मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद/१

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मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद  (1924) 
द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी

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मेघदूत।
पूर्वार्द्ध।

कुबेर की राजधानी अलकापुरी में एक यक्ष रहता था। वह अपने स्वामी कुवेर के यहाँ किसी पद पर अधिष्ठित था। अपनी प्रियतमा पत्नी पर उसका प्रेम असीम था। उसका मन सदा यक्षिणीही में लगा रहता था। इस कारण, जिस काम पर वह नियत था वह उससे अच्छी तरह न होता था। उससे बहुधा भूलें हो जाया करती थीं। अतएव कुवेर को उसे डॉटना पड़ता था। इन डॉट-डपट का जब उस पर कुछ भी असर न हुआ तब कुवेर ने क्रोध में आकर उसे अपने यहाँ से निकाल दिया। उसने आज्ञा दी—

"जा, तू यहाँ से निकल जा। पूरा एक वर्ष तू कहीं बाहर जाकर रह। जिसके प्रेम-पाश में फँसे रहने के कारण तुझसे अपना काम नहीं होता उसके दर्शन भी तुझे अब एक वर्ष तक न होंगे। तेरे लिए यही दण्ड उचित है"।

यक्ष को विवश होकर कुवेर की इस आज्ञा का पालन करना पड़ा। उसकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई। अलका छोड़ कर वह रामगिरि-पर्वत पर रहने चला गया। यह वही पर्वत है जहाँ वनवास [  ]
के समय राम-लक्ष्मण के साथ सीताजी कुछ समय तक रही थीं। इस पर्वत के जलाशयों में सीताजी ने स्नान भी किया था। इस कारण उनका जल अत्यन्त पवित्र है। रामगिरि सदा हरा भरा रहता है। उस पर तरह तरह की लताओं और तरुओं की बहुत अधिकता है। इस कारण उसके आश्रमों में सदा शीतल छाया बनी रहती है। ऐसे ही छायादार एक सुन्दर आश्रम में यक्ष रहने लगा।

उस पर्वत पर चले जाने से यक्ष की पत्नी उससे छूट गई। इस कारण उसे बड़ा दुःख हुआ। वह बेहतर दुबला हो गया। उसका सारा शरीर सूख गया। नौवत यहाँ तक पहुँची कि बहुत दुबला हो जाने में सोने का रत्नजटित कड़ा उसके हाथ से गिर गया और उसे खबर भी न हुई। इस तरह वहाँ रहते उसे कई महीने बीत गये जब आषाढ़ का महीना लगा तब उसने देखा कि बादलों का समुदाय पर्वत के शिखर पर एसा लटक रहा है जैसे काला काला विशाल-काय हाथी किसी किले के परकोटे या दीवार को अपने मस्तक की ठोकरों से गिरा रहा हो। इस अनुपम प्राकृतिक दृश्य को वह बड़े चाव से देखने लगा। पर इससे उसका दुःख दूना हो गया। उसे तत्काल ही अपनी प्रियतमा का स्मरण हो आया। उसकी आँखे आँसुओं से डबडबा आई। कुछ देर तक वह न मालूम मनही मन क्या सोचता रहा। अपने आगमन से केतकी को कुसुमित करनेवाले मेघों की घटा उमड़ने पर संयोगियों के भी मन की दशा कुछ की कुछ हो जाती है। फिर भला यक्ष के सदृश वियोगी का हृदय यदि उत्कण्ठित हो उठे और वियागाग्नि से जलने लगे तो आश्चर्य हो क्या? [  ] धीरे धीरे आषाढ़ बीत चला। सावन समीप आगया। तब यक्ष ने सोचा कि यक्षिणी के वियोग में मेरी तो यह दशा है, मेेरे वियोग में उसकी, न मालूम, क्या दशा हो। ऐसा न हो जो कहीं वह प्राण ही छोड़ दे। अतएव अपने कुशल-समाचार उस तक पहुँचाना चाहिए। लावो, इस मेघ ही को दूत बनाऊँ। मेघ सब कहीं जा सकता है। यह सोच कर उसने कुछ जङ्गली फूल तोड़े। उन्हें अञ्जली में लेकर वह मेघ के सामने खड़ा हुआ। फिर उन्हीं फूलों का अर्घ देकर उसने प्रेमर्पूवक मेघ का स्वागत किया। तदनन्तर वह उस मेघ से प्रीतिपूर्ण बातें करने लगा।

ज़रा इस यन्त्र की नादानी को तो देखिए। आग, पानी, धुवें और वायु के संयोग से बना हुआ कहाँ जड़ मंत्र और कहा बड़े ही चतुर मनुष्यों के द्वारा भेजा जाने योग्य सन्देश! परन्तु वियोग- जन्य दुःख से पागल हुए यक्ष ने इस बात का कुछ भी विचार न किया। उत्सुकता और आतुरता के कारण उसे इस बात का ध्यान ही न रहा कि बेचारा मेघ भला किस तरह सन्देश ले जायगा। बात यह है कि जिस दशा में यक्ष था उस दशा को प्राप्त होने पर लोगों की बुद्धि मारी जाती है। वे चेतन और अचेतन पदार्थो का भेद ही नहीं जान सकते। अतएव जो काम जिसके करने योग्य नहीं उससे भी उसे करने के लिए वे प्रार्थना करने लगते हैं।

यक्ष ने कहा—भाई मेघ! पुष्करावर्तक नामक विश्व-विख्यात मेघों के वंश में तो तेरा जन्म हुआ है। इन्द्र का तू सदा-सर्वदा का साथी है। शक्ति तुझमें ऐसी है कि जैसा रूप तू चाहे वैसा ही घर सकता है—छोटा, बड़ा, लम्बा, चौड़ा हो जाते तुझे देर भी नहीं [  ]
लगती। मुझ पर दया कर। मैं सचमुच ही दया का पात्र हूँ। दुदैंव ने मुझे यहाँ घर से बहुत दृर लाकर डाला है। मेरी चिर- सङ्गिनी यक्षिणी मुझसे छूट गई है। मेरे दुःख की सीमा नहीं। और दुखिया का दुःख दूर करना सज्जनों का काम ही है। इसी से मैं तुझमें एक याचना करना चाहता हूँ। भले आदमियाँ से की गई याचना यदि न भी सफल हो तो भी अच्छी है, पर नीचों से की गई याचना यदि सफल भी हो जाय तो भी अच्छा नहीं। नीचात्मा जनों से कभी याचना ही न करना चाहिए। तू उच्चात्मा है--तू सदा ऊँचा रहता है---इसी से सङ्कोच छोड़ कर मुझे तुझसे एक प्रार्थना करनी है। तू सन्तप्तों का ताप दूर करने वाला है। ताप से तप हुए प्राणी सदा तेरी ही शरण जाते हैं। अतएव, आशा है मरी प्रार्थना का स्वीकार करके, कुवेर के शाप से सन्तप्त हुए मुझ दुखिया की भी तू अवश्य ही सहायता करेगा।

भाई! मेरा सन्देश मेरी प्रियतमा पत्नी के पास अलकापुरी में पहुँचा दे। यह नगरी ऐसी वैसी नहीं; बड़ी सुन्दर है। बड़े बड़े यक्षराज वहाँ रहते हैं। उसके बाहरी बागीचों में प्रत्यक्ष शिवजी ठहरा करते हैं। उनकी स्थिति के समय उनके मस्तकवर्ती चन्द्रमा की चाँदनी से अलका के महल खूबही चमचमाते हैं। अतएव, यदि तु, मेरी प्रार्थना मान लेगा तो एक पन्थ दो काज की लोकोक्ति चरितार्थ हो जायगी। इधर तो मेरा काम हो जायगा। उधर तुझे भी एक बड़ीही शोभाशालिनी नगरी देखने को मिल जायगी।

आकाश में जिस राह से पवन प्रयाण करता है उसी राह से तुझे जाता देख विदेशवासियों की वनिगायें अपनी आँखें तेरी
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तरफ़ उठायेंगी। पतियों से वियुक्त होने के कारण उनके मुँह पर केशों की लटें बिखरी होगी। उन्हें हाथ से उठा उठा कर वे बड़े ही चाव से तुझे दखेगी। उन्हें मालूम है कि तेरा आगमन होने पर कोई भी विदेशी अपनी प्रियतमा पत्नी से दूर नहीं रह सकता: वर्षा-ऋतु आते ही वह अपने घर चला आता है। अतएव, तुझे देख उनको दृढ़ विश्वास हो जायगा कि अब हमारे भी पति शीघ्रही घर आवेंगे। क्योंकि कौन ऐसा मूर्ख होगा जो तेरा आगमन होने पर भी अपनी वियोगविधुरा पत्नी के पास आने की इच्छा न करेगा? हाँ, यदि कोई पुरुष मेरे ही सहश पराधीन हो तो बात दुसरी है। ऐसा मन्दभागी यदि अपने घर न आ सके तो इसमें उनका क्या अपराध ?

आहा! तेरा रूप भाग्यों का कितना प्यारा है। तर नयन-सुभग सुरूप को देखने और तेरी सेवा सं अपनी आत्मा को कृतार्थ करने के लिए, देख, ये बगलियाँ आकाश में पाँठ की पाँठ उड़ती चली आ रही हैं। तेरा आगमन होने पर ही य गर्भवती होती हैं। इस कारण तुझ पर इनकी और भी अधिक प्रीति हैं। पवन भी इस समय, तेरे सर्वथा अनुकूल है; वह धीरे धीरे चल रहा है। तुझे उसका ऐसा ही मन्द-गमन पसन्द भी है। चातक भी बड़े गर्व मे तेरे बायें बोल रहा है। उसका मधुर रव कानों को बहुत ही सुखदायी है। देव तो कैसे अच्छे अच्छे शकुन हो रहे हैं। अतएव अब तुझे चलही देना चाहिए; देर न करना चाहिए।

इन शकुनों से मैं अनुमान करता हूँ कि मार्ग में तेरी गति का रोधक कोई कारण न उपस्थित होगा और तू अपनी भाभी
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( अर्थात् मेरी पत्नी ) को अवश्य ही जीती पावेगा। वह पूरी पतिव्रता है। मेरे पाने के एक एक दिन गिनती हुई वह बेचारी किसी तरह अपने प्राणों की रक्षा करती होगी। स्त्रियों का स्नेह-शील हृदय फूल के सदृश कोमल होता है। ज़रा से आघात से ही वह चूर्ण हो सकता है। एक मात्र आशा ही उनके उस कुसुम कोमल हृदय को कुम्हलाने से बचाती है। अपने प्रेमी से फिर मिलने की यदि आशा न हो तो उनका जीना ही असम्भव हो जाय।

अकेले चलने से मार्ग जल्दी नहीं कटता; थकावट भी बहुत पाती है। परन्तु तू इस बात से न डर। तुझे अकेला न जाना पड़ेगा। तू यह अवश्य ही जानता होगा कि तेरी गरज सुनते ही पृथ्वी खिल उठती है। उसके भीतर से सफ़ेद सफ़ेद फूल निकल आते हैं, जो छाते के समान सुन्दर मालूम होते हैं। उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता है जैसे पृथ्वी ने अपने ऊपर छाता ही तान रक्खा हो। तेरी जिस गरज की बदौलत पृथ्वी से छत्र-तुल्य ये फूल निकलते हैं उसी की बदौलत राजहंसों को मानस-सरोवर में जाने की इच्छा भी होती है। तेरी गड़गड़ाहट सुनते ही वे जान जाते हैं कि वर्षा आ गई; अब जलाशयों का जल गँदला हो जायगा। अतएव, मार्ग में खाने के लिए कमलनाल के तन्तुओं का पार्थय लेकर वे तेरे साथ ही साथ कैलास पर्वत तक उड़ते चले जायेंगे। मानस-सरोवर जाने की राह उसी तरफ से है न? अवएव, तुझे अनायास ही बहुत से साथी मिल जायेंगे। यह भी तेरे लिए बहुत सुभोते की बात है।

अच्छा तो अब इस ऊँचे पर्व का आलिङ्गन करके इससे तू बिदा माँग और चल दे। यह पर्वत ऐसा वैसा नहीं। इसके ऊपर
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रामचन्द्र ने बहुत समय तक काम किया था। इन कारण इसकी पीठ पर उनके वन्दनीय चरणों के चिह्न अब तक बने हुए हैं। इसके सिवा यह तेरा मित्र भी है। हर साल, वर्ग के अरम्भ में, तेरे बरसाये हर जल का संयोग होते ही. चिर-वियोग से उत्पन्न हुए उष्ण-वाष्परूपी आंसू गिरा कर यह अपना स्नेह प्रकट करता है। अतएव, ऐसे पवित्र और सच्चे स्नेहो से मिल भेंट करही तुझे प्रत्थान करना चाहिए। ऐसा न करने से सदाचार की हानि होगी।

अच्छा तो अब मैं तुझे रास्ता बता दूँ। मेरा सब जाना बूझा है, और तू कभी पहले अलका गया नहीं। मेरे बताये रास्ते से यदि तू जायगा तो तुझे कुछ भी कष्ट न होगा। अतएव, पहले तो मैं तुझे अलकापुरी जाने का रास्ता बताऊँगा, फिर अपना सन्देह सुनाऊँगा: सन्देश की बात सुन कर घबराना मत। यह सन्देह न करना कि मेरा सन्देश शुष्क होगा। नहीं, वह तेरे ही सदृश सरस होगा। उसे तेरे कान पी सा लेंगे। उन्हें वह बहुत ही पसन्द होगा।

हाँ, मैं तुझसे यह कह देना चाहता हूँ कि बिना ठहरे बराबर लगातार चले ही न जाना। जहाँ थकावट मालूम हो वही किसी ऊँचे पहाड़ पर पैर रख कर ठहर जाना और कुछ देर उसके ऊपर विश्राम करके तब आगे बढ़ना। चलने से भूख-प्यास बहुत लगती है और तुझे जाना है दूर। अतएव यदि तुझे क्षीणता मालूम हो---यदि तुझे भूख-प्यास लगे---तो पहाड़ी सोतों का निर्मल जल पीकर अपनी क्षीणता दूर कर लेना। उस नल के पान से तेरी तबीयत फिर हरी भरी हा
[  ]आकाश-मार्ग से तुझे जाता देख सिद्धों की मुग्धा स्त्रियों को बड़ा आश्चर्य होगा। चकित होकर वे बार बार अपना सिर ऊपर को उठावेंगी और आपस में कहेंगी कि कहीं यह किसी पर्वत का बड़ा भारी शिखर तो नहीं, जिसे हवा उड़ाये लिये जा रही है। मैं सच कहता हूँ, उनकी इस तरह की बातें सुन कर तुझे भी बड़ा कुतूहल होगा।

पानी अधिक बरसने से यह स्थान सदा आर्द्र रहता है। इसी से यहाँ बेत बहुत होता है। यहाँ से तू उत्तर की ओर जाना। दिग्गजों को इस बात का बड़ा घमण्ड है कि हमसे अधिक विशाल शरीरवाला संसार में और कोई नहीं। परन्तु जब वे नभोमार्ग में तुझे यहाँ से जाता देखेंगे तब उनका सारा घमण्ड चूर्ण हो जायगा। वे कहेंगे--अरे यह तो हमसे भी बड़ा है!

बाँबी से निकलनेवाला यह इन्द्रधनुष सामने ही कैसा सुन्दर मालूम होता है। जान पड़ता है, उस पर अनेक प्रकार के रत्नों की रङ्गीन छाया पड़ रही है। भाई, वाह! इस अनेक रङ्गी धनुष के संयोग से तेरा श्यामल शरीर, मनोहर मोरपंखों के संयोग से गोपवेशधारी विष्णु के सदृश, बहुत ही शोभाशाली मालूम होगा।

मार्ग में तुझे मालभूमि मिलेगी, जहाँ खेती बहुत होती है। नये जुते हुए खेतों से वहाँ बड़ी ही हृदय-हारिणी सुगन्धि उड़ती होगी। उससे तेरी घ्राणेन्द्रिय परितुष्ट हो जायगी। देहाती स्त्रियाँ बहुत ही भोली भाली होती हैं। वे कटाक्ष करना नहीं जानती: भौंहें टेढ़ी करके देखना उन्होंने सीखा ही नहीं। हैं तो वे इतनी सीधा तथापि व यह बात अच्छी तरह जानती है कि खेती का
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प्रधान सहायक तू ही है---खेती तेरे ही अधीन है। तू न हो तो खेतों में एक दाना भी पैदा न हो। अतएव, वे तुझे प्रीति पूर्ण नयनों से देखेगी और कहेंगी---'भले आये। बड़ी कृपा की उनके इन स्वागत-सूचक वचनों का अभिनन्दन करके तू जरा पीछे को मुड़ पड़ना और फिर झट पट उत्तर की ओर चल देना।

वहां से कुछ ही दूर तुझे आम्रकूट नामक शिखरधारा पर्वत मिलेगा। पानी बरसा बरसा कर तूने इसके आतप-तप्त वनो का सन्ताप न मालूम कितनी दफ़े दूर किया है। इस प्रकार तूने पहलेही से उस पर बहुत कुछ उपकार कर रखा है। अतएव राह का थका-मांदा जब तू उसके उपर पहुँचेगा तब वह बड़े आदर से तुझे अपने सिर पर बिठा कर तेरी थकावट दूर कर देगा। अपने ऊपर उपकार करनेत्राला मित्र यदि दैवयोग से अपने घर आ जाय तो नीचात्मा भी भक्तिभाव-पूर्वक उसका आदर करते हैं उससे--विमुख नहीं होते---उच्चात्माओं का तो कहना ही क्या है। इन कारण आम्रकूट जैसे उच्च शिखरवाले पर्वत के द्वारा तेरा सम्मान होना ही चाहिए। इस पर्वत के विषय में मुझे कुछ और भी कहना है। इसका आम्रकूट नाम सर्वथा सार्थक है। बात यह है कि इस पर आम के पेड़ों की बहुत अधिकता है। उनसे यह व्याप्त हो रहा है। इसी से यह आम्रकृट कहाता है। आज-कल आम पक रहे होंगे और पके हुए आमों से इसका प्रान्त-भाग पीला पड़ गया होगा। इस कारण, चमेली का तेल लगी हुई चिकनी वेणी के सदृश काला काला तू जब इसके पीतवर्ण शिखर पर बैठ जायगा तब ऐसा मालूम होगा मानो पृथ्वी के तप्त-काञ्चन-सदृश पयोधर के बीच में श्यामता
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दिखाई दे रही है। देवाङ्गनाओं सहित देवता लोग इस अपूर्व दृश्य को देख देख कर बहुत ही प्रसन्न होंगे।

आम्रकूट के आगे चित्रकूट मिलेगा। उस पर भी बड़े बड़े शिखर हैं। मित्र मेघ! जब तू उसके सामने पहुँचेगा तब वह भी अपना अहोभाग्य समझेगा और तुझे थका देख अपने सिर पर बिठा लेगा। तू भी घोर वृष्टि करके उसकी निदाघ-ज्वाला को अच्छी तरह शान्त कर देना। इससे कृतोपकार का उसे तत्काल ही बदला मिल जायगा। सज्जनों के ऊपर किये गये सद्धावसूचक उपकार का फल मिलते कुछ भी देर नहीं लगती। चित्रकूट की कुञ्जों में बनवासी लोगों की बालायें मनमाना बिहार किया करती हैं। बहुत नहीं तो थोड़ी देर तू अवश्य ही उस पर ठहर जाना; तब आगे चलना। पानी बरसाने से तब तक तू हलका भी हो जायगा। अतएव, तू और भी अधिक वेग से चल सकेगा।

आगे तुझे नर्मदा नदी मिलेगी। बड़े ही विषम पत्थरों से टकराती हुई वह विन्ध्याचल के बीच से बहती है। दूर से वह तुझे काले काले हाथी के शरीर पर खरिया मिट्टी से खींची गई श्रृङ्गार- रखाओं की रचना के समान दिखाई देगी। नर्मदा के किनारे, किनारे, और कहीं कहीं मध्यवर्ती टापुओं में भी, जामुन के कुञ्जही कुञ्ज हैं। वे उसके जलप्रवाह के मार्ग में रुकावट पैदा करते हैं। इस कारण उसकी धारा रुक रुक कर बहती है। विन्ध्याचल में बड़े बड़े बनैले हाथियों की अधिकता है। उनके मस्तकों से मद टपका करता है। वे जब नर्मदा में जल-विहार करते हैं तब वह मद पानी में मिल कर उसे सुगन्धित कर देता है। अतएव,ऐसा
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सुगन्धि-पूर्ण और धीरे धीरे बहनेवाला जल तू अवश्य पी लेना। चित्रकूट में बरसने के कारण तेरे पास जल का सञ्चय रह भी छोड़ा हो जायगा। एक और भी कारण से नर्मदा में जल-ग्रहण करना तेरे लिए आवश्यक होगा। वह यह कि जलयुक्त होने से तू भारी हो जायगा। अतएव, तुझ पर वायु का कुछ भी ज़ोर न चलेगा। वह तुझे मनमानी दिशा में न ले जा सकेगा। मुझे विश्वास है, यह बात तू भी जानता होगा कि पूर्णता गौरव की सूचक है और रिक्तता लाघव की खाली चीज़ सदा ही हलकी होती है और मरी सदा ही भारी।

जहाँ जहा तू जल बरसावेगा वहाँ वहाँ कदम्ब के पेड खिल उठेंगे। हरे, पीले फूलों से वे लद जायँगे। उन फूलों के बीच में ऊपर का उठे हर कंसर ( रुवे ) बहुत ही भले मालूम होंगे। इन कुमुमित कदम्बों, और नदियों के कहारों में नई कलियाई हुई कन्दलियों, को देख कर मोरो के आनन्द की सीमा न रहेगी। जले हुए जङ्गलों में भूमि पर तेरा बरसाया हुआ जल पड़ने से जो सुन्दर सुगन्धि उड़ेगी उसे सूँघ कर भी वे बहुत प्रसन्न होंगी। अतएव, ऐसी आनन्ददायक सामग्री प्रस्तुत करने के लिए वे तेरे बहुत ही कृतज्ञ होगे और तेरे आगे उड़ उड़कर प्रसन्नतापूर्वक तुझे मार्ग बतावेंगे। इस कारण तुझे किसी से अलका का मार्ग पूँछना भी न पड़ेगा। तुझस केवल मोरों ही को आनन्द की प्राति न होगी। तू सिद्धों के भी आनन्द का कारण होगा। जब तू बरसने लगेगा तब चातक दौड़ दौड़ कर अपनी चोंचों से तेरे वारि-बिन्दु ग्रहण करेंगे और बगलिया पाँत बाँध कर आकाश में खुशी खुशी उड़ने लगेंगी। उस समय सिद्ध लोग चातकों को देख देख कर प्रमन्न होगें और उड़ती हुई
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बगलियो को गिन गिन कर उन्हें अपनी सहचरी सखियों को दिखावेंगे। यदि तू कभी ज़ोर से गरज देगा तो सिद्धों की सहचरिया डर कर कांप उठेगी और सहसा अपने प्रेमियों के कण्ठों से लिपट जायेंगी। यह आलिङ्गन तेरी ही बदौलत प्राप्त हुआ जान, सिद्ध लोग तेरा बहुत उपकार मानेंगे।

यद्यपि मुझे विश्वास है कि मेरा सन्देश मेरी प्रियतमा तक पहुँचाने के लिए तू बहुत जल्द चलने की चेष्टा करेगा, तथापि, मुझे डर है कि कहीं पहाड़ों पर अर्जुन नाम के वृक्षों के फूलों की सुगन्धि तुझे मोह न ले और कहीं नू सुगन्धि के लोभ से बहुत देर तक न ठहर जाय। तेरे मार्ग में पहाड़ भी एक दो नहीं, कितने ही हैं और उन सब पर अर्जुन के पेड़ हैं। फिर, एक बात और भी है। शुक्ल और सजल नेत्र-प्रान्तवाले मोर भी अपनी केकाओं के द्वारा तेरा स्वागत करेंगे। उनके स्वागत का स्वीकार करने के लिए यदि तू यह निश्चय करे कि यहाँ भी कुछ देर ठहर जाना चाहिए तो आश्चर्य नहीं। इन रुकावटों के कारण जल्द जाने में तू कैसे समर्थ होगा, यह मेरी समझ में नहीं आता। इसी से मेरे मन में यह सन्देह होता है कि कहीं तू इन जगहों में देर तक न रूका रहे।

आगे तुझे दशार्ण नामक देश मिलेगा। तेरे पहुँचने पर भी वहाँ हंस कुछ समय तक ठहरे रहेंगे। बात यह है कि वह देश पहाड़ी है। इस कारण वहाँ के जलाशयों का जल वर्षा में भी गँदला नहीं होता। दशार्थ में केतकी बहुत होती है। उसके बड़े बड़े सुन्दर फूलों से वहाँ के उपवनों के किनारे तुझे पीले पीले दिखाई देंगे। यह समय पक्षियों के लिए घोंसले बनाकर उनके भीतर रहने का
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है। अतएव गावों के चारों तरफ उन्हें तू अपने अपने घोसलों में कलोल करते पावेगा। आहा! आज कल तो परिपक फलों से लदे हुए जामुन के वृक्षों से वहाँ के वनों के बाहरी भाग श्यामही श्याम दिखाई देते होंगे। दशार्ण देश की राजधानी का नाम विदिशा (मिलसा) है। वह बहुत नामी नगरी है। देश-देशान्तरों तक में वह प्रसिद्ध है। वेत्रवती नदी उसके पास ही बहती है। उसके नीर पर तू ज़रा देर ठहर जाना और यदि शब्द ही करना हो तो धीर धीरे करना। वेत्रवती का जल बहुत ही स्वादिष्ट है। वह लहरियों से सदा ही लहराया करता है। ऐसे चञ्चल तरङ्गवाल जल को भ्रमङ्ग-युक्त मुख के सदृश पीकर तू कृतकृन्य क्या हो जायगा, तुझे तत्कालही रसिकता का बहुत बड़ा फल मिल जायगा।

विदिशा के पाम ही नीचगिरि नाम का पर्वत है। वहा भी थोड़ी देर ठहर कर विश्राम कर लेना। उस पर कदम्ब के बड़े बड़े फूल खिले देख तुझे ऐमा मालूम होगा जैसे तुझसे मिलाप होने के कारण वह पर्वत पुलकित हो रहा है---कदम्ब-कुसुमों के बहाने वह अपने शरीर को कण्टकित कर रहा है। नीचगिरि पर सुन्दर सुन्दर शिला-गृह हैं। उनसे अडग्नाओं के अडगराग और इत्र आदि को सुगन्धि आया करती है। यदि तेरी भी घ्राणेन्द्रिय को इस सुगन्धि का अनुभव प्राप्त हो ना समझ लेना कि विदिशा के रसिक युवक वहा विहार करने आते हैं।

नीचगिरि पर कुछ देर विश्राम करके आगे बढ़ना। मार्ग में तुझे पहाड़ी नदियों के किनारे किनारे बहुत से फूलबाग मिलेंगे। उनमें चमेली फूल रही होगी उसे अपनी नई बँदों से तू अवश्य
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हो सींच देना। भूलना मत। वहाँ तू एक और भी काम करना। उन फूलबागों में मालिने फूल तोड़ती होंगी। उनके कपोलों से गरम गरम पसीना निकल रहा होगा। उसने कानों पर रक्खे हुए फल के गहने की कान्ति बिगाड़ दी होगी; वह पुष्पाभरण कुम्हला गया होगा। बेचारी मालिनें तङ्ग आकर बार बार पसीना पोंछती होगी। अतएव, दया करके ज़रा देर उनके ऊपर छाया कर देना और उनसे जान-पहचान भी कर लेना।

जाना तुझे है उत्तर दिशा को, क्योंकि अलका उसी तरफ है, और उज्जयिनी है कुछ पश्चिम में। इस कारण उस तरफ़ से जाने में तुझे फेर अवश्य पड़ेगा। परन्तु फेर पड़े तो पड़े; उज्जयिनी को जाना अवश्य पड़ेगा। वहाँ के ऊँचे ऊँचे अभ्रंकष महलों को देखे बिना न रहना। वहाँ की कामिनियाँ बहुत ही रूपवती हैं। उनकी चञ्चल चितवन बड़ा काट करती है। जिस समय तू बिजली चमकावेगा उस समय उसकी चमक से उसकी आँखें चौंधिया जायँगी। अतएव, उनकी शोभा और भी अधिक हो जायगी। यदि तू उन विलासवती वनिताओं के कटाक्षों का निशाना न बना तो मैं यही समझूँगा कि तेरा जन्मही व्यर्थ गया।

मार्ग में निर्विन्ध्या नाम की नदी बड़े प्रेम से तेरास्वागत करेगी। तीर पर बैठे हुए हंसों की पंक्ति को वह तागड़ी के समान दिखावेगी और लहरों की हिलोरें लगने पर हंस जो मधुर शब्द करेंगे उसे वह तागड़ो के घुघुरुओं की झनकार के समान सुनावेगी। तू देखेगा कि वह बल खाती हुई कैसी अनोखी चाल से जा रही है और भँवर- रूपी नाभि को किस अपूर्व कौशल मे दिखा रहा है बात यह है कि
[ १५ ]अपने प्रेमपात्र के सम्मुख हाव-भाव प्रकट करना ही स्त्रियों का पहला प्रणय-सम्भाषण है। अतएव तुझे लुभाने के लिए किय गये इन विलास-विभ्रमों का आनन्द लूटकर निर्विन्ध्या के रस-ग्रहण मे कुछ भी संकोच न करना।

निर्विन्ध्या के आगे तुझे सिन्ध नाम की नदी मिलेगी। तुझे ही वह अपने सौभाग्य का कारण समझती है। अतएव, तेरे वियोग मे वह वियोगिनी बन रही होगी। तू स्वंयही देखेगा कि विरहिणी वधू की वेणी के सदृश उसकी धारा पतली हो गई है और तटवर्ता तरुओं से गिरे हुए पुराने पत्तों से उसका रङ्ग पीला पड़ गया है। उनकी इस तरह की दयनीय दशा देख कर तू ऐसा उपाय करना जिसमें उसकी कृशता दूर हो जाय। तुझसे जलरूपी रस का दान पाने से उसका दुबलापन चला जायगा, यह तू समझही गया होगा।

आगे चल कर तू अवन्ती में पहुँच जायगा। वहाँ उदयन नाम का एक बड़ा प्रतापी राजा हो गया है। उसके बल, प्रताप और प्रभुत्व आदि की कथाये अवन्ती ही के नहीं, दूर दूर तक के गांवों के भी वृद्ध जन अब तक कहा करते हैं। उस प्रसिद्ध अवन्ती नगरी से होकर परम सम्पतिशालिनी उज्जयिनी में पहुँच जाना। उसे देख कर तू कृतकृत्य हो जायगा। उसको शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उसकी सुन्दरता और सम्पदा देख कर तेरे मन मे यह भावना उत्पन्न हुए बिना न रहेगी कि वह स्वर्गही का तो एक टुकड़ा नहीं। मैं तो उसे एऐसा ही समझता हूँ। मुझे तो ऐसा मालूम होता है जैसे अपने पुण्य-प्रभाव से बहुत समय तक स्वर्ग का सुखोपभोग करने के अनन्तर बचे हुए पुण्य के प्रताप से पुण्यात्मा [ १६ ]लोग उञ्जयिनी के रूप में स्वर्ग के ही एक कान्तिमान् खण्ड को पृथ्वी पर उठा लाये हैं।

उज्जयिनी क्षिप्रा नदी के तट पर बसी है। अतएव, नदी के जल के स्पर्श से वहां के पवन में सदा शीतलता रहती है। वह नायक के सदृश चतुर है। वह नायक ही की तरह अनुनय-विनय तथा सेवा-शुश्रूषा करना खुब जानता है। प्रातःकाल खिले हुए कमलों से मैत्री करके---उनसे मेल-मिलाप करके--उनकी सुगन्धि से वह सुगन्धित हो जाता है, मत्त मरालों के रव को वह और भी अधिक उन्नत कर देता है, स्त्रियों के कोमल कलेवरों पर उत्पन्न हुए श्रमजनित पसीने को वह सुखा भी देता है। मुझे आशा है, ऐसा रसिक और चतुर पवन तुझे भी अवश्यही आनन्द-दायक होगा।

उज्जयिनी की नारियाँ स्नान करने के अनन्तर सुगन्धित धूप जलाकर उसके धुवें से अपने गीले केशो को सुखाती हैं। वह सुरभिसुन्दर धुवाँ महलों की खिड़कियों से सदा ही निकला करता है। उससे तेरा शरीर-विस्तार बढ़ जायगा---उसे यदि तू पी लेगा तो खूब परिपुष्ट हो जायगा---क्योकि धुवेंही के अंश-विशेष से तो तेरा शरीर बना है। अतएव, उज्जयिनी के महलों के ऊपर पहुँचते ही तुझे अपने पुष्टि-साधन का अच्छा मौका मिल जायगा। इसके सिवा वहाँ तेरा आदर भी खूब होगा। वहाँ नागरिकों ने मोर पाल रक्खे हैं। वे तुझसे बन्धु-भाव रखते हैं। इस कारण ज्योंही तू वहाँ पहुँचेगा त्योंही वे नाच नाच कर तेरा स्वागत करेंगे।

शय्या, पूजा और श्रृङ्गार आदि के लिए रक्खे हुए फूलों से उज्जियनी के महल सदाही सुगन्धित रहते हैं। उसकी छतें ललित [ १७ ]लावण्यवती ललनाओं के पैरों में लगे हार महावर के चिह्नों से चिह्नित भी रहती हैं। ऐसे सुन्दर और सुगन्धित महलों के ऊपर कुछ देर तू विश्राम कर लेना। इससे तेरे शरीर की सारी थकावट और मन की सारी खिन्नता दूर हो जायगी।

महलों पर थोड़ी देर सुस्ता कर तू त्रिभुवन के गुरु भगवान् भूतनाथ के पवित्र मन्दिर के अहाते में जाना। जो रङ्ग तेरा है वही श्रीकण्ठ के कण्ठ का भी है। रङ्ग की इस ममता के कारण महादेवजी के गण तेरा बड़ा आदर करेंगे। यह मन्दिर एक मनोहर उद्यान में है। पासही गन्धवती नामक नदी है। शरीर में सुगन्धित उबटन लगाकर स्त्रियाँ उसमें जल बिहार करती हैं। इस कारण नदी का जल सुगन्धित हो जाता है। इस नदी में कमल भी बहुत खिलतें हैं। उनकं पराग-कण और जल की सुगन्धि अपने साथ लाकर पवन पूर्वोक्त उद्यान के वृक्षों को हिलाया करता है। अतएव इस बात का तू स्वयं ही अच्छी तरह अनुमान कर सकेगा कि मन्दिर के आस पास का प्राकृतिक दृश्य कितना सुहावना होगा।

एक बात की सूचना मैं यहां पर दे देना चाहता है। वह बहुत ज़रूरी है। बात यह है कि यदि तू सायङ्काल होने के पहले ही महाकाल के मन्दिर में पहुँचे तो सूर्यास्त होने तक वहाँ ज़रूर ठहर रहना। क्योंकि सायङ्काल वहाँ शिवजी की पूजा बड़े ठाठ से होती है। पूजन के समय शिवजी को प्रसन्न करने का तुझे अच्छा अवसर मिलेगा। पूजन आरम्भ होते ही तू मन्द मन्द गरजन लगना । तेरी वह गरज दुन्दुभी या नक्कारे का काम देगी।