकर सिर झुका लिया। उसने कहा-यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं अपनी जान से भरती हूँ, तुम्हें हँसी सूझती है । जाकर कोई दवा ला दो।

सेठजी अपने पुसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हुए, जितना रायबहादुरी पाकर होते। विजय का डंका पीटे बिना उन्हे कैसे चैन आ सकता था ? जो लोग उनके विवाह के विषय मे द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे थे, उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया है और इतनी जल्दी ?

पहले पंडित भोलानाथ के पास गये और भाग्य ठोककर बोले-भाई, मैं तो वड़ी विपत्ति में फंस गया । कल से उनके कलेजे मे दर्द हो रहा है। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। कहती हैं, ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।

भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी न दिखाई।

सेठजी यहाँ से उठकर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुंचे और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक-संवाद कहा।

फागमल बड़ा शोहदा था । मुसकराकर बोला-मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती है।

सेठजी को बाछे खिल गई । उन्होने कहा-मैं अपना दुख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती है । ज़रा भी आदमियत तुममे नहीं है। मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। इसमे दिलमो को क्या बात है ! वे हैं कमसिन, कोमलागी, आप ठहरे पुराने लठैत, दंगल के पहलवान । वस ! अगर यह वात न निकले तो मूंछे मुड़ा लूँ ।'

सेठजी की आँखें जगमगा उठी। मन में यौवन की भावना प्रबल हो उठी और उसके साथ ही मुख पर भी यौवन को झलक आ गई। छाती जैसे कुछ फैल गई । चलते समय उनके पग कुछ अधिक मजबूती से जमीन पर पड़ने लगे, और सिर की टोपी भी न-जाने कैसे बाकी हो गई। आकृति से बांकेपन को शान बरसने लगी।

( ५ )

जुगल ने आशा को सिर से पाँव तक जगमगाते देखकर कहा-~वस बहूजो, आप इसी तरह पहने-ओढे रहा करें । आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूंगा।

आशा ने नयन-वाण चलाकर कहा-क्यों, आज यह नया हुक्म क्यों ? पहले तो तुमने कभी मना नहीं किया।

'आज की बात दूसरी है।'

'जरा सुनें, क्या बात है।'

'मैं डरता हूँ, आप कहीं नाराज़ न हो जायें।'

'नहीं नहीं कहो, मैं नाराज न होऊँगी।'

'आज आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।'

लाला डगामल ने असंख्य वार आशा के रुप और यौवन की प्रशंसा की थी। मगर उनको प्रशंशा मे उसे बनावट को गन्ध आती थी। वह शब्द उनके मुख से निकलकर कुछ ऐसे लगते थे, जैसे कोई पगु दौड़ने की चेष्टा कर रहा हो। जुगल के इन सीधे शब्दों में एक उन्माद था, नशा थी, एक चोट थी ! आशा की सारी देह प्रकम्पित हो गई।

'तुम मुझे नजर लगा दोगे जुगल । इस तरह क्यों घूरते हो?'

'जब यहाँ से चला जाऊँगा तब आपको बहुत याद आयेगी।'

'रसोई पकाकर तुम सारे दिन क्या किया करते हो ! दिखाई नहीं देते।'

'सरकार कहते हैं, इसी लिए नहीं आता। फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा है। देखिए भगवान् कहाँ ले जाते हैं।'

आशा की मुख-मुद्रा कठोर हो गई। उसने कहा- कौन तुम्हें जवाब देता है ? 'सरकार ही तो कहते हैं, तुझे निकाल दूंगा।'

'अपना काम किये जाओ। कोई नहीं निकालेगा । अव तो तुम फुलके भी अच्छे बनाने लगे।'

'सरकार है बड़े गुस्सेवर।'

'दो-चार दिन में उनका मिजाज़ ठीक किये देती हूँ।'

'आपके साथ चलते हैं तो आपके वाप-से लगते हैं।'

'तुम बड़े मुँहफुट हो । खबरदार, जबान सँभालकर बातें किया करो।'

किन्तु अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उसके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भांति उसके अन्दर से निकला पड़ता था ।

जुगल ने फिर उसी निर्भीकता से कहा-मेरा मुंह कोई बन्द कर ले । यहाँ तो सभी यही कहते हैं। मेरा ब्याह कोई ५० साल की बुढिया से कर दे तो मैं तो घर छोड़कर भाग जाऊँ। या तो खुद जहर खा लूं, या उसे जहर देकर मार डालें। फांसी ही तो होगी।

आशा उस कृत्रिम क्रोध को कायम न रख सकी। जुगल ने उसकी हृदय-वीणा के तारों पर मिजराव की ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत ज़ब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आई। उसने कहा -भाग्य भी तो कोई वस्तु है।

'ऐसा भाग्य जाय भाड़ मे।'

'तुम्हारा ब्याह किसी बुढिया से ही करूँगी। देख लेना।'

'तो मैं भी जहर खा लूंगा। देख लीजिएगा।'

'क्यों, बुढिया तुम्हे जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सोधे रास्ते पर रखेगी।'

यह सब मां का काम है। बीबी जिस काम के लिए है, उसी काम के लिए है।'

'आखिर बीबी किस काम के लिए है?'

मोटर की आवाज आई। न-जाने कैसे आशा के सिर का अञ्चल खिसककर कंधे पर आ गया था। उसने जल्दी से अंचल सिर पर खींचकर कर लिया और यह कहती हुई अपने कमरे की ओर लपकी । लाला भोजन करके चले जाय तव आना।


____