मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद/३

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मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद  (1924) 
द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी

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वहाँ के महल शुभ्र मणियों के हैं ! कोई महल ऐसा नहीं जिसमें मणियां पक्षों न की गई हों ! इस कारण रात को नक्षत्रों और तारों की छाया जब उन पर पड़ती है तब ऐसा मालूम होता' है मानों उन पर फूल बिछे हैं। उन महलों में सदा ही नाच-राग- रड्ड हुआ करता है। जिम समय मन्द मन्द मृदङ्ग बजते हैं, मालूम होता है कि वादल गरज रहा है। सस्त्रीक यक्ष उन्हीं महलों मे रहते हैं और कल्पवृक्ष के कुसुमों से तैयार की गई मदिरा पी पी कर आनन्दपूर्वक विहार किया करते हैं।

अलका की अभिसारिका स्त्रियाँ अपने अपने प्रेमियों से मिलने के लिए कभी कभी रात को बाहर निकलती हैं । जल्दी जल्दी चलन के कारण राह में कहीं उनकी अलकों से मन्दार के फूल गिर जाते हैं. कहीं कर्णफूलवन् पहने हुए कनक कमल कानों से खिसक पड़ते हैं, और कहीं हृदयस्थल की उँचाई के कारण, डोरा टूट जाने से, हार के मोती विखर जाते हैं। प्रातःकाल इन चीज़ों को पड़ी देख लोग तत्काल ताड़ जाते हैं कि इसी राह से अभिसारिकायें गई हैं।

यक्षों के दीपक मणियों और रत्नोही के हैं। वे कभी बुझते ही नहीं। उन्हें कभी जलाने की ज़रूरत भी नहीं होती । अपने स्थान से वस्त्र खिसक जाने पर, यक्षों की अल्पवयस्का अङ्गनाये, लज्जित होकर , कुमकुम आदि मुट्ठी में लेकर उसे, सामने रक्खे हुए बड़ी लौ वान्ने उन रत्न-प्रदीपों पर, फेंकती हैं कि वे बुझ जायँ; परन्तु उनका यह प्रयन्न व्यर्थ जाता है । भला रत्नों के भी दीप कही बुझ सकते हैं ? आखिर को वे मुग्धाही तो ठहरी । मुग्ध जनों को
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वहाँ वायु के उड़ाये हुए तेरे मश, और भी वादल आया करते है।वे अलका के महलों के ऊपर पहुँच कर शरारन करने लगते मौके वे-मौके बरस कर पहले तो वे महनों के गिनों में पूरी ई चौका और खींची गई चित्रावलियों को विगाड़ देते हैं, फिर तापलध से डर कर खिड़कियां के रास्त भाग खड़े होने हैं। उस ममय सिमिट कर व धुर्वे के समान पतले हो जाते हैं। इस काम मे व वड़ा ही पटुता दिवाने हैं : व्यभिचारी मनुष्य के मश, युवे का रूप धर कर, खिड़की की राह भागना व खत्र जानते हैं।

अलका को किम किस विशेषता का मैं वर्णन करूं । वहाँ घर घर में चन्द्रकान्त-मगियां हैं। वं बहुधा शय्याओं के उपर, रेशम की डोरियों से बंधी हुई. ममहरी की छत से लटका करती हैं। आकाश मेघमुक्त होने पर जव चन्द्रमा की चाक किरणों उन पर पड़ती है तब उनसे अन्त के कग टपकने लगते हैं। उनको शीतलता से सुन्दरियों की मुरत-ग्लानि दूर होने में देर नहीं लगती । देखना, आकाश में फैल कर कलाधर की किरणों के आने के मार्ग में कहीं रुकावट न पैदा करना।

मनोज इस बात को अच्छी तरह जानता है कि कुवेर के सखा साक्षान् पिनाकपाणि शङ्कर वही रहते हैं। अतएव, उनकं डर से वह भौरों की प्रत्यञ्चावालं अपने चाप को चढ़ाने का बहुत ही कम साहस करता है । शायद ही कभी वह उसे उटाता होगा। परन्तु चाप न चढ़ाने पर भी उसका काम हो ही जाता है; वह नहीं रुकता । उसके धनुष का काम वहाँ की स्त्रियां कं म्रमायुक्त नेत्रो" से चलाये गये कुटिल-कटाक्षरूपी शरों से हो जाती है । वनिताओं
[ ३४ ]के इन विभ्रम-विशिखों को तू ऐसा वैसा न समझना । जिम पर्टी लक्ष्य करके ये चलाये जाते हैं उसे में घायल किये बिना नहीं रहते है यं अपने निशान पर लग कर ही रहते हैं; कभी निष्फल नहीं जाते। इनकी मार से कोई भी अपना बचाव नहीं कर सकता।

अलका पहुँच कर तू मेरे घर जाना । वह, कुवेर के महलो से उत्तर की ओर कुछ ही दूर आगे, है। मैं तुझे अपने घर की पह- चान बताता हूँ। उसके द्वार पर अनेक रङ्गों से रँगा हुआ, इन्द्रधनुष के ममान शोभाशाली, तोरण तुझे दूर से दिखाई देगा। घर के उद्यान में नन्दार का एक बाल वृक्ष है । उसे मेरी प्रियतमा पत्नी ने पुत्रवत् पाला है फूलों के गुच्छों से लद कर उसकी डालियाँ इतनी झुक जाती हैं कि महजही उन तक हाथ पहुँच सकता है । उसके फूल तोड़ने में कुछ भी कष्ट नहीं होता।

उसी उद्यान-उसी पुष्प-वाटिका-में एक जलाशय है। उसकी सीढ़ियों पर पन्ने जड़े हुए हैं वे सीढ़ियां मरकत-शिलाओं की हैं। जलाशय के जल पर नीलम के समान सुन्दर नालोंवाले कनक- कमल छाये रहते हैं। उसका जल इतना निम्मल और इतना मीठा है कि वहां रहनेवाले हंसों को तुझे देख कर भी-वर्षा-ऋतु आजाने पर भी-मानसरोवर की याद नहीं आती। वह मरोवर यद्यपि अलका के पामही है, दूर नहीं, तथापि मरे उद्यान में हंसों को इतना सुख है कि वे मान-सरोवर को भूल सा गये हैं।

पूर्वोक्त जलाशय के तीर पर मेरा क्रीडाशैल-मन बहलाने का कृत्रिम पर्वत-है। उसके शिखर पर सुन्दर सुन्दर नीलम लगे हुए हैं। कनक कदली की दर्शनीय वाड से वह शैल चारों तरफ घिरा हुआ है। [ ३५ ]
ध में प्रान्तभाग में चमकती हुई विजनों से युक्त तुझं दम्यता है तब रा वह शैल मेरे नत्रों के सामने आ सा जाता है। बात यह है कि मुझ मैं उसकी समता पाता हूँ। तुझे देवते हा मुझका उमका नीलम । नड़ा हुआ शिम्बर याद आ जाता है और तेरे प्रान्तभाग में बिजली चमकती देख उसकी वह कनक-कदल्ली की वाड़ याद आ जाती है! नरी गृहिणी उम जन्त का बड़ा प्यार करती है । इस कारण उसका भरण होते ही मेरा कन्तेजा काप कटता है और मैं विहल हो

उस क्रीड़ा-शैल पर चमेली का एक मण्डप है. जिमके चारो ओर कुरुबक (कुरे ) की बाड़ है । उसी मण्नुप के पाम दा वृक्ष हैं- क तो लाल अशाक का, जिसके हिलन हुए पतं बहुत ही सुहावन मालूम होते हैं। दूनग बकुल (मालसिग का. जिसकी मनाहरता मैं वर्णन नहीं कर सकता: उनमें से पहला ना तेरी सखी मेरी पत्नी ) के बॉयें पैर का स्पर्श चाहता है; क्योंकि बिना उमके ह फुलता ही नहीं; और दूसरा दोहद के बहाने उसकी मुख-मदिरा की प्राप्ति की आकाक्षा रखता है. क्योंकि वह भी बिना उसके कुल नहीं देना ! मित्र दब, मेरे क्रीड़ा-शैल के इन वृत्तों की वृत्ति भी मेरी ही सी है। जैसे मैं अपनी गृहिणी के पैर छूने और मदिरापान के बहाने उसके मुख का रस लेने की इच्छा रखता हूँ से ही ये भी रखते हैं।

उन्हीं दोनों वृक्षों के बीच में सोने का एक ऊचा खम्भा है। उसकी जड़ में हर वाँस की कमनीय कान्तिवान्नं सुन्दर सुन्दर रत्न जड़़े हैं । खम्भे के ऊपर स्फटिक की एक पटिया है। उसी पर तेरा
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मित्र मोर आकर जब सायङ्काल बैठता है तब मरी हृदयेश्वरी कङ्कण बजते हुए अपने कोमल कर से ताल दे देकर उसे नचाती है ।

मेरे बताये हुए इन चिह्नों का तू अच्छी तरह याद रखना। इन्हें देख कर तू मेरा घर महज ही पहचान लेगा; किसी से पूछने की ज़रूरत न पड़ेगी । हाँ, एक चिप और भी मैं वताता है। मेरे द्वार पर शङ्ख और पदा के चित्र हैं। उनसे भी तुझे मेरा घर पहचानने से सहायता मिलेगी। हाय हाय! बिना मेरे मरा घर, इस समय. बिलकुल ही शोभाहीन होगा । सूर्य के वियोग से जो दशा वारिज- वन की होती है मेरे वियोग से वही दशा मर घर की भी हुई होगी। कमल ही के सदृश वह भी मलिन और छविहीन होगया होगा।

मेरे घर पर पहुँच कर मेरी प्रियतमा के प्राणों का परिताण करने के लिए तू एक काम करना । बड़ा भारी रूप धर कर तू उमर्क सामने न जाना, क्योंकि वैसा रूप देखने से शायद वह डर जाय, अतएव, तू हाथी के बच्चे के सदृश छोटा सा रूप धारण कर लेना और मेरे क्रीड़ा-शैल के ऊपर उसी शिखर पर चुपचाप जा बैठना जिसका उल्लेख मैं पहले ही कर चुका हूँ। फिर, अपनी बिजलीमापिणी दृष्टि को मेरे घर के भीतर जाने देना । परन्तु उसे बहुत न चमकाना । जुगुन की पॉति के सदृश उसे थोड़ा थोड़ा चमका कर देखना कि मेरी प्राणवल्लभा क्या कर रही हैं। मैं उसकी भी पहचान बताये देता हूँ। वह कृशाङ्की है; उम्र उसकी सोलह वर्ष से अधिक नहीं; दाँत उसके अनार केसे दाने हैं; ओठ उमदे पके हुए बिम्ब-फल के सदृश हैं; कटि उसकी अत्यन्त क्षीण
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है: नाभि उसकी गहरी है: आँखें उसकी चकित हरिशों की आंखे के सदृश हैं: नितम्ब उनके बहुन भागे हैं, इसमें वह चलने में अनमानी सी है; और पयोधर उसके गुरुना-वर्ग है, इसमें बड़ी कुछ अको हुई मी है। उनकं म्पवर्णन में और अधिक बहन की अावश्यकता नहीं। इतना ही कहना वन होगा कि वयों को स्मृष्टि में ब्रह्मा नं उसी को सबसे अधिक सुन्दर बनाया है : अथवा ब्रह्म की कारीगरी का सबसे बढ़िया नमूना वही है ,

उसी को न मरी प्रागश्वरी ममझता। वह मं दृसरे जीवन के ममान है ! मुझमे वियुक्त होने के कारण वह बहुत कम बोलती होगी । बोलें क्या ,बातचीत में उसका मनहीं न लगता होगा। उमकी दशा तो चकवे से बिजुड़ी हुई चकवा के नदश हंगा। वियंग के इन दिनों में उसका उत्कण्ठा बहुत ही बढ़ गई होगी, शीत की मागे पद्मिनी के समान उसका रुप कुछ का कुछ होगया होगा। बेचारी अकेली न मालुम अपने दिन किम तरह काटता होगी। दिन-रात रोते रोते उनकी आंखे मुज़ गई होग! गरम गरम उन्मास लेते लेते. उरके ओठों का रङ्ग फीका पड़ गया होगा। खुली हुई अलके उसके मुम्ब पर लटक रही होगी ? उनसे वह कही कहीं छिप गया होगा। अतएव हाथ पर रक्खा हुया, उसका वह मुन्व-तुझसे पीछा किये गये । धनों से घिरे ढग । चन्द्रमा के समान-मलिन और कान्तिहीन दिखाई देता होगा चलायमान मेघों के कारण जो हाल चन्द्रमा का होता है- अर्थान कभी तो उसका कुछ अंश ढक जाता है, कभी खुल जाता है. कभी धुँधला दिग्वाई देता है-वही हाल- लटकी हुई अलको के कारण मेरी
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प्रिया के मुख का भी होगया होगा। वह बहुत ही दीन दिखाई देता होगा।

जिम समय तू मेरे घर पहुँचेगा उस समय था ता मेरी श्रद्धा- गिनी मेरो कुशल-कामना से देवाराधना कर रही होगी, या वियोग- दुःख से दुवले हुए मेरे शरीर का अनुमान करके उसी भाव का व्यञ्जक भरा चित्र खीच रही होगी, या पीजडे में बैठी हुई मधुर- भापिणी मैना से पूछ रही होगी-"अरी, क्या तुझे भी मर प्रिय- तम की कभी याद आती है ? तेरा तो वे बड़ा प्यार करते थे। या वह मैले कपड़े पहने हुए, गाद पर वीणा रख कर, मेरं कुल के गीत गाने बैठी होगी और आँसुओं की झड़ी से भीगे हुए तारों को पोछती हुई पूर्वाभ्यस्त मूर्छना को भी बार वार भूलती होगी। या देहली पर चढ़ायं गये फूल भूमि पर रख रखकर वह मेरे शाप की अवधि के अवशिष्ट महीनं गिनती होगी । या मन ही मन यह अनु- मान करके कि मेरे शाप के दिन बीत गये और मैं घर आगया, वह मेरे समागम का सुख लूट रही होगी। में ये सम्भावनायें इस- लिए करता हूँ कि पति के वियोग में खियाँ प्रायः यही बातें कर करकं अपना मन समझाती हैं और किसी तरह अपने दिन काटती हैं।

दिन भर वो काम-काज में लगी रहने से उसे मेरे वियाग की पीड़ा कम सताती होगी; परन्तु, रात को कोई काम न रहने से, मुझे डर है, वह वियोग-व्यथा से अत्यन्त ही व्याकुल होती होगी! मेरा कुशल-समाचार सुना कर उसे सुखी करने के लिए तू रात ही के समय मेरे घर पहुँचना और चुपचाप खिडकी में बैठ जाना। तू देखगा कि वह सानी भूमि पर एकहा करवट परी है मनोव्यथा
[ ३९ ]में वह अतिशय चोए हो रही है: मेरा वियोग उमे इतना मना रहा है कि हज़ार चेष्टा करने पर भी उसे नींद नहीं मानी:वह तुझे अँधेरे पाख की चतुदशी के चन्द्रमा को पर्ची हाक-मात्र कन्दा के समान दुबनी मानुन होगी मरे मात्र रहने समय जो रात पलक मारने बीन जाती थी उमी का अब वह वियोग-जन्य उ अाँसू बहाती हुई बड़ी कठिनता में काटती होगी । बार बार गग्म उमाम लते लेने उसकं नवल-पल्लब-नुल्य कोमल अवर सूख गये होगे विनातल-उबटन लगाय ही स्नान करने के कारण उम केगों की बुरी दशा होगी। वे वं हां गयं नं ! उनको लटें उमकं कपोलों पर लटक रही होगी। जब वह लम्बी उमासे लती होगी तब मुस्त्र पर पड़ी हुई उनकी अलके हिल हिल कर इधर-उधर बिखर ज्ञानी होगी । वह बहुत चाहती होगी कि यदि क्षण भर भी नीद आ जाय तो माक्षान् न सही. स्वप्न ही में, मुझसे उसका मिलाप हो जाय: परन्तु आँग्वां से बहनेवाले प्रांसुओं की धारा पल भर भी उसकी पलकें न लगने देती होगी।

मैं उसकी दयनीय दशा का अहाँ नक वर्णन क । जिम दिन मैं उससे बिछुड़ा उन दिन उनकी वेगो विना माला ही के बाधी गई थी : शाप की अवधि बीत जाने पर, जब मैं मुदिन-मन घर लौटुंगा तब उसे में ही अपने हाथ से खालूंगा ' तब तक वह वैसी ही पड़ी रहेगी। इस कारण वह अत्यन्त कठिन हो गई होगी-इतनी कठिन कि उसके स्पर्श से मंरी प्रिया के कपाना को बहुत कष्ट होता होगा । उसे वह बद हुप नखोवाले अपने हाथ से बार बार सरकाती होगी। [ ४० ]
संयोग के समय चन्द्रमा की पीयूष-सहश शीतल किरणों से मेरी प्रापेश्वरी ने बहुत सुख पाया है । इस कारण जब वे खिड़की को राह में घर में प्रवेश करतो होगी तव पहली प्रीति की प्रेरणा से उसको पाखें उस तरफ दौड़ जाती होगी। परन्तु वियोग-व्यथा की याद आते ही वे तत्काल ही वहाँ से लौट पड़ती होंगी: क्योंकि अब तो वे विपवन दुःखदायिनी हो रही होगी । उस समय आँसुओं से पूर्ण पलकों से कभी तो वह ओखें ढक लेती होगी और कभी फिर खाल देती होगी। अतएव वह कुछ कुछ सोती और कुछ कुछ जागती सी ऐसी मालूम होती होगी जैसी कि दिन में, आकाश मंधाच्छादित हे ने पर, घल की कमलिनी मालूम होती है-वह कमलिनी जिस देखने से यही नहीं ज्ञात होता कि वह सा रही है कि जाग रही है।

मित्र मेघ ! अपनी गृहिणी को दीन दशा का अनुमान करके मेरा कलेजा फटता है। उसके कमल-कामल शरीर पर एक भी गहना न होगा; सब उसने उतार फेंके होंगे : भू-शय्या पर वह बिलखती हुई पड़ी होगी और अपनं अत्यन्त कृश शरीर को अड़ी ही कठिनता से धारण कर रही होगी। उसके दुःस्व की सीमा न होगी । मैं सच कहता हूँ. उसकी दैन्यावस्था देख कर तू भी अवश्यही रा देगा-जल कणां के रूप में आँसू गिराये बिनातू भी कदापि न रह सकेगा। क्योंकि, जिनको आत्मा आई है-जो सरस- हृदय हैं-वे बहुधा करुणामय होते हैं: उनसे दूसरे का दुःख नहीं देखा जाता । मैं जानता हूँ कि मेरी पत्नी का मुझ पर प्रगाढ़ प्रेम है।

मरा रद विश्वास है कि इस पहलेही वियाग में उसकी वही
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दशा हुई होगा जिसका कि मैंन तुझस वर्शन किया। दू मुझे व्यश्च वानूनी न मान बैठना अपने मन में कही न यह न समझना कि मैं, अपना झूठा सौभाग्य प्रकट करने के लिए न्यों ही अपना वड़ाई बघार रहा हूँ ! भाई मेरे : इस विषय में जो कुछ भने नुमे कहा वह मब नू बहुत शीत्र स्वयं ही अपनी प्राश में दन्य लंगा तब तुझे मालूम हो जायगा कि मैंने कोई बात बढ़ा कर नही कहो-मैंने ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं की ।

उसकी कजलहीन आंखे अब अच्छी न लगती होगी। उन पर रूखी अलकां के वार वार गिरने सं उनकी दट्टी चितवन जाती रही होगी-उनका तिरछा देम्वना छूट गया होगा । मायान छाई दन में उन भाग्यां की भौहें भी विलाम-नाना दिवाना भूल गई होगी- उनका भङ्ग-भाव, उनका चमत्कार. जाना रहा होगा , मैं अनुमान करता हूँ कि जब तू मेरी प्रिया के पास पहुँचंगा नब शकुन-सूचना के लिए उस मृगनयनी की बाई आंख अवश्य फड़क उठेगी : उम ममय उसकी उस आख की शोभा, मछली के द्वारा हिलाई गई कमलिनी की शाभा की नमता को पहुँच जायगी।

तेरे पहुँचने पर मंग प्रियतमा का एक और मो शकुन होगा ! कनक-कदली के समान उसकी गोरी गोरी और गल बाई जा भी फड़क उठेगी - वह जांघ जिस पर से मेरे नग्वां के चिह्न मिट गये हैं, जिस पर तागड़ी की लड़ का लटकना बन्द हो गया है और जिसे मेरे कर-स्पर्श का सुख भी अप्राप्य हो गया है।

उस समय यदि उसकी आख लग गई हो और वह निद्रा क यत्किञ्चित् मुख भाग रहा हो तो बहुत नही पहर भर, जरूर
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ठहर जाना । पहुँचते ही गड़गड़ा कर गरजन न लगना सम्भव है. वह मुझ प्रग्गयी को म्वप्न में देख रही हो। इस दशा में यदि तू गरज कर उसे जगा देगा ना उसका वह स्वग्न-सम्भूत मारा सुख मिट्टी में मिल जायगा। देखना, ऐमा न हो । मेरी तो यह प्रार्थना है कि तु प्रातःकाल तक मेरे घर पर ठहरा रहना । बड़े भोर अपने जल-कणों से भीगी हुई. अत्तएव शीतल. पवन चला कर जव तू चमेन्ती की कलियों को विकसित करना तभी लगे हाथ उसे भी जगा कर मचेत कर देना ! उस समय तुझे खिड़की में बिजली चमकाते वैठा देख वह तेरी ओर निश्चल नेत्रों से देवेगी ! तव तू, धीरे धीर गरज कर उम मानिनी से मेरा मन्देश कहना। सन्देश सुनाने के लिए वही मौका सबसे अच्छा होगा । तू इस प्रकार कहना आरम्भ करना-

"हे सौभाग्यवती : मैं तेरे पति का प्यारा मित्र मेघ हूँ। उमका भेजा हुआ सन्देश लेकर मैं तेरे पास उपस्थित हुआ हूँ। मुझमें यह गुण है कि मेरी मन्द मन्द गरज सुन कर विदेशियों के हृदय में अपनी पत्रियों की वेणी खोलने की उत्कण्ठा बड़ो अधि- कता से उत्पन्न हो जाती है-इतनी अधिकता से कि वे लोग मार्ग में यथेष्ट विश्राम किये बिना ही बड़ी शीघ्रता से अपने घर लौटने की चेष्टा करते हैं।

तेरे मुख से ऐसा वचन सुन कर उसका हृदय उत्कण्ठा से परिपूर्ण हो जायगा और वह अपना सिर उठा कर तुझे इस तरह आदरपूर्वक देखेगो जिस तरह कि पवन-पुत्र हनूमान को मैथिली न दहा था फिर वह के खूब ध्यान लगा कर
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तेरा कथन सुनेगी। बात यह है कि पति के मिलाप रे पन्नों को जो आनन्द प्राप्त होता है उमस कृछही कम आनन्द मित्र के द्वारा उसका सन्देश पाने में ग्राम होता है । जब बड उन्मुख द्वाकर ध्यान से तेरा कथन सुनने के लिए नयार हो जाय उन मेरा सन्देश सुना कर उस पर उपकार करता : परन्तु मरे सन्देश का कोई अंशु छूटने न पाये । उसे अपनी तरफ़ में बढ़ा कर कहना, घटा कर नहीं : देव, न यह कहना-

"हे देवी : तेरा पति गमगिरि नामक पर्वत पर रहता है। वह कुशलपूर्वक है और तुझ वियोगनि का कुशान्त-समाचार पूछता है। जितनं शरीरधारी प्राशी हैं, काल मवर्क सिर पर चौबीस घण्टं नाच रहा है : पल भर भी किसी की वैर नहीं। नतो मालूम किम समय वह किम धर दबाव । अतएव. मबम पहन्ते अपने प्रेमी का कुशन्न-वृत्ती पृछना चाहिए । वैरी विधाता ने शाप के कारण, तेरे पनि के आने का मार्ग गक दिया है।वह वेबस दृर परदश में पड़ा है। न कही यह न समझना कि वह मुन्ध से है। नहीं. उनको दशा तुझसे भी अधिक दयनीय है ! मानसिक मङ्कल्पों से ही नहीं, शरीर में भी वह अन्यन्त दीन है। नु दुबली है वह तुझसे भी अधिक दुबला है। तु वियोगाग्नि में नप रही है: वह तुझसे भी अधिक तप रहा है। तु दु:वाश्रु बहाती है. उसकी आँखों में दुःखाओं की सतत धारा बहती है। दू उनसे मिलन के लिए उत्कण्ठित है: उसकी उत्कण्ठा तुझसे भी अधिक है। तू लम्बी उमासें लेती है: उसकी उमार्स तुझमे भी अधिक लम्बी हैं। सारांश यह कि उसकी वियोग विषयक व्याकुलवा वरी
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व्याकुलता से भी बहुत अधिक बढ़ी चढ़ी है और वह बड़े ही कष्ट से अपने दिन काट रहा है। जब वह तेरे पास था तब सखियों के सामनं कही जाने योग्य बात भी, वह तर कान में इसलिए कहने दौड़ता था कि इसी बहाने तेरे मुख-स्पर्श का सुख उसे मिले। मो वही आज दैवयोग से तुझसे इतनी दूर जा पड़ा है कि न तो वहाँ से यहाँ तक दृष्टि ही की गति है और न श्रुति ही की-न तो वह तुझे देखही सकता है और न तुझसे दो बाते ही कर मकता है ! इसी से वह और भी खिन्न रहता है और इसीसे तुझसे मिलने की उत्कण्ठा उसके हृदय में और भी बढ़ रही है। तुझम अपनी करुण-कथा कहने का और कोई द्वार न देख उसनं बड़े चाव से कुछ पञ्च बना कर मुझे याद करा दिये हैं । उन्हीं को मैं तुझे सुनाता हूँ। नू सावधान होकर उन्हें मेरे मुख स सुन"-

"प्रिय ! मैं दिन रात तेरे रूप का चिन्तन किया करता हूँ और दर्शनों से अपने नेत्र कृतार्थ करने के लिए तेगे समता ढूँढ़ने मे लगा रहता हूँ । तेरे अङ्ग की समता मुझं प्रियङ्गु-लताओं मे मिल जाती है, तेरी चितवन की समता चकित हरणियों की चितवन में मिल जाती है, तर कपालों की समता चन्द्रमा में मिल जाती है; तेरे केशों की समता मार-पंखों में मिल जाती है. और तेरी भौंहों की मरोड़ की समता नदी की पतली पतली चञ्चल तरङ्गों में मिल जाती है । परन्तु, हाय हाय ! तेरे सर्वाङ्ग की समता किसी एक वस्तु में कहीं भी एकत्र देखने को नहीं मिलती।

'मैं कभी कभी मनही मन यह अनुमान करता हूँ कि तू मुझसे रूठ कर मानिना अन बैठा है इमस तुझ मनान क लिए मैं पत्थर
[ ४५ ]की शिन्ना पर गेरू से तेरा चित्र खीचता है। परन्तु ज्यांशी में अपना सिर तेरे चरणों पर रखना चाहता है न्याहो मंग आरयों में " आसूँ उमड़ आते हैं और मेरी दृष्टि मक जाती है-- मुझे देगा चित्रही नहीं दिखाई देता : मुझे न मालूम था कि कृतान्त इतना ऋर और इतना निर्दयी है । वह तो हम दोनों के चित्र-मिलाप का भी नहीं देख सकता । निठुरना की हद हो गई।

मेघों को पहली जल-बागमनाची गई भूमि का भुगन्ध के महश सुगन्धिवान् तर मनाहारी मुख से दूर रहने के काम में तो याही क्षीण यां ही अस्थिपश्वर-हो रहा हूँ । परन्तु पश्वशायक को मुझ पर फिर भी दया नही पानी । वह मुझ नीश पर भी वास'बरमा कर और भी बीए कर रहा है वह तो मर को मारनं पर उतारू है उनकं इन पराक्रम को धक : खैर,ग्रीष्म-ॠतु तो किसी तरह बीत गई। अब तो वर्षा-ऋतु आई है सूर्य का नाप कम हो गया है। आकाश में सर्वत्र वादन्त उमड़ रहे हैं। अब तक जैसी बांनी, वीत गई। अब ये वर्षा के दिन कैसे करेंगे ?

'मेरी सदा यह कामना रहता है कि स्वप्न में ही नु मुझे मिन्न जाय ! परन्तु मेरी यह इन्छा बहुत कम फलवना होती है । यदि सौभाग्य से कभी तु मुझं स्वप्न में मिल जाती है तो मैं तेरा बाढ़ आलिङ्गन करने के लिए उतावला होकर अपनी दांनी बांहें फैलाता हूँ। मुझे एसा करते देख वनदेवियों को तरस अाता है व मेरी विकलता और दीनता देख कर दया से द्रवित हो जाता है और आग्दां से मोतियों के समान बड़े बड़े आंसू बहाने लगती हैं। उनकं वे आम तरुओं के भक्ल पल्लवी पर घण्टों गिरा करते हैं। [ ४६ ]
कभी कभी उनर में दक्षिण को वायु चलने लगती है। वह वायु बर्फ से ढकं हुए हिमालय के शिविरों के ऊपर से आती है। अतएव बहुत ठंडी होती है । हिमालय पर देवदारू के वृक्ष बहुत हैं। उनकी कॉपों को तोड़ती हुई जब यह वायु वहतो है तब उनके दृध के स्पर्श से मुगन्धित भी हो जाती है. क्योंकि देवदारु के दृध में बड़ी सुन्दर मुगन्धि होती है : हे गुणवत्ती ! इस लुगन्धि-मनी और शीतल वायु को मैं बड़े ही प्रेम से अङ्क लगाता हूँ। बात यह है कि मेरे मन में आता है कि कहीं यह तेरे अङ्गों को छूकर न आई हो । मरी उत्कण्ठा का यह हाल है कि तेरी स्पर्श की हुई वस्तुओं के समानम को भी मैं बहुत कुछ समझता हूँ।

'तुझसे वियुक्त होने के कारण मैं बड़ी ही भीषण व्यथाय मह रहा हूँ। वे इतनी सन्ताप-कारिणी हैं कि उनके कारण मेरा शरीर दहकता सा रहता है। हाय ! मैं अपनी रक्षा के लिए किसकी शरण जाऊँ ? हे मृगनयनी ! मेरी दशा तो विक्षिप्त के सदृश है । मेरे मन का यह हाल है कि व्याकुलता के कारण वह असम्भव को भी सम्भव ममझता है । वह अत्यन्त दुर्लभ क्या, अलभ्य, पदार्थों की प्राप्ति की भी इच्छा करता है। वह यह सोचता रहता है कि इतनी लम्बी लम्बी रातें किस तरह एक क्षण के समान कट जायँ और दिन प्रातःकाल से मायकाल तक, किस तरह बहुत ही कम कष्टदायक हो। भला ये बातें क्या कभी सम्भव हैं ? मुझ वियागी को न दिन को चैन, न रात को चैन । आठ पहर चौसठ घड़ी तड़पते ही वीतता है।

'मैं मनही मन तरह तरह की कामनायें किया करता हूँ। तुझम मिलन पर मैं यह करूँगा मैं वह करूंगा-यह दिन रात
[ ४७ ]मैं अपने मन में गुना करता है ! इसी नरक बड़े चाय में मैं शाप के दिन गिन रहा हूँ और अपने ग्रामों को रच रहा हूँ तू भीमा ही कर । न भी धीरज धर. और जैसे ही के विचंग के दिन काट दे। हे कल्याणी : कातर न ही सुग्न-दुःव मदा एक मा नहीं रहता। जिस दुःस्व मिलता है उसे मुन्च भी मिलता है । ग्य के पहिये की तरह ये दानां क्रम क्रम से किरा करते हैं। कभी सुन्त्र सामने आ जाता है कभी दुग्न ।

'कार्तिक की अवोधिनी (देवठानी) एकादशी को जब शारङ्गपाणि भगवान् विष्णु शेषशय्या में उठेग, कुवेर के शाप का अन्त हो जायगा । अब कंवन्न चार हो महीने बाको हैं : इन महाना को भी न किसी नरह आंद मूंद कर काट दे . शाप को अवधि समान होने पर, शरञ्चन्द्र की चन्द्रिका छिटकी हुई रानों में हम दोंनों फिर मिलेंगे ! दुःखदायी वियोग ने हमारे हृदयों पर परम्पर मिलने के जिन अभिलापो को बहुत ही बढ़ा दिया है वे सब उम समय अच्छी तरह पृशा हो जायगे हम लोग आज-कल जो तरह तरह की कामनायें कर रहे हैं वे उस समय मभी मफल हो जायँगी। जो बातें इस समय ननामादक हो रही हैं उनका सुस्रो- पभोग उस समय हमें प्रत्यक्ष प्राप्त हो जायगा अतएव धीरज न छोड़। कुछ समय तक और टहर।

'मैं एक बात की याद दिलाता है। एक दिन तू सुख से सो रही थी। इतने में तू अकस्मात् जाग पड़ी और रोने लगी। मैंन बार बार पछा-क्या हुआ ? क्यों रोई ? बता वो। तव तून मुम[ ४८ ]
कराते हुए कहा-हे छली!मैंने स्वप्न में तुझे किसी स्त्री का हाथ पकड़ते देखा था।

'यह रहस्य की बात है। इस मेरे सिवा और कोई नहीं जानता ! इसे मैं इसलिए कहता हूँ, जिससे तुझे विश्वास हो जाय कि मैं सकुशल हूँ और यह सन्देश मेरा ही भेजा हुआ है। त पड़ोसियों और पुरवासियों को चर्चा पर ध्यान न दना । लोग यदि कहें कि जीता होता तो अवश्य आता अथवा चिट्टी हो भेजता तो उनकी बात पर विश्वास न करना ! विद्वानों का कहना है कि वियोग में पारम्परिक प्रेम कुछ कम होजाता है-अपना नही पाम न रहने पर स्नेह कुछ घट जाता है-परन्तु प्रेमपात्र के दर्शनों से वह पहले से भी अधिक बढ़ जाता है। वियोग के कारण मिलाप की उत्कण्ठा अधिक हो जाती है और प्रेमी अनेक प्रकार की कामनायें करता हुआ वड़े चाव से अपने प्रेमपात्र की प्रतीक्षा करता है।

बस यही मेरा मन्देश हैं! इसको मेरी प्रियतमा तक पहुंचा देना-मुझे अपना बन्धु समझकर मेरा यह काम कर देना । तूने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली या नहीं, यह मुझे अव तक ज्ञात ही न हुआ। क्योंकि तू कुछ बोला नहीं। परन्तु मेरी समझ में तेरी चुप का यह अर्थ नहीं कि तुझे इससे इनकार हैं। चातक तुझसे सदाही जलदान की याचना करते हैं । तू उनकी इच्छापूर्ति तो कर देता है, पर बोलता नहीं । विना गरजे ही-विना बोले ही-तू उनका काम करता है । सज्जनां की यही रीति है । वे उत्तर दिये बिना ही अपने प्रेमी-अपने भक्त-याचकों की प्रार्थना सफल कर देते हैं। अमीष्ट कार्य की पूर्वि को हो वे उत्तर समझते हैं
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मेरी अङ्गिनी पर वियोग की यह पहली ही व्यथा पड़ी है। मी में वह बड़ी ही उन झोकाग्नि संपन्न होगी मेरा सन्देस सुना कर उन दुखिया का दुःग्य कम कर देना-उमे धीरज देना । फिर. जिम कैलास-पर्वन के शिवगं का शिवजी का वाहन खेल अपन सीगो से वादा करता है उससे उतर पड़ना : मंः सन्देश सुनाकर जिम नरह तु मंग पत्रा के प्राणों की रक्षा करेगा उनी नरह उनका सन्देश तथा उसका कोई चिद लाकर में भी प्राग की रक्षा करना भूलना मत लौट कर भरे पान अवश्य अाना! कुन्द के कुम्हलाये हुए प्रात:कालीन कुसुम के मदृश में जीबित की रजा तेरे ही हाथ है।

मुझे अपना सखा समझ कर मना न नही व्यथित विधागा समझ कर, अधयाना मी न मही दीन-दुखिया और दया-पात्र समझ कर, मेरा इतना काम कृपा करकं अवश्य कर दना । यह मित्रों ही के करने योग्य है ! मेरी इस विनीत प्रार्थना को मफत कर चुकने पर वर्पा-ऋनु-सम्बन्धिनी शामा में संयुक्त होकर जहां-- जिम देश, जिम प्रान्त में-मेरा जो चाहे वहां आनन्द में विचरण करना : जिस तरह मुझे अपनी प्रियतमा पत्नी के वियोग का दुःख उठाना पड़ा है उस तरह. भगवान करे, तुझे तेरी प्यारी विजली के वियोग का दु:ख कभी, पल भर के लिए भी, न उठाना पड़े


इति ।