मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद
मेघदूत
महावीर प्रसाद द्विवेदी
महाकवि-कालिदास-प्रणीत
मेघदूत
का
हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद।
रचयिता
महावीरप्रसाद द्विवेदी
प्रकाशक
इंडियन प्रेस, लिमिटेड, इलाहाबाद
१९२४
Printed and published by K Mittra at The Indian Press
Ltd. Allahabad.
भूमिका
कालिदास-प्रणीत मेघदूत के सम्बन्ध में, अगस्त १९११ की "सरस्वती" में, एक लेख प्रकाशित हो चुका है। उसमें मेघदूत की विशेषताओं की आलोचना है। वह इस छोटी सी पुस्तक की भूमिका का काम अच्छी तरह दे सकता है। हम लेख का अधिकांश यहाँ पर नीचे उद्धृत करते हैं—
कविता-कामिनी के कमनीय नगर में कालिदास का मेघदूत ऐसे भव्य भवन के सदृश है जिसमें पद्यरूपी अनमोल रत्न जड़े हैं। ऐसे रत्न, जिनका मोल ताजमहल में लगे हुए रत्नों से भी कहीं अधिक है। ईंट और पत्थर की इमारत पर जल-वृष्टि का असर पड़ता है, आँधी-तूफान से उसे हानि पहुँचती है, बिजली गिरने से वह नष्ट-भ्रष्ट भी हो सकती है। पर इस अलौकिक भवन पर इनमें से किसी का कुछ भी ज़ोर नहीं चलता। न वह गिर सकता है, न घिस सकता है, न उसका कोई अंश टूट ही सकता है। काल पाकर और इमारतें जीर्ण होकर भूमिसात् हो जाती हैं; पर यह अद्भुत भवन न कभी जीर्ण होगा और न कभी इसका विध्वंस होगा। प्रत्युत इसकी रमणीयता-वृद्धि की ही आशा है।
अलकाधिपति कुबेर के कर्म्मचारी एक यक्ष ने कुछ अपराध किया था। उसे कुबेर ने एक वर्ष तक, अपनी प्रियतमा पत्नी से दूर जाकर रहने का दण्ड दिया। यक्ष ने इस दण्ड को चुपचाप स्वीकार कर लिया। अलका छोड़ कर वह रामगिरि नामक पर्वत पर गया वही उसने एक वर्ष बिताने का निश्चय किया। आषाढ़ का महीना आने पर बादल आकाश में छा गये। उन्हें देख कर यक्ष का पत्नी-वियोग-दुःख दूना हो गया। वह अपने को भूल सा गया। इसी दशा में उस विरही यक्ष ने मेघ को दूत कल्पना करके, अपनी कुशलवार्ता अपनी पत्नी के पास पहुँचानी चाही। पहले कुछ थोड़ी सी भूमिका बांध कर उसने मेघ से अलका जाने का मार्ग बताया; फिर सँदेशा कहा। कालिदास में मेघदूत में इन्हीं बातों का वर्णन किया है।
मेघदूत की कविता सर्वोत्तम कविता का बहुतही अच्छा नमूना है। उसे वही अच्छी तरह समझ सकता है और उससे पूरा पूरा आनन्द भी वही उठा सकता है जो स्वयं कवि है। कविता करने ही से कवि-पदवी नहीं मिलती। कवि के हृदय को—कवि के काव्यमर्म्म को—जो जान सकते हैं वे भी एक प्रकार के कवि हैं। किसी कवि के काव्य के आकलन करनेवाले का हृदय यदि कहीं कवि के ही हृदय-सदृश हुआ तो फिर क्या कहना है। इस दशा में आकलनकर्त्ता को वही आनन्द मिलेगा जो कवि का उस कविता के निर्म्माण करने से मिला होगा। जिस कविता से जितना ही अधिक आनन्द मिले उसे उतनी ही अधिक ऊँचे दरजे की समझना चाहिए। इसी तरह, जिस कवि या समालोचक को किसी काव्य के पाठ या रसास्वादन से जितना ही अधिक आनन्द मिले उसे उतना ही अधिक उस कविता का मर्म्म जानने वाला समझना चाहिए।
इस कविता का विषय—यहाँ तक कि इसका नाम भी कालिदास के परवर्ती कवियों को इतना पसन्द आया है कि इसकी छाया पर हंस दूत, पदाङ्क-दूत, पवन-दूत और कोकिल-दूत आदि कितने ही दूत-काव्य बन गये हैं; यह इस काव्य की लोकप्रियता का प्रमाण है।
कालिदास को इस काव्य के निर्माण करने का बीज कहां से मिला? इसका उत्तर "इचास्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा" इत्यादि इसी काव्य में है-
"इतनो कहत तोहिं मम प्यारी।
जिमि हनुमत को जनकदुलारी॥
सीस उठाव निरखि धन लै है।
प्रफुलित चित ह्वै आदर दै ह्वै॥
यज्ञ की तरह रामचन्द्र का भी वियोग-व्यथा सहनी पड़ी थी। उन्होंने पवनसुत हनूमान को अपना दूत बनाया था। यक्ष ने मेघ को दूत बनाया। मेघ का साथी पवन है: हनुमान की उत्पत्ति पवन से है। अतएव दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध भी हुआ। यह सम्बन्ध काकतालीय सम्बन्ध हो सकता है। परन्तु मैथिली के पास रामचन्द्र का सँदेशा भेजना वैसा सम्बन्ध नहीं। बहुत सम्भव है, कालिदास को इसी सन्देश-स्मृति ने प्रेरित करके इस काव्य की रचना कराई हो। बहुत सम्भव है, यह मेघसन्देश कालिदासही का आत्म-सन्देश हो।
कवियों की सम्मति है कि विषय के अनुकूल छन्दोयोजना करने में वर्ण्य विषय में सजीवता सी आ जाती है। वह विशेष खुलता है उसकी सरसता, और सहृदयों को आनन्दित करने की
शक्ति बढ़ जाती है। इस काव्य में श्रृङ्गार और करुण रस के
मिश्रण की अधिकता है। यक्ष का सन्देश कारुणिक उक्तियों से भरा
हुआ है। जो मनुष्य कारुणिक आलाप करता है, या जो प्रेमोद्रेक
के कारण अपने प्रेम-पात्र से मीठी मीठी बातें करता है, वह न तो साँप के सदृश टेढ़ी मेढ़ी चाल चलता है, न रथ के सदृश दौड़ताही है। अतएव उसकी बातें भुजङ्गप्रयात या रथोद्धता या और
ऐसेही किसी वृत्त में अच्छी नहीं लगती। वह तो ठहर ठहर कर,
कभी धीमे और कभी कुछ ऊँचे स्वर में, अपने मन के भाव प्रकट करता है। अतएव मन्दाक्रान्ता-वृत्त ही उसकी अवस्था के अनुकूल है। इस वृत्त के गुण इसके नाम ही से प्रकट हैं। यही जान कर कालिदास ने इस वृत्त का प्रयोग इस काव्य में किया है। और, यही जान कर, उनकी देखादेखी औरों ने भी दूत-काव्यों में इसी वृत्त से काम लिया है।
कवि यदि अपने मन का भाव ऐसे शब्दों में कहे जिनका मतलब, सुनने के साथ ही, सुननेवाले की समझ में आ जाय तो ऐसा काव्य प्रसाद-गुण से पूर्ण कहा जाता है। जिस तरह पके हुए
अङगूर का रस बाहर से झलकता है उसी तरह प्रसाद-गुण-परि प्लुत कविता का भावार्थ शब्दों से झलकता है। इसके हृदयङ्गम
होने में देर नहीं लगती। अतएव, जिस काव्य में करुणाद्र-सन्देश
और प्रेमातिशय-द्योतक बाते हो उसमें प्रसाद-गुण को कितनी आवश्यकता है, यह सहृदय जनों को बताना न पड़ेगा। प्यार की बात यदि कहते ही समझ में न आ गई---कारुणिक सन्देश यदि कानों की राई से तत्काल ही हृदय में न घुस गया--तो उसे एक प्रकार
निष्फल हो समझिए। प्रेमालाप क समय कोई कोश लेकर नहीं बैठता करुणाक्रन्दन करनेवाले अपनी उक्तियों में ध्वनि और व्यङ्ग्य की पिता नहीं जान बैठते वे तो सोधी तरह सरल शब्दों में, अपने जी की बात कहते हैं। यही समझ कर महाकवि कालिदास ने मेघदूत को प्रसादगुण संपूर्ण कर दिया है। यही सोच कर उन्होंने इस काव्य की रचना वैद्र्भी रीति में की है---चुन चुन कर सरल और कामल शब्द रक्खे हैं।
देवताओं, दानवो और मानवों को छोड़कर कवि-कुल-गुरु ने इस
काव्य में एक यक्ष को नायक बनाया है। इसका कारण है। यक्षों के राजा कुवेर हैं। वे धनाधिप हैं। ऋद्धियां और सिद्धिया उनकी दासिया हैं। सांसारिक सुख धन ही की बदौलत मान होते हैं। जिनके पास धन नहीं वे इन्द्रियजन्य सुखों का यथेष्ट अनुभव नहीं कर सकते। कुवेर के अनुचर, कर्मचारी और पदाधिकारी सब यक्ष ही हैं। अतएव कुबेर के ऐश्वर्य का थोड़ा बहुत भाग उन्हें भी अवश्यही प्राप्त होता है। इससे जिस यक्ष का वर्णन मेघदूत में है उसके ऐश्वर्यवान् और वैभव-सम्पन्न होने में कुछ भी मन्देह नहीं। उसके घर और उसकी पत्नी आदि के वर्णन से यह बात अच्छी तरह साबित होती है। निर्धन होने पर भी प्रेमीजनों में पति-पत्नी-सम्बन्धी प्रेम की मात्रा कम नहीं होती फिर जो जन्मही से धनसम्पन्न है---जिसने लड़कपन ही से नाना प्रकार के सुख-भोग किये हैं---उसे पत्नी-वियोग होने से कितना दुःख, कितनी हृदय-व्यथा, कितना शोक-सन्ताप हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। ऐसा प्रेमी यदि दो चार दिन के लिए नहीं पूरे साल भर के लिए,
अपनी प्रेयसी से सैकड़ों कोस दूर फेंक दिया जाय तो उसकी विरह-व्याकुलता की मात्रा बहुत ही बढ़ जायगी। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। ऐसे प्रेमी का वियोगताप वर्षा में और भी अधिक भीषणता धारण करता है। उस समय वह उसे प्रायः पागल बना देता है। उसके प्रेम की परीक्षा उसी समय होती है। उसी समय इस बात का निश्चय किया जा सकता है कि इस प्रेमी का प्रेम कैसा है और यह अपनी प्रेयसी को कितना चाहता है। कालिदास ने इस काव्य में आदर्श-प्रेम का चित्र खींचा है। उस चित्र को सविशेष हृदयहारी और यथार्थता-व्यजक करने के लिए यक्ष को नायक बनाकर कालिदास ने अपने कवि-कौशल की पराकाष्ठा कर दी है। अतएव, आप यह न समझिए कि कवि न योहीं, बिना किसी कारण के, विप्रयोग-श्रृङ्गार का वर्णन करने के लिए, यक्ष का आश्रय लिया है।
विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए ही जिस प्रेम की उत्पत्ति होती है वह नीच प्रेम है। वह निन्द्य और दूषित समझा जाता है। निर्व्याज प्रेम ही उच्च प्रेम है। निर्व्याज प्रेम अवान्तर बातों की कुछ भी परवा नहीं करता। प्रेम-पथ से प्रयाण करते समय आई हुई बाधाओं को वह कुछ नहीं समझता। विघ्नों को देख कर वह केवल मुसकरा देता है। क्योंकि इन सबका उसके सामने हार माननी पड़ती है। मेघदूत का यक्ष निर्व्याज प्रेमी है। उसका हृदय
बड़ा ही उदार है। उसमें प्रेम की मात्रा इतनी अधिक है कि ईर्ष्या,
द्वेष, क्रोध, हिंसा आदि विकारों के लिए जगह ही नहीं। यक्ष को
उसके स्वामी कुवेर ने देश से निकाल दिया। परन्तु उसने, इस
कारण, अपने स्वामी पर ज़रा भी क्रोध प्रकट नहीं किया।उसको
एक भी बुरे और कड़े शब्द से नहीं बाद किया। उसकी सागे विप्रयोग-पीड़ा का कारण कुवेर था। पर उनकी निन्दा करने का उसे ख़याल तक नहीं हुआ। फिर देखिए, उसने अपनी मूर्खता
पर भी आक्रोश-विक्रोश नहीं किया। यदि वह अपने काम में
असावधानता न करता तो क्यों वह अपनी पत्नी से वियुक्त कर
दिया जाता। अपने सारे दुःख-शोक का आदि-कारण वह खुदही
था। परन्तु न इसका भी उसे कुछ ख़याल नहीं उसने अपने
को भी नहीं धिक्कारा। वह धिक्कारता कैसे? उसके हृदय में इस
प्रकार के भावों के लिए जगह ही न थी। उसका हृदय तो अपनी
प्रेयमी के निर्व्याज-प्रेम से उपर तक लबालब भरा था। वहां पर
दूसरे विकार रह कैसे सकते थे?
मेघदूत में कालिदास ने आदर्श प्रेम का चित्र खींचा है। निःस्वार्थ और निव्र्याज प्रेम का जैसा चित्र मेघदूत में देखने को मिलता है वैसा और किसी काव्य में नहीं। मेघदूत के यक्ष का प्रेम निर्दोष है। और, ऐसे प्रेम से क्या नहीं हो सकता? प्रेम में जीवन पवित्र हो सकता है। प्रेम से जीवन को अलाकिक सौन्दर्य प्राप्त हो सकता है। प्रेम मे जीवन माधक हो सकता है। मनुष्य-प्रेम से ईश्वर-सम्बन्धी प्रेम की उत्पत्ति भी हो सकती है। अतएव कालिदास का मेघदत करुण रस से परिप्लुत है तो क्या हुआ। वह उच्च प्रेम का सजीव उदाहरण है।
जो ऐसे सच्चे प्रेम-मद से मत्त हो रहा है, जिसकी सारी इन्द्रिया अन्यान्य विषयों से खिंँचकर एक-मात्र प्रेमरस में सर्वतोभाव से डूब रही हैं जिसके प्रेम-परिपूर्ण हृदय में और कोई सामारिक
भावनायें या वासनायें आने का साहस तक नहीं कर सकती वह यदि अचेतन मेघ को दूत बनावे और उसके द्वारा अपनी प्रेयसी के पास अपना सन्देश भेजे तो आश्चर्य ही क्या है? जो मत्त है और जो संसार की प्रत्येक वस्तु में अपने प्रेमपात्र को देख रहा है उसे यदि जड़-चेतन का भेद मालूम रहे तो फिर उसके प्रेम की उच्चता कैसे स्थिर रह सकी है? वह प्रेम ही क्या जो इस तरह के भेद-भाव को दूर न कर दे। कीट-योनि में उत्पन्न पतिङ्गों के लिए दीप-शिखा की ज्वाला अपने प्राकृतिक दाहक गुण से रहित मालूम होती है। महाप्रेमी यक्ष को यदि मेघ की अचेतना का
ख़याल न रहे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं। फिर, क्या
यक्ष यह न जानता था कि मेघ क्या चीज़ है? वह मेघदूत के
आरम्भ ही में कहता है---
"घाम धूम नीर औ समीर मिले पाई देह
ऐसो घन कैसे दूत-काज भुगतावेगी-
नेह को संदेसो हाथ चातुर पठैवे जोग
चादर कहा जी ताहि कैसे के सुनावेगो।
बाढ़ी उत्कण्ठा जक्ष बुद्धि बिसरानी सब
बाही सो निहाखो जानि काज कर आवेगो-
कामातुर होत हैं सदाई मतिहीन तिन्हें
चेत औ अचेत माँह भेद कहाँ पावेगो"।।
उस समय यक्ष को केवल अपनी प्रेयसी का ख़याल था। वहीं
उसके तन और मन में बसी हुई थी। अन्य सांसारिक ज्ञान उसके
चित्त से एक-दम तिरोहित हो गया था। वह एक प्रकार की समाधि
में निमग्न था। इम समाधिस्थ अवस्था में यदि उसने निर्जीव मेघ को दूत कल्पना किया ना कोई ऐसी बात नहीं कि जो समझ में न आ सके। कवि का काम वैज्ञानिक के काम से भिन्न है। वैज्ञानिक प्रत्येक पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में देखता है। परन्तु यदि कवि ऐसा करे तो उसकी कविता का सौन्दर्य, प्रायः सारा का सारा विनष्ट हो जाय। कवि को आविष्कर्ता या कल्पक समझना चाहिए। उनकी सृष्टि ही दूसरी है। वह निर्जीव को सजीव और सजीव को निर्जीव कर सकता है। अतएव मध्य-भारत से हिमालय की तरफ़ जाने वाले पवन-प्रेरित मेघ को सन्देश-वाहक बनाना अनुचित नहीं। फिर एक बात और भी है। कवि का यह आशय नहीं कि मेघ सचमुच ही यन्त्र का सन्देश ले जाय: उसने इस बहाने विप्रयुक्त वक्ष की अवस्था का वर्णन-मात्र किया है और उसके द्वारा यह दिखाया है कि इस तरह के सच्चे वियोगी प्रमियों के हृदय की क्या दशा होती है। उन्हें कैसी कैसी बातें सूझती हैं, और उन्हें अपने प्रेमपात्र तक अपना कुशलवृत्त पहुँचाने की कितनी उत्कण्ठा होती है।
किसी का सन्देश पहुँचा कर उसकी पत्नी की प्राणरक्षा करना
पुण्य का काम है। सजन ऐसे काम खुशी से करते हैं। क्यांकि संसार में परोपकार की बड़ी महिमा है। उसे करने का मौका मेघ को मिल रहा है। फिर भला क्यों न वह यक्ष का सन्देश ले जाने के लिए राजी होता। रामगिरि से अलका तक जाने में विदिशा, उज्जयिनी, अवन्ती, कनखल, रेवा, सिप्रा, भागीरथी, कैलास आदि नगरों नदियों और पर्वतों के रमणीय दृश्यों का वर्णन कालिदास ने किया है। उन्हें देखने की कि उत्कण्ठा होगी? कौन ऐसा हृदयहीन होगा
जो उज्जयिनी में महाकाल के और कैलास में शङ्कर-पार्वती के दर्शनो से अपनी आत्मा को पावन करने की इच्छा न रक्खे? कौन ऐसा आत्मशत्रु होगा जो जङ्गल में लगी हुई आग को जल की धारा से शान्त करके चमरी आदि पशुओं का जल जाने से बचाने का पुण्य-सञ्चय करना न चाहे? मार्ग रमणीय, देवताओं और तीर्थों के दर्शन, परोपकार करने के साधन---ये सब ऐसी बातें हैं जिनके लिए मूढ़ से मूढ़ मनुष्य भी थोड़ा बहुत कष्ट खुशी से उठा सकता है। मेघ की आत्मा तो आद्र होती है; सन्तपों को सुखी करना उसका विरुद है---अतएव वह यक्ष का सन्देश प्रसन्नतापूर्वक पहुँचाने को तैयार हो जायगा, इसमें सन्देह ही क्या है। अपनी प्रियतमा को जीवित रखने में सहायता देनेवाले मेघ के लिए यक्ष ने जो ऐसा श्रमहारक और सुखद मार्ग बतलाया है वह उसके हृदय के औदार्य का दर्शक है। कालिदास ने इस विषय में जा कवि-कौशल दिखाया है उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। यदि मेघ का मार्ग सुखकर न होता---और, याद रखिए, उसे बहुत दूर जाना था---तो क्या आश्चर्य जो वह अपने गन्तव्य स्थान तक न पहुँचता। और, इस दशा में, यक्षिणी की क्या गति होती,
इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। इसी दुःखद
दुर्घटना को टालने के लिए ही ऐसे अच्छे मार्ग की कल्पना कवि
न की है।
कालिदास के समय आदि के विषय में हमने रघुवंश के हिन्दी-
अनुवाद की भूमिका में बहुत कुछ लिखा है। अतएव उन बातों को
दुहराने की ज़रूरत नहीं। यहाँ पर हमें इतना ही निवेदन करना है
कि रघुवंश और कुमारसम्भव के अनुवाद की तरह इस अनुवाद में भी हमने कालिदास के आशय को ही प्रकट करने की चेष्टा की है। आंख मूँद कर शब्दार्थ का अनुस रण न करके केवल भावार्थ का अनुसरण किया है। आशा है पाठक इस अनुवाद को भी पसन्द करेंगे।
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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।